17. Definition and scope of cultural geography (सांस्कृतिक भूगोल की परिभाषा एवं विषय क्षेत्र)
17. Definition and scope of cultural geography
(सांस्कृतिक भूगोल की परिभाषा एवं विषय क्षेत्र)
प्रश्न प्रारूप
Q. सांस्कृतिक भूगोल को परिभाषित करते हुए इसके विषय क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
उत्तर- सांस्कृतिक पर्यावरण मानव के द्वारा निर्मित किया हुआ भूदृश्य होता है जिसमें मानवीय निवास गृह, आवागमन के साधन, सिंचाई के साधन, परिवहन और संचार के साथन, आर्थिक व्यवसाय, श्रम विभाजन, खेत, कारखाने, बैंक, बीमा संस्थान, साहित्यिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक और राजनैतिक संस्थाएं, आदि होती हैं। इनके अतिरिक्त सामाजिक व्यवस्था, श्रम विभाजन, प्रथाएं और जीवन के मूल्य भी इसमें सम्मिलित रहते हैं।
सांस्कृतिक पर्यावरण के इस निर्माण में मानव की संख्या, उसकी शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमता, विकास का स्तर. सांस्कृतिक विरासत, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएं, ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियां आधारी कारक रहे हैं। इन कारकों ने सांस्कृतिक पर्यावरण की कई प्रक्रियाओं को जन्म दिया है जिनमें समाजीकरण और आर्थिकीकरण मुख्य हैं।
समाजीकरण मानव की वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से वह अपने समाज में कुछ निश्चित तौर तरीके अपनाता है तथा अपने को समाज के अनुकूल ढालता है। विभिन्न समाजों के अन्तर्गत मानव अपने जीवन निर्वाह तथा विकास के लिए पर्यावरण के संसाधनों को प्राप्त करने के लिए कार्य करते हैं। मानव की इस प्रक्रिया को आर्थिकीकरण कहते हैं। इसके अन्तर्गत मानव की उत्पादन, वितरण, उपभोग सम्बन्धी मांग-आपूर्ति तथा आय द्वारा समृद्धि से जुड़ी क्रियाएं आती हैं।
संस्कृति एक ऐसा महत्वपूर्ण तत्व है जो सांस्कृतिक पर्यावरण और सामाजिक क्रिया का निर्धारण करती है। व्यक्ति विशेष का व्यवहार उस संस्कृति द्वारा नियमित होता है जिसमें वह रहता है। संस्कृति व्यक्ति को एक अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र के वैकल्पिक व्यवहारों में से एक विशेष प्रकार के व्यवहार का चुनाव करने में सहायक सिद्ध होती है, जो उसकी जैविक विरासत द्वारा उसे अनुमत है। यह एक ऐसी जटिल सम्पूर्णता है जिसके अन्तर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा और कई अन्य क्षमताओं तथा आदतों का समावेश होता है जिसे व्यक्ति ने समाज के एक सदस्य के रूप में अर्जित किया है।
यद्यपि सम्पूर्ण विश्व की मानव जाति की संस्कृतियों में एक आश्चर्यजनक विभिन्नता दिखाई पड़ती है फिर भी प्रत्येक संस्कृति मानव कार्यकलापों के कुछ ऐसे क्षेत्रों को सम्मिलित करती है जिनको संस्कृति के विविध पक्षों के रूप में जाना जाता है। ये पक्ष आसपास के भौतिक पर्यावरण से अनुकूलन करने के साधन हैं।
इन पक्षों में प्रौद्योगिकी, अर्थशास्त्र, सामाजिक संगठन, शिक्षा, राजनीतिक संरचनाएं, विश्वास, प्रथाएं, शक्ति का नियंत्रण, कला, संगीत, नाटक, नृत्य, लोकवार्ता, आदि उल्लेखनीय हैं। किसी समाज द्वारा अपने लिए सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के विशिष्ट तंत्रों को अपनाने का निर्धारण अधिकांशतः उसका भौतिक पर्यावरण ही करता है जिसमें जलवायु, स्थलाकृति, प्राकृतिक संसाधन और अन्य सम्मिलित होते हैं।
सांस्कृतिक भूगोल की परिभाषा
धरातल पर सांस्कृतिक भूदृश्यों में विभिन्नता का कारण मानव की सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में भिन्नता होना है। मानव प्राकृतिक पर्यावरण में प्राविधिकी ज्ञान, सामाजिक संगठन आदि के द्वारा परिवर्तन करता है और सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण करता है। प्रत्येक सांस्कृतिक पर्यावरण में भिन्न-भिन्न जीवन तंत्र का विकास होता है। इस जीवन तंत्र का विश्लेषण करना सांस्कृतिक भूगोल का मुख्य उद्देश्य है।
फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता डिमांजियां के अनुसार मानव समाज का अध्ययन पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में करना ही सांस्कृतिक भूगोल है।
हंटिंगटन के अनुसार सांस्कृतिक भूगोल के अन्तर्गत भौतिक दशाओं एवं मानवीय प्रतिक्रियाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। इन्होंने जलवायु को मानव की संस्कृति के उत्थान और पतन का कारण माना है।
कार्ल ओ सावर के अनुसार सांस्कृतिक भूगोल की वास्तविक योजना सामान्य उद्देश्यों से सम्बन्धित है जो पृथ्वी तल की क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन करता है। धरातल पर भौतिक पर्यावरण एवं सांस्कृतिक पर्यावरण दोनों विद्यमान हैं, लेकिन सांस्कृतिक पर्यावरण का अध्ययन सांस्कृतिक भूगोल में किया जाता है।
जार्डन तथा रॉवेन्ट्री के अनुसार सांस्कृतिक भूगोल के अन्तर्गत प्राकृतिक पर्यावरण, जिसमें मानव निवास करता है, की अपेक्षा मानवीय संस्कृति पर विशेष बल दिया जाता है। ये मानवीय संस्कृतियां भिन्न-भिन्न होती हैं, जिससे क्षेत्रीय भिन्नताएं उत्पन्न हो जाती हैं। अतः सांस्कृतिक समूहों की क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन ही सांस्कृतिक भूगोल है।
स्पेन्सर तथा थॉमस जूनियर के अनुसार मानवीय प्राविधिक व्यवस्थाओं तथा सांस्कृतिक व्यवहारों, जिसका सम्बन्ध आदिकाल से पृथ्वी के विशिष्ट क्षेत्रों में मानवीय संस्कृति से ही प्रचलित है, का अध्ययन सांस्कृतिक भूगोल है।
सांस्कृतिक भूगोल का उद्देश्य और अध्ययन क्षेत्र
उपर्युक्त परिभाषा के विश्लेषण के पश्चात प्रमुख तथ्य स्पष्ट होते हैं। जो सांस्कृतिक भूगोल के मूलभूत उद्देश्य है :
1. प्राकृतिक पर्यावरण एवं संस्कृति का प्रभाव मानव जीवन पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। पर्यावरण संस्कृति पर तथा संस्कृति पर्यावरण पर स्पष्ट प्रभाव डालते हैं। फलस्वरूप दोनों में परिवर्तन घटित होता है। इस परिवर्तन का प्रभाव मानव जीवन स्तर पर पड़ता है। अतः आदिकाल से वर्तमान काल तक के इन्हीं तथ्यों का विश्लेषण सांस्कृतिक भूगोल का उद्देश्य है।
2. धरातल पर प्राकृतिक पर्यावरण तथा भौगोलिक पर्यावरण में भिन्नता एवं विषमता दृष्टिगत है। ये भिन्नताएं तथा विषमताएं मानव समाज में मानसिक एवं सांस्कृतिक भिन्नताएं उत्पन्न कर देती हैं। फलस्वरूप किसी विशिष्ट स्थान का मानव ज्ञान एवं प्राविधिकी का विकास करके अपना जीवन स्तर, दूसरे स्थान के मानव की अपेक्षा सुधार लेता है। अतः इसका विश्लेषण सांस्कृतिक भूगोल में किया जाता है।
3. पूर्वज मानव जब गुफाओं अथवा वृक्षों पर रहता था, तब जंगली फलों, आखेट एवं मछुआ कर्म द्वारा जीविकोपार्जन करता था तथा पशुओं की खालों, वृक्षों की छालों एवं पत्तियों से अपना शरीर ढकता था। अर्थात् इस समय मानव पूर्णरूपेण प्राकृतिक पर्यावरण के अनुसार अपने को ढालते थे, परन्तु मानव ने जब कृषि एवं पशुपालन अपनाया, तब प्राकृतिक वातावरण में सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण किया।
वर्तमान समय में, मानव ने आविष्कार शक्ति, संचित अनुभव, अन्य समुदायों से लाभ उठाकर, एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिवर्तन कर तथा प्राकृतिक पर्यावरण में यथासम्भव परिवर्तन करके अपनी संस्कृति का विकास किया है। पूर्व मानव तथा आधुनिक मानव के क्रियाकलापों का अध्ययन सांस्कृतिक भूगोल का लक्ष्य है।
4. प्राकृतिक पर्यावरण में अनेक सम्भावनाएं विद्यमान रहती हैं, परन्तु, मानव सम्पूर्ण सम्भावनाओं का पूर्ण उपयोग करे, यह सम्भव नहीं है। यह उपयोग मात्र मानव के सांस्कृतिक विकास पर आधारित होता है। संस्कृति का विकास कम हुआ है तथा इसी क्रम में उसने प्राकृतिक सम्भावनाओं का उपयोग भी किया है। वर्तमान काल में उसका उपयोग हो रहा है। अतीतकाल तथा वर्तमान काल के उपयोग की दर के अन्तर का अध्ययन सांस्कृतिक भूगोल का लक्ष्य है।
5. प्राकृतिक पर्यावरण में सांस्कृतिक विकास की सीमाएं होती हैं। मानव अपने ज्ञान तथा प्राविधिकी कारकों की सहायता से इस सीमा का विस्तार कर लेता है। सांस्कृतिक भूगोल में इन्ही सीमाओं एवं अधिकार क्षेत्रों का अध्ययन किया जाता है।
6. मानव की संस्कृति में निरन्तर परिवर्तन हुआ है। इसके द्वारा सृजित सांस्कृतिक पर्यावरण में धर्म, भाषा, रहन-सहन, वेश-भूषा, आदि में विश्व स्तर पर अनेक भिन्नताएं मिलती हैं। इन सब का अध्ययन सांस्कृतिक भूगोल में किया जाता है।
7. प्राकृतिक पर्यावरण पर मानव का नियंत्रण प्रभावशाली ढंग से हुआ है, परन्तु इसमें कुछ परिवर्तन महत्वपूर्ण तथा तीव्रगामी हैं, जिसे क्रान्ति की संज्ञा प्रदान की जाती है। उदाहरणार्थ- कृषि क्रान्ति, औद्योगिक क्रान्ति, प्राविधिक क्रान्ति, आदि। प्राचीन काल से वर्तमान काल तक, इन क्रान्तियों की भौगोलिक व्याख्या करना सांस्कृतिक भूगोल का मुख्य लक्ष्य है।
सांस्कृतिक अन्तर्सम्बन्ध-
सांस्कृतिक लक्षणों तथा मानव प्राविधि तंत्रों का विकास विभिन्न संस्कृति क्षेत्रों में होता है जिसका अध्ययन सांस्कृतिक भूगोल के अन्तर्गत किया जाता है। भौतिक पर्यावरण में मानवीय क्रियाओं द्वारा प्राचीन से अर्वाचीन तक अनेक परिवर्तन घटित हुए हैं। पर्यावरण में परिवर्तन के कारण एक विस्तृत संस्कृति तंत्र का विकास होता है।
मानव एक सक्रिय तत्व है जो अपने गुण द्वारा विभिन्न संस्कृति तत्वों का विकास करता है। मानव की सृजनात्मक एवं विनाशात्मक प्रवृत्ति के द्वारा पर्यावरण में अन्तःक्रिया तथा सांस्कृतिक स्थानान्तरण होता है। संस्कृति के प्रत्येक तत्व क्रियाशील होते हैं तथा प्रत्येक तत्व में अन्तर्सम्बन्ध होता है। प्रत्येक तत्व के संगठन की क्रिया के फलस्वरूप किसी विशेष संस्कृति में एकीकरण होता है।
क्रोबर के अनुसार ‘सांस्कृतिक एकीकरण या मानवीय सामाजिक एकीकरण कुछ लचीला होता है।’
मानव जीवन तंत्र की उत्पत्ति, पर्यावरण की विभिन्नता तथा नूतन प्रविधि के द्वारा परिवर्तन, आदि का विश्लेषण सांस्कृतिक भूगोल में किया जाता है। नूतन प्रविधि को प्रयोग तथा संस्कृति सृजन में पर्याप्त समय लगता है। संस्कृति का सृजनात्मक स्वरूप, संस्कृति के विभिन्न तत्वों के आपस में सम्मिलन के द्वारा उत्पन्न होता है। ये सभी तत्व एक संगठन के रूप में कार्य करते हैं।
मेलिनोवस्की के अनुसार संस्कृति एक जटिल यंत्र के समान है, जिसके विभिन्न पक्षों में अन्तर्सम्बन्ध है तथा उन्हें संगठित रूप में कार्य करना पड़ता है। यदि ऐसा नहीं होता तो वह व्यर्थ सिद्ध होता है। संस्कृति का अध्ययन भौतिक तथा जैविक पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों के सन्दर्भ में होता है।
स्पेन्सर ने स्पष्ट किया कि किसी संस्कृति का अध्ययन भौतिक जैविक वातावरण के अन्तर्सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में होता है। विभिन्न मानव समूह अथवा मानव जनसंख्या का अध्ययन, उसका सामाजिक संगठन, विशेष अवस्था प्राप्त प्रविधि और इनके कलात्मक एवं गुणात्मक विकास के रूप में किया जाता है।
स्थानान्तरणीय प्रवृत्ति के कारण सामाजिक संगठन में विकास की नवीन विधि का उद्भव हुआ है। वर्तमान में अपनी बौद्धिक क्षमता के कारण अधिकांश प्राकृतिक पर्यावरण को मानव ने अपने अधीन कर लिया है। मानव समुदायों में नवीन प्रविधियों के विकास के कारण चेतन तथा अचेतन पदार्थों का समुचित उपयोग करके विकसित मानवीय पर्यावरण का विकास करता है।
मानव ने संचयात्मक तथा प्रसरण की प्रवृत्ति के फलस्वरूप नवीन प्रविधि का विकास विभिन्न पर्यावरण में किया है। मानव के प्रसार के कारण विभिन्न संस्कृतियों का प्रादुर्भाव हुआ है। वर्तमान संस्कृति ऐतिहासिक धरोहर है, जो विभिन्न मानव समूहों द्वारा विभिन्न कालों तथा स्थानों में अनुभव के सापेक्ष प्रयोग से उद्भूत हुई है। सभी संस्कृतियों में कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य पाया जाता है। सांस्कृतिक भूगोलवेत्ता का यह कर्तव्य होता है कि संस्कृति के समस्त भौगोलिक तथ्यों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करें।
जार्डन तथा रॉवेन्टी ने स्पष्ट किया कि सांस्कृतिक भूगोलवेत्ता संस्कृति के समस्त तत्वों तथा क्षेत्रीय अन्तर्सम्बन्धों को महत्व देता है। बिना क्षेत्रीय विषमताओं एवं अन्तर्सम्बन्धों के अध्ययन के संस्कृति की प्रक्रिया को समझना अत्यन्त कठिन है। सांस्कृतिक तत्व परस्पर किस प्रकार सम्बन्धित हैं, बिना इसके समझना असम्भव है। सांस्कृतिक अन्तर्सम्बन्ध के स्पष्टीकरण के लिए, उन कारणों की व्याख्या करना आवश्यक है जिससे सभ्यता, संस्कृति व सामाजिक विकास होता है। स्पेन्सर तथा थॉमस (1973) ने चार स्वतंत्र आधार तथा इनके मध्य छः अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या की है।
स्पेन्सर के अनुसार सांस्कृतिक भूगोल का चार अवधारणात्मक अस्तित्व निम्न है :
1. भौतिक-जैविक पर्यावरण-
इसमें क्षेत्रीय परिवर्तन तथा मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक संसाधन : मिट्टी, जलवायु, वनस्पति, खनिज, आदि का अध्ययन किया जाता है। मानव समुदाय इसका उपयोग करके अपने सन्ततियों की वृद्धि करता है।
2. जनसंख्या-
मानव समुदायों द्वारा अधिकृत क्षेत्र जिसके संसाधनों का उपयोग करता है, समूहों का विकास, ह्रास तथा उसकी संख्या का अध्ययन किया जाता है।
3. सामाजिक संगठन-
पूर्वज मानव से वर्तमान मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति में प्रयुक्त प्रविधि, सामाजिक इकाइयों : परिवार, जाति, वर्ग तथा संस्था, आदि की संगठनात्मक संरचना तथा श्रम विभाजन का अध्ययन इसके अन्तर्गत किया जाता है।
4. प्रविधियां –
इसमें नूतन एवं प्राचीन प्रविधियां जिसका प्रयोग मानव भौतिक एवं सांस्कृतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु करता है, का अध्ययन किया जाता है।