3. GEOSYNCLINE OROGEN THEORY-KOBER (भुसन्नत्ति पर्वतोत्पत्ति सिद्धांत-कोबर)
3. GEOSYNCLINE OROGEN THEORY-KOBER
GEOSYNCLINE OROGEN THEORY- KOBER
कोबर का भू-सन्नति:
कोबर महोदय ने मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति के सम्बंध में भूसन्नति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। इस संकल्पना के विकास का प्रथम प्रयास हॉल और डाना महोदय द्वारा किया गया, लेकिन एक सिद्धांत के रूप में इस संकल्पना का प्रतिपादन सर्वप्रथम हॉग महोदय द्वारा किया गया। कोबर ने वलित पर्वतों की उत्पत्ति के संबंध में भू-सन्नति सिद्धांत का प्रतिपादन किया। कोबर के अनुसार भूपटलीय चट्टानें लचीली होती है, जब चट्टानों पर दबाव शक्ति कार्य करती है तो भूपटलीय चट्टानें मुड़कर भुसन्नति या मोड़दार पर्वत का निर्माण करती है।
भू-सन्नतियां लंबे, संकरे तथा उथले जलीय भाग होती है, जिनमें तलछटीय निक्षेप के साथ-साथ तली में धंसाव होता है। वर्तमान समय में प्राय: सभी विद्वानों की यह मान्यता है कि प्राचीन और नवीन वलित पर्वतों का आविर्भाव भू-सन्नतियाँ से हुआ है। जैसे- रॉकी भूसन्नति से रॉकी पर्वत, यूराल भू-सन्नति से यूराल पर्वत तथा टेथिस भू-सन्नति से महान हिमालय पर्वतों का निर्माण हुआ। भू-सन्नतियों का पर्वत निर्माण से संबंध होने के कारण कोबर ने इन्हें ‘पर्वत निर्माण स्थल’ या “पर्वतों का पालना” (Orogen) कहा है।
कोबर का भूसन्नति सिद्धांत
वास्तव में उनका मुख्य उद्देश्य प्राचीन दृढ़ भूखंडों तथा भू-सन्नतियों (Geosyncline) में संबंध स्थापित करना था। इनका सिद्धांत संकुचन शक्ति पर आधारित है। पृथ्वी में संकुचन होने से उत्पन्न बल से अग्रदेशों में गति उत्पन्न होती है, जिससे प्रेरित होकर सम्पिडनात्मक बल के कारण भूसन्नति का मलवा वलीत होकर पर्वत का रूप धारण करता है। जहाँ पर आज पर्वत है, वहां पर पहले भू-सन्नतियां थी, जिन्हें कोबर ने पर्वत निर्माण स्थल बताया। इन भू-सन्नतियों के चारों ओर प्राचीन दृढ़ भूखण्ड (क्रैटोजेन) को ‘अग्रदेश’ बताया है, कोबर के अनुसार भूसन्नतिया लंबे तथा चौड़े जलपूर्ण गर्त थी।
प्रत्येक भूसन्नति के किनारे पर दृढ़ भूखंड होते हैं, जिन्हें कोबर ने अग्रदेश (Foreland) बताया। इन दृढ़ भूखंडों के अपरदन से प्राप्त मलवा का नदियों द्वारा भूसन्नति में धीरे-धीरे जमा होता रहता है। अवसादों के जमाव के कारण भार में वृद्धि होने से भूसन्नति की तली में निरंतर धंसाव होता जाता है, इसे अवतलन की क्रिया कहते हैं। इन दोनों क्रियाओं के लंबे समय तक चलते रहने के कारण भूसन्नति में मलबों का जमाव अत्यंत गहराई तक हो जाती है तथा अधिक मात्रा में मलबा का निक्षेप हो जाता है।
जब भूसन्नति भर जाती है तो पृथ्वी के संकुचन से उत्पन्न क्षैतिज संपीडनात्मक बल के कारण भूसन्नति के दोनों अग्रदेश एक-दूसरे की ओर खिसकने लगते हैं। इसे पर्वत निर्माण की अवस्था कहते हैं। भूसन्नति के दोनों किनारों पर दो पर्वत श्रेणियों का निर्माण होता है, जिन्हें कोबर ने ‘रेन्डकेटेन’ (Rendketten) नाम दिया है। यदि संपीड़न का बल सामान्य होता है तो केवल किनारे वाले भाग ही वलित होते हैं तथा बीच का भाग वलन से अप्रभावित रहता है। इस अप्रभावित भाग को कोबर ने स्वाशिनवर्ग की संंज्ञा प्रदान की है, जिसे सामान्य रूप में मध्य पिंड (Median Mass) कहा जाता है। जब संपीडन का बल सर्वाधिक सक्रिय होता है तो भूसन्नति का संपूर्ण मलबा वलित होकर एक जटिल पर्वतमाला के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जिसे नार्बे (Narbe) कहते है। ऐसी स्थिति मध्यपिंड का निर्माण नहीं होता है।
कोबर ने अपने विशिष्ट मध्य पिंड के आधार पर विश्व के वलित पर्वतों की संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। टेथीस भूसन्नति के उत्तर में यूरोप का स्थलीय भाग तथा दक्षिण में अफ्रीका का दृढ़ भूखण्ड था। इन दोनों अग्रदेशों के आमने-सामने सरकने के कारण अल्पाइन पर्वत श्रृंखला का निर्माण हुआ। अफ्रीका के उत्तर की ओर सरकने के कारण बेटीक कार्डिलरा, पेरेनिज प्राविन्स श्रेणियां, मुख्य आल्प्स, कार्पेथियंस, बाल्कन पर्वत तथा काकेशस का निर्माण हुआ।
कोबर ने कई उदाहरणों के द्वारा अपने सिद्धांत को पुष्ट भी किया है। जैसे- हिमालय तथा कुनलून के बीच तिब्बत का पठार, टॉरस श्रेणी एवं पौंटिक श्रेणी के मध्य अनातोलिया का पठार, एल्बुर्ज एवं जैग्रोस पर्वत के मध्य ईरान का पठार, पिरेनीज श्रेणी (यूरोप) और एटलस पर्वत (अफ्रीका) के बीच भूमध्य सागर मध्यपिंड के रूप में है। इस तरह कोबर ने अपने सिद्धांत में मध्य पिंड की कल्पना करके पर्वतीकरण को उचित ढंग से समझाने का प्रयास किया है तथा मध्य पिंड की यह कल्पना कोबर के विशिष्ट पर्वत निर्माण स्थल की अच्छी तरह व्याख्या करती हैं।
हिमालय के निर्माण के विषय में कोबर ने बताया है कि पहले टेथिस सागर था जिसके उतर में अंगारालैंड तथा दक्षिण में गोंडवाना लैंड अग्रदेश के रूप में थे। इयोसीन युग में दोनों आमने-सामने सरकने लगे, जिस कारण टेथिस के दोनों किनारों पर तलछट पर वलन पड़ने से उत्तर में कुनलुन पर्वत तथा दक्षिण में हिमालय की उत्तरी श्रेणी का निर्माण हुआ तथा दोनों के बीच तिब्बत का पठार मध्य पिंड के रूप में बचा रहा। आगे चलकर मध्य हिमालय तथा लघु शिवालिक श्रेणियों का भी निर्माण हुआ।
आलोचना
यद्यपि कोबर महोदय ने पर्वतों के निर्माण को भली-भांति समझाने का प्रयास किया तथापि उसके भुसन्नत्ति सिद्धान्त में कुछ दोष पाये जाते है, जिनका उल्लेख निम्नलिखित है।-
1. पर्वतों के निर्माण के लिये पृथ्वी के सिकुड़ने से पैदा होने वाले जिस बल का वर्णन कोबर ने किया है, वह अपर्याप्त है।
2. कोबर के अनुसार भुसन्नत्ति के दोनों किनारे सरकते है जबकि स्वेस का मतानुसार भुसन्नति का एक ही किनारा सरकता है।
3. कोबर के सिद्धान्त से पूर्व-पश्चिम दिशा में फैले हुए पर्वतों (हिमालय,आल्पस) का स्पष्टीकरण तो हो जाता है, परन्तु उत्तर-दक्षिण दिशा में फैले पर्वतों (रॉकी, एंडिज) का स्पष्टीकरण नहीं हो पाता है।
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