40. Paradigrms in Geography (भूगोल में प्रतिमान)
Paradigrms in Geography
(भूगोल में प्रतिमान)
प्रश्न प्रारूप
Q. भूगोल में प्रतिमान की विवेचना करें।
(Discuss the Paradigrms in Geography.)
उत्तर- भूगोल विवरणात्मक सीढ़ी को लांघकर मॉडल निर्माण में उसी भाँति जा उतरी जैसे कि मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र विषय उतरे। यह प्रक्रिया 19वीं सदी में आरम्भ हुई और 20वीं सदी के साठ-सत्तर शताब्दियों में तेज होती गई। भूगोल में परिवर्तन ‘वर्णनीय-स्तर’ से ‘वर्गीकरण’ में और आगे ‘नियम-निर्धारण’ स्तरों से गुजरा है। निकट भूतकाल में भूगोल का स्वरूप सिद्धान्त-निरूपण व मॉडल-रचना में लोकप्रिय बना। अब विषय में सर्वव्यापी नियमों को लागू करना उसी भाँति आरम्भ हो गया जैसे प्रकृति के नियम लागू हैं।
‘गुरुत्व का प्राकृतिक नियम’ Law of Gravitation भारत, यूरोप अथवा अमेरिका, सर्वत्र उपयोगी बना। यह परीक्षण के लिए सभी देशों में उपलब्ध बना और असंख्य स्थितियों में समान रूप से प्रामाणिक सिद्ध हुआ। वर्तमान सदी के सामाजिक वैज्ञानिकों ने भी अनुभव किया कि Stochastic नियमों की भाँति ही (जो सर्वमान्य व बहुमत की सोच है) उनके विषय में भी नियमों का निर्धारण संभव है।
जब एक व्यक्ति के व्यवहार को भी एक सामान्य नियम में बांध सकते हैं। गोलेज व अमादी (Golledge and Amadee) ने एक रोचक बात यह कही कि ‘नियम’ की कोई एक मात्र स्वीकार बनी परिभाषा नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि सम्भावित नियम, अनुप्रस्थ काट नियम, समस्थितिक नियम, ऐतिहासिक नियम, विकास-नियम, सांख्यिकीय नियम, गणितीय नियम, आदि अनेक नियमों की रचना होती है।
भूगोल क्योंकि प्रयोगशाला का विज्ञान नहीं है, इसके नियम प्राकृतिक विज्ञानों जैसे नहीं हो सकते। भौगोलिक नियमों की परख क्षेत्र में ही संभव हो सकती है, वहाँ प्रयोगशाला की भाँति दशाएँ नियंत्रित नहीं की जा सकतीं।
भूगोल में जैसे क्रियाओं सम्बन्धी नियम (Principle of Activity) लागू होता है। इसका तात्पर्य है कि दृश्य-जगत् की वस्तुओं में परस्पर क्रिया घटित हुई है, और यह प्रक्रिया स्थान व कालानुरूप बदलाव उत्पन्न करती है। भूगोल में विधि प्रादेशिक एवं नियमबद्ध (Regional and Systematic) दानों पक्षों की बनी होने के कारण नियम व सिद्धान्त प्राकृतिक विज्ञानों से भिन्न हैं और अनेक स्थितियों में तो यह सामाजिक विज्ञानों के नियमों से भी अलग है।
यहाँ आगे परिच्छेदों में कुछ प्रकाश भौगोलिक नियमों व प्रतिमानों पर डाला गया है। भूगोल, कुहन के अनुसार, अव्यवस्था के दौर से गुजर कर शांति की ओर बढ़ता विषय है। अन्य विषयों के विकास में भी अशांति-शांति के दौर आए।
कुहन का प्रतिमान (Kuhn’s Paradigm):-
अमेरिका के थॉमस कुहन (S. Thomas Kuhn) ने विज्ञान के विकास के बारे में एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उसके अनुसार विज्ञान कोई अच्छी प्रकार नियमित बनी क्रिया नहीं है जिसके परिणामों को प्रत्येक पीढ़ी स्वचालित होकर अपनाती चली गई। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें उतार-चढ़ाव, अशांति-शांति के क्रम घटित होते रहते हैं।
ज्ञान संग्रह-काल की स्थिति में शांतिकालीन अवधियों का विकास देखा जाता है। परन्तु यह संकटकालीन अवधि आने से विलग हो जाता है। यह संकट विषय में उभार द्वारा परिवर्तन से आता है, और विकास क्रम की निरन्तरता (Continuity) को भंग कर देता है।
इस प्रक्रिया को व्यक्त करने के लिए कुहन ने एक मॉडल ‘विज्ञान का प्रतिमान’ रचा। वह कहता है- “प्रतिमान एक ऐसा मॉडल है जो काल विशेष में सर्वव्यापी बनी सर्वमान्य वैज्ञानिक उपलब्धि है। वह अभ्यासी समुदाय के लिए सामान्य समस्याएँ व हल प्रदान करता है। हैगेट इसी को एक प्रकार का सुपर-मॉडल कहता था।
दूसरे सरल शब्दों में कहें तो प्रतिमान वैज्ञानिक क्रियाओं एवं पद्धतियों का ऐसा सिद्धान्त है जो अधिकांश भूगोलविदों के शोध कार्य को नियंत्रण में रखता है, अर्थात् जहाँ दो वर्ग के भूगोलवेत्ताओं में प्रतिमानों के विषय में मतभेद हैं, वहाँ भी यह दिशा निर्धारित करता है।”
यह प्रतिमान शोधार्थियों को बताता है कि उन्हें क्या खोजना है, और किस विधि से खोजना है तथा इस विशेष स्थिति में कौन-सी विधियाँ भौगोलिक हैं। कुहन अपने अभिधारणा (Postulate) में विज्ञान के विकास में नई अवस्थाओं को इंगित करता है जैसे प्रतिमान-पूर्व अवस्था, व्यवसायीकरण, प्रतिमान अवस्था 1, 2, 3 आदि-आदि। इस अवधारणा को हेनरिकसन ने भौगोलिक दृष्टि से रचा जो उपरोक्त चित्र में प्रकट है।
वैज्ञानिक ज्ञान एक पठार की भाँति विकसित होता है। इसमें एकाएक महापरिवर्तन आते हैं (Sudden Upheavals) और तब आकस्मिक खड़ा विकास देखा जाता है जो बाद में धीमे और समान प्रगति में बदल जाता है। वैज्ञानिक विकास की पहली अवस्था अनेक भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के विचारों के विवाद से ग्रस्त रहती है। इस अवधि में आंकड़ों का संकलन बेतरतीव रूप में विस्तार से होता है। इस संकलन में विशिष्ट कोटि के संकलन का स्तर निचला ही देखा जाता है। इसमें अनेक सम्प्रदायों के विचारों का समागम है, और कोई भी एक सम्प्रदाय दूसरे से अपनी स्थिति अधिक वैज्ञानिक नहीं समझता।
पहली अवस्था से आगे बढ़कर वैज्ञानिक विकास-मार्ग व्यवसायीकरण-अवस्था पकड़ता है। इसमें एक सम्प्रदाय अन्य सम्प्रदायों पर अपना वर्चस्व प्रकट करता है। इस दौरान अनेक समस्याओं के हल स्पष्ट होते हैं। संप्रदाय विशेष के विचारों व नवीन खोजों से प्रगति होती है। खगोल विज्ञान और गणित विधियाँ पीछे छूटती जाती हैं। और सामाजिक विज्ञानों में बदलाव आता-जाता है।
तीसरी अवस्था प्रतिमान अवस्था है। इस दौरान सिद्धान्त स्थापित कर समस्याग्रस्त विशेष क्षेत्र में क्रियाएँ सम्पन्न बनती हैं। इससे सामान्य विज्ञान (Normal Science) की स्थापना हो जाती है। सहज विज्ञान की स्थापना के उपरान्त शोध कार्य में ठहराव और अवरोध आता है जो संकट व हलचल की स्थिति उत्पन्न करता है। अस्थायी रूप से यह अन्धकार जैसी अवस्था है जिसमें ज्ञान-विज्ञान का विकास नहीं होता। यही संकट और हलचल प्रतिमान अवस्था 2 के लिए शोधकर्ता को उत्साहित करती है। यह क्रम-हलचल, क्रांति और नवीन प्रतिमान, विज्ञान के इतिहास में घटित होकर समाजों के विकास एवं अवसान में सहायक बनता है।
नए प्रतिमानों का क्रम संग्रहीत समस्याओं का निपटारा करने के साथ सिद्धान्त निरूपण में सहायक बना है। संकटकालीन व हलचल की स्थिति पूर्व में संग्रह की गई सूचनाओं और आँकड़ों का पुनर्वीक्षण व पुनर्मूल्यांकन करने की ही अवस्था है। इससे नवीन सैद्धान्तिक सोच को जन्म मिलता है। इससे आधारभूत दार्शनिक विचारों के परिसंवाद आरम्भ हो जाते हैं। इस वाद-विवाद में कार्य-पद्धति से अनेक प्रश्नों व समस्याओं का हल प्रकट हो जाते हैं। इसकी समाप्ति पर पुनः बदस्तूर सहज-विज्ञान की अवस्था स्थापित होती है।
यदि सन्तोषप्रद हल नहीं निकलता है, तो शोध-क्रिया जारी बनी रहती है। नया प्रतिमान स्थापित होने की अवस्था ही सकंट का अन्त और अनेक शोध कर्मियों में विकास की दिशा है। नए प्रतिमान में प्रवेश करने का अर्थ ही पुरानी समस्याओं का हल हो जाना है, और आगे शोध कार्य के लिए भूमि तैयार हो जाती है। इसमें शोध कर्मियों की नई-पौध की संख्या कार्य करने में आकर्षित बन उठती है।
नए युवा पीढ़ी के वैज्ञानिक पुराने प्रौढ़-वैज्ञानिकों को सन्तुष्ट तो प्रायः नहीं कर पाते, फिर भी नए सोच व शोध के सम्मुख पुराने शोध मंद बनते जाते हैं। प्रौढ़ व पुराने वैज्ञानिकों के गुजर जाने पर उनके समर्थित सोच भी कमजोर बन जाते हैं।
एक प्रतिमान (पुराने) के बदले में दूसरा प्रतिमान (नया) स्वीकार करने का अर्थ पूर्णतः यह नहीं है कि वह सौदा बुद्धिमानी व तर्कों से भरा उच्च कोटि का हुआ है। अर्थात् यह आवश्यक है कि नए प्रतिमान से सभी समस्याओं का हल खोज लिया गया।
नया प्रतिमान उस समस्या का हल तो है जिसे पुराना प्रतिमान नहीं हल कर सका, परन्तु सभी समस्याओं का हल नहीं सिद्ध हो सकता। उनके लिए शोध को सतत् बनाए रखना आवश्यक है। अतः, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि प्रत्येक नवीन प्रतिमान पूर्व में सीधे पुराने प्रतिमानों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध होगा।
सच बात तो यह है कि नए प्रतिमान को अनेक प्रासंगिक मूल्य, नियम, लालित्य-विचार आदि प्रभावित बना सकते हैं। उसे सरल व अधिक सुरुचिपूर्ण बनाने के उत्साह में नवीन प्रतिमान पूर्व पुराने से भी घटिया हो सकता है। नए युवा शोध – कर्मियों के निजी स्वार्थ और अपने पूर्वकालीन बड़ों से आगे निकलने का आर्थिक उत्साह मौजूदा वैज्ञानिक विचारों में अनावश्यक परिवर्तन लाने की अनेक बार चेष्टा देखी जाती है। यह प्रयास वैज्ञानिक विकास के लिए अनुकूल नहीं है।
कुहन का प्रतिमान वैज्ञानिक ज्ञान की शुद्धि की अवस्थाओं की एक अच्छी व वैज्ञानिक व्याख्या है। इसमें भी अन्य मॉडलों की भाँति गुण-दोष हैं, परन्तु यह युवा शोध कर्मियों को नए सिद्धांतों के अभिधारण का अवसर देता है।
युवा शोध कर्मी बिना किसी परीक्षण के अपने प्रतिमान को वस्तुनिष्ठ बताते हैं। वह प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण व वैज्ञानिक शोध के विरुद्ध हो सकता है। फिर भी, यह तो विवाद रहित है कि नए प्रतिमान में दोष और कर्मियों के होते हुए भी, कुहन के सैद्धांतिक विचारों का आधुनिक विज्ञान पर सार्थक प्रभाव है। उनके विचार नवीन सिद्धांतों को स्वीकार करने में मदद करते हैं। वे हमारा प्रत्यक्ष-बोध विस्तृत बनाते हैं। परन्तु, यदि शोध कार्य में नौसिखिए व अयोग्य व्यक्ति हस्तक्षेप करने लेगेंगे तो प्रतिमान का प्रभाव शोध में उल्टा भी हो सकता है।
कुहन का प्रतिमान विज्ञान-दर्शन में अच्छा मार्ग दर्शक है जो विषय के ऐतिहासिक विकास को नष्ट बनाने में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है। यह नहीं मान बैठना चाहिए कि वह पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करता है, परन्तु वह शोध कार्य नवीनता लाने के लिए एक अनूठा साधन है। कुहन के प्रतिमान के प्रकाश में भूगोल के इतिहास को आने की पंक्तियों द्वारा समझने में सरलता होगी।
भौगोलिक विकास की कथा वर्णनात्मक व उद्देश्य मूलक अवस्था कर आगे मात्रात्मक, मूल सुधारवादी और द्वन्द्वात्मक सांसारिकता जैसी अवस्था में पहुँच चुकी है। उसने अनेक पद्धतियों को अपना लिया है। अपने विश्लेषण में भूगोल ने स्थानों का विवरण विश्वसनीय साहित्यिक भाषा में तथा मात्रात्मक, गणितीय भाषा में भी करना आरम्भ किया है। इससे विषय में वैज्ञानिक सूक्ष्मता और व्यवस्था प्रकट हुई है। परन्तु, अभी तक विषय के स्वरूप और उसकी प्रकृति के बारे में भूगोलवेत्ताओं में एकमत विकसित नहीं हो सका है। उसके नियमों, सिद्धांतों एवं प्रतिमानों के बारे में भी विद्वान अभी एकमत नहीं हैं।
भौगोलिक नियम प्राकृतिक नियमों की भाँति सुनिश्चित और संक्षिप्त नहीं बने हैं। प्राकृतिक नियम सर्वव्यापी एवं सर्वमान्य हैं। अधिकांश भूगोल-नियम आनुभाविक हैं, और उन्हें प्राकृतिक नियमों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वे विशेष स्थान व काल में ही यथार्थ बने रहते हैं, और अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति वे विशिष्ट मॉडल अथवा संरचित-विचार अथवा प्रतिमान हैं। उनकी सर्वव्यापी मान्यता नहीं है, और सभी विद्वान उनके बारे में एकमत भी नहीं हैं।
हार्वे (Harvey) नियम व सिद्धांत को विस्तृत महत्ता प्रदान करता है। वह उन्हें तीन-पदीय श्रेणी (Three-Fold Hierarchy) में बंधा मानता है। सिद्धांत की अवधारणा पहले स्तर पर तथ्यों में व्यवस्थित बने कथन (Systematized Factual Statements) है। इनकी मध्यम अवस्था अनुभवाश्रित व्यापक बने सामान्य नियम की (Empirical Generalizations or Laws) है, और तीसरी अवस्था में यह सैद्धांतिक नियमों (Theoretical Laws) का रूप लेते हैं। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में भूगोल में कई प्रकार के मॉडलों का विकास हुआ। इनकी जानकारी रोचक विषय है।
कार्ल रिटर आकड़ों की व्याख्या आगमनात्मक पद्धति द्वारा करके सरल अनुभवाश्रित व्यापक बने सामान्य निष्कर्षों पर पहुँचने का विश्वासी था। वह प्रयोजनवादी (Teleologist) था। वह दृश्य-वस्तुओं का क्षेत्र में मानव मात्र के लिए ईश्वरीय योजना व प्रयोजनानुसार वितरण मानता था। उसके सोच-दर्शन का अनुभवों के आधार पर परीक्षण करना संभव नहीं था। इसलिए यह सोच वैज्ञानिक व्याख्या नहीं है। फिर भी एक प्रतिमान उदाहरण तो है। जीवों में पार्थिव प्रकृति की एकता है। जैविक संबंध ‘समस्तता अथवा संयुक्त बनी’ (Holistic- Synthesis) प्रयोजनानुसार एकता का ही प्रतिमान है।
Organic relationships on earth are in holistic-synthesis and represent teleological explanatory models.
रिटर के पश्चात् डार्विन ने भूगोल में नियतिवादी कार्य-कारण (Cause and Effect) दृष्टिकोण पर जोर दिया। उसका सोच अथवा प्रतिमान समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास को प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा निर्धारित मानता था।
इसके बाद आगमनात्मक विश्लेषण के स्थान पर निगमनात्मक विधियों (Deductive Methods) पर आधारित व्याख्या पर जोर दिया जाने लगा। नियमों का परीक्षण किया जाने लगा। उनको प्रयोगों में कसा जाने (Testing Through Experiment) के बाद ही स्वीकार अथवा अस्वीकार किया जाता था।
डेविस का सामान्य अपरदन चक्र (Normal Cycle of Erosion) और मेकिण्डर का ‘हृदय-स्थल सिद्धांत’ (Heartland Theory) इसी प्रकार के प्रतिमान अथवा मॉडल थे। ऐसे नियमों द्वारा भूगोल की पहचान विज्ञानों में की जाने लगी थी।
इन परिस्थितियों में विडाल-डि-ला-ब्लाश और उसके अनुयायियों का उदय हुआ। ब्लाश ने ‘सम्भववाद’ पर जोर दिया। विडालियन-सम्प्रदाय मनुष्य को निष्क्रिय-कारक नहीं मानता था। मनुष्य समाज के भाग्य को निर्धारित करने में मुख्य कारक था, और उसको आकार देने में उसका योगदान महत्वपूर्ण था।
ब्लाश के सोच को ‘क्षेत्र वर्णिनीय’ अथवा ‘प्रादेशिक विज्ञान’ बनाया। ब्लाश के नवीन प्रतिमान पूर्णतः नियतिवादी मॉडल को नहीं हटा पाए और सम्भववाद के साथ-साथ नियतिवादी व्याख्या भी जीवित चलती रही। कुहन इस अवधि को ‘क्रांतिकारी अवस्था’ कहता था।
जार्ज चाबोत (George Chabot) के मतानुसार ‘भूगोल में केन्द्र-बिन्दु ‘प्रादेशिक भूगोल’ बन उठा जिसके चारों ओर अन्य सभी कुछ अभिमुख है। प्रादेशिक भूगोल का प्रतिमान फ्रांस में फला-फूला और आस-पास के देशों में विसरित हो गया। परन्तु, बाद में यह विचार भी प्रादेशिक व्यक्तित्व को पूर्णतः व्यक्त करने में असमर्थ सिद्ध हुआ। इससे भूगोल में संकट काल (A Period of Crisis) विकसित हुआ। इसी संकट की प्रेरणा थी जिसने भूगोल में मात्रात्मक क्रांति और क्रियात्मक दृष्टिकोण विकसित बनाया। मानव भूगोल में भूगोल के विद्वान ‘मॉडलों’ का प्रयोग करने लगे और तंत्र-विश्लेषण पर जोर देने लगे।
निष्कर्ष:
उपरोक्त तथ्यों से सपष्ट है कि भूगोल में पूर्ण-क्रांति उत्पन्न नहीं हुई थी। भूगोलवेत्ता अनेक प्रकार के विचारों में, जैसे प्रत्यक्षवाद, उपयोगितावाद, दृश्य-प्रपंच-शास्त्र, अस्तित्ववाद, आदर्शवाद, यथार्थवाद, सांसारिक द्वन्द्वात्मकवाद आदि में गोते लगा रहे थे और विभक्त बन उठे थे। विषय की क्रांति के दौरान भूगोल में इस संकट ने पुनः एक नवीन प्रतिमान की अवस्था को जन्म दिया।
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