18. What is biodiversity? Its importance and types (जैव विविधता क्या हैं? इसके महत्त्व एवं प्रकार)
18. What is biodiversity? Its importance and types
(जैव विविधता क्या हैं? इसके महत्त्व एवं प्रकार)
‘जैव विविधता’ दो शब्दों से बनी है: पहला ‘जैव’, जिसका अर्थ है जीव विज्ञान या जीवित जीवों से संबंधित, और दूसरा ‘विविधता’, जिसका अर्थ है विभिन्न चीजों या विविधता की एक श्रृंखला से। इस प्रकार जैव विविधता आनुवंशिक, प्रजाति और पारिस्थितिकी तंत्र स्तरों पर भिन्नता है। जैव विविधता सभी जीवित चीजों की विविधता है: विभिन्न पौधे, जानवर और सूक्ष्मजीव, उनमें मौजूद विभिन्न आनुवंशिक जानकारी और उनके द्वारा बनाए गए विविध पारिस्थितिक तंत्र।
‘जैव विविधता’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1986 में वाल्टर जी. रॉसेन ने किया एवं जैव विविधता को निम्नलिखित शब्दों में समझाया- “पादपों, जन्तुओं एवं सूक्ष्म जीवों के विविध प्रकार और विभिन्नता ही जैव विविधता है।” निश्चित ही जैव विविधता जातियों की विपुलता (पादपों, जन्तुओं और सूक्ष्म जीवों) है, जो एक अन्योन्य क्रिया तन्त्र की तरह एक निश्चित आवास में उत्पन्न होते हैं।
पृथ्वी पर विभिन्न जीव समुदाय की विभिन्न जातियाँ पायी जाती है। स्थानिक अवस्थिति के बदलते ही पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति भी बदल जाती है जिससे जातियों में विविधता आ जाती है। इन जातियों की संख्या एवं विभिन्नता ही जैव विविधता कहलाती है। पिछले 25 वर्षों में मनुष्य ने विश्व के पौधे और जीव-जन्तुओं के संरक्षण में गहन रूचि लेना प्रारम्भ कर दिया है। इसके अन्तर्गत पृथ्वी सम्मेलन सन् 1992 अति महत्त्वपूर्ण रहा, जिसके अन्तर्गत 1993-94 से 2003-04 को अन्तर्राष्ट्रीय जैव विविधता दशक मनाये जाने का निर्णय लिया और विभिन्न महत्त्वपूर्ण संगठनों ने अपना कार्य प्रारम्भ किया।
सन् 2002 में जोहान्सबर्ग में सतत् विकास पर विश्व सम्मेलन में जैव विविधता और महत्त्वपूर्ण विषय हो गया है। लाखों वर्षों में उत्पन्न हुआ जैविक समुदाय आधुनिक मानव द्वारा संसाधनों के शोषण के कारण नष्ट हो रहा है। जैव विविधता ह्रास का मुख्य कारण जीवों के आवासीय क्षेत्र को क्षति पहुंचाना है; जैसे- वन संसाधनों का शोषण (वन भूमि का घटता क्षेत्र), चारागाहों तथा घास के मैदानों पर कृषि भूमि का दबाव, जन्तु जगत और वनों का अत्यधिक शोषण (शिकार) एवं वृक्षों की कटाई एवं पशुपालन आदि है।
जैव विविधता समस्त पारिवारिक तंत्र के संचालन के लिए अपरिहार्य हैं, जैव विविधता अपने मुख्य दो कार्यों के कारण समस्त पारिस्थितिक तंत्र को पुष्ट करती है।
1. जैवमण्डल का स्थायित्व (Biosphere sustainability) जैव विविधता पर निर्भर करता है। ये जल, मृदा, वायु की रासायनिक संरचना को स्थिर रखती है। इस प्रकार जैव मण्डल के सम्पूर्ण स्वास्थ्य को दृढ़ता प्रदान करती है।
2. जैव विविधता उन वस्तुओं का भी स्रोत है जिन पर जीव अपने भोजन, चारा, ईंधन तथा औषधि आदि के लिए निर्भर होती है।
“जैव विविधता जातियों की विपुलता (जन्तुओं, सूक्ष्म जीवों और पौधों) है जो एक अन्योन्याश्रित क्रिया तंत्र की तरह एक-दूसरे से संबंद्ध है और एक निश्चित आवास में उत्पन्न होते हैं।”
अथवा, “पर्यावरण में जीव-जन्तु, पौधों और सूक्ष्म जीवों के बीच आनुवंशिक (Genetic) जातिगत (Species), और पारिस्थितिक (Ecological) स्तर पर पायी जाने वाली विविधता को जैव विविधता कहते हैं।”
U.S. Office of technology Assessment (1987) के अनुसार जैव विविधता को निम्न प्रकार से पारिभाषित किया गया है- “The variety and variability among living organisms and the ecological complexes in which they occur is called Biodiversity.”
सरल शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि पृथ्वी पर विद्यमान प्रत्येक जाति के जीवों में विविधता, जातियों के मध्य विविधता तथा पारिस्थितिक तंत्रों की विविधता ही जैव विविधता है।
Biodiversity शब्द Biological Diversity का संक्षिप्त रूप है जो पृथ्वी पर जीवन के विविध रूपों को व्यक्त करता है। वर्तमान में पृथ्वी पर जीवों की जो भी जातियाँ पायी जाती हैं, उनके अस्तित्व का कारण लम्बे समय से परिवर्तित होती आ रही दशाओं में स्वयं को अनुकूलित करते रहना है। ये जातियाँ परस्पर क्रियाशील तथा एक-दूसरे से संबंध रखती हैं। जीवों की जातियों का परस्पर संबंध तथा जातियों एवं पर्यावरण का परस्पर संबंध पारिस्थितिक तंत्र को गति एवं दृढ़ता प्रदान करता है।
किसी भी क्षेत्र में पाये जाने वाली जीवों की जातियाँ एक जैविक समुदाय बनाती है जो विभिन्न जातियों के जटिल खाद्य जालों के रूप में होता है। जैविक समुदाय के किसी भी हिस्से में आये व्यवधान से समुदाय के सभी भागों के सदस्यों पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार पारिस्थितिक तंत्र को सुचारू रूप से चलाने एवं उसकी दृढ़ता बनाए रखने के लिए जैव विविधता का होना अत्यन्त आवश्यक है।
जैव विविधता एक ऐसा संसाधन है, जिसे पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता है अर्थात् जो जातियाँ विलुप्त हो जाती हैं उन्हें पुन: उत्पन्न नहीं किया जा सकता है। जातियों के विलुप्तीकरण के अनेक कारण हैं; जैसे प्राकृतिक आवासों का नष्ट होना, विदेशी जातियों का अनियोजित प्रवेश, पादप तथा जन्तु संसाधनों का अधिक मात्रा में उपयोग तथा प्रदूषण।
ऐसा अनुमानित किया गया है कि प्रतिदिन जीवों की कई जातियाँ विलुप्त हो रही हैं। यह विलुप्तीकरण एक गम्भीर विषय है। इस संदर्भ में सन् 1992 में रियो डि जेनेरियो (ब्राजील) में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में भारत सहित 168 देशों ने जैव विविधता पर प्रस्तावित समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस समझौते में जैव विविधता के संरक्षण तथा उसकी वृद्धि करने के प्रयासों पर जोर दिया है।
जैव विविधता के प्रकार
जैव विविधता के प्रकार को प्रायः तीन मुख्य तथा दो गौण स्तरों में बाँटा जा सकता है-
मुख्य प्रकार
(1) आनुवंशिक विविधता (Genetic Diversity)-
आनुवंशिक स्तर पर एक जाति के सदस्यों में पायी जाने वाली विविधता आनुवंशिक विविधता कहलाती है। यह विविधता एक स्थान पर एक जाति की जनसंख्या के व्यक्तिगत जीवों में या इसी जाति के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में वितरित जनसंख्या में हो सकती है; तथा गेहूँ, धान, कपास की विविध किस्में अपने रूप रंग, आकार, स्वाद में मिले होते हुए भी एक ही जीन्स या जाति के हैं।
(2) जातिगत विविधता (Species Diversity)-
पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी प्रकार के जीवों (बैक्टीरिया से लेकर बड़े पौधों एवं जन्तुओं तक) की जातियों की विविधता, जातिगत विविधता कहलाती है। जैसे—घोड़ा, बकरी, भैंस, शेर, कुत्ता विभिन्न जातियों के जीव हैं।
(3) पारिस्थितिक विविधता (Ecological Diversity)-
बड़े स्तर पर जैव विविधता के अन्तर्गत पारिस्थितिक तंत्र के जैविक समुदायों में पायी जाने वाली विविधता पारिस्थितिक विविधता कहलाती है। एक पारिस्थितिक तंत्र एक विशेष प्रकार के जीव-जन्तुओं के प्रारूप को बनाता है। इसलिए पारिस्थितिक तंत्र की विविधता भी जैव विविधता को जन्म देती है; जैसे- विभिन्न भौगोलिक प्रदेशों के जीवों में विविधता मिलती हैं। यथा- भू-रेखीय प्रदेशों या मरुस्थलीय प्रदेशों के जीव-जन्तु।
गौण प्रकार
(1) घरेलू विविधता (Domesticated Biodiversity)-
पालतू पशु एवं घरेलू पेड़-पौधों के जीन्स में मानवीय हस्तक्षेप से अलग तरह के जीव एवं फसलों में विविधता आ रही हैं। यथा- मुर्गियों, बकरियों, गायों आदि की विभिन्न नस्लें या तिलहन, धान, गेहूँ आदि की विभिन्नतायें मानवीय हस्तक्षेप जीन्स में होने से विविधता दिखती है।
(2) सूक्ष्मजीवीय विविधता-
एक सूई की नोंक पर 3-4 करोड़ जीवाणु होना, जैव विविधता समृद्धि ही उल्लेखनीय है।
जैव भौगोलिक प्रदेश (Bio-Geographical Regions)
विभिन्न प्रदेशों में पाये जाने वाले प्राणिजात (fauna) और वनस्पति-जात (flora) की समानताओं तथा विभिन्नताओं के आधार पर विश्व को निम्न छः जैव भौगोलिक क्षेत्रों में उपविभाजित किया गया है-
(i) पेलिआर्कटिक परिमण्डल (palearctic realm) या पुरानी दुनिया,
(ii) निआर्कटिक परिमण्डल (Nearctic realm) या उत्तरी अमेरिका,
(iii) इथियोपी परिमण्डल (Ethiopian realm) या सहारा मरुस्थल से दक्षिण का सम्पूर्ण अफ्रीका,
(iv) प्राच्य परिमण्डल (Oriental realm) या हिमालय से दक्षिण तक का क्षेत्र,
(v) निओट्रॉपिकल परिमण्डल (Neotrapical realm) या दक्षिण तथा केन्द्रीय अमरीका, और
(vi) आस्ट्रेलियाई परिमण्डल (Austrollan realm) या आस्ट्रेलिया एवं संबंधित द्वीपसमूह।
इन छः परिमण्डलों को विश्व के मानचित्र पर नीचे दिखलाया गया है। इन जैव भौगोलिक क्षेत्रों में से अधिकांश समुद्रों, मरुस्थलों और पर्वतों द्वारा एक-दूसरे से पृथक हैं।
भारत का जैव भौगोलिक वर्गीकरण
भारत क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से विश्व का सातवाँ बड़ा क्षेत्रफल वाला देश हैं। विश्व की 2.4 प्रतिशत भूमि भारत के अन्तर्गत है। यह उत्तर से दक्षिण 3214 किलोमीटर तथा पूर्व से पश्चिम 2933 किलोमीटर है। वृहत् क्षेत्रफल 32,87,782 वर्ग किमी० विविध जलवायु और मृदा प्रदेशों के कारण विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों का उद्भव और विकास हो गया है जिससे वनस्पति और जैव जगत में अत्यधिक भिन्नता आ गयी है। साथ ही जैव विविधता के दृष्टिकोण से देश संपन्न हो गया है। यहाँ विश्व की 8 प्रतिशत जैव जातियाँ पायी जाती हैं। जैव विविधता भारत का एक महत्त्वपूर्ण संसाधन और शक्ति है। विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों के आधार पर भारत को निम्नलिखित 10 जैव भौगोलिक क्षेत्रों में वर्गीकृत कर सकते हैं-
1. ट्रांस हिमालय क्षेत्र
2. हिमालयी क्षेत्र
3. रेगिस्तान क्षेत्र
4. अर्ध शुष्क क्षेत्र
5. पश्चिमी घाट क्षेत्र
6. डेक्कन पठार क्षेत्र
7. गंगा के मैदान
8. तटीय क्षेत्र
9. उत्तर पूर्व क्षेत्र
10. द्वीप
1. ट्रांस हिमालय क्षेत्र:-
इस क्षेत्र के अंतर्गत कुल भारतीय भौगोलिक क्षेत्र का 5.6% भाग आता है। ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र में जम्मू और कश्मीर, उत्तरी सिक्किम, लद्दाख और हिमाचल प्रदेश के स्पीति और लाहौल क्षेत्र शामिल हैं। इस क्षेत्र की विशेषता अल्पाइन वनस्पति है और यह जंगली बकरियों और भेड़ों की सबसे बड़ी आबादी का घर है। यहाँ पाए जाने वाले जानवरों में हिम तेंदुए और प्रवासी काली गर्दन वाले सारस सबसे लोकप्रिय हैं। इस क्षेत्र में ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्र का अत्यंत नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र शोधकर्ताओं के लिए अद्वितीय और उल्लेखनीय है।
2. हिमालयी क्षेत्र:-
हिमालय क्षेत्र वनस्पतियों और जीवों के मामले में एक समृद्ध क्षेत्र है और इस क्षेत्र के अंतर्गत कुल भारतीय भौगोलिक क्षेत्र का 6.4 प्रतिशत हिस्सा आता है। यह कुछ सबसे ऊँची चोटियों का भी घर है। इस क्षेत्र में अल्पाइन और उप-अल्पाइन वन, पर्णपाती वन और घास के मैदान शामिल हैं जो कुछ लुप्तप्राय प्रजातियों, जैसे- भरल, आइबेक्स, मार्खोर, हिमालयी तहर और ताकिन का घर हैं। अन्य लुप्तप्राय प्रजातियाँ जैसे हंगुल और कस्तूरी मृग को भी इस क्षेत्र में देखा जा सकता है।
3. रेगिस्तान क्षेत्र:-
रेगिस्तानी क्षेत्र कुल भारतीय भौगोलिक विस्तार का लगभग 6.6% हिस्सा है और इसमें कच्छ और थार रेगिस्तान शामिल हैं। यह काराकल, भेड़िये, रेगिस्तानी बिल्लियों आदि सहित कुछ लुप्तप्राय स्तनधारियों का घर है। इस क्षेत्र में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और होउबारा बस्टर्ड जैसे कुछ पक्षी भी संरक्षण में हैं। घास के मैदानों का विस्तृत विस्तार इस क्षेत्र में लुप्तप्राय स्तनधारियों के अस्तित्व का समर्थन करता है।
4. अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र:-
अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र का विस्तार कुल भारतीय भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 16.6% है। यह पश्चिमी घाट के घने जंगलों और रेगिस्तानों के बीच एक संक्रमण क्षेत्र भी है। प्रायद्वीपीय भारत में जलवायु की दृष्टि से दो बड़े अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों में कई प्राकृतिक और दलदली भूमि और कृत्रिम झीलें हैं। स्वादिष्ट झाड़ियों की परतें और उल्लेखनीय घास के मैदान इस क्षेत्र की विशेषता हैं जो कुछ लुप्तप्राय वन्यजीवों को भोजन और आश्रय देते हैं, जिनमें चीतल और सांभर की गर्भाशय प्रजातियाँ शामिल हैं। शेर (गुजरात तक सीमित), सियार, भेड़िया और कैराकल भी इस क्षेत्र में पाए जाते हैं।
5. पश्चिमी घाट क्षेत्र:-
यह कुल भारतीय भौगोलिक क्षेत्र का 4% है और भारत का एक उल्लेखनीय उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन है। यह भारत के कुल चार में से एक आधिकारिक जैव विविधता हॉटस्पॉट भी है। पश्चिमी घाट में विभिन्न प्रकार की कशेरुक आबादी है, जिनमें से कई प्रकृति में लुप्तप्राय प्रजातियाँ हैं। इसके अलावा इस क्षेत्र में एक विशिष्ट और समृद्ध जीव-जंतु तत्व है जो इस क्षेत्र की विशेषता है।
इस क्षेत्र की मूल निवासी महत्वपूर्ण प्रजातियों में नीलगिरि लंगूर, ग्रिजल्ड जाइंट स्क्विरेल और मालाबार ग्रे हॉर्नबिल शामिल हैं। लायन टेल्ड मकाक, मालाबार सिवेट और नीलगिरि तहर भी पश्चिमी घाट को अपना घर कहते हैं। त्रावणकोर कछुआ और केन कछुआ दो लुप्तप्राय प्रजातियाँ हैं जो मध्य पश्चिमी घाट में पाई जाती हैं।
6. डेक्कन पठार क्षेत्र:-
कुल भारतीय भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 42% हिस्से पर फैले दक्कन का पठार देश का सबसे बड़ा जैव-भौगोलिक क्षेत्र है। यह पश्चिमी घाट के वृष्टि छाया क्षेत्र में पड़ता है। यह एक अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र है और भारत के मध्य प्रदेश, ओडिशा और महाराष्ट्र राज्यों में कुछ बेहतरीन जंगल हैं। इस क्षेत्र में अधिकांश वन पर्णपाती प्रकार के पाए जाते हैं।
हालाँकि, दक्कन के पठार के पहाड़ी क्षेत्रों में अन्य प्रकार के जंगल भी हैं। ख़राब झाड़ियाँ और पर्णपाती और कांटेदार जंगल कई लुप्तप्राय प्रजातियों को आश्रय प्रदान करते हैं। इस क्षेत्र में सांभर, चीतल, चौसिंघा और बार्किंग हिरण जैसी प्रजातियाँ पाई जाती हैं। अन्य प्रजातियाँ जो यहाँ देखी जा सकती हैं उनमें गौर, हाथी, जंगली भैंसा और दलदली हिरण शामिल हैं।
7. गंगा के मैदान:-
यह क्षेत्र कुल भारतीय भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 10.8% है। इसकी सैकड़ों किलोमीटर तक एक समान स्थलाकृति है। यह क्षेत्र अपनी विविध वनस्पतियों और जीवों के लिए जाना जाता है जो इस क्षेत्र की अद्वितीय विशेषता हैं। इस क्षेत्र के जीवों में भैंस, गैंडा, हाथी, हॉग हिरण, दलदली हिरण और हिस्पिड खरगोश शामिल हैं।
8. तटीय क्षेत्र:-
यह कुल भारतीय भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 2.5% है जिसमें मैंग्रोव, रेतीले समुद्र तट, मूंगा चट्टानें और मिट्टी के फ्लैट शामिल हैं। यह क्षेत्र समुद्री एंजियोस्पर्म के लिए भी लोकप्रिय है जो इस क्षेत्र को अद्वितीय और समृद्ध बनाता है। गुजरात से सुंदरबन तक के क्षेत्र का हिस्सा कुल समुद्र तट 5,423 किमी० का विस्तार है। लक्षद्वीप कुल 25 मूंगा द्वीपों से बना है और इसमें एक विशिष्ट रीफ लैगून प्रणाली है जो इसे समुद्री जैव विविधता से समृद्ध बनाती है। हालाँकि, लक्षद्वीप में कोई प्राकृतिक वनस्पति नहीं दिखती है।
9. उत्तर पूर्व क्षेत्र:-
कुल जैव-भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 5.2% को इसमें शामिल करते हुए, उत्तर-पूर्व भारत-मलायन, भारतीय और भारत-चीनी जैव-भौगोलिक क्षेत्रों के बीच संक्रमण क्षेत्र है। यह प्रायद्वीपीय भारत और हिमालय पर्वतों का जंक्शन भी है। इस प्रकार, पूर्वोत्तर देश की जैव विविधता हॉटस्पॉट होने के अलावा भारत की अधिकांश वनस्पतियों और जीवों का प्रवेश द्वार है। इस क्षेत्र में पाई जाने वाली जानवरों की कई प्रजातियाँ इस क्षेत्र की विशेषता हैं या खासी पहाड़ियों की मूल निवासी हैं । यहाँ पाए जाने वाले जीवों के सबसे लोकप्रिय उदाहरणों में से एक एक सींग वाला गैंडा है जो एक लुप्तप्राय प्रजाति है जो मुख्य रूप से असम में पाई जाती है।
10. द्वीप:-
लगभग 0.3% क्षेत्र इसके अंतर्गत आता है, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह भारत में कुल तीन में से एक उष्णकटिबंधीय नम सदाबहार वन का घर है। यह क्षेत्र समृद्ध और विविध वनस्पतियों का घर है जिसमें भारत के कुछ सदाबहार वन शामिल हैं। द्वीप समृद्ध और