Unique Geography Notes हिंदी में

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Human Geography - मानव भूगोल

16. Description of sources and characteristics of Hindu religion (हिन्दू धर्म के स्रोत तथा लक्षणों का विवरण)

16. Description of sources and characteristics of Hindu religion

(हिन्दू धर्म के स्रोत तथा लक्षणों का विवरण)



    characteristics of Hindu religion   

     प्रत्येक धर्म का कोई न कोई आधार होता है। यह भी कहा जा सकता है कि धर्म के आधार व स्रोत एक नहीं बल्कि अनेकानेक हैं।

मनु के अनुसार वेद, स्मृति, आचार तथा आत्म सन्तुष्टि, आदि धर्म के चार आधार हैं।

याज्ञवल्क्य के अनुसार वेद, स्मृति, सदाचार, अपनी आत्मा अनुकूल कार्य तथा उचित संकल्प से उत्पन्न हुई इच्छा ये सब धर्म के मूल कहे गए हैं।

विशिष्ट धर्म सूत्र के अनुसार, “श्रुति स्मृति विहितो धर्मः तदालाभे शिष्टाचारः प्रमाणम्” अर्थात् वेद और स्मृतियों में जो विहित है वह धर्म है, उनके अभाव में शिष्टाचार प्रमाण हैं।”

भीष्म के अनुसार, “वेद, स्मृति और सदाचार धर्म के स्वरूप को लक्षित करने वाले लक्षण हैं।”

      सामान्यतः हिन्दू धर्म के निम्नांकित स्रोत हैं:

(1) वेद:-

     वेद हिन्दू धर्म का मूल ग्रन्थ है। इन्हें श्रुति भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में वेदों को प्राचीनतम माना जाता है। केवल हिन्दू धर्म ग्रन्थों के ही अनुसार नहीं अपितु इतिहासकारों के विचार से भी ॠग्वेद इस पृथ्वी पर उपलब्ध साहित्य में प्रथम ग्रन्थ है। मनु के अनुसार, “वेदोलिखो धर्ममूल” अर्थात् वेद धर्म के मूल हैं।

       चाणक्य ने लिखा है “न वेदो ब्राह्मो धर्मः” अर्थात् धर्म वेद से बाहर नहीं होता। महाभारत में कहा गया है “वेदोक्तः परमो धर्मः” अर्थात् वेदों में कहा गया धर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। ब्रह्मा जी ने लिखा है कि वेद ही मेरे उत्तम नेत्र हैं, वे ही मेरे परम बल हैं, वेद ही मेरे परम आश्रय तथा वेद ही मेरे सर्वोत्तम उपास्य देव हैं।” वेदों से ईश्वरीय ज्ञान का प्रतिपादन होता है। इसलिए प्रत्यक्ष एवं अनुमान से जो प्राप्त नहीं हो सकता है, वह ज्ञान वेदों से प्राप्त किया जा सकता है।

(2) स्मृति:-

    स्मृति का अर्थ है याद करना। स्मृतियों के अन्तर्गत देश एवं काल के अनुसार श्रुतियों की व्याख्या एवं सार संयोजित है। श्रुतियों पर आधारित होने के कारण स्मृतियाँ भी प्रामाणिक मानी जाती हैं। स्मृतियाँ वेदों का ही अनुसरण करती हैं। मनु और याज्ञवल्क्य ने वेदों और स्मृतियों को धर्म का मूल आधार कहा है।

(3) सदाचार:-

     धर्म सूत्रों में इसे शील, शिष्टाचार अथवा सामयाचारिक तथा स्मृतियों में इसे आचार अथवा सदाचार कहा गया है। मनु याज्ञवल्क्य, गौतम, वशिष्ट, आपस्तम्ब, आदि ने वेद और स्मृति के साथ-साथ सदाचार को भी धर्म का मूल स्रोत कहा है। मनु ने निर्देश दिया है कि “श्रुति और स्मृतियों में भली-भांति बताए गए अपने कर्मों के अनुष्ठान में धर्ममूलक सदाचार का आलस्य रहित होकर पालन करें।”

(4) अन्तःकरण:-

    धर्म का अन्तिम स्रोत व्यक्ति का अन्तःकरण कहा गया है अर्थात् धर्म का निर्णय स्वयं व्यक्ति के अन्तःकरण से होता है। व्यक्ति को अपने प्रत्येक कर्म का फल स्वयं भोगना पड़ता है। अतः धर्मशास्त्रों के निर्देश एवं अनुमोदन के बाद भी किसी कर्म के अन्तिम निर्णय का अधिकार व्यक्ति का होना ही चाहिए। जिन कार्यों को व्यक्ति का अन्तःकरण सहमति दे केवल उन्हीं को सम्पन्न करना चाहिए। इसके विपरीत जिन्हें अन्तःकरण अनुमति न दे, भले ही धर्मशास्त्र निर्देश व अनुमति दे, नहीं करना चाहिए।

धर्म के लक्षण:–

       मनु ने धर्म के दस लक्षणों का उल्लेख किया है- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध।

धृतिः क्षमाः दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

धीर्विद्याः सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥

(1) धृति:-

     धृति का अर्थ है धैर्य। धैर्यवान व्यक्ति को ही धीर कहा जाता है। गीता में धृति के सात्विकी, राजसी और तामसी तीन भेद किए गए हैं। सांसारिक बन्धनों में न बंधकर मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करने को सात्विक धृति कहते हैं।

     फल की इच्छा रखते हुए धर्म, अर्थ, काम को धारण करना राजसी धृति कहलाता है। जब व्यक्ति दुर्बुद्धि होकर निन्दा, भय, चिन्ता, दुख एवं उन्मत्तता को नहीं छोड़ता तो उसे तामसी धृति कहते हैं। महाभारत में कहा गया है कि सुख या दुख प्राप्त होने पर मन में विचार न होना धृति है।

(2) क्षमा:-

   महर्षि वाल्मीकि के अनुसार व्यक्ति का सच्चा आभूषण क्षमा है। क्षमा ही दान, सत्य, यज्ञ, यश तथा धर्म है। महाभारत में कहा गया है कि क्षमा धर्म है, यश है, वेद है, शास्त्र है, ब्रह्म है, सत्य है, भूत है, भविष्य है, तप है तथा शौच है।

(3) दम:-

    दम से तात्पर्य है बाह्य इन्द्रियों का संयम जिसके लिए अन्तःकरण को संयमित करना पड़ता है। गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त होकर कर्मेन्द्रियों का संयम करता है, वह श्रेष्ठ है।

(4) अस्तेय:-

    अस्तेय का अर्थ स्तेय अथवा चोरी के त्याग से होता है। इसके अन्तर्गत वे सभी वस्तुएं आती हैं जो शास्त्रों के द्वारा ग्रहणीय कही गई हैं। इसी प्रकार अस्तेय के अन्तर्गत मन, वचन और कर्म तीनों से किए जाने वाले स्तेय का त्याग सम्मिलित होता है।

(5) शौच:-

    शौच से तात्पर्य पवित्रता है। शौच बाह्य एवं आन्तरिक दो प्रकार की होती है। शरीर के विभिन्न अंगों को मिट्टी एवं जल आदि के द्वारा शुद्ध करना बाह्य शौच कहलाता है जबकि मैत्री, करुणा, सहानुभूति, तप, सत्य, आदि वृत्तियों द्वारा मन को निर्मल रखना आन्तरिक शौच कहलाता है।

(6) इन्द्रिय निग्रह:-

    इन्द्रिय निग्रह से तात्पर्य इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाना है। गीता में कहा गया है कि बुद्धिमान पुरुष के मन को भी ये इन्द्रियाँ बलात विषयों की ओर खींच लेती हैं। इसलिए बुद्धि को स्थिर रखने के लिए इन्द्रियों को वश में रखना आवश्यक है।

(7) धी:-

   धी का अर्थ विवेक बुद्धि है। विवेक बुद्धि व्यक्ति को वस्तुओं एवं विषयों के गुण-दोषों का ज्ञान कराती है ताकि वह गुणों का ग्रहण तथा दोषों का परित्याग कर सके। महाभारत में कहा गया है कि बुद्धि ही धन की प्राप्ति कराती है, बुद्धि से मनुष्य को कल्याण प्राप्त होता है।

(8) विद्या:-

    भर्तृहरि के अनुसार विद्या मनुष्य का सबसे बड़ा सौन्दर्य है, उसका छिपा हुआ गुप्त धन है। विद्या भोग देने वाली है, यश और सुख प्रदान करने वाली है। विद्या गुरुओं का भी गुरु है। परदेश में विद्या ही बन्धुजन है, विद्या ही परम देवता है। विद्या ही राजाओं में सम्मान्य है, वही धन है। इसलिए विद्या रहित पुरुष पशु है।

(9) सत्य:-

    सत्य की महिमा का वर्णन प्रत्येक जगह मिलता है। महाभारत में कहा गया है कि “सत्य ही धर्म, तप और योग है। सत्य ही सनातन ब्रह्म है, सत्य को ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्य पर ही टिका हुआ है।” ऋग्वेद में कामना की गई है कि “सत्य वाणी के सहारे आकाश टिका है, सम्पूर्ण संसार के प्राणी उसी पर आश्रित हैं, उसी से सूर्य का उदय होता है, उसी से जल निरन्तर बहता है वही सत्य हमारी रक्षा करता है।”

(10) अक्रोध:-

     अक्रोध का अर्थ है कारण होते हुए भी क्रोध न करना। गीता में कहा गया है कि “क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है, अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित होती है, स्मृति के भ्रमित होने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश होता है औ बुद्धि के नाश होने से व्यक्ति अपने श्रेय साधन से गि जाता है।” अतः व्यक्ति को अक्रोधी ही बनना चाहिए।


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I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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