17. Throw light on the ozone layer (ओजोन परत पर प्रकाश डालें।)
17. Throw light on the ozone layer
(ओजोन परत पर प्रकाश डालें।)
विश्व ओजोन दिवस हर साल 16 सितंबर को ओजोन क्षयकारी पदार्थों के उत्पादन और खपत को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संधि मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर करने की याद में मनाया जाता है। यह संधि 16 सितंबर 1987 में हुआ था। इसी तथ्य को मद्देनजर रखकर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 16 सितम्बर को प्रतिवर्ष ओजोन दिवस मनाने का फैसला किया है।
गत 12 दिसम्बर को विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने ओजोन मण्डल के सन्दर्भ में अपनी रिपोर्ट जारी की। इसके अनुसार ओजोन मण्डल के सुराख का आकार पिछले वर्ष की अपेक्षा दूना हो गया है। अब इसका क्षेत्रफल लगभग एक करोड़ वर्ग किमी. अर्थात् यूरोप महाद्वीप के क्षेत्रफल के लगभग बराबर है। ओजोन मण्डल का यह छिद्र अंटार्कटिका क्षेत्र के ऊपर स्थित है, जिसके आकार में जुलाई के अन्त से सितम्बर की शुरूआत के दौरान प्रतिदिन एक प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
पृथ्वी से लगभग 15 किमी. की ऊँचाई पर 24 किमी. मोटी ओजोन गैस की परत है। ओजोन छतरी सूर्य से विकरित पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है। वायुमण्डल में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन है और 21 प्रतिशत ऑक्सीजन नाइट्रोजन एवं ऑक्सीजन दोनों ही आणविक स्थिति में मौजूद होते हैं लेकिन फिर भी ऑक्सीजन के अणु पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में ओजोन में बदल जाते हैं। अत्यधिक क्रियाशील होने के कारण ओजोन नाइट्स ऑक्साइड से मिलकर एक नया रूप धारण कर लेता है। यह क्रिया स्वाभाविक रूप से समताप मण्डल में चलती रहती है परंतु जब वायुमण्डल में कुछ विजातीय परमाणु का आगमन होता है तब इस प्रक्रिया में बाधा भी आ जाती है।
ओजोन परत में छेद हो जाने की जानकारी सर्वप्रथम 1973 में मिली जब कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. शेरी रालैण्ड एवं डा. मैरियो मोलिना को सी. एफ. सी. द्वारा उत्सर्जित क्लोरीन परमाणु के भक्षक प्रकृति का पता चला। सन् 1975 में इस सूचना को जन-सामान्य के लिये भी उपलब्ध करा दिया गया।
वर्ष 1985 में जब ब्रिटिश अंटार्कटिका सर्वेक्षण दल ने तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर ओजोन मण्डल में छिद्र होने की घोषणा की तो सब स्तब्ध रह गये। ओजोन छतरी में छिद्र के आकार में वृद्धि चिन्ताजनक है क्योंकि ओजोन परत में एक प्रतिशत कमी आने का तात्पर्य है कि पृथ्वी पर पहुँचने वाली पराबैंगनी किरणों की मात्रा में 1.3 से 1.5 प्रतिशत की वृद्धि अर्थात् त्वचा कैंसर एवं मोतियाबिन्द की सम्भावना में 2.6 से 3 प्रतिशत की वृद्धि।
पृथ्वी को सूर्य की नुकसानदेह किरणों से बचाने वाली वातावरण की ओजोन परत में चीन के क्षेत्रफल के दो गुने के बराबर छिद्र हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट के अनुसार अंटार्कटिका के ऊपर स्थित यह छिद्र करीब 2 करोड़ 20 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जो चीन के क्षेत्रफल के दोगुने से भी ज्यादा है।
ओजोन परत को रेफ्रिजरेशन में इस्तेमाल होने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) जैसे रसायनों के कारण नुकसान पहुँच रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक क्लाउस टायफर ने कहा कि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले रसायनों और गैसों के इस्तेमाल पर अंकुश लगाकर ओजोन परत की क्षति कम की गयी है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् 2050 तक ओजोन परत सन् 1980 के पहले वाली स्थिति में पहुँच जायेगी।
ओजोन परत में छेद हो जाने से सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणें सीधे पृथ्वी पर पहुँचने लगीं, जो मनुष्य, पशु-पक्षियों, वनस्पतियों तथा समुद्री जीवों को भी नुकसान पहुँचायेंगी। इस वर्ष का संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण पुरस्कार नोबल पुरस्कार विजेता मारियो जे. मोलिना को दिया गया है जो ओजोन पर्त के रसायनशास्त्र की ही विशेषज्ञ हैं।
पृथ्वी का रक्षा कवच- ओजोन परत
सूर्य प्रकाश में सात रंगबैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल होते हैं। वस्तुतः यह सूर्य की किरणों का एक भाग है जिसे हमारी आँखें देख सकती हैं। सूर्य की किरणों का दूसरा अदृश्य भाग जो लाल रंग के बाद होता है अवरक्त या (Infra-Red) किरण कहलाता है। इसी प्रकार बैंगनी रंग के परे जो अदृश्य भाग होता है उन्हें पराबैंगनी या अल्ट्रा वायलेट किरण कहते हैं, जिनकी तरंगदैर्ध्य क्रमश: 7500 A० से ऊपर तथा 4000 A० से कम होती है।
सामान्यतः सभी पराबैंगनी विकिरण जीवों के लिए हानिकारक हैं। परंतु अपने दुष्प्रभावों के आधार पर इन्हें भी A, B और C तीन श्रेणियों में बाँटा गया है। C श्रेणी के पराबैंगनी विकिरण अत्यन्त घातक होते हैं किन्तु B और C श्रेणी के विकिरण पृथ्वी की सतह तक पहुँच ही नहीं पाते। हमारे वायुमण्डल की ऊपरी सतह पर स्थित ओजोन गैस की परत इन्हें रोक लेती है अन्यथा ये धरती पर विनाश कर देते। इस प्रकार गैस का यह ऊपरी घोल पृथ्वी के लिये सुरक्षा कवच, चादर या छतरी का काम करता है।
संतरे के छिलके की तरह पृथ्वी के चारों ओर 800 किमी. मोटी वायुमण्डल की परत है। पृथ्वी का वायुमण्डल गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण पृथ्वी से पृथक नहीं हो पाता।
पृथ्वी सतह से 16 किमी. की ऊँचाई के ऊपर समताप मण्डल में उच्च ऊर्जा वाले पराबैंगनी प्रकाश किरणों की उपस्थिति में ऑक्सीजन के तीन अणुओं से ओजोन के दो अणुओं का निर्माण होता है। ओजोन हमारी प्राणवायु का ही एक अन्य रूप है। साधारण ऑक्सीजन गैस के एक अणु में दो परमाणु होते हैं जबकि ओजोन गैस के एक अणु में तीन परमाणु होते हैं।
यद्यपि ऑक्सीजन और ओजोन एक ही प्रकार के परमाणुओं से मिलकर बने होते है परंतु ऑक्सीजन का ओजोन में परिवर्तन आसान नहीं है। हाँ, B श्रेणी के पराबैंगनी विकिरण यह काम जरूर कर सकते हैं। अतः सूर्य किरणों में उपस्थित इन किरणों को सोखकर ऑक्सीजन ओजोन में बदल जाती है। यही ओजोन अब C श्रेणी के तेज विकिरणों को सोखकर पुनः ऑक्सीजन में बदल जाती है। वायुमण्डल की ऊपरी सतह पर यह प्रक्रिया सतत् चलती रहती है।
प्राकृतिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ऊँचाई पर ओजोन का अनुपात बढ़ता जाता है। ओजोन गैस 23 से 30 किमी. तक की ऊँचाई में सघन रूप में पायी जाती है। यद्यपि ओजोन गैस 48 किमी. तक विरल मात्रा में मिलती है। अपने स्वभाव के अनुसार यह गैस सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को सोख लेती है। यह अवशोषण 20 से 40 किमी. ऊँचाई के मध्य सबसे अधिक होता है जिससे इस परत का तापमान प्रति किमी. ऊँचाई पर 16 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है। पृथ्वी पर जीवन ही नहीं होता यदि यह रक्षाकवच वायुमण्डल में नहीं होता।
विश्व में अंटार्कटिका महाद्वीप (दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र) के ऊपर ओजोन परत में बढ़ता छिद्र सन् 1985 से चिन्ता का विषय बना हुआ है। इसी वर्ष बढ़ते क्षेत्र को प्रमाणित ब्रिटिश वैज्ञानिक जे. फोरमेन ने किया था। नवीनतम शोधों के अनुसार पता लगता है कि यह छेद और बड़ा होता जा रहा है, साथ ही कनाडा, पश्चिमी यूरोप, रूस, न्यू इंग्लैण्ड के उत्तरी भाग, स्केन्डिनेविया, प्रायद्वीप में नार्वे और स्वीडन के ऊपर भी विशाल क्षेत्र बनने की आशंका पैदा हो गयी है।
आधिकारिक रिपोर्टों के अनुसार पृथ्वी में ओजोन मण्डल का ह्रास जारी है। ह्रास की यह दर प्रति दशक उत्तरी और दक्षिणी मध्य अक्षांश में लगभग पाँच प्रतिशत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्यावरण में क्लोरीन गैस के स्तर का निरंतर बढ़ना जारी है, हालांकि यह दर 1980 में 2.9 प्रतिशत की तुलना में 1994 में अपेक्षाकृत 1.6 प्रतिशत ही बढ़ी।
ओजोन परत का ह्रास : कारण और प्रभाव
ओजोन मण्डल के ह्रास में निरंतर कमी आने की वजह अन्तर्राष्ट्रीय दबाव रहा है। यह समस्या मांट्रियल समझौते के बावजूद बनी हुई है क्योंकि औद्योगिक क्षेत्र में क्लोरीन गैस की प्रचुरता 1998 तक अत्यधिक होने की आशंका व्यक्त की गई है और उसके बाद स्थिति के पूर्ववत् होने में लगभग 50 वर्ष तक लग जाएंगे। इसके साथ ही विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यदि माँट्रियल समझौते का व्यावहारिक कार्यान्वयन नहीं किया गया तो क्लोरीन गैस का स्तर आगामी 50 वर्ष में समताप मण्डल पर लगभग नौ प्रतिशत तक बढ़ जाएगा।
पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार ओजोन मण्डल के स्तर में 1.3 प्रतिशत ह्रास का परिणाम धरातल पर सूर्य का हानिकारक पराबैंगनी विकिरण का 1.8 प्रतिशत की वृद्धि होना है।
भारत और ओजोन परत-
वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि भारत के ऊपर ओजोन परत अभी तो सुरक्षित है परंतु दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्रों में पराबैंगनी किरणें काफी मात्रा में बढ़ रही हैं। भारतीय वैज्ञानिक दक्षिण भारत के तटीय इलाकों में बढ़ती पराबैंगनी किरणों से चिंतित हैं। उनकी राय में पराबैंगनी किरणों की अधिकता ओजोन परत में कमी या छेद होने का संकेत देती है। हालांकि एक विचार यह भी है कि पराबैंगनी किरणों का कारण भौगोलिक स्थिति है न कि ओजोन स्तर में कमी।
भारत में ओजोन का स्तर 240 से 350 डॉब्सन यूनिट के बीच है। जबकि अन्य देशों में ओजोन परत में बहुत अधिक कमी आयी है। वहाँ ओजोन का स्तर 110 से 115 डाब्सन यूनिट के बीच पहुँच गया है। ओजोन नेटवर्क के पाँच स्टेशन- श्रीनगर, दिल्ली, वाराणसी, पुणे, त्रिवेन्द्रम में हैं जो कुल ओजोन को मापने के लिये जमीन के उपकरण का इस्तेमाल करते हैं।
सतही ओजोन की लगातार रिकार्डिंग करने के लिये इन पाँच स्टेशनों में से तीन स्टेशन (दिल्ली, पुणे और त्रिवेन्द्रम) ऐसे हैं जो ओजोन वितरण का लम्बात्मक स्वरूप जानने के लिये गुब्बारे वाली ओजोन सोडे का इस्तेमाल करते हैं। देश में वायु प्रदूषण की पृष्ठभूमि की मानीटरिंग करने के लिये दस स्टेशन खोले गये हैं जिनका उद्देश्य वायुमण्डलीय तत्त्वों के जमाव से सम्बन्धित क्षेत्रीय स्वरूपों का पता लगाना है। इस विभाग की सहायता से भारतीय प्रौद्योगिकीय संस्थान, नई दिल्ली में स्थित वायुमण्डलीय विज्ञान केन्द्र भारत पर वायुमण्डलीय स्थिति, ओजोन और वायु प्रदूषण के क्षेत्रों में विभिन्न अध्ययन कर रहा है।
क्लोरोफ्लोरो कार्बन और ओजोन परत-
इसके अन्तर्गत कार्बन से जुड़े हुए हाइड्रोजन, क्लोरीन, फ्लोरीन के परमाणु होते हैं, जब ये वायुमण्डल की ऊपरी सतह पर पहुँचता है तब सूर्य की पराबैंगनी किरणें सी. एफ. सी. अणुओं को तोड़ती हैं। फलस्वरूप क्लोरीन तथा अन्य परमाणुओं से अलग होते हैं जो ओजोन परत के लिए घातक हो जाते हैं। क्लोरीन का एक परमाणु ओजोन के अणुओं से प्रतिक्रिया कर इसे ऑक्सीजन में बदल देता है। यह प्रक्रिया एक श्रृंखला के रूप में चलती है।
इस तरह क्लोरीन परमाणु ओजोन अणुओं को लगातार तोड़ते रहते हैं अर्थात् क्लोरोफ्लोरोकार्बन का एक अणु, ओजोन गैस के एक लाख अणुओं को नष्ट करता है। पृथ्वी के रक्षा कवच (ओजोन परत) में ह्रास से विश्व की यह समस्या भयावह रूप ले रही है। जून 1992 के रीओडीजैनेरो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में आये वैज्ञानिकों द्वारा इस सम्बन्ध में भारी चिन्ता व्यक्त की गयी थी।
ओजोन परत को नष्ट करने वाले उद्योग एवं प्रमुख देश-
क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उपयोग औद्योगिक क्षेत्रों में सबसे अधिक किया जाता है। प्रशीतन (रेफ्रिजरेटर), एयर कण्डीशनर, हेयर डाई तथा सुगंध का छिड़काव करने से क्लोरोफ्लोरो कार्बन निकलती है। वायु विलय (एरोसोल) पेन्ट, उर्वरकों के निर्माण करने वाले कारखानों, प्लास्टिक पैन तैयार करने, धमनकारी के रूप में प्रयुक्त करने पर यह बड़ी मात्रा में निकलती है।
इसके अतिरिक एयरोस्पेस, इलेक्ट्रॉनिक, ऑप्टीकल तथा फार्मेसी उद्योगों में वृहत् स्तर पर इसका उत्पादन होता है। इसके साथ हवाई जहाजों से भी यह रिसती है। शीत युद्ध के दौरान सुपरसोनिक विमान आसमान में 15-29 किमी. की ऊँचाई पर उड़कर सीएफसी छोड़ते हैं। अणु बम का विस्फोट भी ओजोन परत का घातक है।
सातवें दशक में विश्व में सीएफसी का वार्षिक उत्पादन मात्र 6 लाख टन के लगभग था। 8वें दशक के अन्त तक यह सोलह गुने से अधिक हो गया अर्थात् 1 अरब टन में हो गया। उपग्रहों ने ओजोन परत के ह्रास के चिन्ताजनक चित्र उपलब्ध कराये हैं।
वर्तमान विश्व में सीएफसी का वार्षिक उत्पादन 7,50,000 मीट्रिक टन है। इसमें से मात्र विकसित देशों में इसका उत्पादन और उपयोग 88 प्रतिशत से अधिक है। अकेले संयुक्त राज्य अमेरीका 97.4 प्रतिशत, पश्चिमी यूरोप 96.70 प्रतिशत, जापान 12.4 प्रतिशत, पुराने साम्यवादी देश 2.2 प्रतिशत, शेष दुनिया के देश 4.1 प्रतिशत भारत और चीन ओजोन सतह के लिए हानिकारक रसायनों का उत्पादन विश्व के कुल उत्पादन का 3 प्रतिशत ही करते हैं। मिथाइल क्रोमाइड भी ओजोन के लिये अन्य घातक गैस है।
सी. एफ. सी. के उत्पादन का वर्तमान और भविष्य-
सी. एफ. सी. का वर्तमान वार्षिक उत्पादन 7,50,000 मीट्रिक टन है। अमेरीका में इसका उपयोग 3,000 ग्राम प्रति व्यक्ति है जबकि भारत में प्रति व्यक्ति खपत मात्र 10 ग्राम है। यद्यपि भारत में भी तीव्र औद्योगीकरण हो रहा है जिसमें सी. एफ. सी. का उपयोग-उत्पादन भी होगा।
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वायुमंडल में कुछ ओजोन-घटाने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सी.एफ.सी.) की सांद्रता वर्तमान में तेजी से बढ़ रही है, बावजूद इसके कि इन रसायनों के उत्पादन पर 2010 से विश्व स्तर पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
सी.एफ.सी. का उपयोग आमतौर पर रेफ्रिजरेंट्स, एयरोसोल प्रोपेलेंट और सॉल्वैंट्स में किया जाता था जब तक कि उन्हें ओजोन परत के विनाश के पीछे प्रेरक शक्ति के रूप में नहीं खोजा गया था। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत, उनका उत्पादन 1989 से 2010 तक चरणबद्ध तरीके से बंद कर दिया गया था।
लेकिन ब्रिटेन के ब्रिस्टल विश्वविद्यालय में ल्यूक वेस्टर्न एवं उनके सहयोगियों ने 2010 और 2020 के बीच पाँच सी.एफ.सी. रसायनों की वैश्विक वायुमंडलीय सांद्रता में तेज से वृद्धि का खुलासा किया है, जो यह संकेत दे रहा है कि कुछ कारखानों में अभी भी उनका अवैध रूप से उत्पादन किया जा रहा है।
दुनिया भर के 14 माप स्थलों से डाटा का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने पाया कि सी.एफ.सी.-112A, सी.एफ.सी.-113, सी.एफ.सी.-113A, सी.एफ.सी.-114A और सी.एफसी.-115 की सांद्रता 2010 के बाद से बढ़ी है, जो 2020 में वायुमंडल में रिकॉर्ड उच्च बहुतायत तक पहुँच गई है। वेस्टर्न ने एक प्रेस ब्रीफिंग में कहा कि उत्सर्जन में बढ़ोतरी से ओजोन परत की रिकवरी में उल्लेखनीय बाधा आने की संभावना नहीं है, जिसके 2060 के दशक तक पूरी तरह से ठीक होने की उम्मीद है , लेकिन सी.एफ.सी. गैसों के ग्रह-वार्मिंग प्रभाव का मतलब है कि परिणाम चिंता का विषय हैं।
ओजोन छेद से निसृत पराबैंगनी किरणों के प्रभाव
1. मनुष्यों पर:-
(i) त्वचा पर-
यदि ओजोन परत में एक प्रतिशत ओजोन गैस घटती है तो पृथ्वी पर दो प्रतिशत त्वचा कैंसर बढ़ता है। चूँकि ओजोन परत में सबसे बड़ा छेद दक्षिणी ध्रुव के पास है अतः आस्ट्रेलिया में “मेलानोमा कैंसर से मरने वालों की संख्या सर्वाधिक है। किरणें जिनकी तरंगदैर्घ्य 250-350 एन. एम. एस. होती है, त्वचा कैंसर के लिए उत्तरदायी हैं। गोरी चमड़ी वालों पर यह अधिक प्रभावी सिद्ध हुई है।
(ii) आँखों पर-
मोतियाबिन्द (कैटरिक्ट) आँखों के लैंसों में धुंधलापन तथा आँखों में असाध्य दृष्टि दोष और अंधापन उत्पन्न होता है। सन् 1990-91 से आँखों की बीमारियों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है अर्थात् 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
(iii) प्रतिरोधक तंत्र पर-
प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास होने से संक्रामक रोगों की आशंका बढ़ जाती है।
2. कृषि एवं वनस्पतियों पर:-
250 से 350 एन. एम. एस. (नैनोमीटर तरंगदैर्ध्य की इकाई) तरंगदैर्घ्य वाली पराबैंगनी किरणें, यू. बी. बी. सबसे ज्यादा फसलों, मानसून प्रणाली एवं वनस्पतियों को प्रभावित करती हैं। इन किरणों का प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर प्रभाव पड़ने से फसलें और वनस्पतियाँ नष्ट होंगी जिससे उपज भी कुप्रभावित होती है।
3. समुद्री जीवों पर:-
विकिरण का कुप्रभाव फाइटोप्लेंकटन पर पड़ता है जो मछलियों का प्रमुख खाद्य पदार्थ है। इसकी संख्या में ह्रास हो जाता है। अतः भविष्य में मछलियों एवं अन्य सामुद्रिक जीवों के उत्पादन में भारी कमी आ सकती है।
4. स्वास्थ्य पर:-
हाल ही में की गई एक खोज से पता चला है कि ओजोन स्तर में वृद्धि का सम्बन्ध शहरी क्षेत्रों के लोगों की मौत से है। वाहनों से निकलने वाला धुआँ और पावर स्टेशनों से हुआ प्रदूषण ओजोन का स्तर बढ़ाता है। फलस्वरूप अस्पतालों में अस्थमा और फेफड़ों से सम्बन्धित रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है।
5. जलवायु पर:-
धरती से लगभग 20 किमी. के ऊपर ओजोन की परत है जो लगभग 2 प्रतिशत ताप अवशोषित करती है। जिससे इस परत का तापमान ऊपर जाने पर बहुत तेजी से (16 डिग्री सेल्सियस प्रति किमी. की दर से) बढ़ता है। इसी ऊँचाई पर जैट स्ट्रीम (संकरे चैनल) में तेज गति से वायु प्रभावित होती है जो मानसूनी हवाओं को प्रभावित करती है जिससे जलवायु परिवर्तन का क्रम परिलक्षित होता है।
सी. एफ. सी. का विकल्प:-
कम तरंगदैर्घ्य का यू.बी.सी. (100-280 एम. एम. एस.) पराबैंगनी किरणों को, कार्बन डाइ ऑक्साइड तथा पानी और ऑक्सीजन अवशोषित करती है। इसके साथ ही कुछ और भी गैसें हैं जो पराबैंगनी किरणों का अवशोषण करती हैं। सी. एफ. सी. के अन्य विकल्पों में हाइड्रोक्लोरो कार्बन, हाइड्रो कार्बन तथा अमोनिया गैस है, इसके साथ ही हाइड्रो क्लोरो कार्बन भी है। इसका उपयोग क्रमशः उद्योगों और रेफ्रीजरेटरों में किया जा रहा है।
सी. एफ. सी. पर प्रतिबन्ध:-
अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सन् 1987 में मांट्रियल प्रोटोकाल के तहत विकसित देशों को सन् 2000 तक 50 प्रतिशत सी. एफ. सी. के उत्पादन में कमी लानी है। दूसरा प्रयास अगस्त 1990 में लंदन में किया गया जिसमें 1995 तक सी. एफ. सी. की पूर्ण समाप्ति के लिये प्रस्ताव रखा गया था। विकासशील देशों को 10 वर्ष का अतिरिक्त समय दिया गया था।
संशोधन में सी. एफ. सी. के कई अन्य पदार्थ शामिल किये गये। कार्बन ट्रेटा क्लोराइड और क्लोरोफार्म भी इस नई सूची में शामिल किये गये। जून 1992 में रियोडीजैनेरो (ब्राजील) में पश्चिम के देश जैव विविधता के सिद्धांत पर सहमत नहीं हुए। पूरब के देश क्लोरो फ्लोरो कार्बन के उपयोग पर प्रतिबन्ध नहीं चाहते। अतः भविष्य में इसका उत्पादन कम होगा, इसमें आशंका है।
निष्कर्ष:-
संक्षेप में कहा जा सकता है कि क्लोरो फ्लोरो कार्बन का एक अणु ओजोन गैस के एक लाख अणुओं को नष्ट करता है और यदि ओजोन गैस एक प्रतिशत घटती है तो पृथ्वी पर दो प्रतिशत त्वचा कैंसर और अंधत्व की बीमारियाँ बढ़ जाती हैं। पराबैंगनी किरण मनुष्य की प्रतिरक्षा प्रणाली पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और वह साधारण सी बीमारियों का भी मुकाबला नहीं कर पाता।
पराबैंगनी किरणों का प्रभाव हमारे गुणसूत्रों (जीन्स) पर भी पड़ता है, और आने वाली पीढ़ी विकलांग, मानसिक रोगी अथवा विक्षिप्त भी हो सकती है। यह विकिरण वनस्पति पर भी अपना कुप्रभाव डालते हैं।
अतः संक्षेप में कह सकते हैं कि पृथ्वी की ओजोन परत तेजी से बिगड़ रही है और वह अपना प्राकृतिक स्वरूप खोती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र से सम्बद्ध मौसम अभिकरण ने यह बात कही है। ज्ञातव्य है कि वायुमण्डल में प्राकृतिक रूप से बनी ओजोन आकाश में अपनी परत और फिर मण्डल बनाकर सूर्य की नुकसानदेह पराबैंगनी किरणों से हमारी एवं जीव-जन्तुओं और मवेशियों तथा सम्पूर्ण वनस्पति जगत की रक्षा करता है।
संयुक्त राष्ट्र के अभिकरण के अनुसार ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने में उद्योग-धन्धों से निकलने वाली कई गैसें मुख्यतया जिम्मेदार हैं। इसके कारण लोगों में त्वचा कैंसर तथा मोतियाबिन्द का खतरा बढ़ता जा रहा है। ओजोन परत में छेद होने का पता पहली बार नौवें दशक में दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में चला तब से ओजोन स्तर के खराब होने की स्थिति प्रतिवर्ष बदस्तूर बनती जाती है। बताया गया है कि तीव्र सर्दी तथा सूर्य की रोशनी मिल करके ओजोन की परत को सबसे अधिक खराब करती है।
ओजोन के लिये संयुक्त राष्ट्र मौसम संगठन के सलाहकार डारूमेन बोजकोव के अनुसार ओजोन परत का ह्रास एक खतरनाक मोड़ ले लेता है, जबकि समताप मण्डल का तापमान बहुत कम हो जाता है। ज्ञातव्य है कि वायुमण्डल में ओजोन मण्डल के कम होने से क्लोरीन का स्तर बढ़ जाता है। यह क्लोरो फ्लोरो कार्बन में मिलता है। दक्षिण ध्रुव क्षेत्र में निरीक्षण जांच स्थलों से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार विश्व मौसम संगठन के क्षेत्र में सितम्बर और अक्टूबर में ओजोन स्तर के ह्रास का मापन किया।
विश्व मौसम संगठन के प्रवक्ता एराह डाल गोर ने कहा है कि हम ओजोन परत के बारे में यथासम्भव नया रिकार्ड देख रहे हैं। उन्होंने कहा कि वायुमण्डल में 17 किमी. की ऊँचाई पर ओजोन की स्थिति काफी चिन्ताजनक है।
विश्व मौसम संगठन में पर्यावरण अनुसंधान के निदेशक फ्रीडेरिक डेल्सोल ने कहा कि ओजोन मण्डल में मामूली क्षेत्र में बिगड़ाव का उतना दूरगामी प्रतिकूल असर नहीं छोड़ता, परंतु ओजोन स्तर में बिगड़ाव की व्यापक प्रवृत्ति दिख रही है, उन्होंने कहा कि विगत चार वर्षों में ओजोन परत के छिद्र का आकार बढ़कर दो गुना हो गया है। ज्ञातव्य है कि संयुक्त राष्ट्र का यह अभिकरण ओजोन के स्थल की जाँच पिछले चालीस वर्ष से करती आ रही है।