10. What do you understand by Soil Pollution? Throw light on its classification, Causes, Effects and Control Measures. (मृदा प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसके वर्गीकरण, कारण, प्रभाव तथा नियंत्रण के उपाय पर प्रकाश डालें।)
10. What do you understand by Soil Pollution? Throw light on its classification, Causes, Effects and Control Measures.
(मृदा प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसके वर्गीकरण, कारण, प्रभाव तथा नियंत्रण के उपाय पर प्रकाश डालें।)
जब मिट्टी में भौतिक और रासायनिक तत्व मिलकर मिट्टी को कृषि के दृष्टिकोण से अनुपयुक्त बना देते हैं अथवा उसका समुचित उपयोग नहीं हो पाता है तो वह मिट्टी प्रदूषित मानी जाती है। मिट्टी के प्रदूषित होते ही वृक्षों की जीवन शक्ति भी घट जाती।
मृदा प्रदूण से फसलों का रूप- रंग, आकार, प्रारूप, उत्पादन सभी कुछ कुप्रभावित होना स्वाभविक ही है। मिट्टी की प्राकृतिक गुणवत्ता में ह्रास, खरपतवार में वृद्धि और कीटाणुनाशकों का अत्यधिक उपयोग भारत के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। खरपतवार नाशकों का उपयोग अवांछित वनस्पतियों को समाप्त करने के लिए किया जाता है। जिससे मिट्टी को मिलने वाली जीवांश की मात्रा भी भविष्य में घट जाती है। कीटनाशक पदार्थ और औद्योगिक निसृति पदार्थों से बहुत से स्थानों की मिट्टियाँ अम्लीय अथवा क्षारीय हो गयी हैं जिससे वनस्पति जगत प्रत्यक्षतः प्रभवित हुआ है।
रासायनिक प्रदूषण मृदा के सन्दर्भ में सबसे अधिक भयावह है। औद्योगिक अपशिष्ट मृदा में ऐस खनिज लवणों की मात्रा बढ़ा देते हैं जिससे कोई वनस्पति उगने ही नहीं पाती। साथ ही रासायनिक पदार्थ मृदा में उपस्थित सहजीवी जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं जिससे नाइट्रोजन यौगिकीकरण प्रभावित होता है। एक बार प्रयोग किये गये रसायन अनेक वर्षों तक मृदा में विद्यमान रहते हैं।
मिट्टी की उपयोगिता और गुणवत्ता में ह्रास, मानवीय एवं प्राकृतिक क्रियाओं का सम्मिलित परिणाम है। यथा वनों का निरन्तर ह्रास, खनन, अनियन्त्रित पशुचारण, भू-क्षरण से बीहड़ भूमि (खड्ड भूमि) का उद्भव हुआ है।
भारत के विशेष संदर्भ में भू-क्षरण, जलमग्नता (जलाक्रान्त) एवं ऊसर भूमि की समस्या उल्लेखनीय है- देश की कुल कृषि भूमि का 28 प्रतिशत क्षेत्र इन समस्याओं से ग्रसित हैं, वर्षा में औसतन 20 टन मिट्टी प्रति हेक्टेयर वह जाती है। हमारे देश में प्रत्येक वर्ष अनुमानत: 53.340 लाख टन मिट्टी का क्षरण हो रहा है यानि 2800 करोड़ रुपये का नुकसान है।
इस प्रकार भू-क्षरण एक स्थायी नुकसान है। आज भी भारत की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है। लगभग 70 प्रतिशत लोग तथा 45 प्रतिशत भूमि अप्रत्यक्षतः कृषि में लगी है। यदि इसमें कृषि, कृषक मजदूर, आलिया, व्यापारी, पल्लेदार आदि को भी जोड़ ले तो यह प्रतिशत लगभग 75 पहुँच जाता है। देश के 76 प्रतिशत लोग ग्रामों में रहते हैं, जिनका मुख्य उद्यम कृषि है।
राष्ट्रीय आय का लगभग 33 प्रतिशत भाग कृषि से ही संबद्ध उत्पाद है। कृषि निर्यात व्यापार में 32 प्रतिशत का योगदान रखता है। यहाँ के प्रमुख बड़े उद्योग कृषि से प्राप्त कच्चे माल पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरूदंड कृषि और बोये गये 14 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में से लगभग 8 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र न्यूनाधिक रूप से भू-क्षरण से ग्रसित है। कृषि भूमि के 60 प्रतिशत भू-भाग को संरक्षण की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से जल एवं वायु दोनों के द्वारा मृदा अपरदन हो रहा है।
जल भू-क्षरण ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों- तिस्ता, हुगली, गण्डक, गंगा, यमुना और चम्बल नदियों के किनारे सर्वाधिक हो रहा है। योजना आयोग के प्रतिवेदन के अनुसार महाराष्ट्र- 138.6, आन्ध्र प्रदेश- 90.9, कर्नाटक- 80.9 तथा गुजरात का 73 लाख हेक्टेयर क्षेत्र अनुपजाऊ हो गया है। गहरे चम्बल के बीहड़ों से लगभग 18 लाख एकड़ भूमि अनुपयोगी हो चुकी है। इसमें से 6 लाख हेक्टेयर भूमि भिण्ड, मुरैना तथा ग्वालियर जिलों में आवास तक के लिये अनुपयुक्त हो गयी है।
एक इंच मिट्टी को बनाने में प्रकृति को 100 से 500 वर्ष तक लग जाते हैं। नाली कटाव इस प्रकार भविष्य में भूमि उपजाऊ शक्ति, मृदा की किस्म, भूमि-जल स्तर, वनस्पति और कृषि को कुप्रभावित करेगा। गंगा-यमुना के उपजाऊ दोआब से नदियाँ धीरे-धीरे मैदानों में गहरी नालियाँ बनाकर मिट्टी की उर्वरा शक्ति का ह्रास कर रही हैं। दोआब में तीव्र सतही कटाव देखा जा सकता है।
भारत का लगभग 40 लाख हेक्टेयर क्षेत्र भू-क्षरण से क्षतिग्रस्त हो गया है। इस समस्या से ग्रसित राज्य उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान तथा गुजरात हैं । चम्बल, यमुना, माही, साबरमती और उसकी सहायक नदियों के किनारे लगभग 50 से 60 लाख हेक्टेयर भूमि इससे प्रभावित हुई तथा चम्बल के प्रवाह क्षेत्र के 10 प्रतिशत गाँव उजड़ गये। आशंका है कि भारत कृषि भूमि का एक-तिहाई भाग अगले 20 वर्षों मे भू-भाग समस्या ग्रस्त हो जायेगा।
मृदा प्रदूषण के कारण
(Causes of Soil Pollution)
जब मृदा अपने मूल स्वभाव वनस्पति जनन में अथवा कृषि कार्य के लिए अनुपयुक्त हो जाती है तो मृदा प्रदूषित कहलाती है। यहाँ मृदा की गुणवत्ता क्षय दो तरह से हो सकता है-
ऋणात्मक क्षय-
इसमें मृदा के महत्त्वपूर्ण अंग खनिज जल में घुलकर अथवा जीवांश ग्रहकर निकल जायें जिससे मृदा उपजाऊपन घट जाता है। यह प्रक्रिया प्राकृतिक कारकों से होती है।
धनात्मक क्षय-
जब मृदा में कोई विजातीय तत्व मिलकर उसकी गुणवत्ता में अवनयन कर दें। यह मानवीय, नगरीय अथवा औद्योगिक क्रिया-कलाप के परिणामस्वरूप होता है। इस प्रकार प्रदूषण के कारकों को दो वृहद् वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-
1. भौतिक कारक,
2. मानवीय कारक।
1. भौतिक कारक- जलवायु एवं भौगोलिक स्थिति में अनुरूप होता है। इसके अन्तर्गत-
(अ) भू-क्षरण,
(ब) जललग्नता,
(स) कांस घास,
(द) उच्च तापमान।
(अ) भू-क्षरण- इसके दोनों सतही एव नालीदार कटाव में मृदा की ऊपरी परत का क्षरण हो जाता है। नालीदार कटाव से समस्त क्षेत्र “मृत भूमि” में बदल जाता है। जैसे- म. प्र. में चम्बल के बीहड़।
(ब) जलाक्रान्त (जललग्नता)- जब भू-जल स्तर भू-सतह पर आ जाता है तो स्थायी दलदल हो जाता है और भूमि कृषि के अयोग्य हो जाती है। जैसे उ. प्र. के तराई क्षेत्र।
(स) कांस घास- वे ऐसी घास है कि अपने सिवाय किसी और वनस्पति को पैदा नहीं होने देती, साथ ही इसका विस्तार भी तेजी से होता है। इसे उ.प्र. के महोबार जिले में देखा जा सकता है।
(द) अति तापमान- तापमान की न्यूनता तथा अधिकता मृदा में उपस्थित जीवाणुओं के लिए हानिकारक है जिससे उनकी क्रियाशीलता कम हो जाती है और मृदा कृषि के अयोग्य हो जाती है। राजस्थान के मरूस्थल से लगे क्षेत्र बाड़मेर, बीकानेर तथा जैसलमेर जिलों में यह देखा जा सकता है।
2. मानवीय कारक-
वर्तमान में कृषि और उद्योग यन्त्रीकरण के आधिक्य से अधिकाधिक उत्पादन में लगे हैं। इसलिए कृषि में रासायनिक खादें, कीटानुनाशकों का उपयोग, अत्यधिक सिंचाई के कारण कृषि सह-उत्पादक बढ़ गये हैं। नगरीकरण, औद्योगिकरण, बढ़ती जनसंख्या, प्रति व्यक्ति अधिक उपयोग, व्यर्थ पदार्थ, आधुनिक रहन-सहन के कारण मृदा में अकार्बनिक विषैले यौगिक कीटनाशी एवं कवकनाशी तथा रेडियो सक्रिय अपशिष्ट, परिवहन के साधनों से निकला धुआँ, नगरों से निकले ठोस अपशिष्ट से मृदा प्रदूषित हो गयी है।
(i) कृषि कार्य-
अवैज्ञानिक, सिंचाई, अत्यधिक जुताई, झूमिंग कृषि, अत्यधिक कीटनाशकों के उपयोग से रासायनिक खादों से मृदा प्रदूषित हो रही है।
(अ) रासायनिक खादों से मृदा अम्लीय अथवा क्षारीय होकर कालान्तर में अनुपयोगी हो जाती है।
(ब) कीटनाशकों के उपयोग से मृदा के मित्र जीव एवं बैक्टीरिया मर जाते हैं। कुछ कीटनाशक दीर्घकाल तक मृदा में रहने से समस्त पारिस्थितिक को कुप्रभावित करते हैं। आर्गेनाक्लोरीन वर्ग के कीटनाशकों का स्थायित्व काल लम्बा होता है। इनके नाम हैं- D.D.T. क्लोरेडेन, आर्सेनिक, यूरिया आदि।
(ii) औद्योगिक कार्य-
औद्योगिक अपशिष्ट जैसे ताप विद्युत गृहों की राख (फ्लाईऐश), कोयले के कण, नाभिकीय कचरा, रासायनिक कचरा, औद्योगिक कचरा, किसी भी तरह का ठोस जिसका पुनर्चक्रीकरण न हो अथवा देर से हो, मृदा के लिए घातक होता है। औद्योगिक अपजल से मृदा प्रदूषित होती है।
(iii) नगरीय कार्य-
परिवहन नगरीय अपशिष्ट एवं खनन उत्पाद, सह-उत्पाद तथा अपजल भी मृदा को प्रदूषित करते हैं। परिवहन के साधनों से निकली सल्फर डाइ-ऑक्साइड अम्लीय वर्षा के लिए उत्तरदायी है। सभी प्रदूषण अन्त में जल अथवा मृदा में मिलकर प्रदूषित करते हैं। नगरीय अपजल एवं वाहित मल से मृदा और जल सन्दूषित हो जाये तो ये तत्व मिट्टी की भौतिक दशा को भी बिगाड़ते हैं। वाहित मल-जल के कारण मिट्टी के रन्ध्र अवरूद्ध हो जाते हैं जिससे मृदा बेकार पड़ जाती है।
खनन के सह उत्पादक तथा खनन अपजल से मृदा में धातुओं की अधिक मात्रा में संचित होने से भूमि प्रदूषित हो जाती हैं। कैडमियम, मरकरी तथा लैड ये तीनों भारी धातुएँ न पौधों के लिए आवश्यक हैं और न ही जानवरों के लिये अर्थात इनकी परिस्थितियों से न केवल मृदा प्रदूषित होती है, समस्त पर्यावरण के लिए हानिकारक है।
कुछ विषैली धातुएँ यथा- बेरीलियम, कोबाल्ट, निकिल, ताम्र, जिंक, एण्टीमनी, बिस्मथ आदि में मृदा भी जहरीली हो जाती हैं। तेल तथा प्राकृतिक गैस के उत्पादन के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में खारा जल निकलता है जो दूर-दूर तक फैल कर भूमि के अन्य जल स्त्रोतों को प्रदूषित करता है।
संक्षेप में, खानों की खुदाई से मृदा प्रदूषण होना सामान्य बात है अथवा उत्खनन से मृदा अवनयन होता है। जैसे- उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले में ईंटों के निर्माण के कारण भोगतीपुर पुखराया में भूमि अवनयन उल्लेखनीय है।
मृदा प्रदूषण के प्रभाव
(Effects of Soil Pollution)
1. मृदा पर-
मल-जल से सिंचाई करने पर मृदा में नाइट्रोजन तथा कार्बनिक पदार्थ में वृद्धि होती है किन्तु निरन्तर सिंचाई से मृदा का PH मान, रन्ध्राकाश धनायन अधिशोषण मृदा, पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सामान्य मृदा तथा पौधों द्वारा अवशेषण होता है जो हानिकारक अवस्था में पहुँचती है। जिसमें कैडमियस युक्त जल सिंचाई के लिए अनुपयुक्त है। वाहित मल-जल से सिंचाई करने पर हरी पत्तीदार सब्जियों की और अन्य फसलों की उपज तो अच्छी होगी किन्तु भारी धातुओं के अवशोषण से ये उत्पाद मनुष्यों और पशुओं द्वारा प्रयोग करने पर अस्वास्थ्यजनक होगा। मैंगनीज की अधिक मात्रा पौधों में विषाक्तता के लिए जिम्मेदार है।
2. सतही जल पर-
प्रदूषित मृदा से सतही तथा भूजल स्त्रोत प्रत्यक्ष प्रभावित होते हैं। अतः प्रदूषित मृदा से जल को भी प्रदूषित करने की धातुओं का आधिक्य तथा संदूषित जल पेय जल को प्रदूषित जल में बदल देगा।
3. भौम जल पर-
भौम जल एवं प्रदूषण का निकट का संबंध है, जब मृदा प्रदूषित होती है तथा भौम जल में प्रदूषिकों की सान्द्रता 2 से 3 गुना तक हो जाती है। यदि यह क्षेत्र औद्योगिक या नगरीय हुआ तो कैडमियम, क्रोमियम, कोबाल्ट, कॉपर, लौह, लेड, मैंगनीज तथा पारे की उपस्थिति से भौम जल इन धातुओं के प्रवेश से प्रदूषित हो जाता है।
4. वन स्थितियों पर-
प्रदूषित मृदा जो भारी धातुओं से हुई है। मृदा में इन धातुओं की अधिक सान्द्रता से पौधों की वृद्धि रूक जाती है और कभी-कभी पौधे मर भी जाते हैं। लेड, जिंक, कैडमियम, और ताप की अधिकता से पौधे की वृद्धि इसलिए रूक जाती है क्योंकि पर्णरहित (Chlorophyll) घट जाता है। निम्नलिखित सारणी भी मृदा प्रदूषण के प्रभाव दिखाती है।
मृदा प्रदूषक स्त्रोत एवं वनस्पतियों पर ऋणात्मक प्रभाव | |||
क्रम | मृदा प्रदूषक तत्व | स्त्रोत | प्रभाव |
1. | कैडमियम (Cd) | जिंक उत्पादन, मानव मल- जल, खनन उद्योग, बैटरी, कॉस्मेटिक उद्योग | पर्णरहित घट जाना, वृद्धि रूक जाना, पत्तियों की नसों के मध्य पीले सफेद धब्बे पड़ना। |
2. | जिंक (Zn) | मल-जल एवं संदूषित जल | पत्तियों के सिरे मुड़कर मृत होना, पर्णहरित घटना, वृद्धि रूकना, पत्तियाँ सफेद, बौने रूप में आना। |
3. | क्रोमियम (Cr) | औद्योगिक अपजल, खनन तथा संदूषित जल से | पत्तियाँ पीली पड़ जाना, प्रारम्भ में उत्पन्न पत्तियों में शुष्क मृत धब्बे पड़ना। |
4. | मैंगनीज (Mn) | वाहित मल जल उपयोग एवं औद्योगिक अपजल से | मुड़ी, मृत, पर्णहरित पत्तियाँ, किनारे मृत युक्त पत्तियाँ। |
5. | कोबाल्ट (Co) | इलेक्ट्रॉनिक उद्योग | पतियों पर सफेद मृत धब्बे पड़ना, पत्तियों पर श्वेत मृत धब्बे, असामान्य वृद्धि। |
6. | निकिल (Ni) | ||
7. | मोलिब्डिनम (Mo) | खनन से | वृद्धि रूक जाना। |
5. मानव स्वास्थ्य पर-
मृदा प्रदूषण में जो धातुएँ अत्यन्त विषैली हैं साथ ही सहज उपलब्ध हैं उनमें बेरीलियम, कोबाल्ट, निकिल, ताम्र, जिंक, टिन, कैडमियम, पारा, लेड, एंटीमनी आदि हैं। मृदा की ऊपरी सतह पर औसतन 0.18 पी. पी. एम. (पार्टस पर मिलियन) कैडमियम पाया जाता है। प्रदूषण की स्थिति में यकृत तथा गुदों में यह जमा हो जाता है। जो गुर्दों में पथरी के लिए उत्तरदायी होता है। यह मटर, मूली, चौलाई आदि के माध्यम से शरीर में पहुंचता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि तीसरी दुनिया में होने वाले ढेर सारे रोगों एवं अनपेक्षित मौतों के मूल में जहरीले कीटनाशकों की घातक भूमिका है। सीसा एवं आर्सेनिक संचयी विष हैं। सीसे के विष की अधिकता से उल्टी, शरीर पर एनीमिया जैसे रोग हो जाते हैं। मिट्टी में पहुँचने पर पौधे इसे अधिक मात्रा में अवशोषित कर लेते है। जिससे फलियों पर इनका प्रभाव परिलक्षित होता है जैसे- सेम मटर आदि। पौधे जमीन से मोलिब्डिनम का अवशोषण करते हैं।
संक्षेप में कह सकते हैं कि पौधों द्वारा विषैली धातुएँ अवशोषित की जाती हैं। इन पौधों को खाद्य में प्रयुक्त करने पर मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव होता है। उ. प्र., बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र राज्यों में कीटनाशकों से सामूहिक मौतें तक हो चुकी हैं।
6. पशुओं पर-
मल जल संदूषित जल प्रयोग से पशुओं में अनेक रोग फैल जाना स्वाभाविक हैं। पोलीथिन में रखे खाद्य से पशुओं की मृत्यु सामान्य बात है। कृषि अपजल से सतही जल स्त्रोत प्रदूषित होते हैं जिससे जलीय जीवों में मृत्यु भी हो जाती है। कीटाणुनाशक से मृदा में मिले जीव (केंचुआ) जैसे अन्य मित्र जीव, बैक्टीरिया मृत हो जाते हैं। इस प्रकार प्रदूषण से जैव विविधता का ह्रास होता है।
मृदा प्रदूषण के नियंत्रण के उपाय
(Measures to control soil pollution)
1. भू-क्षरण हेतु वृक्षारोपण- बांध-बंधियां बनाना, समोच्च रेशा के समान्तर, जुताई, सिंचाई करने से भू-क्षरण रुकेगा जलवायु के अनुरूप वृक्षारोपण सबसे कारगर उपाय है।
2. नगरीय उपान्त क्षेत्र- ठोस अपशिष्ट से प्रदूषित हो रहे हैं। इनका वैज्ञानिक उपयोग हो।
3. उर्वरकों का उपयोग मृदा परीक्षण के बाद किया जाये। जैविक खादों का अधिक उपयोग हो।
4. कीटनाशकों का सम उपयोग हो।
5. मल जल संयन्त्रों की स्थापना हो।
6. जैव प्रौद्योगिकी के प्रयोग से मृदा प्रदूषण रूक जाता है। बहुत से पौधे प्रदूषण को पी लेते हैं। पोलीथिन एवं कीटभक्षी का पता लग गया है। केंचुए मनुष्य के मित्र हैं। यह रबड़, प्लास्टिक, कांच एवं धातुओं को छोड़ सभी कार्बनिक गंदगी खाकर उर्वरक मृदा बनाता है।
7. गहरी जुताई से कांस भूमि की समस्या हल हो जाती है।
8. मृदा प्रदूषण उचित प्रबन्ध से हल हो सकती है।
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