5. Discuss The Scope of Environmental Geography (पर्यावरणीय भूगोल की विषयवस्तु की विवेचना)
5. Discuss The Scope of Environmental Geography
(पर्यावरणीय भूगोल की विषयवस्तु की विवेचना)
पर्यावरणीय अध्ययन की विषय-वस्तु पर्यावरण और मानव के अंतर्संबंधों की व्याख्या है। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है की पर्यावरण का मानव पर प्रभाव और मानव का पर्यावरण पर प्रभाव की विवेचना ही पर्यावरण अध्ययन है। मानवीय क्रिया-कलाप से पर्यावरण की प्राकृतिक गुणवत्ता में जो अवनयन (Degradation) हुआ है, उस अवनयन के मानवीय कार्यक्षमता पर प्रभाव की व्याख्या पर्यावरणीय अध्ययन की विषय-वस्तु है।
पर्यावरणीय अध्ययन का केन्द्र बिन्दु पर्यावरण की प्राकृतिक गुणवत्ता का ह्रास और इस ह्रास के प्रभावों की व्याख्या करना पर्यावरण अध्ययन की विषय-वस्तु है। पर्यावरणीय समस्याओं के दुष्परिणाम, मानवीय स्वास्थ्य, प्राकृतिक सौन्दर्य और संसाधन पर देखना पर्यावरणीय अध्ययन का विषय क्षेत्र है।
पर्यावरणीय अध्ययन के विषय क्षेत्र को समझने के लिए इसको छः उपवर्गों में विभक्त कर समझ सकते हैं:
(1) पर्यावरणीय समस्याएँ एवं संकट (Environmental Problems and Hazards)
(2) संसाधन ह्रास (Degradation of Resources),
(3) पारिस्थिति तंत्र में बाधा (Disturbance in Ecosystem),
(4) जैव विविधता ह्रास (Degradation or Bio-Diversity),
(5) प्राकृतिक चक्रों में बाधा (Disturbance of Natural Cycle),
(6) पर्यावरण अवनयन (प्रदूषण) (Environmental Degradation)।
(1) पर्यावरणीय समस्याएँ एवं संकट:-
प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप जन्य समस्याएँ, संसाधनों के अत्यधिक शोषण अर्थात् कुप्रबन्धन से उत्पन्न समस्याएँ और उच्च तकनीक के विकास से संबंधित समस्याएँ। इसके अन्तर्गत अम्लीय वर्षा, पृथ्वी के रक्षा कवच, ओजोन परत का ह्रास, हरित गृह प्रभाव आदि का अध्ययन सम्मिलित है। साथ ही प्राकृतिक प्रकोप भूकम्प, ज्वालामुखी, भूस्खलन, भू-क्षरण तथा जलवायु समस्याएँ, बाढ़, सूखा, चक्रवात, गर्म एवं ठण्डी हवाएँ, झंझावात, सुनामी लहरें एवं मरुस्थलीकरण आदि का अध्ययन सम्मिलित है।
(2) संसाधन ह्रास:-
वन, जल, खनिज, भूमि, पशु, कृषि, उद्योग एवं ऊर्जा संसाधन के शोषण के दुष्परिणाम और शोषण के कारण तथा समाधान इसके अध्ययन में सम्मिलित हैं।
(3) पारिस्थिति तंत्र में बाधा:-
इसके अन्तर्गत पारिस्थितिक पिरामिड में व्यतिक्रम, पारिस्थितिक अनुक्रम में बाधा, आहार श्रृंखला, ऊर्जा प्रवाह में बाधा आदि कारणों का विवेचन किया जाता है।
(4) जैव विविधता ह्रास:-
प्रजातियों का विलुप्तीकरण, जीव पिरामिड में व्यतिक्रम के कारण और संरक्षण के उपायों की विवेचना की जाती है।
(5) प्राकृतिक चक्रों में बाधा:-
जल चक्र, गैसीय चक्र, ऑक्सीजन चक्र, नाइट्रोजन चक्र, जीव चक्र आदि का अध्ययन इसके अन्तर्गत किया जाता है।
(6) पर्यावरण अवनयन (प्रदूषण):-
वायु, जल, मृदा, समुद्री ताप एवं आणविक प्रदूषण के कारण मानवीय स्वास्थ्य एवं समृद्धि पर दुष्प्रभाव, कारक एवं निदानों का अध्ययन आज के पर्यावरणीय अध्ययन की प्रमुख विषय-वस्तु है।
उपर्युक्त मूल विषय वस्तु के अन्तर्गत इन समस्याओं के कारकों जैसे- जनसंख्या वृद्धि, नगरीकरण, औद्योगिकरण, उच्च वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास, पुनः चक्रीकरण एवं जैव असंतुलन का अध्ययन भी सम्मिलित है। पर्यावरणीय अध्ययन की पूर्णता हेतु इसकी विषय-वस्तु में पर्यावरण नियोजन, पर्यावरण प्रबन्ध, पर्यावरण संरक्षण, संसाधन आरक्षण, सम्पोषित विकास, जैव विविधता संरक्षण और जैव प्रौद्योगिकी का विकास भी पर्यावरणीय अध्ययन की विषय-वस्तु में सम्मिलित है।
अतः संक्षेप में कह सकते हैं कि पर्यावरणीय अध्ययन की विषय-वस्तु में पर्यावरण के विभिन्न अवयवों और इनके पारिस्थितिकी प्रभावों, मानव और पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों के संदर्भ में पर्यावरणीय अवनयन (प्रदूषण), पर्यावरणीय समस्याएँ, संसाधन एवं जैव विविधता ह्रास औद्योगीकरण, नगरीकरण, जनसंख्या वृद्धि के पर्यावरणीय प्रभावों, संसाधन, उपयोग एवं पर्यावरणीय समस्या तथा संकट के अध्ययन के साथ पर्यावरण संरक्षण, प्रबन्धन और नियोजन के विभिन्न पक्षों का अध्ययन किया जाता है।
पर्यावरण का अध्ययन पारिस्थितिकी शास्त्र और भूगोल का मूल विषय रहा है। वनस्पति विज्ञान, मृदा विज्ञान, मानव भूगोल और मानव पारिस्थितिकी शास्त्र में पर्यावरण अध्ययन विशिष्टता के साथ विगत् समय में किया गया है, किन्तु आज पर्यावरण नगरीय, औद्योगिक और अति सघन क्षेत्रों में नये आयामों में परिवर्तित होकर प्रभावित कर रहा है।
इसलिए वर्तमान में पर्यावरणीय अध्ययन को अलग शास्त्र के रूप में अध्ययन की आवश्यकता अनुभव की गई है। संसाधनों के अतिशोषण से पर्यावरण की प्राकृतिक गुणवत्ता में ह्रास हुआ है, जिससे पारिस्थितिक तंत्र में बाघा तथा जैव विविधता को क्षति पहुँची है। इसलिए पर्यावरणीय अध्ययन नये विषय के रूप में उभर कर सामने आया है। पर्यावरणीय अध्ययन की प्रकृति की पाँच मुख्य विशेषताएँ हैं-
(1) पर्यावरणीय अध्ययन अन्तरानुशासनिक अथवा बहु-विषयक (Inter-disciplinary) है।
(2) इसकी विषय-वस्तु का अध्ययन आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से होता है।
(3) इसकी विषय-वस्तु और प्रभाव दोनों ही गत्यात्मक हैं।
(4) अधिप्रभाव स्थान और क्षेत्र से प्रत्यक्ष संबंध रखते हैं।
(5) प्रभावों की व्याख्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से होने पर भी वर्णनात्मक अथवा व्याख्यात्मक होती है। अर्थात् वैज्ञानिक विवेचना क्यों और कारणों सहित होती है।
समस्त शास्त्र और संसार के समस्त शोध शाश्वत सत्य की खोज है और मानव के हित में लगे हुए हैं अर्थात् मानव हित सर्वोपरि लक्ष्य है। इसलिए उच्च अध्ययन में लगभग सभी शास्त्र और शोध बहु-विषयक प्रकृति के हो जाते हैं और सभी शास्त्रों को सांख्यिकीय आँकड़ों से अपने उपलब्ध सत्यों को प्रमाणित करना पड़ता है। इसी प्रकार पर्यावरणीय अध्ययन भी बहु-विषयक प्रकृति रख कर अपने अध्ययन संपादन करता है।
पर्यावरण अध्ययन को सभी विज्ञान और शास्त्र महत्त्व दे रहे हैं। इसलिए विविध शास्त्रों में एक शाखा या प्रश्न-पत्र के रूप में इसको पढ़ाया जाने लगा है। जैसे- रसायन विज्ञान में ‘पर्यावरणीय रसायन’, भूगोल में ‘पर्यावरणीय भूगोल’, अर्थशास्त्र में पर्यावरणीय अर्थशास्त्र’, मनोविज्ञान में ‘पर्यावरणीय मनोविज्ञान’, समाजशास्त्र में ‘पर्यावरणीय समाजशास्त्र, विधि में ‘पर्यावरणीय नियम’, वाणिज्य में ‘व्यावसायिक पर्यावरण’ के रूप में पर्यावरण का अध्ययन होता है। अतः पर्यावरणीय अध्ययन विषय की भी इन्हीं विषयों से अपनी विषय-सामग्री प्राप्त करता हुआ बहु-विषयक प्रकृति रखता है।
‘पर्यावरण’ शब्द अनेक प्रभावशील कारकों का सम्मिलित नाम है। अतः पर्यावरण के प्रभाव के अध्ययन अत्यधिक व्यापक और विस्तीर्ण हैं। इसलिए पर्यावरण अध्ययनकर्ता को विविध विषयों का विशद् ज्ञान होना चाहिए। पर्यावरण के विद्यार्थी को समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, रसायन, वनस्पति शास्त्र, पारिस्थितिकी शास्त्र, नीतिशास्त्र, कृषि विज्ञान आदि का ज्ञान होना चाहिए; क्योंकि पर्यावरणीय अध्ययन की प्रकृति बहु-विषयक है।
अतः संक्षेप में कह सकते हैं कि पर्यावरणीय अध्ययन विभिन्न विषयों से अपनी अध्ययन सामग्री जुटाता है। साथ ही समस्याओं की वैज्ञानिक विवेचना करता है और पर्यावरण के प्रभावों की देश काल और समाज के संदर्भ में विवेचना करने के कारण इसकी प्रकृति बहु-विषयक हो गई है।
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