1. Land Resources (भूमि संसाधन)
Land Resources
(भूमि संसाधन)
Q1. भारत में भूमि संसाधन के उपयोग एवं संरक्षण का वर्णन कीजिए।
Q2. भारत में बंजर भूमि प्रबंधन
भारत प्राकृतिक संसाधनों के मामले में एक धनी राष्ट्र है। भूगोलवेताओं ने संसाधन को परिभाषित करते हुए कहा है कि वह कोई भी वस्तु जो मानव में संतुष्टि प्रदान करता है, उसे संसाधन कहते हैं।” इस परिभाषा के मद्देनजर भूमि भी एक प्राकृतिक संसाधन का ही उदा० बन जाता है। मृदा या भूमि धरातल के सबसे ऊपरी भाग में पायी जाती है जिसका निर्माण जैविक एवं अजैविक तत्वों के ऋतुक्षरण से होता है। मृदा एक प्राकृतिक संसाधन है क्योंकि यह न केवल मानव को संतुष्टि प्रदान करता है बल्कि इससे आर्थिक लगान भी प्राप्त होती है तथा यह अन्य सभी प्राकृतिक संसाधनों का आधार होता है।
भारत भूमि संसाधन के मामले में एक समृद्ध राष्ट्र है। जैसे क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देश है जिसका क्षेत्रफल 32.8 लाख वर्ग किमी० है। पूरे विश्व के क्षेत्रफल का 2.4% भूभाग हमोर देश के पास है। पूरे विश्व के 11% कृषि योग्य भूमि भारत के पास है। भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग 58% भूभाग कृषि कार्य के अंतर्गत आते हैं। भारत के पास जितनी भूमि उपलब्ध है उसका उपयोग भिन्न-2 प्रकार से किया जाता है। मोटे तौर पर भारतीय भूमि संसाधन के उपयोग को चार शीर्षकों में बाँटकर अध्ययन करते हैं:-
(1) वनीय क्षेत्र के रूप में:
पर्यावरण के दृष्टिकोण से भारत के कुल क्षेत्रफल का 33% भूभाग पर वन होना चाहिए था लेकिन भारत के मात्र 22.1% भूभाग पर ही वन उपलब्ध है। इसमें भी मैदानी क्षेत्र में 20% भूभाग पर और पठारी क्षेत्र में 60% भूभाग पर वन होना चाहिए था। लेकिन पंजाब, हरियाणा, दिल्ली इत्यादि ऐसे क्षेत्र हैं जो पूर्णतः वन विहीन हो चुके हैं। भारत में जो वन बचे हुए हैं वो द० भारत, मध्य भारत तथा पर्वतीय ढलानों पर उलब्ध है। बढ़ती हुई जनसंख्या, जनजातीय क्रियाविधि और विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्य के कारण वनों का तेजी से ह्रास हो रहा है। वनीय ह्रास के कारण मृदा में भूमि तापन, आर्द्रता ह्रास एवं अपरदन की समस्या उत्पन्न हो रही है।
(2) कृषि के रूप में:-
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार किसी भी देश के कुल क्षेत्रफल का 40% भूभाग पर ही कृषि कार्य किए जाना चाहिए लेकिन वर्तमान समय में इससे अधिक भूमि पर कृषि कार्य किया जा रहा है। जैसे- 47% भूभाग पर प्रत्यक्ष रूप से कृषि किया जा रहा है। 7.5% परती भूमि के अन्तर्गत शामिल है। 2.5% भूभाग पर पशुचारण किया जा रहा है। इस तरह स्पष्ट है कि अत्याधिक कृषि कार्य एवं पशुपालन के कारण भूमि उपयोग का प्रारूप असंतुलित हो चुका है।
(3) निर्मित क्षेत्र के रूप में:-
इसके अन्तर्गत अधिवासीय क्षेत्र, परिवहन मार्ग, खनन भूमि, औद्योगिक क्षेत्र, नगरीय क्षेत्र इत्यादि को शामिल करते हैं। भूगोलवेताओं के अनुसार 14% भूभाग पर ही निर्माण का कार्य होना चाहिए लेकिन वर्तमान समय में 13.5% भूभाग पर निर्माण का कार्य हो रहा है।
(4) प्रत्यक्ष आर्थिक लगान न देने वाले भूमि के रूप में:-
इसके अंतर्गत हिमाच्छादित भूमि, दलदली क्षेत्र, मरुस्थलीय क्षेत्र एवं चट्टानी भूमि को शामिल करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार किसी भी देश में 13% भूभाग ऐसे उपयोग के क्षेत्र में होना चाहिए। हलांकि वर्तमान समय में भारत के पास 13% ऐसे भूमि उपलब्ध है। लेकिन भारत में अप्रत्यक्ष आर्थिक लगान देने वाले भूमि को धीरे-2 प्रत्यक्ष आर्थिक लगान वाले क्षेत्र में शामिल किया जा रहा है।
इस तरह उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत में मृदा संसाधन का उपयोग कई प्रकार से किया जा रहा है।
मृदा की समस्यायें
मृदा संसाधन के अत्याधिक दोहन के कारण कई प्रकार के समस्याओं का अभ्युदय हुआ है। जैसे-
(i) बंजर भूमि का तेजी से विकास हो रहा है। “राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड के अनुसार 175 मिलियन हेक्टयर भूमि बंजर भूमि के रूप में बदल चुका है।
(ii) “भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद” के अनुसार भारत के 60% भूमि के स्वास्थ्य में तेजी से गिरावट आयी है। स्वास्थ्य में गिरावट का तात्पर्य मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु तथा ह्यूमस में तेजी से ह्रास है। मृदा में उपस्थित आर्द्रता ह्रास की समस्या उत्पन्न हो रही है। भूमि के नंगा होने के कारण मिट्टी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। उपरोक्त स्वास्थ्य में गिरावट का प्रमुख कारण अवैज्ञानिक कृषि पद्धति है। पुनः वैज्ञानिक कृषि पद्धति के तहत उर्वरक, कीटनाशक, ट्रैक्टर इत्यादि का प्रयोग किया जाना है।
(iii) भूमि अपरदन की समस्या-
अपरदन के मूलतः 5 दूत होते हैं जिसके कारण अलग-2 क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न हुई है। जैसे- बढ़ता हुआ जल के कारण नदी घाटी क्षेत्र में, हिमानी के कारण पर्वतीय क्षेत्र में, शुष्क वालु के कारण थार मरुस्थलीय क्षेत्र में, समुद्री तरंग के कारण तटवर्ती क्षेत्र में, भूमिगत जल के कारण मेघालय के गारों-खासी क्षेत्र, बिहार कैमूर क्षेत्र तथा उत्तराखण्ड के देहरादून क्षेत्र में यह समस्या उत्पन्न हो रही है।
(iv) मृदा प्रदूषण
उर्वरकों, कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा औद्योगिक कचड़ों को खुले क्षेत्र में फैला दिये जाने के कारण यह समस्या उत्पन्न हो रही है।
(v) खनन एवं परित्यक्त भूमि के विस्तार की समस्या-
जिन क्षेत्रों में खनन के कार्य सम्पन्न हो जाता है। उन खनन क्षेत्रों को परित्यक्त भूमि के रूप में छोड़ दिया जाता है। ऐसे भूमि का भारत में लगातार विस्तार हो रहा है।
उपरोक्त समस्याओं को देखते हुए मृदा संरक्षण का कार्य अनिवार्य है। मृदा के संरक्षण हेतु 6वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान केन्द्र सरकार ने तीन बोर्ड का गठन किया था-
1. राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड
2. राष्ट्रीय भूमि उपयोग एवं संरक्षण बोर्ड
3. राष्ट्रीय बंजर भूमि एवं भू उपयोग परिषद
प्रथम बोर्ड के गठन का मुख्य उद्देश्य संसाधनात्मक दृष्टि से जिस भूमि का पतन हो चुका है उनके संरक्षण एवं विकास हेतु कार्यक्रम का निर्माण करना है। दूसरे बोर्ड के गठन के मुख्य उद्देश्य प्रत्येक राज्यों में भूमि उपयोग प्रतिरूप का निर्धारण करना है। तीसरे बोर्ड के गठन के मुख्य उद्देश्य “मृदा संरक्षण के संबंध में विभिन्न प्रकार के नीतियों का निर्धारण करना है।”
भारत में भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS) को विकसित किया गया है जो कृत्रिम उपग्रह इंटरनेट तथा कम्प्यूटर के माध्यम से सूखा, बाढ़, बंजर भूमि इत्यादि के संबंध में विभिन्न प्रकार के आँकड़ों को इकठ्ठा करता है तथा उनके संरक्षण हेतु तार्किक उपाय भी बताता है। भारतीय GIS को ऊपर में बताये गये तीनों बोर्ड से जोड़ दिया गया है।
भारत में भूमि विकास कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है। जैसे- 8वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान भारतीय बंजर भूमि को दो भागों में बाँटकर अध्ययन किया गया है-
(i) वनीय बंजर भूमि
(ii) गैर वनीय बंजर भूमि-
वनीय बंजर भूमि पर सामाजिक वानिकी कार्यक्रम चलाकर बनीय बंजर भूमि विकास किया जा रहा है। दूसरी ओर गैर वनीय बंजर भूमि को कृषि क्षेत्र में लाने के प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए किसानों को खेती में जिप्सम का प्रयोग करने की सलाह दी जाती है। इस तकनीक का प्रयोग प्राय: उन क्षेत्रों में किया जाता है जहाँ पर अत्यधिक सिंचाई के कारण लवणीय मृदा का विकास हुआ है। पुन: कंकड-पत्थर से युक्त बंजर भूमि की जलग्रहण विधि के द्वारा मिट्टी के उर्वर बनाने प्रयास किया जाता है।
उपरोक्त कार्यक्रमों के अलावे योजना आयोग ने भारत को 15 कृषि जलवायु क्षेत्र में विभक्त कर कृषि कार्य करने की सलाह दिया है ताकि किसान मृदा की क्षमता या पर्यावरण के अनुकूल कृषि कार्य कर सके।
केन्द्र सरकार ने राज्यों को यह सलाह दिया है कि आप समन्वय के आधार पर मृदा संरक्षण का उपाय करें। इसके तहत छोटे क्षेत्र बंधों का निर्माण कर मरुस्थलीय क्षेत्र में बाड़ों का विकास कर यह कार्य करने की सलाह दी गई है।
चम्बल नदी घाटी क्षेत्र में उबड़-खाबड़ भूमि क्षेत्र को समतल भूमि के क्षेत्र में बदला जा रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में मृदा अपरदन नहीं हो इसके लिए 1976 ई० में झूम कृषि पर रोक लगा दी गई थी और उसके स्थान पर कंटूर फार्मिंग या “सीढ़ीनुमा कृषि” करने की सलाह दी गई है।
किसानों को फसल चक्र अपनाने की सलाह दी गई है। रासायनिक उर्वरक की जगह पर जैविक उर्वरक प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। भू-उपयोग के प्रतिरूप में आये परिवर्तन को पुनर्स्थापित किया जा रहा है। मिट्टी की स्वास्थ्य की जाँच हेतु “Soil Clinic” की स्थापना की जा रही है।
निष्कर्ष:
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत में मृदा सरक्षण हेतु कई प्रकार के उपाय किये जा रहे हैं। इन उपायों के बावजूद USA के तर्ज पर “एकीकृत मृदा सेवा केन्द्र” की स्थापना किया जाय तथा गंभीर मृदा अपरदन एवं मृदा स्वास्थ ह्रास वाले क्षेत्रों में त्वरित कार्यवाही करने हेतु उचित संस्थागत एवं संरचनात्मक सुविधाओं का विकास किया जाय।