44. Types of Soil, Distribution, Causes of Erosion and Methods for Conservation of India (भारत की मृदा के प्रकार, वितरण, अपरदन के कारण एवं संरक्षण के उपाय)
44. Types of Soil, Distribution, Causes of Erosion and Methods for Conservation of India
(भारत की मृदा के प्रकार, वितरण, अपरदन के कारण एवं संरक्षण के उपाय)
मृदा (मिट्टी) पृथ्वी की ऊपरी परत है जो पौधों की वृद्धि के लिये प्राकृतिक स्रोत के रूप में पोषक तत्त्व, जल एवं अन्य खनिज लवण प्रदान करती है। पृथ्वी की यह ऊपरी परत खनिज कणों तथा जीवांश का एक मिश्रण है जो लाखों वर्षों में निर्मित हुई है।
⇒ सामान्यतः मिट्टी की कई परतें होती हैं, जिसमें सबसे ऊपरी परत में छोटे मिट्टी के कण, सड़े-गले हुए पेड़-पौधों एवं जीवों के अवशेष होते हैं। यह परत फसलों की पैदावार के लिये बहुत उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण होती है।
⇒ इस तरह मृदा शैलों के अपक्षयण व विघटन से उत्पन्न भूपदार्थों, मलवा और विविध जैव सामग्रियों का सम्मिश्रण होती है, जो पृथ्वी की सतह (भू-पर्पटी की सतह) पर विकसित होती है।
⇒ दूसरी परत महीन कणों (जैसे-चिकनी मिट्टी) की होती है, जिसके नीचे विखंडित चट्टानें एवं मिट्टी का मिश्रण होता है तथा इसके नीचे अविखंडित सख्त चट्टानें होती हैं। यह कुछ सेमी. से लेकर कई मीटर तक हो सकती हैं।
⇒ पौधों की वृद्धि सामान्यतः 6.0-7.0 pH मान वाले मृदा में होती है। इसी pH मान के मध्य पौधे अपनी सारी क्रियाएँ करते हैं। अधिक अम्लीय अथवा क्षारीय मृदा पौधों के लिये हानिकारक होती है।
⇒ ह्यूमस, खनिज तत्व, जल एवं वायु मृदा के मुख्य घटक होते हैं। इन घटकों का संयोजन (अनुपात) मृदा के प्रकार को निर्धारित करता है।
मृदा परिच्छेदिका (Soil Profile):-
धरातल के ऊपरी सतह से जब नीचे की ओर बढ़ते हैं तो आधारभूत शैल तक मृदा के संघटकों तथा रासायनिक भौतिक गुणों में क्रमशः परिवर्तन होता जाता है। इन परिवर्तनों के आधार पर समस्त मृदामंडल को विशिष्ट स्तरों (distinct layers) में बाँटा गया है। ये स्तर ‘मृदा संस्तर’ (soil horizons) कहलाते हैं।
ये संस्तर मोटे तौर पर मृदा-सतह के समानांतर एवं क्षैतिज अवस्था में होते हैं। मृदा के वैसे लम्बवत् खण्ड (vertical section), जिसमें मृदा के समस्त संस्तर शामिल हों, ‘मृदा परिच्छेदिका’ कहलाते हैं। मृदा परिच्छेदिका को मुख्य रूप से तीन संस्तरों में विभाजित किया जाता है:-
(i) जैविक संस्तर,
(ii) खनिज संस्तर एवं
(iii) आधार शैल संस्तर।
(i) जैविक संस्तर (Organic horizons):-
मृदा परिच्छेदिका का सबसे ऊपरी संस्तर जैविक संस्तर कहलाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अन्य संस्तरों की तुलना में इसमें जैविक पदार्थों की बहुलता होती है। इस संस्तर को दो भागों में बाँटा जाता है:-
(क) O1 संस्तर:-
यह सबसे ऊपरी संस्तर है जिसमें जीवित जैविक पदार्थ (वनस्पति एवं जंतु) के अलावा अनपघटित एवं आंशिक रूप से अपघटित जैविक पदार्थों की बहुलता होती है।
(ख) O2 संस्तर:-
यह O1 के नीचे पाया जाने वाला संस्तर है। इसमें भी जैविक पदार्थों की अधिकता होती है, लेकिन ये अपघटित एवं ह्यूमस रूप में पाए जाते हैं। इसी कारण, इसे ‘ह्यूमस संस्तर’ भी कहा जाता है।
(ii) खनिज संस्तर (Mineral horizons):-
यह जैविक संस्तर के नीचे पाया जाता है। इस संस्तर को तीन भागों में बाँटा जाता है-A संस्तर, B संस्तर एवं C संस्तर।
(क) A संस्तर:-
यह खनिज संस्तर का सबसे ऊपरी स्तर है। इसमें सिलिकेट, एल्युमिनियम, लौह अयस्क, क्ले आदि खनिजों के साथ अल्प मात्रा में अपघटित जैविक तत्व भी पाए जाते हैं। इस संस्तर से खनिज पदार्थों का नीचे की और स्थानांतरण या अपवहन होता है, अतः इसे ‘अपवहन मंडल’ (eluviation zone) भी कहा जाता है।
(ख) B संस्तर:-
संस्तर A से अपवहित होते खनिज पदार्थ इस संस्तर में आकर विनिक्षेपित या जमा हो जाते हैं, अतः इस संस्तर को ‘विनिक्षेपण मंडल’ (illuviation zone) भी कहा जाता है।
(ग) C संस्तर:-
इस संस्तर में आधार शैल के ऋतुक्षरित चट्टानी टुकड़े असंगठित रूप में पाए जाते हैं। इस संस्तर को ‘अद्योस्तर संस्तर’ (subsurface horizon) एवं ‘ग्ले परत’ भी कहा जाता है।
(iii) आधार शैल संस्तर (Parent rock horizons):-
इसे ‘D’ या ‘R’ से संबोधित किया जाता है। ऋतुक्षरण का प्रभाव यहाँ नहीं पड़ता है। अतः आधारभूत चट्टान संगठित एवं दृढ़ रूप में पायी जाती है।
उपर्युक्त वर्णित मृदा-परिच्छेदिका एक आदर्श मृदा परिच्छेदिका का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसी परिच्छेदिका का विकास अत्यंत लम्बी अवधि के बाद तब होता है, जब मृदा-निर्माण की प्रक्रिया अपने आधार शैल क्षेत्र में ही सम्पन्न होती है। एक आदर्श मृदा-परिच्छेदिका में निम्न विशेषताएँ पाई जाती हैं:-
(i) मृदा-परिच्छेदिका में ऊपर से नीचे जाने पर जैविक पदार्थों (जीवित पदार्थ, मृत-अनपघटित या अपघटित पदार्थ तथा ह्यूमस) की मात्रा क्रमशः घटती जाती है।
(ii) ऊपर से नीचे जाने पर वायु की मात्रा क्रमशः घटती जाती है।
(iii) ऊपर से नीचे जाने पर खनिज पदार्थों की मात्रा एवं प्रकार में वृद्धि होती जाती है।
(iv) ऊपर से नीचे जाने पर जल की मात्रा में वृद्धि या हास की कोई निश्चित प्रवृत्ति (trend) नहीं पायी जाती है। किसी भी गहराई पर जल की मात्रा में ह्रास या वृद्धि हो सकती है।
मृदा का प्रकार (Types of Soil)
भारत एक विशाल देश है, जहाँ विभिन्न प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं। यहाँ की मिट्टी के क्षेत्रीय वितरण में असमानता का मुख्य कारण वनस्पति, उच्चावच, तापमान, वर्षा तथा आर्द्रता जैसे जलवायविक तत्त्वों में भिन्नता का होना है।
⇒ मिट्टी में पौधे एवं जंतु निरंतर सक्रिय रहते हैं, जिससे मिट्टी में परिवर्तन होता रहता है इसलिये मिट्टी को गतिशील कार्बनिक एवं खनिज पदार्थों का प्राकृतिक समुच्चय भी कहते हैं।
⇒ मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में उच्चावच, जनक सामग्री (चट्टानें), जलवायु, वनस्पति, समय इत्यादि हैं। मानवीय क्रियाएँ भी मृदा को प्रभावित करती हैं। भिन्न-भिन्न भौगोलिक वातावरण में भिन्न-भिन्न प्रकार की मृदा पाई जाती है।जो निम्न हैं:-
1. जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil):-
जलोढ़ मृदा मूलतः हिमालय से निकलने वाली नदियों के द्वारा लाए गए अवसादों के निक्षेपों से या सागर द्वारा पश्चगमन (पीछे हटने) के उपरांत छोड़े गए गाद से बनी है। इसे ‘काँप मृदा’ या ‘कछारी मिट्टी’ भी कहते हैं।
⇒ भारत के उत्तरी मैदान में जलोढ़ मृदा का सर्वाधिक विकास हुआ है। इसके अतिरिक्त, तटीय मैदान एवं प्रायद्वीपीय भारत के नदी बेसिन एवं डेल्टाई भागों में भी यह मृदा पाई जाती है।
⇒ इस मिट्टी का विस्तार लगभग 15 लाख वर्ग किलोमीटर तक है। भारत में सबसे अधिक भू-भाग पर जलोढ़ मिट्टी ही पाई जाती है।
⇒ विभिन्न स्रोतों से प्राप्त अवसादों के निक्षेपण से इस मृदा का विकास होने के कारण अन्य मिट्टियों की अपेक्षा इसमें खनिज विविधता भी अधिक होती है, जो कृषि के लिये अधिक उपयोगी होती है। इस प्रकार की मृदा पर प्रायः गहन कृषि की जाती है।
⇒ इसमें पोटाश (सर्वाधिक मात्रा) एवं चूने की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है, जबकि फॉस्फोरस, नाइट्रोजन तथा ह्यूमस की कमी होती है।
⇒ जलोढ़ मृदाएँ गठन में बलुई दोमट से चिकनी मिट्टी (मृत्तिका दोमट) की प्रकृति की पाई जाती हैं।
⇒ बलुई दोमट मृदा की जलधारण क्षमता सबसे कम होती है, क्योंकि इसमें भारी मात्रा में रवे होते हैं जबकि चिकनी जलोढ़ मिट्टी में जल धारण की क्षमता सबसे अधिक होती है।
⇒ भारत में जलोढ़ मृदा के अधिकांश क्षेत्र का संबंध अर्द्ध शुष्क जलवायु प्रदेश से होने के कारण ही इनके ऊपर की परतों में क्षारीय तत्त्वों की अधिकता रहती है। इसका रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है जो निक्षेपण की गहराई, गठन व निर्माण में लगने वाली समयावधि पर निर्भर करता है।
⇒ सतलज-यमुना का मैदान, पंजाब, हरियाणा तथा ऊपरी गंगा के मैदान में प्राचीन जलोढ़ मिट्टी (बांगर) पाई जाती है। मध्य एवं निम्न मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ के कारण मृदा का नवीनीकरण होता है। इसे ‘नवीन जलोढ़ मृदा’ अथवा ‘खादर’ कहते हैं। गंगा के मैदानी भागों में इसकी गहराई लगभग 2,000 मीटर तक है।
⇒ इस मिट्टी में मुख्यतः गेहूँ, गन्ना, जौ, दालें, तिलहन और गंगा-ब्रह्मपुत्र घाटी में जूट की फसलें उगाई जाती हैं।
⇒ इस मृदा में सामान्यतः मृदा संस्तर (Soil Profile) नहीं पाया जाता है।
⇒ जलोढ़ मृदा को सामान्यतः 4 वर्गों में विभाजित किया जाता है-
(i) भाबर,
(ii) तराई,
(iii) बांगर,
(iv) खादर
2. लाल-पीली मृदा (Red-Yellow Soil):-
यह भारत की दूसरी प्रमुख मृदा है, जिसका विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ रवेदार आग्नेय चट्टानें (ग्रेनाइट तथा नीस) पाई जाती हैं।
⇒ इसके अतिरिक्त पश्चिमी घाट के गिरिपद क्षेत्रों, ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों तथा मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में भी इस मृदा का विकास हुआ है।
⇒ प्रायद्वीपीय पठार के अधिकांश क्षेत्रों में इस मिट्टी का विकास होने के कारण इसे ‘मंडलीय मृदा’ भी कहते हैं।
⇒ लोहे के ऑक्साइड (मुख्यतः फेरिक ऑक्साइड) की उपस्थिति के कारण ही इस मिट्टी का रंग लाल होता है।
⇒ इस मृदा में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश एवं ह्यूमस की कमी होती है। यह स्वभाव से अम्लीय प्रकृति की होती है।
⇒ महीन कण वाली लाल व पीली मृदाएँ सामान्यतः उर्वर होती हैं, जबकि मोटे कणों वाली मृदाएँ अनुर्वर होती हैं।
⇒ लाल मृदा ऊँची भूमियों पर बाजरा, मूंगफली और आलू की खेती के लिये उपयोगी है, जबकि निम्न भूमियों पर इसमें चावल, रागी, तंबाकू तथा सब्जियों आदि की खेती की जाती है।
3. काली/रेगुर मृदा (Black/Regur Soil):-
इस मृदा का निर्माण दरारी उद्दभेदन से निकले लावा पदार्थों (बेसाल्ट चट्टान) के विखंडन से हुआ है।
⇒ यह भारत की तीसरी प्रमुख मृदा है। इसका सर्वाधिक विकास महाराष्ट्र के ‘दक्कन ट्रैप’ के उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में हुआ है। इसके अलावा यह मध्य प्रदेश के मालवा पठार, गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप, कर्नाटक के बंगलूरू-मैसूर पठार, तमिलनाडु के कोयंबटूर पठार, आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना के पठार और छोटानागपुर के राजमहल पर्वतीय क्षेत्र में पाई जाती है।
⇒ यह मिट्टी कपास की खेती के लिये अधिक उपयोगी एवं विख्यात है, इसलिये इसे ‘काली कपासी मिट्टी’ या ‘रेगुर’ के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त इसे ‘उष्ण कटिबंधीय चेरनोज़म’ व ‘ट्रॉपिकल ब्लैक अर्थ’ भी कहते हैं। उत्तर प्रदेश में इस मृदा को ‘करेल’ की संज्ञा दी जाती है। कपास के अतिरिक्त यह मृदा गन्ना, गेहूँ, प्याज और फलों की खेती करने के लिये अनुकूल है।
⇒ काली मृदा मृणमय, गहरी और अपारगम्य होने के कारण, गीली होने पर चिपचिपी हो जाती है तथा शुष्क होने पर इसमें बड़ी-बड़ी दरारें बन जाती हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी स्वतः जुताई हो गई है इसलिये इसे ‘स्वतः जुताई वाली मृदा’ के नाम से भी जाना जाता है।
⇒ इस मृदा की जलधारण क्षमता अत्यधिक होती है, जिसके कारण सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है। इसकी एक अन्य विशेषता यह है कि शुष्क ऋतु में भी यह मृदा अपने में नमी बनाए रखती है। यही कारण है कि शुष्क प्रदेशों में भी काली मृदा की उपस्थिति के कारण नमी आधारित फसलें उत्पादित की जाती हैं।
⇒ ह्यूमस, एल्युमीनियम एवं लोहा के टाइटेनीफेरस मैग्नेटाइट यौगिक की उपस्थिति के कारण ही इस मिट्टी का रंग ‘काला’ होता है।
⇒ इस मिट्टी में (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व जैव तत्त्वों की मात्रा कम) होती है तथा पोटाश, एल्युमीनियम, मैग्नीशियम कार्बोनेट की पर्याप्त मात्रा) पाई जाती है।
4. लैटेराइट मृदा (Laterite Soil):-
इस मृदा का विकास उन क्षेत्रों में होता है, जहाँ उच्च तापमान एवं भारी वर्षा होती है। अधिक वर्षा के कारण जल के साथ चूना और सिलिका का निक्षालन हो जाता है तथा लोहे के ऑक्साइड और एल्युमीनियम के यौगिक मृदा में शेष बचे रहते हैं।
⇒ यह साधारणतः लाल-भूरे रंग की होती है एवं मुख्य रूप से पश्चिमी घाट के पर्वतों के गिरिपद क्षेत्रों में एक लंबी पट्टी के रूप में केरल (मालाबार प्रदेश), कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा के पठारी क्षेत्रों, राजमहल पहाड़ी क्षेत्रों, छोटानागपुर के पठार, असम के पहाड़ी क्षेत्रों एवं मेघालय के पठार में पाई जाती है।
⇒ उच्च तापमानों में आसानी से पनपने वाले जीवाणु, ह्यूमस की मात्रा को तीव्र गति से नष्ट या समाप्त कर देते हैं, जिसके कारण इसमें जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और कैल्शियम की कमी होती है।
⇒ यह मृदा रबड़ और कॉफी की फसल के लिये सबसे अच्छी मानी जाती है।
⇒ इस मिट्टी में मुख्यतः चाय, कहवा, रबड़, सिनकोना, काजू, मोटे अनाजों एवं मसालों की कृषि की जाती है परंतु इसे कृषि के दृष्टिकोण से कम उपजाऊ मृदा की श्रेणी में रखते हैं।
⇒ यह मृदा सूखने के बाद बहुत कड़ी तथा पथरीली हो जाती है, इसलिये लैटेराइट मृदा का प्रयोग मकान निर्माण के प्रयोग में आने वाले ‘ईंटों’ के निर्माण में भी किया जाता है।
5. पर्वतीय मृदा (Hilly Soil):-
हिमालय पर्वतीय क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी भाग तथा प्रायद्वीपीय भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में यह मिट्टी पाई जाती है।
⇒ इस मृदा के निर्माण पर पर्वतीय पर्यावरण का अधिक प्रभाव पड़ता है। पर्वतीय पर्यावरण में परिवर्तन के अनुरूप मृदा की संरचना व संघटन में भी परिवर्तन होता है। घाटियों में प्रायः यह दुमटी तथा ऊपरी ढालों पर इनकी प्रकृति मोटे कणों वाली होती है; साथ ही ऊपरी ढालों की अपेक्षा निचली घाटियों में ये मृदाएँ अधिक उर्वर होती हैं।
⇒ पर्वतीय मृदा का विकास सामान्यतः पर्वतों के ढालों पर होता है तथा मृदा अपरदन की समस्या से प्रभावित होने के कारण यह पतली परतों के रूप में पाई जाती है। अतः साधारणतया यह अप्रौढ़ (Immature) मृदा है।
⇒ पर्वतीय मृदा अम्लीय प्रकृति की होती है, क्योंकि यहाँ जीवाश्मों की अधिकता होने के बावजूद भी जीवाश्मों का अपघटन नहीं हो पाता है। इसमें पोटाश, फॉस्फोरस एवं चूने की कमी होती है।
⇒ इस मृदा में गहराई कम होती है तथा यह संरध्रयुक्त होती है।
⇒ पहाड़ी ढालों पर विकसित होने के कारण यह मृदा बागानी कृषि, जैसे-चाय, कहवा, मसालों एवं फलों की खेती के लिये बहुत उपयोगी होती है।
6. शुष्क अथवा मरुस्थलीय मृदा (Arid or Desert Soil):-
शुष्क मृदा का विकास अत्यधिक तापमान वाले शुष्क जलवायवीय क्षेत्रों में हुआ है। इन क्षेत्रों में नगण्य वर्षा व अत्यधिक वाष्पीकरण के कारण मृदा में कम नमी तथा कार्बनिक तत्त्वों की अल्पता होने से ह्यूमस का अभाव पाया जाता है। अतः इसे कृषि के दृष्टिकोण से अनुर्वर मृदा के अंतर्गत रखा जाता है।
⇒ यह मृदा देश की कुल मृदाओं का लगभग 4.32 प्रतिशत है।
⇒ पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, पश्चिमी हरियाणा व उत्तरी गुजरात के शुष्क प्रदेशों में यह मिट्टी पाई जाती है।
⇒ इस मृदा में रेत सर्वाधिक मात्रा में पाई जाती है। इसमें कैल्शियम, लोहा और फॉस्फोरस भी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं किंतु नाइट्रोजन एवं ह्यूमस का अभाव होता है, जिसके कारण यह संरचना के दृष्टिकोण से बलुई तथा प्रकृति के दृष्टिकोण से क्षारीय/लवणीय मृदा होती है, जो फसलों के लिये अनुपजाऊ होती है।
⇒ इस मृदा में सामान्यतः कम जल की आवश्यकता वाली फसलों को उगाया जाता है, जैसे-ज्वार, बाजरा, रागी, तिलहन आदि।
7. लवणीय मृदा (Saline Soil):-
लवणीय मृदा का विकास शुष्क व अर्द्धशुष्क जलवायु तथा जलाक्रांत व अनूप क्षेत्रों में होता है। ये मृदा संरचना की दृष्टि से बलुई से लेकर दोमट तक हो सकती है। चूँकि इनमें लवणों की अधिकता होती है, अतः इनमें सोडियम, पोटैशियम व मैग्नीशियम के अनुपात की अधिकता तथा नाइट्रोजन व चूने की अल्पता पाई जाती है।
⇒ लवणीय मृदा को कृषि के दृष्टिकोण से अनुर्वर मृदा के अंतर्गत रखा जाता है, साथ ही इनमें वनस्पतियों का अभाव भी पाया जाता है।
⇒ लवणीय मृदा का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टाओं व सुंदरबन क्षेत्रों में पाया जाता है। इसके अलावा कच्छ के रन में भी लवणीय मृदा का प्रसार पाया जाता है, जिसके लिये दक्षिणी-पश्चिमी मानसून प्रमुख रूप से उत्तरदायी है।
⇒ शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में गहन कृषि के कारण सिंचाई के अतिरेक से केशिकत्व क्रिया को बढ़ावा मिलता है, जिसमें मृदा के ऊपरी परत पर सोडियम, पोटैशियम एवं कैल्शियम के लवणों एवं क्षारों का जमाव होता है। फलतः मृदा न केवल लवणीय मृदा में परिवर्तित हो जाती है बल्कि इसकी उर्वरता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
⇒ पंजाब व हरियाणा के क्षेत्रों में अतिरेक सिंचाई के कारण लवणीय मृदा के प्रसार में वृद्धि हो रही है। जिससे उपजाऊ जलोढ़ मृदा अनुर्वर मृदा में परिवर्तित होती जा रही है। यहाँ इस प्रकार की मृदा को रेह, ऊसर एवं कल्लर कहते हैं।
⇒ जिप्सम तथा पाइराइट का प्रयोग कर लवणीय मिट्टियों को कृषि योग्य बनाया जा सकता है।
⇒ भारत के हरित क्रांति वाले क्षेत्रों में नहरों के आस-पास लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी में अधिक तेजी से वृद्धि हुई है, जिसके कारण बंजर भूमि की समस्या उत्पन्न हुई है।
⇒ इस प्रकार की मृदाओं में बरसीम, धान, गन्ना, अमरूद, आँवला, फालसा तथा जामुन जैसी लवण प्रतिरोधी फसलें व फल वृक्ष लगाये जाते हैं।
8. पीट एवं जैव मृदा (Peat and Biotic Soil):-
इस मृदा का निर्माण नदियों के द्वारा निर्मित डेल्टाई क्षेत्रों में जल का भराव होने के कारण हुआ है।
⇒ इस मृदा में भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन नगण्य होने के कारण अविघटित कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है, जिसके कारण मृदा की अम्लीयता भी अपेक्षाकृत अधिक हो जाती है। यह उच्च लवणीय मृदा है, लेकिन इसमें पोटाश तथा फॉस्फेट की कमी होती है।
⇒ ये अम्लीय स्वभाव की होती है तथा फेरस आयरन होने से प्रायः इनका रंग नीला होता है।
⇒ भारत में पीट मृदा वाले क्षेत्रों में ही ‘मैंग्रोव वनस्पति’ का अधिक विकास हुआ है।
⇒ यह भारत में मुख्यतः केरल के अलप्पुझा ज़िला, उत्तराखंड के अल्मोड़ा एवं सुंदरबन डेल्टा में पाई जाती है।
⇒ यह हल्की उर्वरता वाली फसलों हेतु उपयुक्त मृदा है।
⇒ उपयुक्त दशा में वनस्पति की संवृद्धि के कारण इसमें जीवाश्म के अंश एवं ह्यूमस अधिक मात्रा में पाये जाते हैं, जिस कारण यह मृदा गहरे काले रंग की होती है।
मृदा अवकर्षण (Degradation):-
मृदा में उर्वरता के ह्रास को ही ‘मृदा अवकर्षण’ कहते हैं।
⇒ इसमें मृदा का पोषण स्तर गिर जाता है तथा मृदा के दुरुपयोग एवं अपरदन के कारण मृदा की गहराई या परत की मोटाई कम हो जाती है।
⇒ मृदा अवकर्षण की दर भू-आकृतिक संरचना, पवनों की गति तथा वर्षा की मात्रा के अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न भिन्न होती है।
मृदा अपरदन (Soil Erosion):-
‘मृदा अपरदन’ का तात्पर्य मृदा के ऊपरी संस्तरों का विनाश है। प्राकृतिक व मानवीय गतिविधियों से अपरदनात्मक प्रक्रियाओं द्वारा मृदा की ऊपरी परत का क्षरण होता है, जिसे ‘मृदा अपरदन’ की संज्ञा दी जाती है।
⇒ प्राकृतिक रूप से होने वाले मृदा अपरदन व मृदा निर्माण प्रक्रिया में एक प्रकार का संतुलन पाया जाता है किंतु मानवीय हस्तक्षेप द्वारा इस संतुलन में अव्यवस्था उत्पन्न होने से मृदा अपरदन की दर में वृद्धि होती है।
⇒ मृदा अपरदन के लिये उत्तरदायी अपरदनात्मक कारकों में परिवहित जल, प्रवाहित पवन, कृषि व पशुचारण की अवैज्ञानिक पद्धतियाँ, मानव बस्तियों का निर्माण, खनन व अन्य मानवीय गतिविधियों को शामिल किया जाता है।
मृदा अपरदन के कारण (Causes of Soil Erosion)
(i) निर्वनीकरणः-
वन, पानी के बहाव तथा वायु की गति को कम करता है। वृक्षों की जड़ें मिट्टी को जकड़कर रखती हैं किंतु वृक्षों के अविवेकपूर्ण दोहन तथा कटाई से अपरदन की तीव्रता बढ़ती है।
(ii) अत्यधिक पशुचारणः-
इससे मिट्टी का गठन ढीला हो जाता है। फलतः जलीय एवं वायु अपरदन तीव्र हो जाता है।
(iii) जलीय अपरदनः-
जल द्वारा मिट्टी के घुलनशील पदार्थों को घुलाकर एक स्थान से दूसरे स्थान के लिये परिवहित करना जलीय अपरदन कहलाता है। जल के भार/चोट से उत्पन्न दबाव के कारण मिट्टी का स्थानांतरण ‘जलगति क्रिया’ कहलाती है। इसमें वर्षा की प्रमुख भूमिका होती है, क्योंकि अत्यधिक वर्षा वाले स्थानों में वर्षा के जल तथा बाढ़ से समस्याग्रस्त होने के बाद मृदा अपरदन की संभावना सर्वाधिक होती है।
(iv) वायु अपरदनः-
तीव्र पवनों द्वारा सूक्ष्म कणों को अपने साथ उड़ाकर ले जाना ‘अपवहन’ कहलाता है। मृदा अपरदन चक्रवातों द्वारा भी होता है, जिसमें चक्रवात मिट्टी को उड़ाकर छोटे गर्त बना देते हैं।
भारत में मई तथा जून माह में रबी की फसलों की कटाई के पश्चात् सतलुज-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान की उपजाऊ मिट्टी का भी पवन द्वारा पर्याप्त मात्रा में दोहन/अपरदन होता है।
(v) हिमानी अपरदनः-
हिमालय में हिमरेखा के नीचे बहने वाले बर्फ तथा जल को हिमनद कहा जाता है। ये चट्टानों एवं मिट्टी को काटकर निचली घाटी में जमा कर देते हैं, जिन्हें ‘हिमोढ़’ कहते हैं।
(vi) झूम कृषिः-
झूम कृषि के दौरान जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर कृषि करने के लिये वृक्षों का कटाव किया जाता है तो वनों के कटाव से अपरदन की दर में वृद्धि हो जाती है तथा मिट्टी के पोषक तत्त्व बह जाते हैं।
(vii) भूस्खलन अपरदनः-
भूस्खलन अपरदन पहाड़ी सतह या पर्वतीय ढालै के नीचे धसने के कारण होता है। सामान्यतः भूस्खलन, ढालों पर कटाई, खुदाई या कमजोर भूगर्भ ढाल होने के कारण होता है।
मृदा संरक्षण के उपाय (Methods for Soil Conservation)
मृदा संरक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत न केवल मृदा की गुणवत्ता को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है बल्कि उसमें सुधार की भी कोशिश की जाती है।
⇒ देश में मृदा अपरदन व उसके दुष्परिणामों पर नियंत्रण के लिये 1953 में ‘केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड’ का गठन किया गया जिसका कार्य राष्ट्रीय स्तर पर मृदा संरक्षण के कार्यक्रमों का संचालन करना है।
यांत्रिक उपाय (Engineering Method):-
⇒ मेड़बंदी के अंतर्गत बड़े-बड़े जोत के खेतों में मेड़ बनाकर जल के प्रवाह को कम किया जा सकता है तथा वायु के तेज प्रवाह से होने वाले अपरदन को रोकने में भी यह सहायक होता है।
⇒ मृदा समतलीकरण से जल के बहाव तथा वायु के तेज गति का प्रभाव कम पड़ता है।
⇒ सम्मोच्च रेखीय जुताई पहाड़ों के सबसे ऊँचे ढाल पर की जाती है। इस पद्धति में पहाड़ों से बहने वाले जल को रोकने के लिये समान ऊँचाई वाली रेखाओं से एक प्राकृतिक रूकावट बनाई जाती है, जिससे मृदा का संरक्षण होता है।
⇒ पत्थर के मेड़ चट्टान बांध के अंतर्गत पानी को तेजी से बहने से रोकने के लिये चट्टानों के द्वारा अवरोधक बनाए जाते हैं। चट्टानी बांध बनाने से नालियों की रक्षा होती है तथा मृदा का क्षय भी नहीं होता है।
⇒ बेसिन लिस्टिंग के अंतर्गत ढालों पर एक नियमित अंतराल के बाद लघु बेसिन या गर्त का निर्माण किया जाता है, जो जल प्रवाह को नियंत्रित रखने तथा जल को संरक्षित करने में सहायक होते हैं।
जैविक उपाय (Biological Method):-
फसल चक्र के अंतर्गत अपरदन को कम करने वाली फसलों का अन्य फसल के साथ चक्रीकरण कर अपरदन को रोका जा सकता है। इससे मृदा की उर्वरता भी बढ़ती है।
⇒ पट्टीदार खेती के अंतर्गत इसमें बड़े जोतों के खेतों में पट्टी बनाकर जल प्रवाह के वेग को कम किया जाता है, जिससे मृदा अपरदन कम-से-कम हो।
⇒ पलवार या मल्चिंग के अंतर्गत खेतों में फसल अवशेष की 10-15 सेमी. पतली परत बिछाकर अपरदन तथा वाष्पीकरण को रोका जा सकता है। इससे मृदा का संस्तर सुरक्षित रहता है।
⇒ वर्मी कम्पोस्ट प्राचीन काल से ही किसानों का सबसे हितकारी प्रयोग रहा है क्योंकि यह पूरी तरह से केंचुए पर आधारित है। केंचुए को ‘किसानों का मित्र’ कहा जाता है। ये केंचुए मिट्टी में मौजूद घासफूस और अन्य खरपतवार को खाकर उन्हें खाद बनाते हैं तथा साथ ही मिट्टी को मुलायम और उपजाऊ भी बनाते हैं।
⇒ हरी एवं जैविक खाद के अंतर्गत मृदा संरक्षण को बनाए रखने के लिये खेत में हरी खाद का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया जाता है। परंपरागत रूप में प्रचलित उड़द, सैजी, सनई, कैंचा, मूंग, लोबिया आदि को खेत में बोया जाता है और खड़ी फसल के बीच खेत की जुताई की जाती है। इससे खेत में विभिन्न प्रकार के जैविक तत्त्वों का समावेश हो जाता है, जिससे फसलों की उत्पादकता बढ़ती है। सैजी और सनई की फसल का हरी खाद के रूप में प्रयोग करने से सर्वाधिक मात्रा में नाइट्रोजन प्राप्त होता है।
⇒ कृषि वानिकी के अंतर्गत खेत के चारों तरफ मेड़ों पर दो या तीन पंक्तियों में एक निश्चित दूरी में फसलों के साथ वृक्षों को रोपित किया जाता है। इससे भी मृदा अपरदन को रोकने में सहायता मिलती है।
⇒ वृक्षों की जड़ें मृदा पदार्थों को बांधे रखती है, जो मृदा संरक्षण में सहायक है। अतः सरकार द्वारा सार्वजनिक मार्गों, नहरों, रेल पटरियों इत्यादि के दोनों ओर तीव्र गति से बढ़ने वाली प्रजातियों के वृक्षों को रेखीय पट्टियों के रूप में रोपित कर वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है।
सामाजिक उपाय (Social Method):-
अत्यधिक चराई से पहाड़ी ढालों की मृदा ढीली पड़ जाती है और पानी का बहाव इस ढीली मृदा को बड़ी आसानी से बहा ले जाती है। मृदा अपरदन को रोकने के लिये इन क्षेत्रों में नियोजित चराई से वनस्पति के आवरण को बचाया जा सकता है, जिससे मृदा संरक्षण में सकारात्मक सहयोग हो सके।
⇒ हमारे सामाजिक परिवेश में वृक्षों का कटाव व अत्यधिक दोहन भी मृदा अपरदन का एक कारक है। वनों के कटाव व दोहन का निम्नीकरण करके मृदा संरक्षण में सहयोग किया जा सकता है।
⇒ झूम खेती में जंगलों को काटकर व जलाकर खेती की जाती है, जिससे मृदा की बहुत हानि होती है। इस पर पूर्णतया रोक लगायी जानी चाहिये, जिससे मृदा संरक्षण हो सके।
⇒ लोक सहभागिता के माध्यम से ग्राम पंचायतों से लेकर शहरों तक वृक्षारोपण के प्रति जागरूकता बढ़ानी होगी। गैर सरकारी संस्थाओं को भी इस अभियान से जोड़ना होगा व मृदा संरक्षण के प्रति सराहनीय कार्य करने वाले व्यक्तियों को पुरस्कृत किया जाना चाहिये, जिससे मृदा संरक्षण को प्रोत्साहन मिल सके।