8. Population problems and government policies in India (भारत में जनसंख्या की समस्याएँ एवं सरकारी नीतियाँ)
8. Population problems and government policies in India
(भारत में जनसंख्या की समस्याएँ एवं सरकारी नीतियाँ)
वस्तुतः किसी, देश की जनसंख्या उसका एक संसाधन होती है, लेकिन विपरीत परिस्थिति में वह समस्या का कारण भी बन जाती है, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत की बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने का प्रयास तब शुरू किया गया जब इसका भार असहज होने लगा।
जनसंख्या को समस्या के रूप में तब देखा जाता है जब उपलब्ध भौतिक संसाधनों की तुलना में जनसंख्या ही अधिक हो जाता है। भारत की स्थिति ऐसी ही हो गई है। फलतः अधिक जनसंख्या के कारण देश में न्यूनतम प्रति व्यक्ति आय, गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, बेरोजगारी, निराशा और क्षेत्रीय अलगाव जैसे कठिनाइयों के कारण भारत की प्रगति धीमी हो गई है।
50 वर्षों के प्रयास के बावजूद जनसंख्या सम्बन्धी समस्याएँ सुलझने के स्थान पर उलझती ही जा रही हैं। भारत कहने के लिए कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भर हो गया है फिर भी एक विशाल जनसंख्या कुपोषण से ग्रसित है।
कुपोषण बीमारियों का कारण बन गया है, भारत की आधी से कुछ कम या लगभग 37% जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे है। गरीबी भारत की जनसंख्या की सबसे बड़ी समस्या है, क्योंकि गरीब व्यक्ति जानवरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए बाध्य है।
भारत की जनसंख्या संबंधी समस्याओं को सुविधा के लिए निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
(1) तीव्र जनसंख्या वृद्धि:-
भारत की जनसंख्या में औसतन 1.6 करोड़ से अधिक व्यक्ति प्रतिवर्ष जुड़ जाते हैं। 1901 में जहां देश की जनसंख्या केवल 23.83 करोड़ थी वहीं 1951 में बढ़कर 36.10 करोड़ हो गई तथा 60 वर्षों के बाद 2021 को 1.21 अरब से ऊपर हो गई। यह वृद्धि दर विकसित देशों की अपेक्षा बहुत अधिक है। भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यह जन भार कृषिगत भूमि की वहन क्षमता से अधिक है। भारत अपनी अधिकतम भूमि का उपयोग करने के लिए वनों का विनाश भी कर चुका है जो एक अलग समस्या है।
स्पष्ट है कि संसाधनों के विकास के लिए भूमि के गहन उपयोग के साथ अन्य संसाधनों के विकास के भी प्रयास करने होंगे, लेकिन अनेकानेक कारणों से संसाधनों का विकास मन्द गति से हो रहा है, जबकि जनसंख्या वृद्धि सतत् बनी हुई है।
अतः इस तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या का यथा सम्भव नियंत्रण करना समस्या समाधान के लिए एक आवश्यकता है। विगत दशकों के सरकारी प्रयास निराशाजनक रहे हैं।
भारत में जनसंख्या विस्फोट की गूंज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी है और इसके समाधान के लिए अनेक उपाय सुझाए जा रहे हैं। जैसे स्त्री शिक्षा, रोगों की रोकथाम, जन्म-नियंत्रण, जन-चेतना का प्रचार-प्रसार, स्वयंसेवी संस्थाओं की सहभागिता आदि, लेकिन भारत जैसे जनसंख्या बोझिल देश में कठोर कदम उठाए बिना इसका समाधान कठिन है। ऐसे उपायों में से निम्न उपाय विशेष उल्लेखनीय हैं- दो से अधिक बच्चा पैदा करने पर दण्ड की व्यवस्था, शादी की वैधानिक आयु का कठोरता से पालन, संतति सुधार कार्यक्रम, स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार, सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम, आर्थिक विकास, स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार, अन्धविश्वासों एवं भ्रान्तियों से निजात, मनोरंजन के साधनों का विस्तार, परिवार नियोजन कार्यक्रम एवं प्रवास इत्यादि।
(2) जनसंख्या का असमान वितरण:-
अनेकानेक प्राकृतिक, आर्थिक, सामाजिक और ऐतिहासिक कारणों से भारत की जनसंख्या के क्षेत्रीय वितरण में अत्यधिक विषमता है जिसके कारण संसाधनों के उपयोग में अतिशयता पायी जाती है। अधिकांश जनसंख्या कृषि पर आधारित होने के कारण उपजाऊ मृदा और अनुकूल जलवायु क्षेत्रों पर ही केन्द्रित हैं।
उत्तरी भारत का विशाल मैदानी क्षेत्र, तटीय मैदान और दक्षिण के पठार का कृषिगत क्षेत्र ऐसे ही जनाधिक्य के क्षेत्र हैं, यदि कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों में परिवहन के साधनों, सिंचाई, उद्योग-धन्धों आदि की सुविधा प्राप्त हो जाए तो इस विषमता को कम किया जा सकता है।
भारत में जनसंख्या के क्षेत्रीय स्थानान्तरण की कोई नीति न होने के कारण इस दिशा में अब तक कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है। पश्चिमी बंगाल, केरल, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में घनत्व अत्यधिक है।
यदि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, छोटा नागपुर पठार जैसे इलाकों में जीविका के साधनों के लिए उचित प्रबन्ध किया जाए तो सघन बसे इलाकों के लोगों को वहां स्थाई रूप से बसाया जा सकता है। सरकार को इस दिशा में गम्भीरता से पहल करनी चाहिए, क्योंकि क्षेत्रवाद से जनसंख्या के स्थानान्तरण पर प्रश्न-चिन्ह लगता दिखाई दे रहा है।
(3) प्रति व्यक्ति कम आय:-
सरकार द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों एवं विविध प्रयासों के बावजूद भी हमारे देश के लोगों की आय इतनी कम है कि उससे जीवन स्तर में सुधार लाना कठिन है। यहां मात्र 39.26% जनसंख्या कार्यशील है और उनमें से भी कम पारिश्रमिक पाने वालों की संख्या सर्वाधिक है। यही कारण है कि सामान्यतः आधी कार्यशील जनसंख्या अपने परिवार के लिए मात्र जीने का साधन जुटा ले, यही बहुत बड़ी उपलब्धि है। कम आय का मुख्य कारण विकास कार्यों में शिथिलता है।
पिछले 50 वर्षों के नियोजित विकास कार्यक्रमों के बावजूद भारत का एक विस्तृत क्षेत्र जहां देश की आधी से अधिक जनसंख्या निवासित है, निम्न स्तर का ही विकास हो पाया है।
(4) अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी और बीमारी:-
अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी और बीमारी ये सभी समस्याएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अशिक्षा धनोपार्जन में बाधक है और कम आय से गरीबी पनपती है। गरीबी कुपोषण को प्राश्रय देती है। भारत की बढ़ती बेरोजगारी, विशेषकर पढ़े-लिखे लोगों में कुण्ठा को जन्म दे रही है, इससे न केवल उत्पादकता का ह्रास होता है, अपितु सामाजिक तनाव को भी बढ़ावा मिल रहा है।
सम्प्रति भारत सरकार की सूचना के अनुसार 2005-06 में 942 रोजगार कार्यालयों में 7,289.5 हजार व्यक्तियों का पंजीकरण हुआ था, जिसमें केवल 177.0 हजार व्यक्तियों को रोजगार मिल सका था। स्पष्ट है कि जनसंख्या वृद्धि दर की अपेक्षा रोजगार के अवसरों में बहुत धीमी वृद्धि हो रही है।
सरकार के अथक प्रयास के बावजूद भी गरीबी और बेकारी बढ़ती जा रही है। कुछ विशेष राज्यों में यह समस्या और अधिक विकट है जैसे-बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, त्रिपुरा, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की आधे-से-अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।
(5) सीमित भूखण्ड:-
देश में विश्व की 16.87 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, जबकि विश्व क्षेत्रफल का केवल 2.4% भाग ही भारत में उपलब्ध है। स्पष्ट है कि सीमित भू-खण्ड पर जनसंख्या का भारी दबाव है। कृषि देश की अर्थव्यवस्था और अधिकांश लोगों की जीविका का प्रमुख साधन है, लेकिन यहाँ प्रति व्यक्ति कृषि उपयुक्त भूमि की उपलब्धता केवल 0.3 हेक्टेयर या उससे भी कम है।
इसी तरह देश में प्रतिवर्ग किलोमीटर के पीछे 324 व्यक्ति निवास करते हैं। जबकि विश्व का औसत घनत्व 44 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी ही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भूखण्ड पर बढ़ते दबाव के कारण, कृषि भूमि की अनुपलब्धता, आवास एवं पर्यावरण असन्तुलन जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही है।
(6) अन्य प्राकृतिक विपदाएँ:-
विशाल जनसंख्या के लिए कृषि भूमि की आवश्यकताओं की पूर्ति एवं अन्य कारणों से वनों के अत्यधिक ह्रास से पर्यावरण प्रदूषण जैसे अनेक कारणों से पारिस्थितिकी सन्तुलन तेजी से बिगड़ा है, फलस्वरूप देश में अकाल, सूखा, महामारी, भुखमरी जैसी अनेक आपदाएं उत्पन्न हो गई हैं।
(7) असमान आर्थिक विकास से उत्पन्न समस्याएँ:-
आधुनिक काल में आर्थिक विकास का स्वरूप बदल गया है। संसाधन दोहन, पूंजी, प्रबन्ध और व्यवसायीकरण आदि क्षेत्रों में धन एकत्र हो गया है। इस प्रकार आर्थिक स्तर के अनुसार देश की जनसंख्या उच्च आय वर्ग, औसत आय वर्ग और निम्न आय वर्ग में बंटी हुई है। स्पष्ट है कि आर्थिक असमानता देश की जनसंख्या की सबसे बड़ी समस्या बन गई है।
(8) पर्यावरणीय समस्याएँ:-
आज भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में विकास की अंधी दौड़ में संसाधनों का निर्ममता पूर्ण दोहन होने लगा है। वहीं पर्यावरण प्रदूषण जैसी भीषण समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। अनेक बीमारियाँ, बाढ़, सूखा, मृदा क्षरण, संसाधनों की कमी जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। अनेक महानगरों में तो ये समस्याएँ अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी हैं।
(9) सामाजिक-धार्मिक दुःख से उपजी समस्याएँ:-
आज जनसंख्या वृद्धि के साथ ही भौतिकवादिता, स्वच्छन्दता, कट्टरता, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता जैसी समस्याएं बढ़ी हैं। चोरी, हत्या, बलात्कार जैसी समस्याएं निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। आज मानव मूल्य, प्रेम, दया, करुणा, सहिष्णुता, भाईचारा जैसी भावनाएं विलुप्त होती जा रही हैं। वहीं उद्दण्डता, घृणा, दुराचार, नैतिक पतन जैसे दुर्गुणों को बढ़ावा मिला है। आज देश की अधिकांश जनसंख्या अनेक सामाजिक, धार्मिक, दैहिक व मानसिक समस्याओं से घिरी हुई है। इन समस्याओं का निराकरण ढूंढ़ना हम सबके लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है।
भारत में जनसंख्या नीति
➤ स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक बाद से ही भारत सरकार भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या को लेकर चिंतित थी। पहली पंचवर्षीय योजना के समय से ही भारत सरकार ने भारत की बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने के प्रयास किए हैं। इसी कड़ी में परिवार नियोजन कार्यक्रम को अपनाने वाला भारत विश्व का पहला देश बना था।
➤ सर्वप्रथम वर्ष 1960 में एक विशेषज्ञ समूह ने भारत में एक जनसंख्या नीति बनाने का सुझाव दिया था। इसके बाद वर्ष 1976 में भारत ने पहली जनसंख्या नीति अपनाई थी।
➤ भारत सरकार ने एम. एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल गठित किया था। इसकी सिफारिश के आधार पर वर्ष 2000 में भारत ने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति अपनाई थी। भारत की इस नवीनतम जनसंख्या नीति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) प्रति 1000 जीवित बच्चों पर शिशु मृत्यु दर 30 से कम करना।
(ii) प्रति 1 लाख बच्चों के जन्म पर मातृ मृत्यु 100 से कम करना।
(iii) प्रजनन और शिशु स्वास्थ्य की देखभाल के लिए एक समुचित सेवा प्रणाली विकसित करना।
(iv) गर्भ निरोधक एवं स्वास्थ्य सुविधाओं से संबंधित बुनियादी ढांचा सुदृढ़ करना।
(v) वर्ष 2010 तक 2.1 की ‘सकल प्रजनन दर’ (TFR) प्राप्त करना तथा वर्ष 2045 तक जनसंख्या स्थायित्व प्राप्त करना।
(vi) लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि करना।
(vii) एड्स का प्रसार रोकना और प्रजनन अंग संबंधी रोगों के प्रबंधन व ‘राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन’ (NACO) के बीच समन्वय स्थापित करना।
(vii) 80% प्रसव अस्पतालों, नर्सिंग होम इत्यादि में संपन्न कराना तथा इस कार्य हेतु प्रशिक्षित लोगों को नियुक्त करना।
(ix) प्रत्येक व्यक्ति को सूचना व परामर्श देना तथा गर्भ निरोधक संबंधित अनेक विकल्प उपलब्ध कराना।
(x) चौदह वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा को नि:शुल्क और अनिवार्य बनाना।
(xi) बीच में ही स्कूली पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या 20% से कम करना।
(xii) सभी बच्चों को टीका जनित प्रतिरक्षित उपलब्ध करना।
(xiii) जन्म, मरण, विवाह और गर्भ का 100% पंजीकरण सुनिश्चित करना।
(xiv) संक्रामक रोगों को नियंत्रित करना तथा प्रजनन और शिशु स्वास्थ्य सुविधाओं को घर-घर तक पहुंचाना।
(xv) एक ‘राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग’ गठित करना।
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग
‘राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000’ के अंतर्गत मई 2000 में एक ‘राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग’ गठित किया गया था। इस आयोग के अंतर्गत एक ‘राष्ट्रीय जनसंख्या स्थिरता कोष’ की स्थापना भी की गई थी, लेकिन आगे इसे ‘स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग’ को हस्तांतरित कर दिया गया था। इस आयोग की अध्यक्षता भारत के प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है। इस आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
➤ राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के क्रियान्वयन की समीक्षा करना।
➤ राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की निगरानी करना तथा इससे संबंधित दिशा-निर्देश देना।
➤ इस जनसंख्या नीति हेतु स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण व अन्य विकास कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित करना।
➤ इससे संबंधित कार्यक्रमों की योजना बनाने व उन्हें क्रियान्वित करते समय अंतर क्षेत्रीय समन्वय को बढ़ावा देना।