31. The Post-modernism and Feminism in Geography (भूगोल में उत्तर आधुनिकता एवं नारीवाद)
31. The Post-modernism and Feminism in Geography
(भूगोल में उत्तर आधुनिकता एवं नारीवाद)
प्रश्न प्रारूप
Q. भूगोल में उत्तर आधुनिकता एवं नारीवाद की विवेचना करें।
(Discuss the Post-modernism and Feminism in Geography.)
उत्तर- मानवीय ज्ञान, दर्शन और समाजिक विज्ञानों व कला में आजकल उत्तर आधुनिकता का आन्दोलन चला है। वह आधुनिक भूगोल में ऐतिहासिकता की प्रतिक्रिया है। ऐतिहासिकतावाद का जोर व्यक्तियों एवं सामूहिक घटनाओं के काल क्रमानुसार वर्णन पर होता है और यह स्थानिकता को नजर अंदाज करता है।
सोजा (Soja, 1989) की राय में ऐतिहासिकतावाद सामाजिक जीवन पर ऐतिहासिक सन्दर्भ की अतिवादी दृष्टि है। वह भौगोलिक अथवा स्थानिक सोच को सामाजिक सैद्धांतिक विश्लेषण के दौरान हाशिए में धकेल देता है। काल की महत्ता में ‘स्थान’ गौण रह जाता है। इससे सामाजिक-जगत् की परिवर्तनशीलता का भौगोलिक निर्वचन अस्पष्ट रह जाता है।
भूगोल में उत्तर आधुनिकता का जोर सामाजिक और भौगोलिक जाँच-पड़ताल के दौरान खुलेपन पर आधारित है। यह विषमांगता से युक्त पचमेल प्रयोग है। इसमें कलात्मक प्रयोग व राजनीतिक सशक्तता सम्मिलित है। इसका उद्भव स्थापत्य कला व साहित्य के सिद्धान्तों में निहित है। इसके केन्द्र बिन्दु अथवा नाभि (Core) की पहचान कठिन है।
डियर (Dear, 1944) के अनुसार- “Post-modernity is everywhere, from literature, design, art, architecture, philosophy, mass media, clothing, style, music and television. Post modernism raises urgent questions about place, space and landscape in the production of social life.”
अर्थात् उत्तर आधुनिकता सभी ओर है, वह साहित्य में, कला व डिजायन में, सत्यासत्य में, दर्शन और जनसंचार साधनों में, पोशाक के तौर-तरीकों व संगीत, दूरदर्शन सभी में मौजूद है।
सामाजिक जीवन को गतिवान रखने में उत्तर आधुनिकता स्थान, क्षेत्र और दृश्य-जगत् के बारे में आवश्यक प्रश्नों को खड़ा करता है।
उत्तर आधुनिकता का समर्थन करने वालों का तर्क है कि सामाजिक व ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की रचना भिन्न-भिन्न स्थानों व प्रदेशों में भिन्न-भिन्न स्वरूपों में हुई है, इसलिए ऐतिहासिक धारा सर्वत्र समान रूप से प्रवाहित नहीं बनी है। उदाहरणवत् आजकल के उपन्यासों की संरचना अस्त-व्यस्त है और आजकल की स्थापत्य कला मूल्यों से वचित बन उठी है।
भूगोलवेत्ता ने समकालीनता की समस्या को बहुत पहले ही पहचाना जैसा कि डारबी (Darby) ने इंगित किया-
ऐतिहासिक तथ्यों के सिलसिले को प्रस्तुत करने की अपेक्षा भौगोलिक तथ्यों के क्रमों को व्यक्त करना अधिक कठिन है। घटनाएँ एक के पश्चात दूसरी नाटकीय रूप में समयबद्ध घटित होती हैं। उनको समय बद्ध लिपिबद्ध करना सरल है, परन्तु उनको स्थान में सान्निध्य बनाना कठिन है।
भौगोलिक विवरण अनिवार्यतः कठिन क्रिया है, जबकि ऐतिहासिक वर्णन अपेक्षाकृत सरल है। डियर (1986) ने उत्तर आधुनिकतावाद को तीन घटकों में विभक्त किया है-
(1) उत्तर आधुनिक शैली,
(2) उत्तर आधुनिक विधि और
(3) उत्तर आधुनिक काल।
(1) शैली रूप में:-
उत्तर आधुनिकता साहित्य व साहित्यिक समालोचन में शैली रूप में व्यक्त है जहाँ से वह फिल्म, डिजायन, कला, फोटोग्राफी और स्थापत्य में फैला। इसकी सामान्य दिशा और संरचना में समरूपता व अनुरूपता का अभाव प्रवेश कर गया। स्थापत्य शैली की आलोचना उसके दिखावे में भिन्नता, रंग, डिजायन व प्रतिमा-विज्ञान के आधार पर की गई है। वह मात्र उथली व ऊपरी सतही बन शेष रही।
(2) विधि रूप में:-
विधि रूप में उत्तर आधुनिकता सार्वभौमिक सत्य से परहेज करती है और इसके सोच में सभी कुछ समाया हुआ था। इसका किसी भी अर्थ में प्रयोग होने लगा और विधि निराधार बन उठी। अतः, इसका मूल्यांकन ही दुर्लभ बन गया। इससे रचना सिद्धान्त ही भिन्न भिन्न बन उठा और लेखक को संस्कृति, वर्ग, लिंग आदि सभी प्रभावित बनने लगे जिससे लेखक की स्थिति ही डगमगा गयी। विधि स्वयं लड़खड़ा गयी और विकल्प भी ढीले व कमजोर बन गए। लेखन-विधि में अस्थिरता विकसित हो गई।
मानव भूगोल में ओलसन (Olsson, 1980) जो रचना के बिखराव के प्रारम्भिक समर्थक थे, उनको नवोन्मेष के अभ्यासी के रूप में जाना जाता है। रचना की तोड़-मरोड़ वस्तुतः अस्थिर विधि का ही परिणाम है।
(3) काल-अवधि के रूप में:-
उत्तर आधुनिकतावाद का युग उसे ही माना जा सकता है जब संस्कृति सहित दार्शनिक सोच में परिवर्तन उत्पन्न हुआ। भूमण्डीलय अर्थव्यवस्था और भू-राजनीति का विकास बदले स्वरूप में प्रकट बना और विलम्बित पूँजीवादी सांस्कृतिक प्रकट हुई जो भूतकालीन युग की संस्कृति से बिलकुल भिन्न है।
नए युग की इस संस्कृति के अन्तर के अध्ययन की विशेषताओं में अनिश्चितता, कृत्रिम, घिसे-पिटे पुराने कुरुचिपूर्ण रंग-ढंग भरे पड़े हैं। अव्यवस्था को ही व्यवस्था मान लिया गया और मुख्य जोर दिया गया विषमता एवं अनूठे कृत्यों पर (ग्रिगरी 1989) ‘न्यूयार्क टाइम्स’ से उद्धृत टिप्पणी की सार्थकता उत्तर आधुनिकतावाद के विषय में व्यक्त है- “The great lesson of the 20th century is that all the great truths are false,” अर्थात्, 20वीं सदी की सबसे बड़ी सीख यही है कि सभी महान् ‘सत्य’ असत्य सिद्ध हुए हैं।
मानव भूगोल के विद्धानों ने स्थानिक विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए आधुनिकतावाद की ‘व्यवस्था’ (System) पर जोर दिया परन्तु, आनुभाविक प्रेक्षणों (Empirical Observations) ने सिद्ध किया कि आधुनिकतावाद में अव्यवस्था (Disorder) के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह ऐसी अव्यवस्था है जिसमें न तो कोई लागू करने हेतु सिद्धांत है और न विश्व व्यापक सत्य। बार्न्स (Barnes, 1996) आधुनिकतावाद के आलोचकों के हाथों में दार्शनिक सोच का ऐसा मंत्र आ गिरा जो-
“आधुनिकतावाद को ‘अव्यवस्था भरा जगत्’ कहने में संकोच नहीं है। हम जिस प्रकार के आधुनिक जगत् में इस समय रह रहे हैं वह नव सैद्धांतिक अतिसंवेदनशीलता से भर उठा है, जहाँ जो कुछ भी करें, सभी सही मान लिया जाता है। क्षेत्र में व्याप्त विभिन्नताएँ भी ऐसी अव्यवस्थित बन गयी हैं। (Gregory, 1989)”
वस्तुतः मानव भूगोल में उत्तर आधुनिकतावाद उत्तरकालीन प्रतिमान अथवा प्रकरण हैं जिनमें न तो कोई सुरुचिपूर्ण सोच और न यथार्थ। इसके समर्थकों ने वातावरणीय, नियतिवाद, आदि तंत्रों को नकार दिया। 1950 से 1980 के मध्य विकसित भौगोलिक अभिगमों का उत्तरकालीन आधुनिकवाद में कोई स्थान नहीं रहा। वे यह भी स्वीकार नहीं करते कि सामाजिक जीवन में किसी प्रकार की भूमण्डलीय सुसंगति है और प्रति दिन का जन-जीवन प्रणाली किसी पूर्व-शैली और मूल्यों द्वारा संचालित बनी हैं।
उत्तर आधुनिकवादी ‘क्षेत्रीय’ विभिन्नताओं के सोच की ओर लौटे अवश्य हैं, परन्तु यह वापसी भिन्न प्रकार की है जिसमें ऐसे विश्व की सोच है जो अतिसंवेदनशीलता से भरी है, जहाँ न कोई नीति, न सिद्धांत और न संरचना ही है। वहाँ विषमता, विशिष्टता (व्यवस्था रहित) और अनूठापन जो कुछ भी करने, सोचने और बरतने में संकोच नहीं रखते। इनके मतानुसार “… we need, to go back in parts on the question of areal differentiation, but armed with a new theoretical sensivity towards the world in which we live and to the ways in which we live and to the ways in which we represent it.” (Gregory)
उत्तर आधुनिकता एवं नारीवाद (Post-modernism and Feminism)
जाति प्रजाति के अतिरिक्त अनेक महत्वपूर्ण संबंधों में से लिंग का तत्व भी उत्तर-आधुनिक साहित्य से संबंधित है। नारीत्व भूगोल आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में दैनिक जन-जीवन से अन्तर्सम्बन्धित है। दूसरे रूप से व्यक्त करें तो यह लिंग-कारक है जो आजकल असमानता और प्रताड़ना जैसे सामाजिक अभिशाप का शिकार है।
जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में नारी के प्रति भेद-भाव किया जाता है और नारी-दमन समाज में व्यापक बन चुका है। नारी विषयक भेद-भाव को उजागर बनाना और उसका विरोध भूगोल पेशेवरों में अध्ययन के अनेक उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है।
जॉनसन (1989) के अनुसार नारीवाद भूगोल में महिलाओं के सामान्य अनुभवों की पहचान करना, पुरुषों द्वारा दमन के प्रति उनका प्रतिरोध और उसको अन्त करने की प्रतिबद्धता आदि विषय सम्मिलित है। नारीवाद भूगोल का उद्देश्य ‘नारी अभिव्यक्ति को प्रकट बनाना और अपने को नियंत्रित करना’ है। भूगोल का सोच और भौगोलिक अभ्यास प्रधानरूप से लिंग-दोष से ग्रसित बना है। भूगोल में केन्द्रित पितृ सत्ता और लैंगिकता केन्द्रित रहे हैं। इनसे मुक्ति राजनीतिक उपायों से मिलेगी।
रोज (Rose, 1993) जैसे नारीवादी भूगोलवेत्ताओं ने जोर देते हुए व्यक्त किया है कि-
1. भूगोल का व्यवस्थित विषय ऐतिहासिक रूप से पुरुष प्रधान है।
2 भूगोल- पेशे में महिलाओं को मात्र निरीह माना गया है और इसी रूप में संरिक्षत किया। वस्तुतः महिलाओं को भूगोल ने हाशिए पर लाकर उनकी उपेक्षा की और उनको सताया है।
3. ‘नारीवाद’ भूगोल के प्रोजेक्टों एवं शोध-विषयों से अछूता विषय बना रहा, और
4. पुरुषों द्वारा भूगोल में प्रभुत्व के कारण इसके दूरगामी दुष्परिणाम निकले हैं। स्थानों अथवा क्षेत्रों और भू-दृश्य जगत् के निवर्चन एकांगी हैं जहाँ प्रेक्षणों व आनुभाविक ज्ञान केवल पुरुष-दृष्टि-प्रधान है।
अतएव, नियमानुरूप भूगोल विज्ञान (The Discipline of Geography) पुरुष-प्रधान (Masculinist) ही है जिसमें महिलाओं से संबंधित सोच की उपेक्षा है। लिंग भेद-भाव, वस्तुतः मानवीय कृत्य है। समाज के प्रभुत्वशाली समूहों ने समाज में अपने ही दृष्टिकोण से दृश्य-जगत् एवं प्रकृति को देखा और निर्वचित किया। यह भी कहें तो अत्युक्ति नहीं है कि पुरुषों ने अपने द्वारा की गई धरातल की व्याख्या को समाज पर थोपा है। उनके भौगोलिक विवरण स्त्री-पुरुष भेद-भाव की ओर इंगित नहीं बने हैं। वे केवल जाति-प्रजाति और वर्गों तथा यौन-उन्मुख भेदों से भरे हैं।
उत्तर आधुनिक मानव भूगोलवेत्ताओं ने इस दिशा में निम्नांकित रूप-रेखा शोध हेतु प्रस्तुत की। इसके प्रधान विषय हैं-
1. नीति-संगत दार्शनिकता, नैतिक भूगोल और भूगोलवेत्ताओं का सदाचरण (Moral Philosophy, Moral Geographies and the Geographer’s Morality):-
इसके अन्तर्गत भूगोल में आर्थिक केन्द्र बिन्दु के स्थान पर जीवनोपयोगी नैतिक-संरचना को विकसित बनाना है।
2. सामाजिक भेद-भाव की प्रक्रियाएँ (Social Differentiation):-
इसमें जाति, प्रजाति, वर्ग, यौनाचरण, आयु व स्वास्थ्य विषयक सराहना की और ध्यानाकर्षण द्वारा स्थानिक विभिन्नताओं एवं परिवर्तनशीलता का निर्वचन करना सम्मिलित है।
3. ताक (टांड) की रचना और सीमांकन (Shelf Construction):-
भूगोलविदों द्वारा इसमें विभिन्न श्रेणियों के व्यक्ति व्यक्तियों में परस्पर संबंध और मनोविश्लेषणात्मक साहित्य में ऐसे विषयों की चर्चा जिनका पूर्व में उल्लेख नहीं हुआ है।
4. भूमण्डलीय और प्रदेशीयता (Globality and Territoriality):-
इसमें स्थानों में व्यक्तियों व समूहों की अवस्थिति विषयक चर्चा और उनके सांस्कृतिक अभ्यासों का निर्वचन सम्मिलित है, और
5. समाज, संस्कृति और प्राकृतिक वातावरण (Society, Culture and Natural Environment):-
इसके अन्तर्गत विषयों में ‘प्रकृति’ एवं ‘वातावरण’ की सामाजिक रचना की व्याख्या और वातावरणीय समस्याओं के निराकरण हेतु अपनाए गए अभिगमों की महत्ता का उल्लेख होना चाहिए।
उत्तर आधुनिकता और तर्क प्रधान उत्तरकालीन नारीवाद का मन्तव्य है कि भूगोल में एक पृथक श्रेणी के रूप में महिलाओं की स्थिति, समस्या और स्थानिक निर्वचन को अलग-अलग समूहों से जोड़ा जाए तथा भिन्न उनकी आवश्यकताओं और अनुभवों की व्याख्या की जाए जो अभी तक भूगोल साहित्य में नदारद सामग्री है।