Unique Geography Notes हिंदी में

Unique Geography Notes in Hindi (भूगोल नोट्स) वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर के उन छात्रों और अध्ययन प्रेमियों को काफी मदद मिलेगी, जिन्हें भूगोल के बारे में जानकारी और ज्ञान इकट्ठा करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस वेबसाइट पर नियमित रूप से सभी प्रकार के नोट्स लगातार विषय विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित करने का काम जारी है।

Questions Bank For UG

1. Major Course / Geomorphology (Theory) Solved Questions Paper 2023

(Major Course or MJC-1)

Geomorphology (Theory)

Solved Questions Paper 2023



(Patliputra University Patna)

Geomorphology

Part-A/भाग-अ
(Objective Type Questions)
(वस्तुनिष्ठ प्रश्न)

Note: All questions are compulsory.
सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।

1. Select the correct answer from the alternatives given below: [2×10=20]

दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए:

(i) Who propounded the ‘Nebular Hypothesis’ in the year 1796?
(a) Kant
(b) Roche
(c) Laplace
(d) Lockyer
‘निहारिका परिकल्पना’ को वर्ष 1796 में किसने प्रतिपादित किया?
(a) काण्ट
(b) रोशे
(c) लाप्लास
(d) लॉकियर
 (c) लाप्लास

(ii) Lithosphere consists of:
(a) Crust and Core
(b) Mantle and Core
(c) Upper and Lower Mantle
(d) Crust and Upper Mantle
स्थलमंडल में सम्मिलित है:
(a) कस्ट और कोर
(b) मैण्टिल और कोर
(c) ऊपरी और निम्न मैण्टिल
(d) क्रस्ट और ऊपरी मैण्टिल
उत्तर – (d) क्रस्ट और ऊपरी मैण्टिल

(iii) The term ‘Isostasy’ was first used by:
(a) Airy
(b) Pratt
(c) Dutton
(d) Holmes
‘समस्थिति’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया गया :
(a) एयरी द्वारा
(b) प्राट द्वारा
(c) डटन द्वारा
(d) होम्स द्वारा
उत्तर – (c) डटन द्वारा

(iv) Which of the following was not a part of Gondwana Land?
(a) Asia
(b) Australia
(c) India
(d) Africa
निम्नलिखित में से कौन गोंडवाना भूमि का भाग नहीं।
(a) एशिया
(b) आस्ट्रेलिया
(c) भारत
(d) अफ्रीका
उत्तर – (a) एशिया

(v) Which of the following is a major tectonic plates of the earth?
(a) Nazca Plate
(b) Philippines Plate
(c) Arabian Plate
(d) Antarctica Plate
निम्नलिखित में से कौन-सी पृथ्वी की एक प्रमुख विवर्तनिक प्लेट है?
(a) नाज्का प्लेट
(b) फिलीपाइन प्लेट
(c) अरेबियन प्लेट
(d) अण्टार्कटिका प्लेट
उत्तर – (d) अण्टार्कटिका प्लेट

(vi) Mountain building on the surface of the earth is a result of:
(a) Endogenic Forces
(b) Exogenic Forces
(c) Gravitational Forces
(d) Magnetic Forces
पृथ्वी की सतह पर पर्वत निर्माण परिणाम है:
(a) अंतर्जात बल का
(b) बहिर्जात बल का
(c) गुरुत्वाकर्षण बल का
(d) चुम्बकीय बल का
उत्तर – (a) अंतर्जात बल का

(vii) What is the scale of earthquake intensity?
(a) Beaufort Scale
(b) Seismic Scale
(c) Secant Scale
(d) None of these
भूकंप की तीव्रता मापने का पैमाना क्या है?
(a) ब्यूफोर्ट पैमाना
(b) सिस्मिक पैमाना
(c) सिकेंट पैमाना
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर – (b) सिस्मिक पैमाना

(viii) Glacial erosion is responsible for the formation of the following:
(a) Sink holes
(b) Swallow holes
(c) Kames
(d) Cirque
हिमानी अपरदन निम्नलिखित के विन्यास के लिए उत्तरदायी है:
(a) घोल रन्ध्र
(b) विलय रन्ध्र
(c) केम
(d) हिमगहर या सर्क
उत्तर – (d) हिमगहर या सर्क

(ix) Which of the following is not an agent of weathering?
(a) Glacier
(b) Wind
(c) Soil
(d) River
निम्नलिखित में से कौन अपक्षय का प्रतिनिधि नहीं है?
(a) हिमानी
(b) पवन
(c) मृदा
(d) नदी
उत्तर – (c) मृदा

(x) The most abundant metal in the earth crust is:
(a) Sodium
(b) Aluminium
(c) Calcium
(d) Iron
पृथ्वी के क्रस्ट में सबसे प्रचुर मात्रा में धातु है
(a) सोडियम
(b) एल्युमीनियम
(c) कैल्शियम
(d) लोहा
उत्तर – (b) एल्युमीनियम

Part-B / भाग-ब
(Short Answer Type Questions)
(लघु उत्तरीय प्रश्न)

Note: Attempt any four questions out of six questions. Each question carries equal marks.
[5×4=20]
छः प्रश्नों में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न समान अंक का है।

2. Explain the importance of the study of Geomorphology.
भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन के महत्त्व को समझाइए।

3. Define Isostasy. Who gave the theory of Isostasy?
समस्थिति को परिभाषित कीजिए। समस्थिति का सिद्धान्त किसने दिया?

4. What is the difference between the focus and epicenter of an earthquake?
भूकम्प के मूल एवं अधिकेन्द्र में क्या अंतर है?

5. What are two types of weathering?
अपक्षय के दो प्रकार क्या हैं?

6. What is a Karst Topography? What are the essential conditions for its formation?
कार्स्ट स्थलाकृति क्या है? इसके निर्माण के लिए आवश्यक दशाएं क्या हैं?

7. Define cycle of erosion according to Davis.
डेविस के अनुसार अपरदन चक्र की परिभाषा बताइए।

Part-C / भाग-स

(Long Answer Type Questions)

(दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)

Note: Answer any three questions out of five questions. Each question carries equal marks. [10×3-30]

पाँच प्रश्नों में से किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न समान अंक का हैं

8. Describe the internal structure of the earth in detail.
पृथ्वी की आंतरिक संरचना का विस्तार से वर्णन कीजिए।

9. Explain the views of Airy and Pratt regarding Isostasy.
समस्थिति के सम्बन्ध में एयरी तथा प्राट के मतों की व्याख्या कीजिए।

10. Critically examine the theory of Plate Tectonic.
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

11. Describe the different stages of mountain building according to Kober.
कोबर के अनुसार पर्वत निर्माण के विभिन्न चरणों का वर्णन कीजिए।


सभी लघु एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों का उत्तर सरल एवं आसान शब्दों में देना यहाँ सीखें


Part-B / भाग-ब
(Short Answer Type Questions)
(लघु उत्तरीय प्रश्न)

Note: Attempt any four questions out of six questions. Each question carries equal marks.
[5×4=20]
छः प्रश्नों में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न समान अंक का है।

2. Explain the importance of the study of Geomorphology.
भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन के महत्त्व को समझाइए।

उत्तर- स्थलमण्डल के दृश्य भागों अर्थात् स्थलरूपों का वैज्ञानिक अध्ययन भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है, इसलिए भू-आकृति विज्ञान को स्थलरूपों का विज्ञान कहते हैं। भू-आकृति विज्ञान के लिए अंग्रेजी में प्रयुक्त किये जाने वाले Geomorphology शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ (Geo-पृथ्वी, morphi-रूप और logos-वर्णन) भी स्थलरूपों के अध्ययन से सम्बन्धित है।

महत्त्व

        विकासवादी भू-आकृति विज्ञान में स्थलरूपों के विकास क्रम का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। इसी के अन्तर्गत क्षेत्र के भू-आकृतिकीय विकास की प्रमुख घटनाओं का तिथिकरण किया जाता है।

       डेविस ने स्थलरूपों के विकास क्रम को अपरदन चक्र के द्वारा समझाया है, जिसमें तीव्र ढाल समय के साथ अन्ततः धीमे ढाल वाले पेनीप्लेन में बदल जाता है। अन्य भू-आकृति विज्ञानवेत्ताओं, जिन्हें अनाच्छादन कालक्रम विज्ञानवेत्ता (Denudation Chronologists) कहा जाता है, ने बताया है कि किस तरह प्रादेशिक स्थलरूप समय के साथ हुए अपरदन एवं भूपृष्ठीय सतह के उत्थान की तीव्रता अथवा दर के अनुरूप विकसित हुए हैं। इन्होंने भूतकाल की अपरदनात्मक सतहों पर तिथिकरण द्वारा स्थलरूपों के विकास को समझाने का प्रयास किया।

       कुछ भू-आकृति विज्ञानवेत्ताओं ने परिवर्तित जलवायु के प्रभावों द्वारा स्थलरूपों के विकास को समझाया है। जलवायवीय भू-आकृति विज्ञान में स्थलरूपों और उनके ऊपर क्रियाशील भू-आकृतिक प्रक्रमों को प्रादेशिक जलवायवीय दशाओं से सम्बन्धित कर अध्ययन किया जाता है। जैसे ठण्डे क्षेत्रों में विद्यमान जलवायवीय दशाओं में हिमनद एक प्रभावी भू-आकृतिक प्रक्रम है जो भूदृश्य में परिवर्तन लाता है। इसी प्रकार वनस्पति विहीन रेगिस्तानी क्षेत्रों में पवन प्रमुख भू-आकृतिक प्रक्रम है।

      चट्टानों के प्रकार और भूगर्भिक संरचना (जैसे भ्रंश और वलन) के स्थलरूपों पर प्रभावों का अध्ययन संरचनात्मक भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है। अधिकांश भू-आकृतिक प्रक्रमों की क्रियाशीलता चट्टानों की कठोरता और कोमलता से प्रभावित होती है। इसी तरह अधिकांश ढाल रूप चट्टानों की कठोरता और विन्यास (Disposition) के अनुरूप विकसित होते हैं। स्थलरूपों पर क्रियाशील प्रक्रमों (जैसे अपक्षय, अपरदन) की तीव्रता और प्रकृति का अध्ययन प्रक्रम भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है। इसी में नदी बेसिनों और पहाड़ी ढालों पर होने वाले शैल पुंज प्रवाह (Mass Wasting) का अध्ययन किया जाता है। इन गतिशील प्रक्रमों की क्रियाविधि पर मानव के क्रियाकलापों से उत्पन्न प्रभावों का अध्ययन जैव-भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है।

        मानव ने अपनी गतिविधियों के द्वारा विभिन्न भू-आकृतिक प्रक्रमों की क्रियाविधि में परिवर्तन ला दिया है। भूमि उपयोग में परिवर्तन तथा वन विनाश से मृदा अपरदन बढ़ा है। इसी प्रकार अम्ल वर्षा से शैलों के विघटन की प्रक्रिया तीव्र हुई है। मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए भू-आकृति विज्ञान के व्यावहारिक ज्ञान के उपयोग का अध्ययन व्यावहारिक भू-आकृति विज्ञान में किया जाता है।

        आज सम्पूर्ण विश्व में तटीय भागों में अपरदन, हिमनदों का पिघलना और उनकी गति का तीव्र होना, भूस्खलन, जल संयोजकों का अपरदन, बांधों में अवसादों का जमाव, मरुद्यानों और परिवहनों मार्गों पर बालुका स्तूपों का विस्तार, उत्खात भूमि का विस्तार, आदि जैसे समस्याओं की मॉनीटरिंग, पहचान और प्रबन्धन में व्यावहारिक भू-आकृति विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है।

3. Define Isostasy. Who gave the theory of Isostasy?
समस्थिति को परिभाषित कीजिए। समस्थिति का सिद्धान्त किसने दिया?

उत्तर- समस्थिति अर्थात भूसंतुलन भूगोल की एक ऐसी संकल्पना है जो भूपटल के विभिन्न स्तंभों के मध्य पाये जाने वाले संतुलन को व्याख्या करता है। भूसंतुलन का सामान्य अर्थ  “परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी के ऊपर उभरे हुये क्षेत्र (जैसे-पर्वत, पठार, मैदान) एवं नीचे स्थित क्षेत्रों  (सागर, झील) में भौतिक एवं यांत्रिक स्थिरता भूसंतुलन कहलाता है।”

       भूसंतुलन आंग्ल भाषा में ‘Isostasy या Equilibrium’ कहलाता है। Isostasy शब्द ग्रीक भाषा के Isostasius से बना है जिसका तात्पर्य समस्थिति होता है। आइसोस्टैसी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1889 ई० में अमेरिकी भूवैज्ञानिक C.F. डटन ने किया था। इन्होंने कहा था कि समस्थिति के कारण ही पर्वत, पठार, मैदान और समुद्र साथ-साथ स्थित है। बहिर्जात बल पर्वतों से मिट्टी काट-काट कर समुद्र एवं मैदान में निक्षेपित करते रहते हैं। इसीलिए मैदान एवं समुद्र तली का भार अधिक तथा पर्वतों के भार कम होते है। भार में कमी या अधिकता के कारण भूगर्भ के भूपटल पर दबाव समान रूप से नहीं पड़ता है। समस्थिति इसी दबाव के विभिन्नता को संतुलन बनाये रखने में मदद करता है।
     डटन ने बताया कि जिस रेखा के सहारे भूपटलीय संतुलन कायम रहता है उसे ‘समदबाव तल’ (Level of Uniform Pressure) अथवा ‘समतोल तल’ (Isotatic Level) या ‘क्षतिपूर्ति तल’ (Level of Compensation) कहते है।
               
        ऑर्थर होम्स महोदय ने भूसंतुलन की व्याख्या करते हुए कहा है कि “संतुलन की वह दशा जो भूपटल पर विभिन्न ऊँचाई वाले पर्वत, पठार, मैदान अथवा सागरीय नितल के मध्य पायी जाती है, भूसंतुलन कहलाता है।”
भूसंतुलन सिद्धांत का बुनियाद
           भूकम्पीय तरंगो के अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है कि पृथ्वी के विभिन्न भागों के घनत्व भिन्न-भिन्न है। इनकी पुष्टि भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा भी किया गया है। 1859 ई० में गंगा सिंधु मैदान के मध्य में अक्षांश ज्ञात करते समय दो विधियों को प्रयोग में लाया गया:-
(l) साहुल विधि
(ll) त्रिभुजीकरण विधि 
        यह अक्षांशीय मापन का कार्य कल्याण एवं कल्याणपुर नामक स्थान पर किया जा रहा था। इन दोनों स्थानों पर उपरोक्त दोनों विधियों द्वारा आये परिणाम में भारी अंतर था। यह अंतर 5.236 सेकंड बताया गया। इस अंतर का कारण बताते हुए विद्वानों ने बताया कि साहुल को हिमालय पर्वत अपनी ओर आकर्षित कर रही है लेकिन पुनः यह प्रश्न उठाया गया कि अगर हिमालय साहुल को अपनी ओर आकर्षित कर रही है तो हिमालय जितना विशाल है उस दृष्टि से आकर्षण और अधिक होना चाहिए तथा अंतर 15 सेकेंड से भी अधिक होना चाहिए। कालांतर में इसी जटिल तथ्यों की व्याख्या भूसंतुलन से करने का प्रयास किया गया। बताया गया कि हिमालय के नीचे स्थित चट्टानों के घनत्व पृथ्वी के औसत घनत्व से भी कम है। जबकि समुद्र नितल का घनत्व पृथ्वी के औसत घनत्व से अधिक है। यही कारण है कि दोनों के बीच संतुलन की स्थिति कायम है। भूसंतुलन को स्पष्ट करने हेतु अनेक मत प्रतिपादित किये गये है:-
(1) एयरी का मत
(2) प्रौट का मत
(3) हिस्कानेन का मत
(4) जौली का मत

4. What is the difference between the focus and epicenter of an earthquake?
भूकम्प के मूल एवं अधिकेन्द्र में क्या अंतर है?

उत्तर- भूकम्प के मूल- भूपटल के जिस बिंदु से भूकम्प प्रारंभ होती है। उसे भूकम्प केंद्र (Focus) अथवा भूकम्प के मूल कहते है।

अधिकेंद्र- भूपटल के जिस बिंदु पर भूकम्प का झटका सबसे पहले अनुभव होता है उसे अधिकेंद्र कहते है।

5. What are two types of weathering?
अपक्षय के दो प्रकार क्या हैं?

उत्तर- अपक्षयण के प्रकार (Types of Weathering)

1. भौतिक अपक्षयण (Physical or Mechanical Weathering):-

           बिना किसी रासायनिक परिवर्तन के चट्टानों के टूट-फूट कर टुकड़े-टुकड़े होने की प्रक्रिया को भौतिक या यांत्रिक ऋतुक्षरण कहा जाता है।

⇒ भौतिक ऋतुक्षरण, मरुस्थलों में अधिक दैनिक तापांतर के कारण एवं ठंडी जलवायु वाले क्षेत्रों में पाले (Frost) के कारण होता है।

⇒ गर्म मरुस्थलों में स्वच्छ आकाश एवं वायु की शुष्कता के कारण दिन एवं रात के तापमान में काफी अंतर पाया जाता है। दिन के समय तेज धूप के कारण चट्टानों का ऊपरी आवरण तप्त होकर फैल जाता है। किन्तु रात के समय प्रायः तापमान गिरकर हिमांक (Freezing Point) तक पहुंच जाता है एवं चट्टानें सिकुड़ जाती हैं। इन क्रियाओं की पुनरावृति के कारण चट्टानों में दरार पड़ने लगता है एवं चट्टानें बड़े बड़े खंडों में टूट जाती हैं। इस प्रक्रिया को खंड विच्छेदन (Block Disintegration) कहा जाता है।

⇒ उष्ण मरुस्थलीय, अर्द्ध मरुस्थलीय एवं मानसूनी जलवायु प्रदेशों में अधिक तापांतर के कारण कभी-कभी चट्टानों की ऊपरी सतह गर्म होकर अन्दर की अपेक्षाकृत ठंडी सतह से अलग हो जाती है एवं ऊपर का भाग प्याज के छिलके की तरह अलग हो जाता है। इसे अपदलन, अपशल्कन या अपपत्रण (Exfoliation) कहा जाता है। यह क्रिया मुख्यतः ग्रेनाइट जैसी रवेदार चट्टानों में होती है।

⇒ चट्टानें विभिन्न खनिजों का समुच्चय होती हैं एवं विभिन्न खनिजों के फैलाव एवं सिकुड़ने की दर अलग-अलग होती हैं। इसके कारण चट्टानों के विभिन्न खनिज कण टूट-टूटकर अनेक खनिज कणों में विभाजित हो जाते हैं। चट्टानों का इस प्रकार खनिज कणों में टूटना कणिकामय विखंडन (Granular Disintegration) कहलाता है। खंड विखंडन एवं कणिकामय विखंडन के कारण ही गर्म मरुस्थलों में विस्तृत क्षेत्रों में बालू पाये जाते हैं।

⇒ शीत कटिबंधीय क्षेत्रों एवं उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में चट्टानों की छिद्रों एवं दरारों में जल के जमने एवं पिघलने की क्रिया क्रमिक रूप से होती है। इससे चट्टानें कमजोर हो जाती हैं एवं बड़े-बड़े खंडों में टूटने लगती हैं अर्थात् खंड-विखंडन (Block Disintegration) होने लगता है। यह क्रिया तुषार क्रिया (Frost Action) कहलाती है।

           खड़ी पहाड़ी ढालों पर इस प्रकार का विघटन अधिक देखने को मिलता है। विघटित चट्टानें गुरुत्व बल के कारण नीचे की ओर सरककर जमा होने लगती हैं। ये विखंडित चट्टानें खुरदरी एवं नुकीली होती हैं। इस प्रकार के कोणीय चट्टानी खंडों (Angular Rock Fragments) के ढेर को भग्नाश्म राशि (Scree) अथवा टैलस (Talus) कहा जाता है। इस प्रकार स्क्री या टैलस का निर्माण मुख्यतः तुषार क्रिया एवं गुरुत्वाकर्षण का परिणाम है।

2. रासायनिक अपक्षयण (Chemical weathering):-

     जब रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा चट्टानों का विखंडन (Disintegration) होता है तो उसे रासायनिक अपक्षयण कहा जाता है। जब विभिन्न कारणों से चट्टानों के अवयवों में रासायनिक परिवर्तन होता है तो उनका बंधन ढीला हो जाता है तो रासायनिक अपक्षयण की क्रिया होती है।

       तापमान एवं आर्द्रता अधिक रहने पर रासायनिक अपक्षयण की क्रिया तीव्र गति से होती है। यही कारण है कि विश्व के उष्ण एवं आर्द्र प्रदेशों में यह क्रिया अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। शुष्क अवस्था में ऑक्सीजन एवं कार्बन डाईऑक्साइड का चट्टानों पर कोई रासायनिक प्रभाव नहीं पड़ता है, परंतु नमी की उपस्थिति में ये सक्रिय रासायनिक कारक (Active chemical Agent) बन जाते हैं।

(i) विलयन (Solution):-

        चट्टानों में उपस्थित विभिन्न खनिजों के जल में घुलने की क्रिया को विलयन कहा जाता है। उदाहरण के लिए सेंधा नमक (Rock Salt) एवं जिप्सम वर्षा के जल में आसानी से घुल जाते हैं।

(ii) ऑक्सीकरण (Oxidation):-

      ऑक्सीकरण की क्रिया विशेष रूप से लौह युक्त चट्टानों पर होती है। आर्द्रता बढ़ने पर लौह खनिज ऑक्सीजन से मिलकर ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसके कारण चट्टान अथवा खनिज कमजोर हो जाते हैं एवं उनका विखंडन होने लगता है। वर्षा ऋतु में लोहे में जंग लगना ऑक्सीकरण का ही परिणाम है।

(iii) जलयोजन (Hydration):-

       जलयोजन की प्रक्रिया में चट्टानों में उपस्थित खनिज जल को सोख लेता है। इसके कारण उनमें रासायनिक परिवर्तन होने लगता है एवं नये खनिजों का निर्माण होता है। इन नये खनिजों में जल का कुछ अंश रह जाता है। ये नये खनिज पुराने खनिजों की अपेक्षा मुलायम होते हैं। उदाहरण के लिए जलयोजन के फलस्वरूप ग्रेनाइट चट्टानों का फेल्डस्पार खनिज कायोलिन (Kaolin) मिट्टी में परिवर्तित हो जाता है।

(iv) कार्बोनेटीकरण (Carbonation):-

             जल एवं कार्बन डाई ऑक्साइड मिलकर हल्का कार्बोनिक अम्ल बनाते हैं। इस अम्ल का प्रभाव विशेष रूप से उन चट्टानों पर पड़ता है, जिनमें कैल्सियम, मैग्नेशियम, सोडियम, पोटेशियम एवं लोहे जैसे तत्त्व पाये जाते हैं। ये तत्त्व कार्बोनिक अम्ल में घुल जाते हैं, फलस्वरूप इन खनिजों से निर्मित चट्टानें कमजोर हो जाती हैं एवं उनका विखंडन होने लगता है।

              बलुआ पत्थरों (Sand Stone) में सामान्यतः कैल्सियम कार्बोनेट (Lime) ही संयोजक पदार्थ (Cementing Material) का कार्य करता है, जो कार्बोनिक अम्ल में शीघ्रता से घुल जाता है, फलस्वरूप बलुआ पत्थर का विखंडन होने लगता है।

⇒ कभी-कभी जलयोजन के कारण चट्टानों की ऊपरी सतह फूलकर निचली सतह से अलग हो जाती है। इसे गोलाभ अपक्षय (Spheroidal Weathering) कहा जाता है। इस प्रकार रासायनिक अपक्षयण की यह क्रिया अपदलन से काफी मिलती-जुलती है।

6. What is a Karst Topography? What are the essential conditions for its formation?
कार्स्ट स्थलाकृति क्या है? इसके निर्माण के लिए आवश्यक दशाएं क्या हैं?

उत्तर- चुना प्रधान वाले क्षेत्रों को कार्स्ट प्रदेश के नाम से जानते हैं। कार्स्ट प्रदेश शब्द एड्रियाटिक सागर के पूर्वी भाग में स्थित चूना पत्थर युक्त मैदान से लिया गया है। युगोस्लाविया के लोग ही चुना पत्थर मैदान को कार्स्ट नाम से संबोधित करते हैं।          

           कार्स्ट प्रदेश में भूमिगत जल अपरदन का सबसे प्रमुख दूत होता है। कार्स्ट प्रदेश में बनने वाले स्थलाकृतियों का सबसे पहले 1911 ई०  में जे.डब्ल्यू. बीड  एवं 1918 ई० में जे. स्वीजिक  ने अध्ययन किया था। कार्स्ट स्थलाकृति का निर्माण उन्हीं प्रदेश में होता है जहाँ निम्नलिखित तीन परिस्थितियाँ रहती है:-
(i) जहाँ विलियन करने वाली चुना प्रधान चट्टाने पाई जाती है।
(ii) चुना प्रधान चट्टानों में संरोध(Joints) का विकास हुआ हो।
(iii) चुना प्रधान चट्टानों के नीचे अपारगम्य चट्टान पाई जाती हो तथा उसके अंदर पर्याप्त ढाल का विकास हुआ हो।

7. Define cycle of erosion according to Davis.
डेविस के अनुसार अपरदन चक्र की परिभाषा बताइए।

उत्तरडेविस का सामान्य अपरदन चक्र  

        डेविस का सामान्य अपरदन चक्र सिद्धान्त भौगोलिक चक्र का सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। अमेरिकी भूगोलवेत्ता W. M. डेविस ने 1889 ई० में “Geographical Essay”नामक पुस्तक में अपरदन चक्र सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
                 
       डेविस ने अपरदन चक्र सिद्धान्त को परिभाषित करते हुए कहा कि “अपरदन चक्र समय की वह अवधि है जिसके अंतर्गत एक उत्थित भूखण्ड अपरदन क्रिया द्वारा प्रभावित होकर एक आकृतिविहीन समतल मैदान का निर्माण करती है।”  

        डेविस ने बताया कि किसी समतल भूखण्ड के उत्थान के बाद उस पर तीन कारकों का प्रभाव पड़ता है-

(i) संरचना

(ii) प्रक्रम और

(iii) समय।

       इसी आधार पर डेविस ने यह परिकल्पना प्रस्तुत किया कि किसी भौगोलिक क्षेत्र का भूदृश्य संरचना, प्रक्रम और समय का फलन होता है। इस परिकल्पना को डेविस का त्रिकट (Trio of Devis) के नाम से जानते है। 

            अपरदन  चक्र आर्द्र प्रदेश में, शुष्क प्रदेश में, चुना पत्थर प्रधान क्षेत्रो में, समुद्र तलीय क्षेत्र में,एवं ध्रुवीय क्षेत्रों में सतत चलता रहता है। डेविस ने अपना सिद्धान्त आर्द्र प्रदेश के संदर्भ में प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि आर्द्र प्रदेश में बहता हुआ जल/नदी अपरदन का दूत होता है। बहता हुआ जल सम्पूर्ण प्रदेश को अपरदन क्रिया से प्रभावित करता है और प्रदेश में अपरदन चक्र को संचालित करता है। आर्द्र प्रदेश में अपरदन की क्रिया चक्रीय रूप से सक्रिय रहती है।

        डेविस ने अपरदन चक्र की तुलना मानव के जीवन चक्र से किया है। जैसे एक मानव जन्म के बाद युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था से होकर गुजरते हुए अपने जीवन लीला को समाप्त करता है और पुनः जन्म लेता है ठीक उसी प्रकार से सामान्य अपरदन चक्र उपरोक्त तीनों अवस्थाओं से होकर गुजरती है। उन्होंने पुनर्जन्म को पुनरुत्थान से तुलना किया है। 

Part-C / भाग-स

(Long Answer Type Questions)

(दीर्घ उत्तरीय प्रश्न)

Note: Answer any three questions out of five questions. Each question carries equal marks. [10×3-30]

पाँच प्रश्नों में से किन्हीं तीन प्रश्नों के उत्तर दीजिए। प्रत्येक प्रश्न समान अंक का हैं

8. Describe the internal structure of the earth in detail.
पृथ्वी की आंतरिक संरचना का विस्तार से वर्णन कीजिए।

उत्तर- पृथ्वी की आंतरिक संरचना को समझने हेतु अप्रत्यक्ष साधनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यही कारण है कि पृथ्वी की आंतरिक संरचना के सम्बंध में अधिकतर ज्ञान अनुमान पर आधारित है। पृथ्वी की आंतरिक संरचना को समझने में भूकम्पीय विज्ञान (Seismology) या भूकम्पीय तरंग को सबसे सटीक वैज्ञानिक साधन माना जाता है। पृथ्वी के आंतरिक संरचना के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 है। पृथ्वी के धरातल से केंद्र की ओर जाने पर घनत्व में लगातार बढ़ोतरी होते जाती है क्योंकि ऊपर से नीचे जाने पर चट्टान के दबाव एवम भार में बढ़ोतरी होते जाती है।

⇒ सामान्य नियम के अनुसार दाब बढ़ने से तापमान में बढ़ोतरी होती है। अतः प्रत्येक 32 मी० की गहराई पर 1℃  तापमान में बढ़ोतरी होती है।

      स्वेस महोदय ने पहली बार पृथ्वी की रासायनिक संरचना का अध्ययन किया। उन्होंने बताया कि रासायनिक संरचना के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक भागों को तीन परतों में बाँटा जा  सकता है।

Internal Structure of The Earth

(1) सियाल (SIAL) 

            पृथ्वी का सबसे ऊपरी परत सिलिकन & अलुमिनियम से निर्मित है।

(2) सिमा (SIMA)

     स्वेस ने मध्यवर्ती परत को सिमा से संबोधित किया है और उन्होंने बताया कि सिमा सिलिकन & मैग्नेशियम से बना है।

(3) निफे (NIFE)

          पृथ्वी के सबसे आंतरिक भाग को निफे से संबोधित किया है और बताया कि यह निकेल & लोहा से बना है।

         भूकम्पीय साक्ष्यों के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना का सबसे अधिक वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। जिसके अनुसार पृथ्वी को तीन परतों में बाँटा गया है –

1. भूपर्पटी (Crust)

2. भूप्रावर (Mantle)

3. क्रोड (Core)

(1) भूपर्पटी (Crust):-

          यह पृथ्वी का सबसे ऊपरी एवं पतली परत है। पृथ्वी के कुल आयतन का 0.5% और कुल द्रव्यमान का 0.2% Crust में शामिल है। इसकी औसत मोटाई 33 किमी० है। महाद्वीपों पर इसकी अधिकतम मोटाई 70 किमी० तक और महासागरीय क्षेत्र में औसत मोटाई 5 किमी० है। इसमें परतदार चट्टानों की प्रधानता होती है। लेकिन महाद्वीपीय भागों में परतदार चट्टानों के नीचे ग्रेनाइट चट्टान की परत मिलती है जबकि महासागरीय भूपटल पर बैसाल्ट चट्टाने मिलती है।

★ भूपर्पटी की रासायनिक संरचना से स्पष्ट होता है कि इसमें सर्वाधिक ऑक्सीजन (46.80%), सिलिकन (27.72%) अल्युमीनियम (8.13%) पायी जाती है। यह पृथ्वी का वह मण्डल है जिसमें प्राथमिक तरंग, द्वितीयक तरंग, सतही तरंग, P*, S*, Pg & Sg जैसे भूकम्पीय तरंग चला करते है।

         भूपर्पटी भी दो भागों में विभक्त है:- 

1. महासागरीय भूपटल

2. महाद्वीपीय भूपटल

       महाद्वीपीय भूपटल का घनत्व कम (2.75) है जबकि महासागरीय भूपटल का घनत्व अधिक (3.75) है। यही कारण है कि महाद्वीपीय भूपटल फुला/खुला हुआ है जबकि महासागरीय भूपटल धँसा हुआ है। महाद्वीपीय भूपटल में भी अलग-अलग घनत्व की चट्टाने पायी जाती है। जैसे:- पर्वतीय चट्टानों के घनत्व सबसे कम होता है। इससे अधिक घनत्व पठारों का और पठारों से ज्यादा घनत्व मैदानी चट्टानों में होता है।

(2) भुप्रावार (Mantle):-

        भूप्रावार की मोटाई मोहो असम्बद्धता से 2900 KM तक है। पृथ्वी के कुल आयतन का 83% और कुल द्रव्यमान का 68% भाग भूप्रावार में शामिल है। यह अधिक तापमान के कारण पिघली हुई अवस्था (द्रव) के समान है। भूप्रावार पृथ्वी का वह मण्डल है जिसमें प्राथमिक तरंग  तो संचरित होती है लेकिन द्वितीयक तरंग विलुप्त हो जाती है। इसका निर्माण सिलिकन & मैग्नेशियम जैसे तत्वों से हुआ है। भूप्रावार का घनत्व 3 से 5.5 तक मानी जाती है । 

★ भूपर्पटी और भूप्रावार के बीच एक संक्रमण पेटी पायी जाती है जिसे मोहोअसम्बद्धता (Moho Discontinuty) कहते है।

★ क्रस्ट और मेंटल के ऊपरी भाग को मिलाकर स्थलमण्डल/लिथोस्फेयर कहा जाता है।

★ स्थलमण्डल के नीचे वाले मण्डल को दुर्बलमण्डल (Aestheno Sphere) कहते है। होम्स ने बताया कि दुर्बलमण्डल में ही संवहन तरंगे चलती है। ये तरंगे इतनी शक्तिशाली होती है जो स्थलमण्डल को तोड़ने एवं मोड़ने की क्षमता रखती है।

Internal Structure of The Earth
चित्र: पृथ्वी की आतंरिक संरचना

(3) क्रोड(Core)/अंतरतम:-   

         यह पृथ्वी का केंद्रीय भाग है। इसका घनत्व -10 से 13.6 g/cm3 है। पृथ्वी के कुल आयतन का 16% एवं द्रव्यमान का 32% भाग क्रोड में शामिल है। क्रोड पृथ्वी का वह मण्डल है जसमें केवल प्राथमिक तरंगे गुजरती है। यह मण्डल निकेल & लोहा से निर्मित है। इसी कारण से पृथ्वी में चुम्बकीय गुण है। क्रोड अत्याधिक दबाव के कारण ठोस भाग के रूप में परिणत हो चुका है। क्रोड की औसत मोटाई 3471 KM है। Mantle और Core के बीच में एक संक्रमण पेटी पायी जाती है जिसे गुटेनबर्ग असम्बद्धता कहते हैं। पृथ्वी की आंतरिक संरचना को नीचे के चित्रों में भी देखा जा सकता है।

निष्कर्ष:-

        इस तरह उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संबंध में भूकम्पीय तरंग सबसे अधिक वैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

9. Explain the views of Airy and Pratt regarding Isostasy.
समस्थिति के सम्बन्ध में एयरी तथा प्राट के मतों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- समस्थिति अर्थात भूसंतुलन भूगोल की एक ऐसी संकल्पना है जो भूपटल के विभिन्न स्तंभों के मध्य पाये जाने वाले संतुलन को व्याख्या करता है। भूसंतुलन का सामान्य अर्थ  “परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी के ऊपर उभरे हुये क्षेत्र (जैसे-पर्वत, पठार, मैदान) एवं नीचे स्थित क्षेत्रों  (सागर, झील) में भौतिक एवं यांत्रिक स्थिरता भूसंतुलन कहलाता है।”

         भूसंतुलन आंग्ल भाषा में ‘Isostasy या Equilibrium’ कहलाता है। Isostasy शब्द ग्रीक भाषा के Isostasius से बना है जिसका तात्पर्य समस्थिति होता है। आइसोस्टैसी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1889 ई० में अमेरिकी भूवैज्ञानिक C.F. डटन ने किया था। इन्होंने कहा था कि समस्थिति के कारण ही पर्वत, पठार, मैदान और समुद्र साथ-साथ स्थित है। बहिर्जात बल पर्वतों से मिट्टी काट-काट कर समुद्र एवं मैदान में निक्षेपित करते रहते हैं। इसीलिए मैदान एवं समुद्र तली का भार अधिक तथा पर्वतों के भार कम होते है। भार में कमी या अधिकता के कारण भूगर्भ के भूपटल पर दबाव समान रूप से नहीं पड़ता है। समस्थिति इसी दबाव के विभिन्नता को संतुलन बनाये रखने में मदद करता है।
        डटन ने बताया कि जिस रेखा के सहारे भूपटलीय संतुलन कायम रहता है उसे ‘समदबाव तल’ (Level of Uniform Pressure) अथवा ‘समतोल तल’ (Isotatic Level) या ‘क्षतिपूर्ति तल’ (Level of Compensation) कहते है।
       
         ऑर्थर होम्स महोदय ने भूसंतुलन की व्याख्या करते हुए कहा है कि “संतुलन की वह दशा जो भूपटल पर विभिन्न ऊँचाई वाले पर्वत, पठार, मैदान अथवा सागरीय नितल के मध्य पायी जाती है, भूसंतुलन कहलाता है।”
भूसंतुलन सिद्धांत का बुनियाद
              भूकम्पीय तरंगो के अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है कि पृथ्वी के विभिन्न भागों के घनत्व भिन्न-भिन्न है। इनकी पुष्टि भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा भी किया गया है। 1859 ई० में गंगा सिंधु मैदान के मध्य में अक्षांश ज्ञात करते समय दो विधियों को प्रयोग में लाया गया:-
 (l) साहुल विधि
 (ll) त्रिभुजीकरण विधि 
           यह अक्षांशीय मापन का कार्य कल्याण एवं कल्याणपुर नामक स्थान पर किया जा रहा था। इन दोनों स्थानों पर उपरोक्त दोनों विधियों द्वारा आये परिणाम में भारी अंतर था। यह अंतर 5.236 सेकंड बताया गया। इस अंतर का कारण बताते हुए विद्वानों ने बताया कि साहुल को हिमालय पर्वत अपनी ओर आकर्षित कर रही है लेकिन पुनः यह प्रश्न उठाया गया कि अगर हिमालय साहुल को अपनी ओर आकर्षित कर रही है तो हिमालय जितना विशाल है उस दृष्टि से आकर्षण और अधिक होना चाहिए तथा अंतर 15 सेकेंड से भी अधिक होना चाहिए। कालांतर में इसी जटिल तथ्यों की व्याख्या भूसंतुलन से करने का प्रयास किया गया। बताया गया कि हिमालय के नीचे स्थित चट्टानों के घनत्व पृथ्वी के औसत घनत्व से भी कम है। जबकि समुद्र नितल का घनत्व पृथ्वी के औसत घनत्व से अधिक है। यही कारण है कि दोनों के बीच संतुलन की स्थिति कायम है। भूसंतुलन को स्पष्ट करने हेतु अनेक मत प्रतिपादित किये गये है:-
(1) एयरी का मत
(2) प्रौट का मत
(3) हिस्कानेन का मत
(4) जौली का मत
(1) एयरी का मत
        1859 ई० में एयरी ने अपना मत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार “भूपटल के प्रत्येक स्तम्भ का घनत्व समान है, जो भाग जितना ऊँचा है वह उसी अनुपात में भूगर्भ में घुसा हुआ है। अर्थात जो भाग अधिक ऊंचा है उसका अधिक भाग और जो भाग कम ऊँचा है उसका कम ही भाग भूगर्भ में घुसा हुआ है।”
      एयरी महोदय ने पृथ्वी के विभिन्न भू-स्तंभों की तुलना जल में तैरते हुए हिमशीलाखंडों से किया है। उन्होंने अपने मत का व्याख्या करने हेतु आर्कमिडीज के सिद्धान्तों का सहारा लिया है। अर्कमिडीज के अनुसार “कोई भी तैरती हुई वस्तु अपनी मात्रा के समतुल्य द्रव्य को नीचे से हटा देती है”। हिम के संबंध में कहा कि “हिम जब पानी के ऊपर तैर रहा होता है तो उसका 1/9 भाग जल के ऊपर तथा शेष 8/9 भाग जल में डूबा रहता है।”
         धरातल के प्रत्येक भाग के लिए उसका 8 गुणा भाग धरातल के नीचे धंसा रहता है। इसे  सिद्ध करने के लिए एयरी ने एक प्रयोग के माध्यम से प्रदर्शित किया है। एयरी ने भूपटल के विभिन्न भागों की तुलना लौह धातु के छोटे-बड़े टुकड़ों से किया है। उन्होंने बताया कि जब लोहे के विभिन्न ऊँचाई वाले टुकड़े को द्रव में डुबोया जाता है तो जिस लोहे के टुकड़े की ऊँचाई अधिक होता है उसका उतना अधिक भाग द्रव में डूबा रहता है और जो लोहा का टुकड़ा कम ऊँचा रहता है उसका उतना ही कम भाग द्रव में डूबा रहता है।
Isostasy
आलोचना
          अगर एयरी के मत को सही मान लिया जाय तो इनके अनुसार जो भाग जितना ऊँचा होगा उसका उतना ही भाग धरातल के अंदर घुसा हुआ होगा। जैसे -अगर हिमालय की ऊँचाई को आधार बनाया जाय तो 2 लाख 70 हजार फीट गहरा जड़ होना चाहिए लेकिन दूसरी ओर यह भी ज्ञात है कि धरातल के नीचे जाने पर प्रति 32 मीटर की गहराई पर 1°C तापमान बढ़ जाती है। इस प्रकार हिमालय की इतनी गहरी जड़ धरातल के अंदर अति उच्च तापमान के कारण यथावत नहीं रह सकती। अतः इनका विचार भ्रामक है।
          एयरी के मत का दूसरा आलोचना यह है कि पृथ्वी के सभी भू-स्तंभों का औसत घनत्व एक समान है जबकि भूकम्पीय तरंगो के अध्ययन से यह स्पष्ट हो चुका है कि पृथ्वी के विभिन्न स्तम्भों का घनत्व अलग-अलग है।
निष्कर्ष:
     
          एयरी के द्वारा भूसंतुलन के दिशा में किया गया यह प्रथम प्रयास था। उनके मत को “Uniform Density with Varying Depthness” (एक समान घनत्व के साथ बदलता हुआ गहराई) नामक सिद्धांत से भी जानते है। दूसरी एयरी के मत से यह भी स्पष्ट हुआ कि पहाड़ों के जड़ें होते है। इस तरह एयरी के विचार में कुछ खामियों के बावजूद विशेष महत्व रखता है।
 प्रौट के मत
           प्रौट महोदय ने अपना विचार Royan Geography of Landform (1859 ई०) में प्रस्तुत किया था। उन्होंने कल्याण एवं कल्याणपुर के बीच साहुल एवं त्रिभुजीकरण विधि से किये गए मापन के परिणाम में आये अंतर के संबंध में विचार प्रकट करते हुए कहा कि पृथ्वी के सभी भू-स्तंभो का घनत्व एक समान नहीं है बल्कि अलग-अलग है। जैसे- पर्वतीय चट्टानों के घनत्व पठारी चट्टानों के घनत्व से कम है। पठारी चट्टानों का घनत्व मैदानी चट्टानों के घनत्व से कम है और मैदानी चट्टानों के घनत्व समुद्री भूपटल के घनत्व से कम है।
          प्रौट महोदय ने बताया कि पृथ्वी का सभी भू-स्तंभ एक क्षतिपूर्ति रेखा के सहारे एक-दूसरे के परिपेक्ष्य में संतुलित है। उन्होंने ऊँचाई और घनत्व के बीच व्युत्क्रमानुपाती सम्बन्ध  बताया अर्थात पृथ्वी के ऊपर स्थित भू-स्तंभ का घनत्व भले ही अलग-अलग हो लेकिन सभी भू-स्तंभ एक समान गहराई के साथ भूपृष्ठ में धँसे हुए है। इसे स्पष्ट करने के लिए उन्होंने निम्नलिखित प्रयोग के माध्यम से पुष्टि करने का प्रयास किया है:
चित्र: प्रौट का भू-संतुलन

         प्रौट अपने मत (Varying Density With Uniform Depth) कोउपरोक्त चित्र के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि पृथ्वी के विभिन्न भू-स्तंभ के घनत्व अलग-अलग है और चित्रानुसार ही एक क्षतिपूर्ति रेखा के सहारे सभी भू-स्तंभ संतुलित है।                                       

आलोचना
        बहुत से विद्वानों ने प्रौट के विचारों का आलोचना करते हुए कहा कि इनका मत एयरी के मत का ही संशोधित रूप है। कुछ विद्वानों ने यह भी कहा है कि भूपटल के विभिन्न भू-स्तंभ उस तरह से नहीं है जैसा कि विभिन्न धातुओं का उदाहरण देकर प्रौट ने बताया है। फिर भी इन आलोचनाओं के बावजूद क्षतिपूर्ति रेखा और विभिन्न घनत्व के निर्मित भू-स्तंभ भूसंतुलन संकल्पना की सराहनीय कदम है। 

10. Critically examine the theory of Plate Tectonic.
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

उत्तर- प्लेट विवर्तनिकी एक ऐसा सिद्धान्त है जो भू-भौतिकी से संबंधित अनेक घटनाओं जैसे-पर्वत निर्माण, ज्वालामुखी क्रिया इत्यादि के संबंध में व्यक्त किये गये सभी परम्परागत सिद्धान्तों का परित्याग कर नया विचार प्रस्तुत करता है।

      इस परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी का ऊपरी भाग दृढ़ भूखंडों से निर्मित है। ये भूखंड कई भागों में विभक्त है, इसके एक भाग को प्लेट से संबोधित करते है। सर्वप्रथम वर्ष 1955 में कनाडा के भू-वैज्ञानिक जे. टूजो विल्सन (J-Tuzo Wilson) ने ‘प्लेट’ शब्द का प्रयोग किया था। इन प्लेटों के  स्वभाव और प्रवाह से संबंधित अध्ययन को ही प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त  कहते है। यह सिद्धांत किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित नहीं है बल्कि इसमें कई विद्धानों का योगदान है। लेकिन हैरिहस महोदय ने इन सभी विचारों को संगठित कर एक सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया। 
प्लेटों का स्वभाव
       इस परिकल्पना के अनुसार प्लेटों की अधिकतम मोटाई 100 KM और न्यूनतम मोटाई 5 KM तथा औसत मोटाई 70 KM है। अमेरिकी अर्थ साइंस के अनुसार पृथ्वी 7 बड़े और 6 छोटे प्लेट निम्नलिखित है-
प्रमुख प्लेट- 7
1. प्रशांत महासागरीय प्लेट
2. उ० अमेरिकी प्लेट
3. द० अमेरिकी प्लेट
4. अफ्रीकन प्लेट
5. युरेशियन प्लेट
6. इण्डियन प्लेट
7. अंटार्कटिका प्लेट
गौण प्लेट- 6
(a) अरेबियन प्लेट
(b) फिलीपींस /फिलीपाइन प्लेट
(c) कोकस प्लेट
(d) नास्का प्लेट
(e) स्कोशिया प्लेट
(f) कैरेबियन प्लेट
Plate Tectonic Theory
इस सिद्धांत के अनुसार प्लेटों को दो भागों में बांटा जाता है–
1. स्थिर प्लेट
2. गतिशील प्लेट 
         स्थिर प्लेटों के नीचे संवहन तरंगे नहीं चल रही है जबकि गतिशील प्लेटों के नीचे संवहन तरंगे चल रही है। 
           इस सिद्धांत के अनुसार प्लेटों के मिलन स्थल को प्लेट के सीमा या सीमांत कहते है। इसके अनुसार प्लेट में 3 प्रकार की सीमाएं बांटी जाती है। इसे  निम्न चित्रों में देखा जा सकता है-
       संरचना के दृष्टिकोण से प्लेट दो प्रकार के होते है- 
1. महासागरीय प्लेट
2. महाद्वीपीय  प्लेट
            महासागरीय प्लेट बैसाल्ट चट्टानों से निर्मित है तथा इसका घनत्व अधिक है जबकि महाद्वीपीय प्लेट ग्रेनाइट चट्टानों से निर्मित है तथा इसका घनत्व कम है।
 प्लेटों के संचालन शक्तियाँ
              इस सिद्धांत के अनुसार सभी प्लेट पृथ्वी के अक्ष का अनुसरण करते हुए पूरब से पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित हो रही है। प्लेटों में गति हेतु कई कारक उत्तरदायी माना गया है। जैसे- पृथ्वी के घूर्णन गति, प्लवनशीलता बल, गुरुत्वाकर्षण बल और प्लेटों का 45° पर प्रत्यावर्तन, सूर्य एवं चन्द्रमा का ज्वारीय बल, संवहन तरंग आदि।
                  इस सिद्धांत के अनुसार प्लेटों में 3 प्रकार के गतियाँ पायी जाती है। जैसे – निर्माणकारी गति की उत्पत्ति अपसरण सीमा के सहारे होती है, विनाशकारी गति की उत्पति अभिसारी सीमा के सहारे तथा संरक्षी गति संरक्षी सीमा के सहारे उत्पन्न होता है।
प्लेटों का क्रियाविधि
         उठती हुई संवहन तरंगे अपसरण सीमा को जन्म देती है। इसी सीमा के सहारे दरार का निर्माण होता है। इन दरारों से ही दुर्बलमंडल से लावा/मैग्मा निकलती है, जिससे ज्वालामुखी क्रिया होती है। गिरती हुई संवहन तरंगे अभिसारी सीमा का निर्माण करती है। इस सीमा के सहारे अधिक घनत्व वाले प्लेट कम घनत्व वाले प्लेट में घुसने की प्रवृति रखती है। प्लेट अत्यधिक अंदर जाकर पिघलती है और “बेनी ऑफ जोन” निर्माण करती है तथा चट्टानों के वलन के साथ-साथ ज्वालामुखी का उदगार भी होता है। इसे निम्न चित्र से समझा जा सकता है-
इस सिद्धांत के पक्ष में प्रस्तुत किये गए प्रमाण 
           
          प्लेट विवर्तनिकी के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये गए है-
1. ज्वालामुखी विश्व के ज्वालामुखी वितरण के अध्ययन से स्पष्ट है कि विश्व के अधिकांश ज्वालामुखी क्रियाएं अभिसारी प्लेट सीमा के सहारे होती है।
2. भूकम्प भूकम्पीय वितरण के अध्ययन से स्पष्ट है कि विश्व में सर्वाधिक भूकम्प प्रशांत महासागर के चारों ओर स्थित क्षेत्रों में आती है। ये क्षेत्र संरक्षी प्लेट सीमा के सहारे स्थित है।
3. सागर नितल प्रसार और पुराचुमकत्व– सागर नितल प्रसार सिद्धान्त से स्पष्ट है कि सागर नितल प्रसार अपसारी सीमा के सहारे हो रही है तथा नवीन चट्टानों में पुराचुमकत्व का गुण कम तथा पुराने चाट्टानों में चुमकत्व का गुण अधिक पाया जाता है।
4. भूगर्भिक समस्याओं का समाधान  
           प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त के माध्यम से कई भूगर्भिक समस्याओं का समाधान होता है। जैसे- पर्वतों के उत्त्पति, भूकंप, भूसंचालन, महाद्विपीय विखण्डन, समुद्री नितल प्रसार, पुराचुमकत्व, द्वीपीय चाप के निर्माण आदि।
आलोचना
        उपरोक्त विशेषताओं के वाबजूद इस सिद्धांत की कई खामियां है। जैसे –  प्लेटों की संख्या का स्पष्ट पता नहीं चल पाता है, प्लेटों में संवहन तरंगे क्यों उत्पन्न होती है?, हरसिनियन और कैलिडोनियन युग के पर्वतों की उत्पत्ति की व्याख्या नहीं करता है, बेनी ऑफ जोन से निकलने वाला मैग्मा पदार्थ के परिणाम का वैज्ञानिक व्याख्या नहीं करता।   

         इन सीमाओं के वाबजूद भूगर्भ विज्ञान का एक क्रांतिकारी विचार है क्योंकि भूपटल से संबंधित सभी भूगर्भिक घटनाओं का एक बार में ही व्याख्या प्रस्तुत करता है।

11. Describe the different stages of mountain building according to Kober.
कोबर के अनुसार पर्वत निर्माण के विभिन्न चरणों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- कोबर महोदय ने मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति के सम्बंध में भूसन्नति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। इस संकल्पना के विकास का प्रथम प्रयास हॉल और डाना महोदय द्वारा किया गया, लेकिन एक सिद्धांत के रूप में इस संकल्पना का प्रतिपादन सर्वप्रथम हॉग महोदय द्वारा किया गया। कोबर ने वलित पर्वतों की उत्पत्ति के संबंध में भू-सन्नति सिद्धांत का प्रतिपादन किया। कोबर के अनुसार भूपटलीय चट्टानें लचीली होती है जब चट्टानों पर दबाव शक्ति कार्य करती है तो भूपटलीय चट्टानें मुड़कर भुसन्नति या मोड़दार पर्वत का निर्माण करती है। 

       भू-सन्नतियां लंबे, संकरे तथा उथले जलीय भाग होती है, जिनमें तलछटिय निक्षेप के साथ-साथ तली में धंसाव होता है। वर्तमान समय में प्राय: सभी विद्वानों की यह मान्यता है कि प्राचीन और नवीन वलित पर्वतों का आविर्भाव भू-सन्नतियाँ से हुआ है। जैसे- रॉकी भूसन्नति से रॉकी पर्वत, यूराल भू-सन्नति से यूराल पर्वत तथा टेथिस भू-सन्नति से महान हिमालय पर्वतों का निर्माण हुआ। भू-सन्नतियों का पर्वत निर्माण से संबंध होने के कारण कोबर ने इन्हें पर्वतों का पालना कहा है।

कोबर का भूसन्नति सिद्धांत

             वास्तव में उनका मुख्य उद्देश्य प्राचीन दृढ़ भूखंडों तथा भू-सन्नतियों में संबंध स्थापित करना था। इनका सिद्धांत संकुचन शक्ति पर आधारित है। पृथ्वी में संकुचन होने से उत्पन्न बल से अग्रदेशों में गति उत्पन्न होती है, जिससे प्रेरित होकर सम्पिडनात्मक बल के कारण भूसन्नति का मलवा वलीत होकर पर्वत का रूप धारण करता है। जहाँ पर आज पर्वत है, वहां पर पहले भू-सन्नतियां थी, जिन्हें कोबर ने पर्वत निर्माण स्थल बताया।  इन भू-सन्नतियों के चारों और प्राचीन दृढ़ भूखण्ड थे, जिन्हें क्रैटोजेन बताया है, कोबर के अनुसार भूसन्नतिया लंबे तथा चौड़े जलपूर्ण गर्त थी।

           प्रत्येक भूसन्नति के किनारे पर दृढ़ भूखंड होते हैं। जिन्हें कोबर ने अग्रदेश (Foreland) बताया।  इन दृढ़ भूखंडों के अपरदण से प्राप्त मलवा का नदियों द्वारा भूसन्नति में धीरे-धीरे जमा होता रहता है अवसादी जमाव के कारण भार में वृद्धि होने से भूसन्नति की तली में निरंतर धंसाव होता जाता है इसे अवतलन की क्रिया कहते हैं इन दोनों क्रियाओं के लंबे समय तक चलते रहने के कारण भूसन्नति की गहराई अत्यंत अधिक हो जाती है तथा अधिक मात्रा में मलबा का निक्षेप हो जाता है। 

      जब भूसन्नति भर जाती है तो पृथ्वी के संकुचन से उत्पन्न क्षैतिज संचलन के कारण भूसन्नति के दोनों अग्रदेश एक-दूसरे की ओर खिसकने लगते हैं। इसे पर्वत निर्माण की अवस्था कहते हैं। भूसन्नति के दोनों किनारों पर दो पर्वत श्रेणियों का निर्माण होता है जिन्हें कोबर ने ‘रेन्डकेटेन’  के नाम दिया है यदि संपीड़न का बल सामान्य होता है तो केवल किनारे वाले भाग ही वलित होते हैं तथा बीच का भाग वलन से अप्रभावित रहता है। इस अप्रभावित भाग कोबर ने स्वाशिनवर्ग की संंज्ञा प्रदान की है जिसे सामान्य रूप में मध्य पिंड (Median Mass) कहा जाता है जब संपीडन का बल सर्वाधिक सक्रिय होता है कभी-कभी वलन की ग्रीवा टूट कर दूसरे वलन पर चढ़ जाती है जिस कारण ग्रीवा खंड (Nappe) का निर्माण होता है।

        कोबर ने अपने विशिष्ट मध्य पिंड के आधार पर विश्व के वलीत पर्वतों की संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास किया है टेथीस भूसन्नति के उत्तर में यूरोप का स्थल भाग तथा दक्षिण अफ्रीका का दृढ़ भूखण्ड था।  इन दोनों अग्रदेशों के आमने-सामने सरकने के कारण अल्पाइन पर्वत श्रृंखला का निर्माण हुआ। अफ्रीका के उत्तर की ओर सरखने के कारण बेटीक कार्डिलरा, पेरेनिज प्राविन्स श्रेणियां मुख्य आल्प्स, कार्पेथियंस, बाल्कन पर्वत तथा काकेशस का निर्माण हुआ। 

          हिमालय तथा कुनलुन के बीच तिब्बत का पठार।  इस तरह कोबर ने अपने सिद्धांत में मध्य पिंड की कल्पना करके पर्वतीकरण को उचित ढंग से समझाने का प्रयास किया है तथा मध्य पिंड की यह कल्पना कोबर के विशिष्ट पर्वत निर्माण स्थल की अच्छी तरह व्याख्या करती हैं। 

        हिमालय के निर्माण के विषय में कोबर ने बताया है कि पहले टेथिस सागर था जिसके उत्तर में अंगारालैंड तथा दक्षिण में गोंडवाना लैंड अग्रदेश के रूप में थे। इयोसीन युग में दोनों आमने-सामने सरकने लगे, जिस कारण टेथिस के दोनों किनारों पर तलछट के वलन पड़ने से उत्तर में कुनलुन पर्वत तथा दक्षिण में हिमालय की उत्तरी श्रेणी का निर्माण हुआ, दोनों के बीच तिब्बत का पठार मध्य पिंड के रूप में बच रहा। आगे चलकर मध्य हिमालय तथा लघु शिवालिक श्रेणियों का भी निर्माण हो गया।

आलोचना

        यद्दपि कोबर महोदय ने पर्वतों के निर्माण को भली-भांति समझाने का प्रयास किया तथापि उसके भुसन्नत्ति सिद्धान्त में कुछ दोष पाये जाते है, जिनका उल्लेख निम्नलिखित है।-

1. पर्वतों के निर्माण के लिये पृथ्वी के सिकुड़ने से पैदा होने वाले जिस बल का वर्णन कोबर ने किया है वह अपर्याप्त है।

2. कोबर के अनुसार भुसन्नत्ति के दोनों किनारे सरकते है जबकि स्वेस का मतानुसार भुसन्नति का एक ही किनारा सरकता है।

3. कोबर के सिद्धान्त से पूर्व-पश्चिम दिशा में फैले हुए पर्वतों (हिमालय,आल्पस) का स्पष्टीकरण तो हो जाता है, परन्तु उत्त-दक्षिण दिशा में फैले पर्वतों (रॉकी, एंडिज) का स्पष्टीकरण नहीं हो पाता है।


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I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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