21. Fundamental Concepts in Human Geography (मानव भूगोल में मौलिक अवधारणाएँ)
Fundamental Concepts in Human Geography
(मानव भूगोल में मौलिक अवधारणाएँ)
अवधारणाएँ (Concepts):-
अवधारणाएँ किसी भी विषय का एक महत्वपूर्ण अंग होती है, क्योंकि वे उस विषय को एक अलग पहचान देने का काम करती है। जबकि एक विषय की मौलिक अवधारणाएँ उस विषय में अध्ययन किए गए तथ्यों की प्रकृति और उन तथ्यों का अध्ययन करने हेतु अपनाए गए परिप्रेक्ष्य या दृष्टिकोण पर निर्भर करती है, क्योंकि पृथक् पृथक् विषय तथ्यों के पृथक् पृथक् समूहों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं और पृथक पृथक परिप्रेक्ष्य का प्रयोग करते है इसलिए उनके पास अवधारणाओं का उनका अपना विशिष्ट समूह होता है।
मानव भूगोल की कुछ अवधारणाएँ तो अभिन्न अंग है जो मानव भूगोल की विशिष्ट प्रकृति को चरित्रित करने में उपयोगी है। इसी कारण इन्हें मानव भूगोल की मूलभूत अवधारणाओं के रूप में जाना जाता है। मानव भूगोल की मूलभूत अवधारणाएँ समय (काल), स्थान/जगह, अवस्थिति, स्थानिक वितरण, स्थानिक अंत: क्रिया और स्थानिक संगठन मानव भूगोल की अपनी मूल अवधारणाएँ है।
जबकि दूसरी ओर समय (काल), समाज, संस्कृति, धारणा, व्यवहार, विकास और असमानता जैसी अवधारणाएँ व्युत्पन्न अवधारणाएँ है। अतः मानव भूगोल की मूलभूत अवधारणाओं का विस्तृत अध्ययन निम्न प्रकार है-
(1) मापक (Scale):-
मानचित्र का मापक मानचित्र पर दूरी तथा धरातल पर वास्तविक दूरी का अनुपात है। जैसे मानचित्र पर 1 इंच धरातल पर 20 मील को प्रदर्शित कर सकता है। द्वितीय मापक का विश्लेषण किसी क्षेत्रीय इकाई के आकार के रूप में करता है जिस पर किसी समस्या का विश्लेषण किया जाता है, जैसे- देश, राज्य या जिला स्तर।
तथ्य विषयक/ परिघटनात्मक मापक का मतलब उस आकार से है जिस पर भौगोलिक संरचनाएँ उपलब्ध है अथवा जिस पर भौगोलिक प्रक्रिया संसार में काम कर रही है। विद्वानों द्वारा अध्ययन किए गए तथ्य-विषयकों/परिघटना को सूक्ष्म, समष्टि या वृहत् स्तर पर देखा जा सकता है। यह स्थानीय, प्रादेशिक या वैश्विक स्तर पर भी उपलब्ध हो सकते है। जैसे- एक समुदाय द्वारा बोली जाने वाली बोली स्थानीय स्तर पर मिलती है जबकि एक भाषा प्रादेशिक स्तर या वैश्विक स्तर पर मिलती है।
(2) समय/काल और जगह/स्थान (Time/Period and Place/Space):-
समय तथा जगह दोनों पृथ्वी की सतह पर किसी भी वस्तु के अस्तित्व की दो मूलभूत वास्तविकताएँ है। काण्ट (1724-1804) का मत था कि समय (काल) और जगह स्थान मानव अनुभव की सम्पूर्ण परिधि को भरते है। मानव सहित समस्त कुछ समय (काल) और जगह स्थान के अन्तर्गत होता है।
समय (काल) और जगह दोनों को रोजमर्रा के शब्दों के रूप में जाना जाता है, क्योंकि हम समस्त अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में समय एवं जगह सम्बन्धी तथ्यों का सामना करते हैं। फलस्वरूप, हम सभी को इन शब्दों के बारे में सामान्य समझ है। इसके बावजूद इन अवधारणाओं को परिभाषित करना मुश्किल है। समय के साथ दो लगातार घटित घटनाओं का पृथक्करण है। जबकि जगह को दो स्थानों के मध्य पृथक्करण के रूप में माना गया है।
इतिहास समय (काल) के साथ सम्बन्धित है। इसी कारण इतिहासकार वास्तविकता के लौकिक या सामयिक आयाम से सम्बन्ध रखते है। वे मुख्य रूप से समाज के लौकिक या सामयिक क्रम विकास का अध्ययन करने में रुचि रखते हैं। मानव इतिहास में अब तक जो कुछ घटित हुआ है, वह केवल विशिष्ट स्थानों पर हुआ है जबकि भूगोल का सम्बन्ध जगह से है। इसलिए भूगोलवेत्ता वास्तविकता के स्थानिक आयामों से सम्बन्ध रखते है। अतः भूगोल को एक क्षेत्र या स्थानिक विज्ञान के रूप में परिभाषित किया गया है।
समय एवं जगह की अवधारणाओं की परस्पर अन्तनिर्भरता इतिहास और भूगोल के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध की वकालत करते है। यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस (485-428 ई. पू.) का मत है कि “सम्पूर्ण इतिहास को भौगोलिक रूप से देखना चाहिए और सम्पूर्ण भूगोल को ऐतिहासिक रूप से देखना चाहिए।”
(3) क्षेत्र, स्थान और प्रदेश (Area, Place and Region):-
कई विद्वानों ने संसार को समझने हेतु क्षेत्र, स्थान एवं प्रदेश की अवधारणा को विकसित किया है। क्षेत्र शब्द सामान्यतः किसी स्थान के एक भाग या पृथ्वी की सतह के एक भाग के रूप में माना गया है जिसका एक निश्चित विस्तार एवं सीमा होती है, परन्तु यह किसी आकार का हो सकता है। यह एक सामान्य अवधारणा है, परन्तु इसकी कोई निश्चित अवस्थिति नहीं होती है।
वहीं दूसरी ओर एक स्थान अपनी भौतिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं या कार्यों के रूप में विशिष्टता व विलक्षणता के कारण निश्चित या अनिश्चित सीमा का क्षेत्र है। किसी स्थान की भौतिक विशेषताओं में भू-आकृतियाँ, जलाशय, मिट्टी, तापमान, वर्षा, वायु, जीव एवं वनस्पति तथा जीवन आदि सम्मिलित है। जबकि सांस्कृतिक विशेषताओं में मानव अधिवास, कारखाने, अस्पताल, विद्यालय, रक्षा प्रतिष्ठान, सड़कें, रेलवे, भाषा, धर्म आदि सम्मिलित है।
(4) तंत्र (Mechanism):-
तंत्र एक-दूसरे से अंतः परस्पर या एक-दूसरे से जुड़े तत्वों का समूह है या जुड़े हुए सिरों का समूह तंत्र है। पृथ्वी की सतह पर अवस्थित या वितरित तत्व स्थानिक तत्व है। परिवहन तंत्र स्थानिक तंत्र की व्यापक श्रेणी से सम्बन्धित है। जबकि जैविक प्रणाली, सामाजिक तंत्र, कार्यालय व्यवस्थान गैर-स्थानिक तंत्र के उत्तम उदाहरण है। भूगोल विशेषज्ञ अधिकतर स्थानिक तंत्र में ध्यान केन्द्रित रखते है।
एक तंत्र एवं उसकी संयोजकता का प्रतीकात्मक प्रदर्शन रेखाचित्र के रूप में होता है। यह संधियों द्वारा जुड़े असंधियों या किनारों का एक समूह होता है। स्थानिक तंत्र के दो सबसे महत्वपूर्ण तत्व शीर्ष (Vertex) और छोर (edge or link) है। एक असंधि एक रेखाचित्र का एक अंतिम बिंदु या प्रतिच्छेदन बिंदु है। परिवहन तंत्र में असंधि (nodes) का उत्तम उदाहरण सड़क का चौराहा या परिवहन टर्मिनल है।
मानव भूगोल के प्रमुख विद्वान मानव के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक तत्वों को पृथ्वी की सतह पर व्यवस्थित और संरचित करने के तरीकों के अध्ययन में रुचि लेते हैं। इनमें सड़क तंत्र, रेलवे तंत्र, बिजली तंत्र, संचार तंत्र, सामाजिक एवं संपर्क तंत्र आदि प्रमुख है।
(5) स्थानिक अंतः क्रिया (Spatial Interaction):–
स्थानिक अंतःक्रिया द्वारा पृथ्वी एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। इसलिए एक स्थान के व्यक्ति दूसरे स्थान के व्यक्तियों से सम्पर्क एवं सम्बन्ध स्थापित करते हैं। गाँव से गाँव के मध्य, गाँव से शहरों के मध्य, शहरों का शहरों के मध्य और बन्दरगाह एवं आन्तरिक प्रदेशों के मध्य अन्त: क्रिया होती है। व्यक्ति वस्तुओं, सेवाओं, पैसा, सूचना और विचारों का संचार तथा आदान-प्रदान के कारण स्थानों के मध्य स्थापित अंतर्निर्भरता का सम्बन्ध स्थानिक अंत: क्रिया कहा जाता है।
(6) अवस्थिति एवं स्थानिक वितरण (Location and Spatial Distribution):-
मानव भूगोल में भूगोलवेत्ता पृथ्वी पर स्थानों, परिघटनाओं की अवस्थिति एवं वितरण की व्याख्या करते हैं, जबकि मानव भूगोल में प्रयुक्त होने वाली अवस्थिति और वितरण की अवधारणा को जानने हेतु सर्वप्रथम स्थानिक, वितरण, अवस्थिति, परिघटना और परिमाण की अवधारणाओं को जानना होगा। गॉर्डन जे. फील्डिंग (1974) ने इन शब्दों की अवधारणाओं के मध्य अन्तर स्पष्ट किया है। स्थानिक शब्द इंगित करता है कि एक परिघटना पृथ्वी की सतह के एक हिस्से को अधिग्रहित करती है। जबकि वितरण एक-दूसरे से सम्बन्धित परिघटनाओं का संयोजन है और वितरण एक प्रकार की परिघटना की व्यवस्था है।
(7) पदानुक्रम और स्थानिक व्यवस्थापन (Hierarchy and Spatial Organisation):-
पदानुक्रम (Hierarchy) आकार, कार्य या महत्व के किसी अन्य आधार पर वस्तुओं को क्रमबद्ध या श्रेणीबद्ध किया जाता है। स्थानिक शब्द में कल्पना की जाती है कि संसार का आकार, कार्यात्मक महत्व या भौगोलिक महत्व का पदानुक्रम में व्यवस्थित करता है। पृथ्वी पर विभिन्न स्थानों और वस्तुओं की श्रेणी या क्रम को स्थानिक पदानुक्रम में रखा जाता है। जैसे भारत में बस्तियों का पदानुक्रम।
जनसख्या के आधार पर भारत में बस्तियों सबसे बड़ी इकाई (महानगर) से लेकर सबसे छोटी इकाई (पल्ली गाँव) तक होती हैं। इसके अलावा भारत की जनगणना के आधार पर शहरी बस्तियों के पदानुक्रम में रखा गया है। स्थानिक पदानुक्रम का एक उत्तम उदाहरण प्रादेशिक पदानुक्रम है। एक प्रदेश समान श्रेणी के प्रदेशों के पदानुक्रम में एक नियत स्थान रखता है। जैसे भारत का सम्पूर्ण क्षेत्र 6 जल संसाधन प्रदेशों में बंटा है। प्रत्येक जल संसाधन प्रदेश में अनेक द्रोणियाँ है। एक द्रोणी कई जलग्रहण क्षेत्रों के मिलने से बनती है एक जलग्रहण क्षेत्र में कई उप-जलग्रहण क्षेत्र होते हैं। एक उप-जलग्रहण क्षेत्र कई वाटरशेड में विभाजित होते है।
मानवीय बस्तियों का आकार मुख्यतः उनके मध्य अन्तः क्रिया का स्तर निर्धारित करता है। कम जनसंख्या वाली बस्तियों की तुलना में अधिक जनसंख्या वाली बस्तियों के मध्य से सम्बन्धित है। जबकि देहरादून दूरी के कारण दिल्ली के निकट है मुम्बई-देहरादून की तुलना में दिल्ली से अधिक दूर होने पर भी यहाँ स्थानिक पदानुक्रम की अवधारणा का प्रयोग देश के प्रशासन और विकास की योजना का निर्धारण होता है। जैसे-प्रशासनिक उद्देश्य हेतु देश राज्यों और जिलों में बाँट दिया जाता है।
(8) अन्तर्सम्बन्ध की संकल्पना (Concept of Inter-relationship):-
इसे पार्थिव एकता की संकल्पना के नाम से भी जाना जाता है। विश्व के सभी भौगोलिक तत्व चाहे वे प्राकृतिक हो या मानवीय एक-दूसरे से किसी-न-किसी रूप में सम्बन्धित होते है और किसी भी तत्व का अकेले तथा स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं है। सभी तथ्य एक-दूसरे को प्रभावित करते है।
अतः किसी प्रदेश का वास्तविक भृदृश्य वहाँ के सभी तथ्यों के मिले-जुले प्रभावों का परिणाम होता है। किसी प्रदेश में मानव जीवन के विवेचन के लिए वहाँ की भौगोलिक दशाओं का अध्ययन आवश्यक हो जाता है, क्योंकि मानव जीवन उनसे निश्चित रूप से सम्बन्धित तथा प्रभावित होता है। इसी कारण मानव भूगोल को “मानव पारिस्थितिकी” का अध्ययन माना जाता है।
जर्मन विद्वान फ्रेडरिक रैटजेल ने “पार्थिव एकता के सिद्धान्त” को ही प्रमुखता प्रदान की थी। इनके अलावा ब्लाश, बूंश, डिमांजिया आदि भूगोलविदों ने भी ‘पार्थिव एकता या अन्तर्सम्बन्धों के सिद्धान्त’ को मानव भूगोल का प्रमुख सिद्धान्त माना है।
(9) कालिक परिवर्तन की संकल्पना (Concept of Temporal Change):-
कालिक परिवर्तन की संकल्पना को ‘क्रियाशीलता का सिद्धान्त’ के नाम से भी जाना जाता है। विश्व में कोई तत्व पूर्णतः स्थायी नहीं है. क्योंकि यह दुनिया ही परिवर्तनशील है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। पर्यावरण के सभी तत्व चाहे वे प्राकृतिक हों या सास्कृतिक, जड़ हो या चेतन सभी परिवर्तनशील हैं। उनमें परिवर्तन की क्रिया निरन्तर क्रियाशील रहती है। बूंश के शब्दों में “हमसे सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु परिवर्तित हो रही है, प्रत्येक वस्तु बढ़ रही है या घट रही है। वास्तव में कुछ भी बिना परिवर्तन के नहीं है।” प्रत्येक जीव अथवा वस्तु सभी अपनी उत्पत्ति से विनाश तक जीवन चक्र में परिवर्तित होती रहती है।
(10) सांस्कृतिक भूदृश्य की संकल्पना (Concept of Cultural Landscape):-
किसी प्रदेश में भू-आकृत्तियों, वनस्पतियाँ, जलाशयों, मानव भूमि उपयोग तथा अन्य प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक तत्वों के सम्पूर्ण योग को भूदृश्य कहा जाता है। तत्वों की प्रकृति के अनुसार उन्हें प्राकृतिक भूदृश्य और सांस्कृतिक भूदृश्य में बाँटा जाता है। भूदृश्य की संकल्पना परम्परागत भूगोल का अभिन्न अंग रही है। जर्मन भाषा में भूदृश्य के समानार्थी ‘लैण्डशाफ्ट’ (Landschaft) शब्द का प्रयोग किया जाता है।
अमेरिकी भूगोलवेत्ता कार्ल सावर ने भूदृश्य की व्याख्या की है और उन्होंने कहा है कि सम्पूर्ण भूदृश्य में प्राकृतिक तत्वों के समुच्चयिक स्वरूप को प्राकृतिक भूदृश्य और मानवकृत तत्वों के समुच्चयक स्वरूप को सांस्कृतिक भूदृश्य कहा जा सकता है। मानव द्वारा निर्मित गृह, ग्राम, नगर, मार्ग, सड़क, खेत, बाग-बगीने, फसलें, कल-कारखाने, खेल के मैदान, पार्क आदि सांस्कृतिक भूदृश्य के प्रमुख घटक है।
(11) नियतिवाद की संकल्पना (Concept of Determinism):-
भूगोल में मानव एवं पर्यावरण के बीच संबंधो का अध्ययन हेतु अनेक पद्धति एवं वैचारिक सम्प्रदाय का विकास हुआ। उनमें से एक विचार निश्चवादी के नाम से जाना जाता है। भूगोल में द्वितीय विश्वयुद्ध तक निश्चयवादी विचार का प्रभाव बना रहा। निश्चयवादी विचार का तात्पर्य है- समय का इतिहास, सभ्यता, जीवनशैली, संस्कृति एवं राष्ट्र की सभी धारणाएँ पर्यावरण के द्वारा निर्धारित एवं संचालित होती है।
भौतिक दशाओं के अनुसार ही मानव के शारीरिक गठन, उसके भोजन, वस्त्र, आवास आदि प्राथमिक आवश्यकताओं, व्यवसायी तथा सामाजिक व सांस्कृतिक क्रियाओं का निर्धारण होता है। इसमें प्रकृति की प्रबलता पर बल दिया है और मनुष्य को प्रकृति का दास माना है। जर्मन भूगोलवेत्ता रैटजेल इस विचारधारा के प्रबल समर्थक थे। इस विद्यारधारा को पर्यावरणवाद या पर्यावरणीय नियतिवाद के नाम से भी जाना जाता है।
(12) सम्भववाद की संकल्पना (Concept of Possibilism):-
‘सम्भववाद’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता लुसियन फैबे (1922) ने किया था, लेकिन इसका प्रतिपादन इससे पूर्व विडाल डी ला ब्लाश के द्वारा किया जा चुका था। अधिकतर फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने मानव की स्वतन्त्रता और उसके कार्यों को बल दिया तथा नियतिवाद विचारधारा की कटु आलोचना की। ब्लाश के अनुसार, “प्राकृतिक वातावरण मानव को सम्भावनाएँ प्रदान करता है, उसके बदले में मानव अपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा क्षमताओं के आधार पर उनका उपयोग करता है।” एक अन्य स्थान पर ब्लाश ने लिखा है, “प्रकृति असंख्य सम्भावनाएँ प्रदान करती है तथा इन सम्भावनाओं का उपयोग मानवीय छांट पर निर्भर करता है।”
(13) नवनिश्चयवाद की संकल्पना (Concept of Neodeterminism):-
नवनिश्चयवाद, नियतिवाद की संशोधित विचारधारा है, जो व्यावहारिक जगत् के अधिक पास है। इसका प्रतिपादन अमेरिकन भूगोलवेत्ता ग्रिफ्थ टेलर ने किया। टेलर ने इस विचारधारा को ‘वैज्ञानिक निश्चयवाद’ तथा रुको और जाओ निश्चयवाद की संज्ञा दी। टेलर का मानना था कि न तो प्रकृति का मानव पर पूर्ण नियन्त्रण है और न ही मानव का प्रकृति पर। दोनों में एक सक्रिय क्रियात्मक अन्तर्सम्बंध है।
(14) व्यवहारपरक भूगोल की संकल्पना (Concept of Behavioural Geography):-
यह मानव भूगोल की एक नवीन संकल्पना है। इस विचारधारा का प्रारम्भ अमेरिकन भूगोलवेत्ता विलियम किर्क द्वारा प्रकाशित लेख ‘Historical Geography and the Concept of Behavioural Environment’ के माध्यम से हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अन्तरविषयक अध्ययन का दौर प्रारंभ हुआ। अन्तरविषयक अध्ययन के परिणाम स्वरूप भूगोल में कई क्रांतियों का आगमन हुआ जिनमें मात्रात्मक क्रांति और आचारपरक या व्यावहारात्मक क्रांति प्रमुख था।
आचारपरक क्रांति का अभ्युदय मात्रात्मक क्रांति के विरोध में हुआ क्योंकि मात्रात्मक क्रांति ने मानव को पूर्णतः मशीनीकृत बना दिया था। मात्रात्मक क्रांति ने मानवीय चेतना, बौद्धिकता, व्यवहार, सौंदर्य, श्रृंगार रस इत्यादि को कोई महत्व नहीं दिया था। अर्थात मात्रात्मक क्रांति ने भूगोल को एक निर्जीव विषय बना दिया था। इस तरह भूगोल में मनोविज्ञान तथ्यों का अध्ययन प्रारंभ किया गया ताकि भूगोल को मानवीय चेतनाओं से मुक्त विषय बनाया जाय।
(15) अतिवादी भूगोल की संकल्पना (Concept of Radical Geography):-
अतिवादी भूगोल को उग्र सुधारवाद या अमूल्य चुल परिवर्तनवादी क्रांतिकारी उपागम के नाम से जानते है। अतिवादी भूगोल का जन्म 1960-70 ई० के दशक में USA में हुआ। भूगोल में अतिवाद का उदय मात्रात्मक क्रांति और स्थानिक विश्लेषण के विरोध में हुआ। यह साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित है लेकिन इसका उदय साम्यवादी या समाजवादी देशों में न होकर पूँजीवादी देश USA में हुआ है।
अतिवादी भूगोल के विचारधारा को विकसित करने में अमेरिका के क्लार्क विश्वविद्यालय और वहाँ से प्रकाशित होने वाला पत्रिका ‘एंटीपोड’ का विशेष योगदान है। व्यक्तिगत रूप से डेविड हार्वे और जे.आर. पीट जैसे भूगोलवेताओं का योगदान रहा है। इस विचारधारा का विकास मूलतः पूर्व संस्थापित नियमो की नकारात्मक प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था जिसका केन्द्र बिन्दु मानव कल्याण से सम्बद्ध सामाजिक मूल्यों का प्रश्न है।
निष्कर्षतः जा सकता है कि मात्रात्मक कांति, व्यावहारात्मक क्रांति, प्रत्यक्षवादी दर्शन, भूगोल को मानवीय समस्याओं के समाधान से दूर रखकर इसके आधार को ही समाप्त कर रहे थे लेकिन अतिवादी भूगोल ने सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर भूगोल में नई दृष्टि का सूत्रपात्र किया।
(16) मानवतावादी भूगोल की संकल्पना (Concept of Humanistic Geography):-
मानवतावादी भूगोल प्रत्यक्षवाद के भी विरुद्ध है क्योंकि प्रत्यक्षवाद उन्हीं तथ्यों का अध्ययन करता है जिसे आँखों से देखा जा सके। लेकिन मानवतावाद एवं कल्याणकारी उपागम वैसे तथ्यों का अध्ययन करता है जिसे मात्र अनुभव किया जा सके। ‘मानवतावादी’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1976 में ‘तुआन’ ने किया था।
मानववाद का सर्वप्रथम आरम्भ 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ब्लाश के नेतृत्व में फ्रांसीसी विद्वानों ने किया था। भौगोलिक अध्ययनों में मानवतावादी दृष्टिकोण का समावेश 1970 के दशक में प्रारम्भ हुआ। मानवतावादी विचारधारा भौगोलिक अध्ययनों में मानवीय जागरूकता, मानवीय चेतना तथा मानवीय क्रियात्मकता को केन्द्रीय एवं सक्रिय भूमिका प्रदान करती है। इस विचारधारा से अनुप्रेरित मानववादी भूगोल अपने भौगोलिक अध्ययनी में मानवीय अनुभवो, मानवीय मूल्यों के आकलन एवं मूल्यांकन की महत्व प्रदान करता है।
(17) कल्याणपरक भूगोल की संकल्पना (Concept of Welfare Geography):-
मानव भूगोल की इस अभिनव प्रवृत्ति के अन्तर्गत विकसित इस विचारधारा ने मानव भूगोल की एक नवीन शाखा को उद्धृत किया है, जिसे परिवर्तनवादी भूगोल अथवा क्रान्तिकारी भूगोल की संज्ञा दी जा रही है। यद्यपि मानव कल्याणपरक भूगोल से सम्बन्धित अध्ययन सन् 1960 के बाद ही प्रारम्भ हो गये थे, किन्तु सन् 1971 में लन्दन में प्रकाशित ‘एरिया’ शोध पत्रिका में डेविड स्मिथ के क्रान्तिकारी भूगोल पर लेख प्रकाशित हुए। सन् 1977 में इससे सम्बन्धित दो पुस्तके प्रकाशित हुई।
वर्तमान में मानव कल्याणपरक विचारधारा विकराल रूप लेती जा रही मानवीय समस्याओं, जैसे गरीबी, भुखमरी, अकाल, युद्ध, जाति-भेद, रंग-भेद, नैतिक मूल्यों में गिरावट, पर्यावरण प्रदूषण आदि से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत हम समाज के कल्याण पर विभिन्न भौगोलिक नीतियों के सम्भावित प्रभावों का अध्ययन करते है। यह संकल्पना ‘सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय’ की अवधारणा पर आधारित है।