MULTIDISCIPLINARY COURSE MDC-3 FOR HUMANITIES (Theory- Economic Geography) Solved Questions Paper 2024
(MULTIDISCIPLINARY COURSE : MDC-3 FOR HUMANITIES)
UG (Sem.-III) Examination, 2024
(Session: 2023-27)
GEOGRAPHY
(Economic Geography)
Time: Three Hours [Maximum Marks: 70
Note: Candidates are required to give their answers in their own words as far as practicable. The figures in the margin indicate full marks. Answer all the parts as directed.
अभ्यर्थी यथासंभव उत्तर अपने शब्दों में ही दें। उपांत के अंक पूर्णांक के द्योतक हैं। निर्देशानुसार सभी भागों से प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
PART-A / भाग-अ
(Objective Type Questions)
(वस्तुनिष्ठ प्रश्न)
Note: Choose the correct option from each equestion. Each question carries 2 marks. [2×10=20]
प्रत्येक प्रश्न से सही विकल्प का चयन कीजिए। प्रत्येक प्रश्न 2 अंकों का है।
1. (i) Economic Geography studies:
(a) Population
(b) Economic activities
(c) Geographical thought
(d) Ocean deposits
आर्थिक भूगोल में अध्ययन किया जाता है:
(a) जनसंख्या
(b) आर्थिक क्रियाकलाप
(c) भौगोलिक चिंतन
(d) समुद्री निक्षेप
उत्तर- (b) आर्थिक क्रियाकलाप
(ii) Industries belongs to which group of occupation?
(a) Primary
(b) Secondary
(c) Tertiary
(d) Quaternary
उद्योग किस व्यवसाय समूह सम्बन्धित है?
(a) प्राथमिक
(b) द्वितीयक
(c) तृतीयक
(d) चतुर्थक
उत्तर- (b) द्वितीयक
(iii) Economic Geography is a part of:
(a) Physical Geography
(b) Human Geography
(c) Practical Geography
(d) Social Geography
आर्थिक भूगोल शाखा है:
(a) भौतिक भूगोल
(b) मानव भूगोल
(c) प्रयोगात्मक भूगोल
(d) सामाजिक भूगोल
उत्तर- (b) मानव भूगोल
(iv) Banking falls in which category of occupation?
(a) Quaternary
(b) Tertiary
(c) Both (a) and (b)
(d) None of the above
बैंकिंग, व्यवसाय के किस वर्ग में आता है?
(a) चतुर्थक
(b) तृतीयक
(c) दोनों (a) और (b)
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर- (c) दोनों (a) और (b)
(v) The region of Equatorial belt practices:
(a) Hunting and gathering
(b) Plantation farming
(c) Mining
(d) Dairy farming
विषुवतीय प्रदेश में यह किया जाता है:
(a) शिकार एवं संग्रह
(b) बागवानी कृषि
(c) खनन
(d) दुग्ध उत्पादन
उत्तर- (a) शिकार एवं संग्रह
(vi) Which country is the largest producer of Irom and steel in the world?
(a) China
(b) U.S.A.
(c) Japan
(d) India
कौन-सा देश विश्व में लौह-इस्पात का सबसे बड़ा उत्पादक है?
(a) चीन
(b) संयुक्त राष्ट्र अमेरिका
(c) जापान
(d) भारत
उत्तर- (a) चीन
(vii) Manchester is famous for which industry?
(a) Cotton textile
(b) Woolen textile
(c) Iron and steel
(d) Paper industry
मानचेस्टर किस उद्योग के लिए विख्यात है?
(a) सूत्री वस्त्र उद्योग
(b) ऊनी वस्त्र उद्योग
(c) लौह-इस्पात उद्योग
(d) कागज उद्योग
उत्तर- (a) सूत्री वस्त्र उद्योग
(viii) Which continent has the maximum flow of the global trade?
(a) Europe
(b) Asia
(c) North America
(d) Africa
निम्नलिखित महाद्वीपों में से किसका विश्व व्यापार का सर्वाधिक प्रवाह होता है?
(a) यूरोप
(b) एशिया
(c) संयुक्त राज्य अमेरिका
(d) अफ्रीका
उत्तर- (b) एशिया
(ix) The headquarter of WTO is at :
(a) Geneva
(b) Veinna
(c) New York
(d) New Delhi
विश्व व्यापार संगठन का मुख्यालय है:
(a) जिनेवा में
(b) वियना में
(c) न्यूयार्क में
(d) नई दिल्ली में
उत्तर- (a) जिनेवा में
(x) Where is the first special Economic Zone of India is establishment?
(a) Surat
(b) Jaipur
(c) Kandla
(d) Visakhapatnam
भारत का पहला विशेष आर्थिक क्षेत्र कहाँ स्थापित किया गया?
(a) सूरत
(b) जयपुर
(c) कांदला
(d) विशाखापत्तनम
उत्तर- (c) कांदला
PART-B / भाग-ब
(Short Answer Type Questions)
(लघु उत्तरीय प्रश्न)
Note: Answer any four questions. Each question carries 5 marks. [4×5=20]
किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 5 अंकों का है।
2. State the scope of Economic Geography.
आर्थिक भूगोल के विषय-क्षेत्र को बताइए।
3. Discuss the economic activities under primary occupation.
प्राथमिक व्यवसाय के अन्तर्गत आने वाले आर्थिक क्रियाकलापों की चर्चा कीजिए।
4. What is subsistence agriculture?
जीवन निर्वाह कृषि किसे कहते हैं?
5. Describe the important factor for the establishment of iron and steel industry.
लौह-इस्पात उद्योग की स्थापना के लिए महत्वपूर्ण कारकों की चर्चा कीजिए।
6. What is Bilateral trade?
द्विपक्षीय व्यापार किसे कहते हैं?
7. What is Special Economic Zone?
विशेष आर्थिक क्षेत्र क्या होता है?
PART-C/ भाग-स
(Long Answer Type Questions)
(दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)
Note: Answer any three questions. Each question carries 10 marks. [10×3=30]
किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 10 अंकों का है।
8. Define the subject-matter of Economic Geography.
आर्थिक भूगोल के विषय क्षेत्र को परिभाषित कीजिए।
9. Discuss the importance of Economic activities.
आर्थिक क्रियाकलाप का महत्त्व बताइए।
10. Explain the production and distribution of Iron and Textile Industry in the world,
विश्व में लौह-इस्पात उद्योग के उत्पादन एवं वितरण का विवरण दीजिए।
11. Discuss the role of WTO in terms of International trade.
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सन्दर्भ में विश्व व्यापर संगठन की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
12. What do you understand by special economic zone? Discuss the SEZ of India.
विशेष आर्थिक क्षेत्र से आप क्या समझते हैं? भारत के सेज़ की चर्चा कीजिये।
सभी लघु एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों का उत्तर सरल एवं आसान शब्दों में देना यहाँ सीखें
PART-B / भाग-ब
(Short Answer Type Questions)
(लघु उत्तरीय प्रश्न)
Note: Answer any four questions. Each question carries 5 marks. [4×5=20]
किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 5 अंकों का है।
2. State the scope of Economic Geography.
आर्थिक भूगोल के विषय-क्षेत्र को बताइए।
उत्तर- भूगोल की अन्य शाखाओं की भांति आर्थिक भूगोल की विषय-वस्तु एवं विषय-क्षेत्र पर भूगोलवेत्ताओं के विचारों में पर्याप्त मतभेद रहा है। कुछ विद्वान मानव के भौतिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण के अध्ययन को अधिक महत्व देते हैं, तो कुछ मानव की आर्थिक क्रियाओं तथा जीविकोपार्जन के अनेकानेक साधनों के अध्ययन को मुख्य मानते हैं। संक्षेप में विश्व के विभिन्न भागों में मिलने वाले खनिज, कृषि, औद्योगिक साधनों का उत्पादन, उपभोग, वितरण, परिवहन तथा व्यापारिक अध्ययन आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत किया जाता है।
वर्तमान में मानव ने विज्ञान और तकनीक की सहायता से आशानुरूप विकास कर लिया है। मानव ने अपने आर्थिक क्षेत्र का विस्तार, समुद्र, भू-गर्भ और अन्तरिक्ष तक कर लिया है। व्यावहारिक जगत में आर्थिक भूगोल के अध्ययन का अत्यधिक महत्व है; इसके अध्ययन के माध्यम से कृषक, श्रमिक, व्यापारी, उद्योगपति तथा राजनीतिज्ञ सव ही लाभान्वित होते हैं।
विभिन्न देशों को अपनी आर्थिक क्षमता बढ़ाने तथा विकास की भावी योजनाओं के निर्माण में आर्थिक भूगोल के अध्ययन को आधार बनाना पड़ता है। किसी प्रदेश के आर्थिक साधनों का उच्चतम सीमा तक विकास कर वहां की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए जीविकोपार्जन के साधन सुलभ किए जा सकते हैं। किसी देश की अर्थव्यवस्था को सन्तुलित तथा मानव शक्ति को उत्पादन क्रिया से सम्बद्ध करने में आर्थिक भूगोल का योगदान बड़ा महत्वपूर्ण होता है।
मानव की आधुनिक अनुसन्धान एवं अन्वेषण की प्रवृत्ति ने मानव के आर्थिक क्रिया-कलापों को और अधिक विस्तृत बना दिया है।
इस विषय की मुख्य संकल्पनाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) आर्थिक भू-दृश्य:-
इसमें किसी प्रदेश के आर्थिक व्यक्तित्व को अभिव्यक्त किया जाता है। मानव द्वारा प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग पर बल दिया जाता है।
(2) गत्यात्मक आर्थिक भू-दृश्य:-
इस संकल्पना में सदैव परिवर्तन एवं विकास के तत्व को महत्व दिया गया है। जहां आर्थिक भू-दृश्य भूतकाल के आर्थिक कार्यों का परिणाम है, वहां गत्यात्मक आर्थिक भू-दृश्य पुरोगामी और भावी विकास की सम्भावनाओं को व्यक्त करता है।
(3) वर्तमान आर्थिक भू-दृश्य:-
ये संसाधन, संरचना, आर्थिक विकास एवं आर्थिक प्रक्रिया द्वारा उपलब्धि के परिचायक हैं। वहां की आर्थिक स्थिति को विकासावस्था स्तर भी प्रकट करते हैं। युवावस्था में संसाधनों के शोषण के अवसर उपलब्ध रहते हैं; चरमोत्कर्ष की परिपक्व अवस्था में संसाधनो के उच्चतम उपभोग एवं वृद्धावस्था में विकास की अवरुद्ध एवं धीमी प्रगति के आसार दृष्टिगोचर होते रहते हैं।
(4) आर्थिक क्रिया-कलापों की स्थिति में सिद्धान्तों और नियमों के आधार पर स्थिति-स्थापना तथा वितरण की व्याख्या की जाती है। इसमे विषय-वस्तु उपागम तथा प्रादेशिक उपागम को आधार बना कर अध्ययन किया जाता है।
(5) क्षेत्रीय आर्थिक भिन्नता के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं जैविक भिन्नता के अन्तर के परिणामस्वरूप उपलब्धि के स्तर में भी भिन्नता मिलती है।
(6) क्षेत्रीय क्रियात्मक अन्योन्यक्रिया में विभिन्न प्रदेशो में विचित्र-सा पारस्परिक क्रियात्मक अन्तर सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है। यह सम्बन्ध लम्बवत् और क्षैतिज दोनों प्रकार का होता है।
(7) भू-दृश्यों का क्षेत्रीय कार्यात्मक सगठन संकेन्द्रीय और समान दोनों प्रकार का होता है। इसमें पारस्परिक सम्बन्ध कहीं स्पष्ट तो कहीं अस्पष्ट होता है। अस्पष्ट सम्बन्धों को परिवहन और संचारवाहन से सम्बद्ध किया जाता है।
(8) क्षेत्रीय आर्थिक विकास संकल्पना में विकास की तुलना, अन्य प्रदेशों से सांस्कृतिक तथा तकनीकी प्रगति और प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर की जाती है। प्रगति के लिए क्षेत्र विशेष के आर्थिक संसाधनों के विकास पर अधिकाधिक बल दिया जाता है।
3. Discuss the economic activities under primary occupation.
प्राथमिक व्यवसाय के अन्तर्गत आने वाले आर्थिक क्रियाकलापों की चर्चा कीजिए।
उत्तर- प्राथमिक व्यवसाय पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित होते हैं। प्राथमिक व्यवसायों के संचालन हेतु अपेक्षाकृत विस्तृत क्षेत्र की आवश्यकता होती है। वनों से संग्रहण, आखेट, लकड़ी काटना घास के मैदानों में पशु चराना, पशुओं से दूध, मांस, खालें, आदि प्राप्त करना, समुद्रों, नदियों एवं झीलों से मछली पकड़ना, कृषि तथा खानों से खनिज निकालना, आदि प्रमुख प्राथमिक व्यवसाय हैं।
विश्व के विकासशील देशों में कार्यशील जनसंख्या का अधिकांश भाग प्राथमिक व्यवसायों में लगा हुआ है और विकसित देशों में कार्यरत जनसंख्या का अधिकांश भाग तृतीयक एवं चतुर्थक व्यवसायों में कार्यरत है।
भारत में 60 प्रतिशत, चीन में 50 प्रतिशत, इथोपिया में 80 प्रतिशत, नाइजीरिया में 70 प्रतिशत जनसंख्या प्राथमिक व्यवसायों में लगी हुई है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में 8 प्रतिशत, ग्रेट ब्रिटेन में 1 प्रतिशत, जापान में 5 प्रतिशत जनसंख्या ही प्राथमिक व्यवसायों में संलग्न है।
4. What is subsistence agriculture?
जीवन निर्वाह कृषि किसे कहते हैं?
उत्तर- इस कृषि में कृषक अपनी तथा अपने परिवार के सदस्यों की उदरपूर्ति के लिए फसलें उगाता है। कृषक अपने उपभोग के लिए वे सभी फसलें पैदा करता है जिनकी उसे आवश्यकता होती है। अतः इस कृषि में फसलों का विशिष्टीकरण नहीं होता। इनमें धान, गेहूँ, दलहन तथा तिलहन सभी का समावेश होता है। विश्व में जीवन निर्वाह कृषि के दो रूप पाए जाते हैं:
(क) आदिम जीवन निर्वाह कृषि जो स्थानान्तरी कृषि के समरूप है।
(ख) गहन जीवन निर्वाह कृषि जो पूर्वी तथा मानसून एशिया में प्रचलित है।
चावल सबसे महत्वपूर्ण फसल है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में गेहूँ, जौ, मक्का, ज्वार, बाजरा, सोयाबीन, दालें तथा तिलहन बोये जाते हैं। यह कृषि भारत, चीन, उत्तरी कोरिया तथा म्यांमार में की जाती है। इस कृषि के महत्वपूर्ण लक्षण निम्नलिखित हैं :
(i) जोत बहुत छोटे आकार की होती हैं।
(ii) कृषि भूमि पर जनसंख्या के अधिक दबाव के कारण भूमि का गहनतम उपयोग होता है।
(iii) कृषि की गहनता इतनी है कि वर्ष में दो, तीन तथा कहीं-कहीं चार फसलें भी ली जाती हैं।
(iv) मशीनीकरण के अभाव तथा अधिक जनसंख्या के कारण मानवीय श्रम का बड़े पैमाने पर उपयोग होता है।
(v) कृषि के उपकरण बड़े साधारण तथा परम्परागत होते हैं, परन्तु पिछले कुछ वर्षों से जापान, चीन तथा उत्तरी कोरिया में मशीनों का प्रयोग भी होने लगा है।
(vi) अधिक जनसंख्या के कारण मुख्यतः खाद्य फसलें ही उगाई जाती हैं और चारे की फसलों तथा पशुओं को विशेष स्थान नहीं मिलता।
(vii) गहन कृषि के कारण मिट्टी की उर्वरता का ह्रास हो जाता है। मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बनाए रखने के लिए हरी खाद, गोबर, कम्पोस्ट तथा रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। जापान में प्रति हेक्टेअर रासायनिक उर्वरकों की खपत सर्वाधिक है।
5. Describe the important factor for the establishment of iron and steel industry.
लौह-इस्पात उद्योग की स्थापना के लिए महत्वपूर्ण कारकों की चर्चा कीजिए।
उत्तर- भारत मे लौह तथा इस्पात उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारक:
(i) कच्चा माल:- अधिकांश विशाल एकीकृत इस्पात संयंत्र कच्चे माल के स्रोतों के निकट स्थित हैं, क्योंकि इनमें भारी तथा वज़न में क्षरणीकृत कच्चे माल का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। उदाहरण के लिये, छोटा नागपुर क्षेत्र में लौह तथा इस्पात उद्योग का संघनन इसलिये अधिक है क्योंकि वहाँ लौह अयस्क प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जमशेदपुर स्थित टिस्को संयंत्र को कोयला झरिया की खदानों से और लौह अयस्क, चूना पत्थर, डोलोमाइट तथा मैंगनीज़ की आपूर्ति ओडिशा व छत्तीसगढ़ से होती है।
(ii) बाज़ार:- चूँकि लौह तथा इस्पात से बने उत्पाद भारी और बड़े होते हैं इसलिये इनकी परिवहन लागत अधिक होती है। अतः बाज़ार से निकटता बेहद अहम है, विशेषकर छोटे इस्पात संयंत्रों के लिये तो यह बेहद ज़रूरी है, ताकि परिवहन को न्यूनतम किया जा सके। जमशेदपुर का टिस्को कोलकाता के निकट है, जो एक बड़ा बाज़ार उपलब्ध कराता है। विशाखापत्तनम का इस्पात संयंत्र तटीय क्षेत्र में स्थित है, जहाँ आयात-निर्यात की बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
(iii) श्रम:- सस्ते श्रम की उपलब्धता भी महत्त्वपूर्ण है। छोटा नागपुर क्षेत्र के अधिकांश संयंत्रों को इस क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में सस्ता श्रम उपलब्ध होता है।
शीतलन के लिये पानी की उपलब्धता: उदाहरण के लिये- दामोदर नदी के किनारे बोकारो इस्पात संयंत्र, भद्रावती कर्नाटक में विशेश्वर्या इस्पात संयंत्र, भद्रा नदी के समीप भद्रावती (कर्नाटक) में विशेश्वर्या इस्पात संयंत्र, आदि।
(iv) औद्योगिक नगरों से समीपता:- छोटे इस्पात संयंत्रों, जो उत्पादक सामग्री के रूप में स्क्रैप धातुओं का उपयोग करते हैं, के लिये अपशिष्ट धातुओं के पुनर्चक्रण की आवश्यकता होती है। ऐसे संयंत्र ज़्यादातर औद्योगिक नगरों के समीप अवस्थित होते हैं,जैसे – महाराष्ट्र के इस्पात संयंत्र।
(v) सरकारी नीतियाँ:- सरकार उद्योगों को पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित करती है। यह उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने के लिये सब्सिडी, कर में छूट और पूँजी प्रदान करती है। छत्तीसगढ़ में भिलाई इस्पात संयंत्र को क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर करने के लिये स्थापित किया गया था।
(vi) विद्युत:- विद्युत की उपलब्धता उद्योगों की अवस्थिति का एक अन्य निर्धारक है। टिस्को और बोकारो इस्पात संयंत्र को दामोदर घाटी निगम (DVC) से जलविद्युत की प्राप्ति होती है। भिलाई संयंत्र को कोरबा तापीय स्टेशन से ऊर्जा प्राप्त होती है।
(vii) परिवहन:- कच्चे माल की उपलब्धता वाले स्थानों, बाज़ारों और बंदरगाहों से संपर्क एक अन्य कारक है। टिस्को कोलकाता, मुंबई और चेन्नई के साथ रेलवे के माध्यम से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। दुर्गापुर संयंत्र के पास दुर्गापुर से हुगली और कोलकाता बंदरगाह के लिये नौगम्य नहर की सुविधा मौजूद है।
6. What is Bilateral trade?
द्विपक्षीय व्यापार किसे कहते हैं?
उत्तर- जब दो देशों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान होता है, तो इसे द्विपक्षीय व्यापार कहते हैं। द्विपक्षीय व्यापार का मुख्य उद्देश्य, दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश को बढ़ावा देना होता है। इसमें, शामिल देश आपसी सहयोग से अपने बाज़ारों का विस्तार करते हैं।
(i) द्विपक्षीय व्यापार में, शामिल देश व्यापार की शर्तों पर सीधे बातचीत करते हैं।
(ii) द्विपक्षीय व्यापार समझौते में, दोनों देशों को तरजीही व्यापारिक शर्तें मिलती हैं।
(iii) द्विपक्षीय व्यापार समझौते में, टैरिफ़, आयात कोटा, निर्यात प्रतिबंध जैसी व्यापार बाधाओं को कम या खत्म किया जाता है।
(iv) द्विपक्षीय व्यापार से आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलता है।
(v) द्विपक्षीय व्यापार से, दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश बढ़ता है।
(vi) द्विपक्षीय व्यापार, बहुपक्षीय व्यापार की तुलना में सरल और अधिक लचीला होता है।
7. What is Special Economic Zone?
विशेष आर्थिक क्षेत्र क्या होता है?
उत्तर- विशेष आर्थिक क्षेत्र (Special Economic Zone) एक ऐसे भौगोलिक प्रदेश है जहाँ देश का सामान्य आर्थिक कानून पूरी तरह से लागू नहीं होती। दूसरे शब्दों में ‘SEZ’ शुल्क मुक्त आर्थिक क्षेत्र है जहाँ पर विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता है और उत्पादकों को निर्यात के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
ऐतिहासिक पक्ष
रॉबर्ट सी हेवर्ड के अनुसार SEZ की अवधारणा काफी प्राचीन है। प्राचीनतम SEZ का प्रमाण यूनान के टायर नगर से मिलता है। 1960 ई० में चीन ने SEZ का निर्माण कर अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के प्रयास किया। जबकि भारत ने अप्रैल 2000 ई० में पहले SEZ नीति की घोषणा की।
प्रकार/वर्गीकरण
SEZ कई प्रकार के हो सकते हैं। जैसे- मुक्त व्यापार क्षेत्र (Free Trade Zone) निर्यात संवर्धन क्षेत्र (Export Prossising Zone), मुक्त क्षेत्र (Free Zone), औद्योगिक क्षेत्र (Industrial Estate), मुक्त बंदरगाह, नगरीय उद्यम क्षेत्र इत्यादि।
उद्देश्य
SEZ की स्थापना के पीछे कई उद्देश्य है।
(1) उद्योगों के विकास हेतु विदेशी एवं घरेलू निवेशकों को उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना।
(2) निर्यात को बढ़ावा देना।
(3) अधिक से अधिक रोजगार उत्पन्न करना।
(4) पिछड़े हुए क्षेत्रों को विकसित करना।
(5) सामाजिक-आर्थिक विषमता को कम करना।
(6) औद्योगीकरण तथा नगरीकरण को बढ़ावा देना।
PART-C/ भाग-स
(Long Answer Type Questions)
(दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)
Note: Answer any three questions. Each question carries 10 marks. [10×3=30]
किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 10 अंकों का है।
8. Define the subject-matter of Economic Geography.
आर्थिक भूगोल के विषय क्षेत्र को परिभाषित कीजिए।
पृथ्वी मानव का घर है और मानव व पृथ्वी तल दोनों ही तथ्य अस्थिर एवं परिवर्तनशील हैं। पृथ्वी की भौतिक परिस्थितियों और मानव के कार्य-कलापों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन मानव भूगोल के अन्तर्गत किया जाता है। आर्थिक भूगोल, मानव भूगोल की एक महत्वपूर्ण शाखा है। इस शाखा के जन्मदाता गोट्ज (1882) थे। इसके अध्ययन में हम मानव की आर्थिक क्रियाओं का ही अध्ययन करते हैं। मानव की आकांक्षाएं एवं आवश्यकताएं अत्यधिक असीमित और विविध हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव अनेक वस्तुओं का उत्पादन करता है तथा जिन वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर सकता उनका क्रय करता है तथा अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं से उनका विनिमय करता है।
प्रो. मेकफरलेन के अनुसार आर्थिक भूगोल के अध्ययन में हम मानव के आर्थिक प्रयत्नों पर भौगोलिक तथा भौतिक पर्यावरण के प्रभाव का अध्ययन करते हैं।
प्रो. जी. चिशौल्म के अनुसार आर्थिक भूगोल में हम उन भौगोलिक परिस्थितियों का अध्ययन करते हैं जो वस्तुओं के उत्पादन, परिवहन तथा विनिमय को प्रभावित करती हैं।
इस अध्ययन के माध्यम से किसी प्रदेश अथवा क्षेत्र के भावी आर्थिक और व्यापारिक क्रियाओं पर पड़ने वाले भौगोलिक प्रभावों के अध्ययन का सम्मिलित प्रभाव भी जाना जाता है।
सुप्रसिद्ध भूगोलवेत्ता हंटिंगटन जीविकोपार्जन प्रदान करने वाले सभी प्रकार के पदार्थों, साधनों, क्रियाओं, रीति-रिवाजों तथा मानव शक्तियों का अध्ययन आर्थिक भूगोल के क्षेत्र में मानते हैं।
प्रो. शॉ के अनुसार मानव की आर्थिक क्रियाएं विश्व के उद्योगो, संसाधनों तथा औद्योगिक उत्पादन के अनुरूप होती हैं।
इसी प्रकार डॉ. एन. जी. जे. पाउण्ड्स के अनुसार आर्थिक भूगोल भू-पृष्ठ पर मानव की उत्पादन क्रियाओं के वितरण का अध्ययन है।
प्रो. रैयन तथा बैगस्टन के शब्दों में आर्थिक भूगोल के अध्ययन में विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में मिलने वाले आधारभूत संसाधन एवं स्रोतों का अध्ययन किया जाता है। इन स्रोतों के शोषण पर पड़ने वाली भौतिक परिस्थितियों के प्रभाव की विवेचना की जाती है। विभिन्न प्रदेशों के आर्थिक विकास के अन्तर की व्याख्या की जाती है।
भूगोल की अन्य शाखाओं की भांति आर्थिक भूगोल की विषय-वस्तु एवं विषय-क्षेत्र पर भूगोलवेत्ताओं के विचारों में पर्याप्त मतभेद रहा है। कुछ विद्वान मानव के भौतिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण के अध्ययन को अधिक महत्व देते हैं, तो कुछ मानव की आर्थिक क्रियाओं तथा जीविकोपार्जन के अनेकानेक साधनों के अध्ययन को मुख्य मानते हैं। संक्षेप में विश्व के विभिन्न भागों में मिलने वाले खनिज, कृषि, औद्योगिक साधनों का उत्पादन, उपभोग, वितरण, परिवहन तथा व्यापारिक अध्ययन आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत किया जाता है।
वर्तमान में मानव ने विज्ञान और तकनीक की सहायता से आशानुरूप विकास कर लिया है। मानव ने अपने आर्थिक क्षेत्र का विस्तार, समुद्र, भू-गर्भ और अन्तरिक्ष तक कर लिया है। व्यावहारिक जगत में आर्थिक भूगोल के अध्ययन का अत्यधिक महत्व है; इसके अध्ययन के माध्यम से कृषक, श्रमिक, व्यापारी, उद्योगपति तथा राजनीतिज्ञ सव ही लाभान्वित होते हैं।
विभिन्न देशों को अपनी आर्थिक क्षमता बढ़ाने तथा विकास की भावी योजनाओं के निर्माण में आर्थिक भूगोल के अध्ययन को आधार बनाना पड़ता है। किसी प्रदेश के आर्थिक साधनों का उच्चतम सीमा तक विकास कर वहां की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए जीविकोपार्जन के साधन सुलभ किए जा सकते हैं। किसी देश की अर्थव्यवस्था को सन्तुलित तथा मानव शक्ति को उत्पादन क्रिया से सम्बद्ध करने में आर्थिक भूगोल का योगदान बड़ा महत्वपूर्ण होता है।
मानव की आधुनिक अनुसन्धान एवं अन्वेषण की प्रवृत्ति ने मानव के आर्थिक क्रिया-कलापों को और अधिक विस्तृत बना दिया है।
इस विषय की मुख्य संकल्पनाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) आर्थिक भू-दृश्य:-
इसमें किसी प्रदेश के आर्थिक व्यक्तित्व को अभिव्यक्त किया जाता है। मानव द्वारा प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग पर बल दिया जाता है।
(2) गत्यात्मक आर्थिक भू-दृश्य:-
इस संकल्पना में सदैव परिवर्तन एवं विकास के तत्व को महत्व दिया गया है। जहां आर्थिक भू-दृश्य भूतकाल के आर्थिक कार्यों का परिणाम है, वहां गत्यात्मक आर्थिक भू-दृश्य पुरोगामी और भावी विकास की सम्भावनाओं को व्यक्त करता है।
(3) वर्तमान आर्थिक भू-दृश्य:-
ये संसाधन, संरचना, आर्थिक विकास एवं आर्थिक प्रक्रिया द्वारा उपलब्धि के परिचायक हैं। वहां की आर्थिक स्थिति को विकासावस्था स्तर भी प्रकट करते हैं। युवावस्था में संसाधनों के शोषण के अवसर उपलब्ध रहते हैं; चरमोत्कर्ष की परिपक्व अवस्था में संसाधनो के उच्चतम उपभोग एवं वृद्धावस्था में विकास की अवरुद्ध एवं धीमी प्रगति के आसार दृष्टिगोचर होते रहते हैं।
(4) आर्थिक क्रिया-कलापों की स्थिति में सिद्धान्तों और नियमों के आधार पर स्थिति-स्थापना तथा वितरण की व्याख्या की जाती है। इसमे विषय-वस्तु उपागम तथा प्रादेशिक उपागम को आधार बना कर अध्ययन किया जाता है।
(5) क्षेत्रीय आर्थिक भिन्नता के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं जैविक भिन्नता के अन्तर के परिणामस्वरूप उपलब्धि के स्तर में भी भिन्नता मिलती है।
(6) क्षेत्रीय क्रियात्मक अन्योन्यक्रिया में विभिन्न प्रदेशो में विचित्र-सा पारस्परिक क्रियात्मक अन्तर सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है। यह सम्बन्ध लम्बवत् और क्षैतिज दोनों प्रकार का होता है।
(7) भू-दृश्यों का क्षेत्रीय कार्यात्मक सगठन संकेन्द्रीय और समान दोनों प्रकार का होता है। इसमें पारस्परिक सम्बन्ध कहीं स्पष्ट तो कहीं अस्पष्ट होता है। अस्पष्ट सम्बन्धों को परिवहन और संचारवाहन से सम्बद्ध किया जाता है।
(8) क्षेत्रीय आर्थिक विकास संकल्पना में विकास की तुलना, अन्य प्रदेशों से सांस्कृतिक तथा तकनीकी प्रगति और प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर की जाती है। प्रगति के लिए क्षेत्र विशेष के आर्थिक संसाधनों के विकास पर अधिकाधिक बल दिया जाता है।
आर्थिक भूगोल के अध्ययन उपागम एवं विधियाँ
(APPROACHES AND METHODS OF ECONOMIC GEOGRAPHY)
आर्थिक भूगोल के सन्तुलित अध्ययन के लिए कई उपागमों व अध्ययन विधियों का प्रयोग किया जाता है, जो कि एक-दूसरे की पूरक हैं। निम्नांकित चार उपागम अध्ययन दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
(1) वस्तुगत उपागम (Commodity Approach):-
इस उपागम के अन्तर्गत विभिन्न वस्तुओं, जैसे- गेहूं, चावल, गन्ना, लोहा, पेट्रोलियम आदि के उत्पादन एवं वितरण का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। किन्तु कुछ विद्वान इस उपागम में वस्तुओं के उत्पादन एवं वितरण का विश्लेषण न करके व्यवसाय का वितरण और विश्लेषण करते हैं। जैसे- कृषि व्यवसाय, वस्तु संग्रह एवं आखेट व्यवसाय, खनन व्यवसाय, उद्योग आदि। इस कारण इस उपागम को ‘व्यवसाय उपागम’ (Occupational Approach) भी कहा जाता है।
(2) प्रादेशिक उपागम (Regional Approach):-
इस उपागम के अन्तर्गत सर्वप्रथम विश्व को कुछ बृहत् प्राकृतिक प्रदेशों में विभक्त कर लिया जाता है और प्रत्येक प्रदेश के प्राकृतिक वातावरण तथा विभिन्न वस्तुओं के वितरण प्रतिरूप का अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाता है।
(3) सैद्धान्तिक उपागम (Theoretical Approach):-
इस उपागम के अन्तर्गत किसी भी वस्तु या प्रदेश की विशेषताओं एवं वितरण प्रतिरूप का अध्ययन पूर्व निर्धारित सिद्धान्तों के सन्दर्भ में किया जाता है। इस अध्ययन विधि से मुख्यतः सिद्धांतों को स्पष्ट करना महत्वपूर्ण माना जाता है, न कि वितरण प्रतिरूप का विश्लेषण करना।
(4) क्रमबद्ध उपागम (Systematic Approach):-
इस उपागम के अन्तर्गत वस्तुओं के वितरण की सामान्य विशेषताओं का क्रमबद्ध विश्लेषण किया जाता है। यह क्रमबद्ध अध्ययन तीन चरणों में सम्पन्न किया जाता है:-
(1) प्रथम चरण में किसी भी वस्तु की स्थिति तथा वितरण के प्रतिरूप का अध्ययन किया जाता है।
(ii) द्वितीय चरण में उस वस्तु विशेष की विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है।
(iii) तृतीय चरण में उस वस्तु का अन्य प्राकृतिक एवं मानवीय तत्वों से सम्बन्ध का विश्लेषण किया जाता है। ये अन्तर्सम्बन्ध ‘कार्यकरण सम्बन्ध’ (Cause and Effect Relationship), ‘क्रियात्मक सम्बन्ध’ (Functional Relationship) तथा ‘क्षेत्रीय सम्बन्ध’ (Areal Relationship) के रूप व्यक्त किए जाते हैं।
9. Discuss the importance of Economic activities.
आर्थिक क्रियाकलाप का महत्त्व बताइए।
उत्तर- मानव अपनी मूलभूत और उच्चतर आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाएँ करता है। इन क्रियाओं द्वारा मानव की आर्थिक प्रगति होती है। मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं पर भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है। चूंकि पृथ्वी सतह पर भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण में क्षेत्रीय विभिन्नता विद्यमान है, अतः मानव की आर्थिक क्रियाओं में भी क्षेत्रीय विभिन्नता पाई जाती है।
उदाहरण के लिए वनों में मानव एकत्रीकरण या संग्रहण, आखेट एवं लकड़ी काटने जैसे आर्थिक क्रियाएँ सम्पन्न करता है तो घास के मैदानों में पशुचारण, उपजाऊ समतल मैदानी भागों में कृषि, खनिजों की उपलब्धि वाले क्षेत्रों में खनन, जल की उपलब्धि वाले क्षेत्रों में मत्स्याखेट जैसी आर्थिक क्रियाएँ करता है। साथ ही अनुकूल अवस्थिति वाले क्षेत्रों में विनिर्माण उद्योगों, परिवहन, व्यापार एवं सेवाओं से सम्बन्धित आर्थिक गतिविधियों में भी संलग्न रहता है।
मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं या गतिविधियों को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, यद्यपि ये चारों वर्ग एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं:
1. प्राथमिक व्यवसाय (Primary Occupation):-
प्राथमिक व्यवसाय पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित होते हैं। प्राथमिक व्यवसायों के संचालन हेतु अपेक्षाकृत विस्तृत क्षेत्र की आवश्यकता होती है। वनों से संग्रहण, आखेट, लकड़ी काटना घास के मैदानों में पशु चराना, पशुओं से दूध, मांस, खालें, आदि प्राप्त करना, समुद्रों, नदियों एवं झीलों से मछली पकड़ना, कृषि तथा खानों से खनिज निकालना, आदि प्रमुख प्राथमिक व्यवसाय हैं।
विश्व के विकासशील देशों में कार्यशील जनसंख्या का अधिकांश भाग प्राथमिक व्यवसायों में लगा हुआ है और विकसित देशों में कार्यरत जनसंख्या का अधिकांश भाग तृतीयक एवं चतुर्थक व्यवसायों में कार्यरत है।
भारत में 60 प्रतिशत, चीन में 50 प्रतिशत, इथोपिया में 80 प्रतिशत, नाइजीरिया में 70 प्रतिशत जनसंख्या प्राथमिक व्यवसायों में लगी हुई है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में 8 प्रतिशत, ग्रेट ब्रिटेन में 1 प्रतिशत, जापान में 5 प्रतिशत जनसंख्या ही प्राथमिक व्यवसायों में संलग्न है।
2. द्वितीयक व्यवसाय (Secondary Occupation):-
द्वितीयक या गौण व्यवसाय में वे सभी प्रकार के विनिर्माण उद्योग सम्मिलित किए जाते हैं जो प्राथमिक व्यवसायों जैसे- कृषि, खनन, पशुपालन, मत्स्य संग्रहण, लकड़ी काटना, आदि से प्राप्त उत्पादों को कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त कर मशीनी प्रक्रिया द्वारा उसे तैयार माल में बदलते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा गौण व्यवसाय कच्चे माल के स्वरूप में परिवर्तन करते हैं, उसके मूल्य में वृद्धि करते हैं और उसकी उपयोगिता को बढ़ा देते हैं।
उदाहरण के लिए कृषि से प्राप्त गन्ना गौण व्यवसाय के लिए कच्चा माल है, मशीनी प्रक्रिया द्वारा गन्ने से चीनी बनाई जाती है। इस प्रकार गन्ने का स्वरूप भी परिवर्तित हो जाता है, गन्ने से शक्कर बनने पर उसके मूल्य और उपयोगिता में वृद्धि हो जाती है।
इसी प्रकार लौह अयस्क का खनन प्राथमिक व्यवसाय है, लेकिन लोहा-इस्पात का निर्माण गौण व्यवसाय है। विभिन्न प्रकार के उद्योग एक-दूसरे के निकट स्थापित हो जाते हैं, क्योंकि एक उद्योग का तैयार माल दूसरे उद्योग के लिए कच्चा माल हो सकता है। उदाहरण के लिए लौह इस्पात उद्योग अनेक प्रकार के इंजीनियरिंग उद्योगों को विकसित कर सकता है।
उद्योगों का विकास कच्चे माल, शक्ति, श्रमिक, पूंजी और तैयार माल के लिए बाजार की उपलब्धि पर निर्भर है। इन कारकों के अलावा परिवहन और संचार की सुविधाएं, कच्चे माल और शक्ति का लागत मूल्य, श्रमिकों का वेतन तथा तैयार माल का लागत मूल्य भी उद्योगों की स्थापना और विकास में महत्वपूर्ण आर्थिक कारक है।
किसी देश में गौण व्यवसायों में कितनी विविधता है तथा उन व्यवसायों में कितने लोग काम करते हैं, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश में औद्योगिक विकास कितना हुआ है। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, जर्मनी, फ्रांस, इटली, ग्रेट ब्रिटेन, जापान, कनाडा, आस्ट्रेलिया, आदि देशों में प्राथमिक व्यवसायों की तुलना में गौण व्यवसायों में अधिक लोग काम करते हैं।
उद्योगों में कार्यरत लोगों की संख्या, उपयोग में आने वाली यान्त्रिक शक्ति तथा निर्मित उत्पादों के मूल्य के आधार पर उद्योग तीन प्रकार के होते हैं यथा- वृहत् उद्योग, लघु उद्योग और कुटीर उद्योग।
दस्तकार स्थानीय पदार्थों का उपयोग करके दस्तकारी की वस्तुएं बनाते हैं। हथकरघा, बुनकर, टोकरी बनाने वाले, कालीन बनाने वाले, आदि गौण व्यवसायों में लगे हैं। इन गौण व्यवसायों को कुटीर उद्योग कहते हैं। कुटीर उद्योग की प्रत्येक इकाई में लोग कम संख्या में काम करते हैं और इनमें यांत्रिक शक्ति का प्रयोग नहीं होता है।
लघु उद्योग यांत्रिक शक्ति का उपयोग करते हैं। ये उद्योग बड़े उद्योगों के लिए पुर्जे भी बनाने हैं। इलेक्ट्रोनिक वस्तुएं बनाने वाली औद्योगिक इकाइयां जैसे- रेडियो, टी. वी. सेट, प्लास्टिक की वस्तुएं, सामान्यतः लघु उद्योगों की श्रेणी में आते हैं।

वृहत् उद्योगों में सैकड़ों लोग काम करते हैं और इनमें करोड़ों रुपए की पूंजी लगी हुई होती है। इनमें से कुछ उद्योग जैसे मोटर कार उद्योग या दुपहिया वाहन उद्योग अधिक उत्पादन के लिए एसेम्बली लाइन तकनीक का उपयोग करते हैं। एसेम्बली लाइन में अलग-अलग स्थानों पर कच्चे पदार्थ तथा विविध पुर्जों को जोड़ने का कार्य होता है।
एसेम्बली लाइन पर जैसे-जैसे निर्माणाधीन वस्तु आगे सरकती है, प्रत्येक श्रमिक कोई निश्चित काम करता है, फिर दूसरी निर्माणाधीन वस्तु में वह वही काम करता है। इस तरह अन्त तक पहुंचते-पहुंचते वस्तु का निर्माण पूरा हो जाता है और इस प्रकार एसेम्बली लाइन में से निर्मित वस्तु बाहर निकलती है। इस विधि में प्रत्येक श्रमिक किसी एक काम में विशेष दक्ष होता है, जिसे वह बार-बार दोहराता है। निर्माण उद्योगों के परिणामस्वरूप प्राथमिक व्यवसायों जैसे- कृषि, खनन, मत्स्य ग्रहण, आदि में भी मशीनों का खूब प्रयोग होने लगा है।
3. तृतीयक व्यवसाय (Tertiary Occupation):-
तृतीयक व्यवसायों में समाज को दी जाने वाली व्यक्तिगत तथा व्यावसायिक सेवाएं सम्मिलित हैं। इस व्यवसाय को सेवा श्रेणी भी कहा जाता है। सामान्यतः विकास की प्रक्रिया का एक निश्चित क्रम होता है। प्रारम्भ में प्राथमिक व्यवसायों की प्रधानता होती है। इसके बाद गौण व्यवसायों का महत्व बढ़ता है तथा अन्त में तृतीयक और चतुर्थक व्यवसाय महत्वपूर्ण बन जाते हैं।
तृतीयक व्यवसायों के अन्तर्गत समाज को प्रदान की जाने वाली सेवाओं में रेल, सडक, जहाज, वायुयान, सेवाएं, डाक-तार सेवाएं, दूरदर्शन, रेडियो, फिल्म, साहित्य, कानूनी सेवाएं, जनसम्पर्क और परामर्श, विज्ञापन, वित्त, बीमा, थोक और फुटकर व्यापार, मरम्मत के कार्य जैसी सेवाएं, स्थानीय, राज्यीय, राष्ट्रीय प्रशासन, पुलिस, सेना और अन्य जन सेवाएं तथा गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएं उल्लेखनीय हैं।
उद्योगों के विकास के साथ-साथ नगरीय जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की सेवाओं की मांग में भी वृद्धि हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में नगरीय क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक संख्या में लोग तृतीयक व्यवसायों में संलग्न हैं।
विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों में कार्यरत जनसंख्या का अधिकांश भाग सेवाओं में लगा हुआ है। उदाहरण के लिए जापान में 70 प्रतिशत, आस्ट्रेलिया में 73 प्रतिशत, कनाडा में 74 प्रतिशत, जर्मनी में 64 प्रतिशत कार्यशील लोग तृतीयक व्यवसायों में संलग्न हैं जबकि भारत में 23 प्रतिशत और चीन में 28 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या ही तृतीयक व्यवसायों में लगी हुई है।
विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने से विभिन्न प्रकार की सेवाओं विशेषकर मनोरंजन, परिवहन और स्वास्थ्य सेवाओं की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। प्राथमिक एवं गौण व्यवसायों में काम करने वाले लोगों की भांति तृतीयक व्यवसायों में सेवारत लोगों के कार्य भी महत्वपूर्ण हैं। प्राथमिक और गौण व्यवसायों में लगे लोग, समाज के लिए आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करते हैं और तृतीयक व्यवसायी समाज को विभिन्न सेवाएं प्रदान करते हैं।
4. चतुर्थक व्यवसाय (Quaternary Occupation):-
वर्तमान समय में मानव के आर्थिक क्रियाकलाप दिनोंदिन बहुत ही विशिष्ट और जटिल होते जा रहे हैं। फलतः मानव की कानून, वित्त, शिक्षा, शोध और संचार से जुड़ी उन आर्थिक गतिविधियों को जो सूचना (information), सूचना के संग्रहण, (Acquisition), सूचना के संसाधन, (Manipulation) और सूचना के प्रसारण (Transmission) से सम्बन्धित है, को चतुर्थक व्यवसाय के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है।
वर्तमान में विश्व के लगभग सभी देशों में और विशेषकर विकसित देशों में चतुर्थक व्यवसाय में संलग्न लोगों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इस व्यवसाय के लोगों में उच्च वेतनमान और पदोन्नति की चाह में गतिशीलता अधिक पाई जाती है।
कम्प्यूटर के बढ़ते प्रयोग और सूचना प्रौद्योगिकी ने इस व्यवसाय के महत्व को बहुत बढ़ा दिया है। परिणामस्वरूप औद्योगिक समाज के तकनीकी तत्वों में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गया है और वर्तमान आर्थिक क्रियाकलाप मुख्य रूप से उन अप्रत्यक्ष उत्पादों से प्रभावित हो गए हैं जिनके उत्पादन में ज्ञान, सूचना और संचार अधिक महत्वपूर्ण है।
10. Explain the production and distribution of Iron and Textile Industry in the world,
विश्व में लौह-इस्पात उद्योग के उत्पादन एवं वितरण का विवरण दीजिए।
उत्तर- विश्व में अति प्राचीन काल से लौह खनिज का उपयोग मनुष्य करता रहा है। भारत में लौह खनिज के उपयोग का इतिहास लोहे की खोज के साथ जुड़ा है। दिल्ली में कुतुबमीनार के प्रांगण में स्थित लौह स्तम्भ विदेशी धातु विज्ञानियों के लिए एक आश्चर्यजनक निर्माण है। जंक रहित लोहा बनाने की कला का यह अनूठा प्रयोग है।
आज लोहा यांत्रिक युग की धुरी बन गया है क्योंकि अधिकांश यंत्र इसी से बनाये जा रहे हैं। इसकी कठोरता, टिकाऊपन और अन्य धातुओं के साथ मिलकर मजबूत बनने की क्षमता के कारण इसका उपयोग दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। लोहे का सक्षम विकल्प अभी तक सामने नहीं आया है।
लौह अयस्क के प्रकार-
लौह अयस्क को लोहे के अंश के आधार पर चार वर्गों में विभाजित किया जाता है:
(i) मैग्नेटाइट (Magnetite) Fe3O4: यह सर्वोत्तम किस्म का लौह अयस्क होता है, जिसमें लोहे की मात्रा लगभग 72% होती है। इसमें वाष्प की मात्रा सबसे कम होती है एवं इसका रंग काला होता है।
(ii) हेमाटाइट (Hematite) Fe2O2: यह लोहे का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जिसमें लोहे का अंश लगभग 70 प्रतिशत होता है।
(iii) लिमोनाइट (Limonite) 3Fe2O3 3H2O: इसमें धातु का अंश 60 प्रतिशत तक रहता है। इसका रंग पीला होता है।
(iv) सिडेराइट (Siderite) FeCO3: यह सर्वाधिक निम्न कोटि का अयस्क है, जिसमें लोहे का अंश 48 प्रतिशत होता है।
विश्व में लौह अयस्क का संचित भण्डार-
पृथ्वी के धरातल के निर्माण में लौह तत्त्व की मात्रा लगभग 5 प्रतिशत है। फलतः यह प्रायः सर्वत्र पाया जाने वाला खनिज है। वर्तमान अनुमानों के अनुसार 50 प्रतिशत से 70 प्रतिशत धात्विक सम्पन्नता का लौह खनिज भण्डार 3700 अरब मीटरी टन है।
संचित भण्डार का 18.9 प्रतिशत यूक्रेन, 16.5 प्रतिशत ब्राजील 15.1 प्रतिशत रूस, 12.4 प्रतिशत चीन, 10.8 प्रतिशत आस्ट्रेलिया 5.1 प्रतिशत कजाकिस्तान, 4.1 प्रतिशत संयुक्त राज्य अमेरिका, 2.6 प्रतिशत भारत 2.1 प्रतिशत स्वीडेन और 1.6 प्रतिशत वेनेजुएला में आँका गया है। इस प्रकार विश्व के दस देश 89 प्रतिशत से अधिक लौह अयस्क भण्डार संजोए हुए हैं। शेष 11 प्रतिशत बाकी विश्व के देशों में पाया जाता है।
निम्नस्तरीय धातुओं का भण्डार उच्चस्तरीय धातु के अयस्कों से पाँच से छः गुना अधिक है लेकिन उसकी ओर अभी विश्व का ध्यान नहीं है। उत्पादन के दृष्टिकोण से विकसित राष्ट्र आगे है।
लौह अयस्क का उत्पादन
लौह अयस्क का उत्पादन उपयोग पर आधारित होता है, फलत: विकसित देशों में इसकी माँग अधिक होने से उत्खन्न भी अधिक होता है। 1960 ई० तक विश्व का लौह अयस्क उत्पादन 2565 लाख मीट्रिक टन और 2006 में 18000 लाख मीट्रिक टन हो गया। इससे स्पष्ट है कि दिनोदिन लौह अयस्क की माँग बढ़ती जा रही है।
विश्व का तीन-चौथाई लौह अयस्क मात्र दस देशों द्वारा उत्पादित होता है, जिसमें चीन, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, भारत, रूस, यूक्रेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, कनाडा और स्वीडेन अग्रणी हैं। अन्य प्रमुख उत्पादकों में वेनेजुएला, कजाकिस्तान, ईरान, मैक्सिको और मारुतानिया विशेष उल्लेखनीय हैं।
विश्व में कच्चे लोहे के उत्पादन में 1975-2006 के बीच लगभग तीन गुने से अधिक की वृद्धि हुई है। कनाडा, जापान, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे उद्योग प्रधान देशों में लोहे का उत्पादन घटा है। ये देश कच्चे लोहे का विकासशील देशों से आयात कर रहे हैं तथा अपने संसाधनों को बचा रहे हैं। यही स्थिति दक्षिण-पूर्व एशिया की भी है।
संसार का 32.7 प्रतिशत चीन, 17.7 प्रतिशत ब्राजील, 15.3 प्रतिशत आस्ट्रेलिया, 8.9 प्रतिशत भारत और 5.7 प्रतिशत रूस लौह अयस्क का उत्पादन कर रहे हैं, जो विश्व उत्पादन का 78 प्रतिशत है। विश्व में कच्चे लोहे का उत्पादन क्रमशः बढ़ रहा है। विश्व के दस देश कुल उत्पादन का लगभग 93 प्रतिशत लौह-अयस्क उत्पादित करते हैं।
1. चीन-
यहाँ सामान्य स्तर के लौह अयस्क का विशाल भण्डार है जिसमें धातु सम्पन्नता चालीस प्रतिशत के आस-पास है। यहाँ का संचित भण्डार अभी परिवहन मार्गो की कमी के कारण उपयोग में नहीं लाया जा रहा है क्योंकि भण्डार दूर-दराज के इलाकों में स्थित है।
चीन में लौह उत्खनन का तीव्र विकास 1950 के बाद शुरू हुआ जब घरेलु खपत के साथ निर्यात भी उत्पन्न हो गया। वर्तमान सूचनाओं के अनुसार चीन सर्वाधिक 58.8 करोड़ मीटरी टन से अधिक लौह-अयस्क स्थानान्तरित कर रहा है। हाल के वर्षों में तीव्र उत्पादन के कारण वह विश्व का प्रथम बड़ा लौह उत्पादक देश बन गया है। यहाँ का लगभग आधा संरक्षित भण्डार दक्षिणी मंचूरिया में है, जिसमें आशन-चांगलिंग एवं पेन्की क्षेत्र प्रमुख उत्पादक हैं।
2. ब्राजील-
लौह अयस्क के उत्पादन में ब्राजील विश्व का दूसरा बड़ा उत्पादक देश बन गया है जो इसके उच्चकोटि के लौह अयस्क, विदेशी माँग और अनुकूल परिस्थिति में निक्षेपण के कारण सम्भव हुआ है। 1960 में यह विश्व का दसवाँ बड़ा उत्पादक था लेकिन इसके बाद उत्पादन तीव्र गति से बढ़ा और उछल कर यह दूसरे स्थान पर चला गया। यहाँ विश्व का 17.7 प्रतिशत लौह अयस्क भण्डार मिनास-गेरास राज्य के पठारी भाग में है। यही क्षेत्र उत्पादन में भी अग्रणी है।
3. आस्ट्रेलिया-
आस्ट्रेलिया में लौह खनिज का उत्पादन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। 1960 की तुलना में यहाँ का उत्पादन लगभग डेढ़ गुना हो गया है। यह विश्व का लगभग 15.3 प्रतिशत लौह-अयस्क उत्पादित करता है और विश्व का तीसरा बड़ा उत्पादक देश है।
4. भारत-
यह विश्व का चौथा बड़ा लौह अयस्क उत्पादक देश हो गया है, जो आन्तरिक खपत और विदेशी माँग के कारण अपने उत्पादन को निरन्तर बढ़ाता रहा है। भारत में चीन के बाद एशिया का सबसे बड़ा लौह अयस्क भण्डार उपलब्ध है। यहाँ का लौह-अयस्क उच्च कोटि का है, जिससे इसकी विदेशी माँग बढ़ती जा रही है। 2006 में भारत का उत्पादन 1600 लाख मीटरी टन से अधिक था, जो विश्व उत्पादन का 8.9 प्रतिशत है।
5. रूस-
रूस विश्व का सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक रहा है, जो 1958 के बाद निरन्तर अपना प्रथम स्थान बनाये हुए था। यह अकेले विश्व का एक चौथाई से अधिक लोहा उत्खनित करता रहा है। रूस के विघटन के बाद यहाँ विश्व का 15.1 प्रतिशत लौह भण्डार सुरक्षित है। यहाँ 30 क्षेत्रों में उत्खनन कार्य किया जा रहा है।
6. यूक्रेन-
दक्षिणी यूक्रेन में स्थित क्षेत्रों से उच्च कोटि का हेमाटाइट लौह अयस्क निकाला जाता है। इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और धात्विक सम्पन्नता के कारण यह पूर्व सोवियत संघ का सर्वश्रेष्ठ खनिज लौह उत्पादक क्षेत्र रहा है, हालांकि कोयले का क्षेत्र (डोनवास) इससे 400 किमी० की दूर है।
यहाँ का अधिकांश उत्पादन यूक्रेन और मास्को-तुला क्षेत्र में प्रयुक्त होता है। यहाँ का कुछ उत्पादन पूर्वी यूरोप के इस्पात केन्द्रों को भी भेजा जाता रहा है। क्रिबोईराग यूक्रेन का सबसे बड़ा लौह-अयस्क उत्पादन क्षेत्र है। 2006 में यहाँ का उत्पादन विश्व का 4.1 प्रतिशत था।
7. संयुक्त राज्य अमेरिका-
उच्च कोटि का लौह अयस्क, सुविधाजनक स्थिति, पर्याप्त रक्षित भण्डार, उन्नत प्रावधिकी और पर्याप्त माँग के कारण 1958 तक संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व का अग्रणी लौह अयस्क उत्पादक देश था। राष्ट्रीय संरक्षण नीति के कारण इसका उत्पादन नियंत्रित कर दिया गया है, जिसके फलस्वरूप अब यह विश्व का सातवाँ बड़ा उत्पादक हो गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पाँच क्षेत्र रक्षित भण्डार और उत्पादन दोनों के दृष्टिकोण से अग्रणी हैं। 2006 में यहाँ विश्व का केवल 2.9 प्रतिशत लौह अयस्क उत्पादित हुआ था।
8. दक्षिणी अफ्रीका संघ-
दक्षिणी अफ्रीका संघ में लौह धातु का उत्खनन अप्रत्याशित गति से बढ़ा है। 1960 में यह विश्व का मात्र एक प्रतिशत लौह अयस्क उत्पादित करता था लेकिन 2006 में इसका हिस्सा बढ़कर 2.3 प्रतिशत हो गया है। स्पष्ट है कि लौह अयस्क का उत्पादन व्यापारिक कारणों से अधिक बढ़ा है। यहाँ का अधिकांश लौह अयस्क निर्यात किया जाता है।
यहाँ की लौह अयस्क की खानें ट्रांसवाल, आरेन्ज फ्री स्टेट और कपेटाउन प्रान्तों में स्थित हैं जो रेल मार्गों से सेवित हैं इन्हीं खानों के निकट मैगनीज और कोयले की खानें भी स्थित हैं।
9. कनाडा-
कनाडा का लौह खनिज भण्डार उच्च कोटि का है। देश में सीमित माँग के बावजूद संयुक्त राज्य अमेरिका की बढ़ती माँग और जल यातायात की सुविधा के कारण यहाँ का उत्पादन तीव्र गति से बढ़ रहा है। 1948 में यहाँ मात्र चौदह लाख टन लौह खनिज का उत्पादन हुआ था, जो बढ़कर 2006 में 3.4 करोड़ मीटरी टन से अधिक हो गया है। कनाडा की प्रमुख खानें लेब्रोडोर (शेफलतिल) ओन्टोरिया, नेवस्का, क्यूवेक, ब्रिटिश कोलम्बिया तथा न्यूफाउण्डलैण्ड में हैं। यह विश्व का 9वाँ बड़ा उत्पादक है। 2006 में यहाँ विश्व का 1.9 प्रतिशत लौह अयस्क उत्पादित हुआ था।
10. स्वीडन-
स्वीडेन तीव्र उत्पादन के कारण यूरोप का प्रमुख लौह उत्पादक देश बन गया है। 2006 में यहाँ का उत्पादन 236 लाख मीटरी टन था, जो विश्व उत्पादन का 1.3 प्रतिशत है। उच्चकोटि के लौह खनिज के कारण स्वीडेन के लौह खनिज की अधिक माँग है।
11. वेनेजुएला-
यह विश्व का ग्यारहवाँ प्रमुख लौह अयस्क उत्पादक देश है, जो 1960 के बाद अपना उत्पादन तीव्र गति से बढ़ाने में सफलता प्राप्त कर सका है। यहाँ का लौह अयस्क उच्चकोटि का है, जिसकी माँग संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय देशों में है। इस देश की आय का लगभग तीस प्रतिशत भाग अयस्क नियत से प्राप्त होता है। 2006 में यहाँ विश्व का 1.3 प्रतिशत लौह-अयस्क उत्पादित हुआ था। वेनेजुएला में अधिकांश उत्पादन सेन बोलिवार तथा एलपाओ की खानों से प्राप्त किया जाता है ,यहाँ की संचित राशि बहुत अधिक है।
लैटिन अमेरिका के अन्य देश-
चिली और पेरू लैटिन अमेरिका के अन्य महत्त्वपूर्ण देश है जहाँ लौह अयस्क का उत्पादन तीव्र गति से बढ़ रहा है। इन देशों में कोयले की कमी के कारण अधिकांश उत्खनन निर्यात के लिए किया जाता है। चिली के तटीय भाग में वृन्तोको तथा रामेन्ल क्षेत्रों से अधिकांश लौह अयस्क प्राप्त किया जाता है। पेरू की खाने मारकोना एवं अकोर में हैं। जहाँ उच्चकोटि का लौह-अयस्क प्राप्त किया जाता है।
यूरोप के लौह-अयस्क उत्पादक देश-
यूरोप के प्रमुख उत्पादकों में स्वीडेन के अतिरिक्त फ्रान्स, स्पेन, पूर्व यूगोस्लाविया और नार्वे विशेष उल्लेखनीय हैं। 1960 तक फ्रांस विश्व का चौथा बड़ा लौह उत्पादक देश रहा है, लेकिन अब यहाँ का उत्पादन बहुत तेजी से घटा है फलस्वरूप अब यह विश्व का सोलहवाँ उत्पादक बन गया है।
फ्रांस के लौह-अयस्क में धातु की मात्रा चालीस प्रतिशत से कम है लेकिन रक्षित भण्डार बहुत अधिक है। लाँगवी, लान्द्रे, ओटाज ओर्न और नेन्सी प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं। इसके अतिरिक्त नारमण्डी, ब्रिटेन एवं मध्यवर्ती पठार में भी छिटपुट जमाव पाया जाता है। स्पेन में उच्चकोटि का अयस्क प्राप्त किया जाता है जिसमें धातु की मात्रा साठ प्रतिशत से अधिक है। यहाँ सबसे अधिक उत्पादन बिलिवाओं क्षेत्र से प्राप्त किया जाता है। इसके अतिरिक्त पिरेनीज एवं जिब्राल्टर क्षेत्रों में लौह अयस्क प्राप्त किया जाता है।
कजाकिस्तान-
सोवियत संघ के विघटन के बाद कजाकिस्तान विश्व का तेरहवाँ प्रमुख लौह अयस्क उत्पादक देश बन गया है, जो 2006 में विश्व का 1.0 प्रतिशत लौह अयस्क उत्पादित किया था।
ईरान-
ईरान विश्व का 1.1 प्रतिशत लौह अयस्क उत्पादित कर बारहवें स्थान पर आ गया है।
विश्व के अन्य प्रमुख उत्पादकों में मैक्सिकों, मारुतानिया, जर्मनी, लाइबेरिया, स्पेन, ब्रिटेन, पेरू, चिली, अल्जीरिया, मोरक्को, ट्यूनिएिशया, मारुतानिया, गैबन, स्वाजीलैण्ड, अंगाला, तुर्की, फिलीपीन्स, मलेशिया एवं इण्डोनेशिया के नाम विशेष उल्लेखनीय है।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार-
वर्ष 1999 में चीन संसार का सबसे बड़ा लौह-आयस्क उत्पादक देश था। इसके बाद ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, भारत तथा रूस का स्थान था। लोहे का विश्व व्यापार काफी बड़ी मात्रा में होता है। ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा एवं भारत लौह अयस्क के प्रमुख निर्यातक देश हैं, जिनका निर्यात व्यापार में हिस्सा 70 प्रतिशत है। अन्य निर्यातक देशों में स्वीडन, लाइबेरिया, अल्जीरिया, वेनेजुएला आदि का नाम आता है।
जापान विश्व का सबसे बड़ा लौह अयस्क आयातक (45 प्रतिशत) देश है। अन्य आयातक देशों में जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, इटली एवं फ्रांस प्रमुख हैं।
11. Discuss the role of WTO in terms of International trade.
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सन्दर्भ में विश्व व्यापर संगठन की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- ओपेक जैसे संगठनों के अस्तित्व और वस्तुओं के आयात पर भारी प्रशुल्कों से विश्व में वस्तुओं एवं सेवाओं के मुक्त व्यापार में कृत्रिम बाधा उपस्थित होती है। इन कृत्रिम बाधाओं को दूर करने के लिए तथा अपनी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास हेतु तथा मुक्त व्यापार को प्रोत्साहित करने हेतु अनेक देशों ने प्रादेशिक स्तर पर साझा बाजार की स्थापना की है।
इस प्रकार के साझा बाजार का मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों के बीच कृत्रिम बाधाओं को दूर करते हुए वस्तुओं एवं सेवाओं के मुक्त व्यापार को बढ़ावा देना है। साझा बाजार के सदस्य देश अपनी वस्तुओं का आयात-निर्यात बिना किसी प्रतिस्पर्द्धा, भेदभाव और प्रशुल्क दरों के बीच स्वतंत्रतापूर्वक कर सकते हैं।
इस प्रकार के साझा बाजारों में यूरोपियन आर्थिक समुदाय (EEC) या यूरोपियन संघ (EC) या यूरोपियन साझा बाजार (ECM) उल्लेखनीय हैं जिसकी स्थापना 1951 में 6 यूरोपियन देशों द्वारा अपने कोयला और इस्पात उद्योग के समन्वय विकास हेतु हुई।
वर्तमान में 15 सदस्य देशों के साथ यह एक शक्तिशाली साझा बाजार व्यवस्था है। अन्य साझा बाजार व्यवस्था वाले संगठनों में 1994 में कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका और मेक्सिको द्वारा स्थापित उत्तरी अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता (नाफ्टा), 1973 में 13 केरीबियन देशों द्वारा स्थापित केरीबियन समुदाय और साझा बाजार (केरीकोम), 1969 में स्थापित लैटिन अमेरिकी स्वतंत्र व्यापार संघ (लाफ्टा) उल्लेखनीय हैं।
देशों के बीच मुक्त व्यापार को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों के अन्तर्गत हवाना में 1947-48 में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें 53 देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन का गठन करने सम्बन्धी एक चार्टर पर हस्ताक्षर किए, किन्तु अमेरिका का समर्थन न मिल पाने के कारण विश्व व्यापार संगठन स्थापित नहीं किया जा सका।
अन्ततः विश्व व्यापार संगठन की स्थापना 1.1.1995 को प्रशुल्क और व्यापार सम्बन्धी सामान्य करार (General Agreement on Trade and Tarrif) (GATT) के उरुग्वे दौर में हुए समझौते के परिणामस्वरूप हुई।
प्रशुल्क और व्यापार सम्बन्धी करार (गैट):-
गेट एक बहुपक्षीय व्यापार सन्धि है जो जेनेवा में 23 देशों के मध्य हुए समझौते के आधार पर 1 जनवरी, 1948 से लागू हुई। इसका उद्देश्य परस्पर सहमति द्वारा व्यापारिक प्रतिबन्धों को समाप्त करना था। गैट वार्ताओं के अब तक कुल बारह चक्र आयोजित किए गए हैं। उरुग्वे के पश्चात् दोहा और कानकुन में इन वार्ताओं के दौर आयोजित किए जा चुके हैं।
सात वर्षीय उरुग्वे दौर में चार नए समझौते हुए जो अब डब्ल्यू. टी. ओ. के मूलभूत समझौते के भाग हैं। ये समझौते निम्न हैं-
1. व्यापार सम्बन्धी बौद्धिक सम्पदा अधिकार (ट्रिप्स),
2. व्यापार सम्बन्धी निवेश उपाय (ट्रिम्स),
3. सेवाओं में व्यापार का सामान्य समझौता (गैट्स)
4. कृषि।
विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य
डंकल समझौते के अन्तर्गत ही गैट के स्थान पर 1 जनवरी, 1995 को विश्व व्यापार संगठन अस्तित्व में आया। इस संगठन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:-
(i) जीवन-स्तर में वृद्धि करना।
(ii) पूर्ण रोजगार एवं प्रभावपूर्ण मांग में वृहत्स्तरीय एवं ठोस वृद्धि करना।
(iii) वस्तुओं के उत्पादन एवं व्यापार का विस्तार करना।
(iv) सेवाओं के उत्पादन एवं व्यापार का विस्तार करना।
(v) विश्व के संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करना।
(vi) सुस्थिर या टिकाऊ विकास की आवधारणा को स्वीकार करना।
(vii) पर्यावरण की सुरक्षा एवं संरक्षण करना।
(viii) विकास के वैयक्तिक स्तरों की आवश्यकता के साथ निरन्तर चलते रहने के साधनों में वृद्धि करना।
इन उद्देश्यों में प्रथम तीन गैट के भी उद्देश्य थे। गैट के उद्देश्यों में विश्व संसाधनों के पूर्ण उपयोग की बात कही गई थी जबकि विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्यों में विश्व संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग पर अधिक बल दिया गया तथा सुस्थिर विकास एवं पर्यावरण की सुरक्षा एवं संरक्षण के उद्देश्यों को भी जोड़ा गया है।
अतः विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य अधिक व्यापक एवं प्रभावी हैं। विश्व व्यापार संगठन की प्रस्तावना में विकासशील देशों और विशेष रूप से कम विकसित देशों के लिए ऐसे सकारात्मक प्रयासों की आवश्यकता बताई गई जो उनकी विकासात्मक आवश्यकताओं के अनुरूप अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उनकी हिस्सेदारी को बढ़ा सकें।
विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख कार्य
विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्यों को मूर्तरूप देने के लिए विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं:-
(i) अन्तर्राष्ट्रीय समझौते से सम्बन्धित विचार विमर्श के लिए एक सामूहिक संस्थागत मंच के रूप में काम करना।
(ii) विश्व व्यापार समझौता, बहुपक्षीय तथा बहुवचनीय समझौते के क्रियान्वयन, प्रशासन तथा परिचालन हेतु सुविधाएं प्रदान करना।
(iii) व्यापार एवं प्रशुल्क सम्बन्धी किसी भी मसले पर सदस्यों को विचार-विमर्श हेतु मंच प्रदान करना।
(iv) व्यापार नीति समीक्षा प्रक्रिया (Trade Policy Revise mechanism) से सम्बन्धित नियमों एवं प्रावधानों को लागू करना।
(v) सदस्य राष्ट्रों के बीच विवादों के निपटारे से सम्बन्धित नियमों एवं प्रक्रियाओं को प्रशासित करना।
(vi) वैश्विक आर्थिक नीति निर्माण में अधिक सामजस्य भाव लाने हेतु विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से पूरा-पूरा सहयोग करना।
(vii) विश्व में संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग को बढ़ावा देना।
इस प्रकार विश्व व्यापार संगठन के कार्यों में उन सभी बातों का समावेश है जिससे उसके सदस्य देशों को समझौते से सम्बन्धित मामलों पर विचार विमर्श का एक सामूहिक संस्थागत मंच प्राप्त होने के साथ-साथ एक एकीकृत स्थायी एवं मजबूत बहुपक्षीय प्रणाली द्वारा व्यापार सम्बन्धों को बढ़ाने, वैधानिक ढंग से विवादों के निपटाने और व्यापार नीति समीक्षा प्रक्रिया के प्रावधानों को लागू करने में सहायता मिलेगी।
गैट और उसके पश्चात् विश्व व्यापार संगठन के गठन होने से प्रायः सभी देश इसकी नीतियां एवं प्रावधानों से प्रभावित हुए हैं। 90 के दशक से विश्व स्तर पर उदारीकरण और वैश्वीकरण द्रुतगति से प्रसारित हो रहे हैं। प्रत्येक देश इनका लाभ उठाने के लिए अपनी नीतियों में संशोधन कर रहा है।
12. What do you understand by special economic zone? Discuss the SEZ of India.
विशेष आर्थिक क्षेत्र से आप क्या समझते हैं? भारत के सेज की चर्चा कीजिये।
उत्तर- विशेष आर्थिक क्षेत्र (Special Economic Zone) एक ऐसे भौगोलिक प्रदेश है जहाँ देश का सामान्य आर्थिक कानून पूरी तरह से लागू नहीं होती। दूसरे शब्दों में ‘SEZ’ शुल्क मुक्त आर्थिक क्षेत्र है जहाँ पर विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता है और उत्पादकों को निर्यात के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
ऐतिहासिक पक्ष
रॉबर्ट सी हेवर्ड के अनुसार SEZ की अवधारणा काफी प्राचीन है। प्राचीनतम SEZ का प्रमाण यूनान के टायर नगर से मिलता है। 1960 ई० में चीन ने SEZ का निर्माण कर अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के प्रयास किया। जबकि भारत ने अप्रैल 2000 ई० में पहले SEZ नीति की घोषणा की।
प्रकार/वर्गीकरण
SEZ कई प्रकार के हो सकते हैं। जैसे- मुक्त व्यापार क्षेत्र (Free Trade Zone) निर्यात संवर्धन क्षेत्र (Export Prossising Zone), मुक्त क्षेत्र (Free Zone), औद्योगिक क्षेत्र (Industrial Estate), मुक्त बंदरगाह, नगरीय उद्यम क्षेत्र इत्यादि।
उद्देश्य
SEZ की स्थापना के पीछे कई उद्देश्य है।
(1) उद्योगों के विकास हेतु विदेशी एवं घरेलू निवेशकों को उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना।
(2) निर्यात को बढ़ावा देना।
(3) अधिक से अधिक रोजगार उत्पन्न करना।
(4) पिछड़े हुए क्षेत्रों को विकसित करना।
(5) सामाजिक-आर्थिक विषमता को कम करना।
(6) औद्योगीकरण तथा नगरीकरण को बढ़ावा देना।
स्वरूप एवं विशेषता
किसी भी एक आदर्श SEZ के अंतर्गत एक हजार हेक्टेयर भूमि पर स्थापित किया जा सकता है और उसमें कम से कम 10 हजार करोड़ रूपये का निवेश होना चाहिए। पुनः उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए:-
(1) SEZ के अंतर्गत कार्य करने वाले इकाइयों के द्वारा वस्तु तथा सेवाओं का मुक्त संचलन होना चाहिए।
(2) विश्व स्तर की आधारभूत संरचना का विकास किया जाना चाहिए।
(3) निर्माण या उत्पादन का कार्य गहन तरीके से होना चाहिए।
(4) निर्यात अभिमुख होना चाहिए।
(5) उन्नत तकनीक होना चाहिए।
(6) उचित प्रबंधन तथा उच्च तकनीक का उपयोग होना चाहिए।
वर्तमान स्थिति एवं महत्त्व
वर्तमान में 379 SEZs अधिसूचित हैं, जिनमें से 265 चालू हैं। लगभग 64% SEZ पाँच राज्यों- तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में स्थित हैं। इससे एक लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिल रहा है। SEZ पर बाबा कल्याणी समिति की सिफारिशों के अनुसार, SEZ में MSME योजनाओं को जोड़कर तथा वैकल्पिक क्षेत्रों को क्षेत्र-विशिष्ट SEZ में निवेश करने की अनुमति देकर MSME निवेश को बढ़ावा देना है।
इसके अतिरिक्त सक्षम और प्रक्रियात्मक छूट के साथ-साथ SEZ को अवसंरचनात्मक स्थिति प्रदान करने हेतु वित्त तक उनकी पहुँच में सुधार करके तथा दीर्घकालिक ऋण को सक्षम करने के लिये भी अग्रगामी कदम उठाए गए। कुछ SEZ के उदाहरण निम्नलिखित है:-
भारत:-
(1) काण्डला तथा सूरत- गुजरात
(2) कोचीन- केरल
(3) सांताक्रुज- मुम्बई
(4) फाल्टा- पश्चिम बंगाल
(5) चेन्नई- तमिलनाडु
(6) विशाखापतनम- आन्ध्र प्रदेश
(7) नोएडा- उत्तर प्रदेश
(8) इंदौर- मध्य प्रदेश
(9) राजीव गाँधी इंटेफोर्ट पार्क- हिंजेवादी, पूना।
(10) जयपुर- राजस्थान
(11) सिंगुर (टाटा मोटर्स कंपनी)- पश्चिम बंगाल
नोट: टाटा मोटर्स कंपनी 2008 में सिंगूर परियोजना को छोड़ने के बाद कंपनी ने अपनी विनिर्माण इकाई को साणंद, गुजरात में स्थानांतरित कर दिया।

(12) नन्दीग्राम (सलीम अली ग्रुप केमिकल फैक्ट्री)- पश्चिम बंगाल
संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (UNCTAD) के अनुसार, 2019 तक, 147 देशों ने किसी न किसी तरह के SEZ की स्थापना की थी, दुनिया भर में SEZ की कुल संख्या 5,400 के करीब है।