7. Cause and Effect of Global Warming (भूमंडलीय उष्मण के कारण एवं परिणाम)
7. Cause and Effect of Global Warming
(भूमंडलीय उष्मण के कारण एवं परिणाम)
Cause and Effect of Global Warming
भूमंडलीय उष्मण के कारण एवं परिणाम⇒
भू-मंडल के निरंतर बढ़ते हुए तापमान को ‘भूमंडलीय उष्मण’ कहा जाता है। इसे ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या ‘वैश्विक तापन’ के नाम से भी जाना जाता है। भूमंडलीय उष्मण वर्तमान समय की प्रमुख विश्वव्यापी पर्यावरणीय समस्या है। वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड गैस पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने वाली प्रमुख गैस है। इसके अलावा मिथेन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड, हैलोन आदि ग्रीन हाउस गैसें भी भूमंडलीय उष्मण वृद्धि में योगदान देती है। ये गैसें दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण को वायुमंडल से बाहर जाने से रोक देती है। परिणाम स्वरूप तापमान बढ़ने से पृथ्वी का ताप संतुलन बिगड़ जाता है। भूमंडलीय तापमान में इस वृद्धि को ही वैज्ञानिक शब्दावली में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ करते हैं।
सौर विकिरण ऊर्जा का लगभग 51% भाग लघु तरंगों के रूप में वायुमंडल को पार कर पृथ्वी के धरातल पर पहुंचता है। पृथ्वी का वायुमंडल लघु तरंग सौर्यीक विकिरण के लिए पारदर्शी होता है। अतः सौर विकरण बिना किसी रूकावट के धरातल पर पहुँचता है।लघु तरंगें पृथ्वी से टकराकर ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती है। यह ऊष्मा दीर्घ तरंगों को अवशोषित कर लेती है तथा ऊष्मा की तरंगों को वायुमंडल से बाहर जाने से रोक देती है।
पार्थिव विकिरण (दीर्घ तरंग) अवरुद्ध हो जाने से पृथ्वी के धरातल का तापमान सामान्य से अधिक हो जाता है। ऐसी अवस्था में वायुमंडल ‘ग्रीन हाउस’ के शीशे की भाँति काम करता है और पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो जाती है। इसे ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ कहा जाता है।
निरंतर बढ़ता हुआ सान्द्रण भूमंडलीय तापमान में वृद्धि के लिए उत्तरदायी है। 1861 के बाद पृथ्वी के तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है क्योंकि 1861 से तापमान संबंधी उपकरणों द्वारा अंकित विश्वसनीय आँकड़े उपलब्ध है। ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में उचित जानकारी प्राप्त करने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1988 में ‘Inner Governmental Pannel on Climate Change (IPCC) का गठन किया।
1995 ई० में UNO द्वारा गठित IPCC के अंतर्गत दो हजार वैज्ञानिकों ने वैश्विक तापमान के संबंध में आँकड़े एकत्रित किये जिससे यह साबित हुआ कि विश्व के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। प्रारंभिक अनुमान के अनुसार 1861 से 1990 तक पृथ्वी का औसत तापमान में 0.6℃ की वृद्धि हुई जो 2020 तक बढ़कर 1.5℃ तक होने की संभावना है। WHO के अनुसार 1900-1990 के बीच विश्व के तापमान में 0.5℃ तापमान में वृद्धि हुई है। विश्व में तापमान बढ़ने के अगर यही प्रवृत्ति रही तो 2050 ई० तक विश्व का औसत तापमान बढ़कर 19℃ हो जाने की संभावना है।
वैश्विक तापन कोई नई घटना नहीं है। भूगर्भिक काल के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि कार्बोनिफेरस युग और प्लेस्टोसीन युग में कई बार हिमयुग एवं अंतर हिमानी का युग आया। हिमयुग के दौरान तापमान में कमी आ जाती थी और अंतरहिमयुग में तापमान में बढ़ोतरी हो जाती थी। लेकिन ये सभी प्रक्रियाएँ प्राकृतिक कारकों द्वारा नियंत्रित होती थी। लेकिन वर्तमान समय में हो रहे तापमान में वृद्धि मानव क्रिया की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप हो रहा है। वैश्विक तापन किसी एक कार्य का परिणाम नहीं है बल्कि अनेक अंतर क्रियाओं की देन है।
भूमंडलीय उष्मण के कारण:
भूमंडलीय उष्मण के कई कारण हैं। इनमें प्रमुख कारण निम्नवत है-
(i) ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि,
(ii) वनीय ह्रास,
(iii) ताप विद्युत संयंत्रों की स्थापना,
(iv) ओजोन परत में छिद्रीकरण,
(v) एलनीनो जलधारा,
(vi) निर्माण कार्य,
(vii) जीवाश्म ईंधनों का दहन,
(viii) औद्योगिकरण,
(ix) नगरीकरण,
(x) जनसंख्या में वृद्धि इत्यादि।
(i) ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि-
भूमण्डलीय उष्मण के लिए मुख्यतः कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, हेलोन इत्यादि गैसें उत्तरदायी है। इन गैसों का सान्द्रण वायुमंडल में निरंतर बढ़ता जा रहा है। ये गैसें वायुमंडल में ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करती है। परिणामस्वरूप पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है। ग्रीन हाउस गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा भूमंडलीय ऊष्मण के लिये सर्वाधिक उत्तरदायी हैं।
वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड बड़ी मात्रा में जीवाश्म ईंधन के जलने से, परिवहन साधनों से, औद्योगिकरण एवं नगरीकरण से, बढ़ती हुई जनसंख्या से प्राप्त हो रहा है। औद्योगिक क्रांति के पूर्व प्रतिवर्ष 2.8 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता था और उसका भी 30% भाग समुद्री वातावरण द्वारा अवशोषित कर लिया जाता था। 1997 में यह मात्रा बढ़कर 5.5 बिलियन टन प्रतिवर्ष हो गया। 2050 में इसका उत्सर्जन बढ़कर 5.6 बिलियन टन हो जाने की संभावना है। समुद्री वातावरण द्वारा इसकी अवशोषण की मात्रा नियत होने के कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से वैश्विक तापन की समस्या उत्पन्न हुई है।
(ii) वनीय ह्रास-
पेड़-पौधों कार्बन डाइऑक्साइड के अच्छे अवशोषक होते हैं। अर्थात पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड भोजन निर्माण के दौरान ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं लेकिन जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के साथ वनों की अंधाधुंध कटाई ने विकट पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं।
आवास एवं कृषि योग्य भूमि में विस्तार के कारण बीसवीं शताब्दी में उष्णकटिबंधीय वनों का तीव्र गति से ह्रास हुआ। भारत में प्रतिवर्ष अनुमानत: 17 लाख हेक्टेयर वनों की कटाई हो रही है। फलत: वनीय ह्रास के कारण कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण घटने से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ते जा रही है। इसके कारण भूमंडलीय ऊष्मण में वृद्धि हो रही है।
(iii) तापविद्युत संयंत्रों की स्थापना-
विश्व में बढ़ती हुई विद्युत ऊर्जा की माँग एवं पूर्ति हेतु काफी संख्या में तापीय संयंत्रों की स्थापना की गई है। इन संयंत्रों में वृहत पैमाने पर जीवाश्म ईंधन का प्रयोग विद्युत उत्पादन हेतु किया जाता है। इसके कारण इससे भारी मात्रा में CO2, CO, NO2, NO, SO2, इत्यादि हानिकारक गैस उत्सर्जित होते हैं। ये सभी गैसें तापमान में वृद्धि के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं।
(iv) ओजोन परत में छिद्रीकरण-
ओजोन परत के छिद्रीकरण से तात्पर्य वायुमंडल की ओजोन परत में ओजोन नामक विशिष्ट गैस की कमी हो जाने से है। ओजोन एक त्रि-परमाण्विक गैस है जिसमें ऑक्सीजन के 3 परमाणु (O3) होते हैं। ओजोन समताप मंडल में धरातल से 20 से 35 किलोमीटर की ऊँचाई तक सर्वाधिक पाई जाती है। इसी भाग को ‘ओजोन परत’ कहा जाता है।
यह परत सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी के वायुमंडल में आने से रोक कर सुरक्षा कवच की तरह कार्य करती है किंतु विगत कुछ दशकों से मानवीय क्रियाकलापों द्वारा उत्सर्जित हानिकारक रसायनों जैसे- क्लोरोफ्लोरोकार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड, कार्बन टेट्राक्लोराइड, क्लोरोफॉर्म और क्लोरीन इत्यादि के कारण ओजोन परत पतली होती जा रही है। जिसे ‘ओजोन छिद्रीकरण’ कहते हैं। ओजोन छिद्रीकरण भूमंडलीय उष्मण का एक प्रमुख कारण माना जाता है।
(v) एलनीनो जलधारा-
अलनीनो उपसतही गर्म जलधारा है जो पेरू के तट से उत्पन्न होता है और विषुवत रेखा के सहारे पूर्वी अफ्रीका के तट तक फैल जाता है। इसके कारण समुद्र का तापमान 3℃ से 6℃ तक बढ़ जाता है। 1998 के पूर्व अलनीनो का प्रभाव चक्रीय रूप से 4 वर्ष के बाद दिखाई देता था। लेकिन 1998 के बाद इसका प्रभाव प्रत्येक वर्ष देखा जा रहा है।
(vi) निर्माण कार्य-
बढ़ती हुई जनसंख्या के मद्देनजर लगातार निर्माण का कार्य जारी है। अर्थात शहर के नाम पर सीमेंट और कंक्रीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं। यह ऐसे जंगल है जिनमें वृक्ष का अभाव है। इसके कारण ये थोड़ी सी ताप प्राप्त कर स्थानीय वातावरण को गर्म कर देते हैं। जैसे- वर्ष 1998 में शिकागो नगर का तापमान 50℃ पहुँच गया। वर्ष 2004 में फ्रांस के कई नगरों का तापमान इतना अधिक बढ़ गया कि लगभग 200 लोग लू लगने से मर गए।
उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त जीवाश्म ईंधनों का दहन, औद्योगिकरण, नगरीकरण, उपभोक्तावादी जीवन, जनसंख्या वृद्धि इत्यादि के कारण भी भूमंडलीय उष्मण में वृद्धि हो रही है।
भूमण्डलीय उष्मण के परिणाम:-
भूमंडलीय उष्मण वर्तमान शताब्दी की सबसे बड़ी पर्यावरणीय समस्या है। 3 फरवरी 2007 में आई.पी.सी.सी. द्वारा जारी की गई विश्वसनीय रिपोर्ट में भूमंडलीय उष्मण के कारण उत्पन्न भयानक परिणामों की ओर संकेत किया गया है। इसके कारण पृथ्वी के वातावरण पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ सकते है:-
(i) समुद्री जल स्तर में वृद्धि- भूमंडलीय उष्मण के कारण ध्रुवीय क्षेत्रों तथा पर्वतीय हिमनदों के पिघलने से समुद्री जल स्तर के ऊपर उठने की आशंका है। इसके कारण तटीय इलाके जलमग्न हो जाएगे।
(ii) समुद्री जीवों पर संकट- तापमान वृद्धि का बुरा प्रभाव समुद्री जीवों पर भी पड़ेगा। उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव पर रहने वाले सील, पेंग्विन, व्हेल आदी समुद्री जीवों के नष्ट हो जाने की आशंका है।
(iii) जलवायु परिवर्तन- तापमान में वृद्धि के कारण मौसम में लगातार अभूतपूर्व परिवर्तन हो रहे हैं। परिणामस्वरूप अनावृष्टि, अतिवृष्टि, अकाल, लू और गर्म हवाओं का प्रकोप बढ़ने की संभावना है।
(iv) जमीन की उर्वरता में कमी- भू-मंडलीय उष्मण के कारण जमीन की उर्वरता घटने की आशंका है। परिणामस्वरूप फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
(v) जैव विविधत का ह्रास- पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण जैव-विविधता का ह्रास होने की आशंका है। कई जीव-जंतु और वनस्पतियाँ जलवायु परिवर्तन के कारण विलुप्त हो जाएगे।
(vi) प्रवाल भित्तियों का क्षरण- तापमान में बढ़ोतरी और असमान परिवर्तन के कारण विश्व प्रसिद्ध प्रवाल भित्तियाँ कुछ दशकों में नष्ट हो जायेंगे।
(vii) पर्वतीय हिमनदों का सिकुड़ना- तापमान में वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनद निरंतर पिघलते जा रहे हैं। जिन नदियों का उद्गम स्रोत पर्वतीय हिमनद है, उनमें भयंकर बाढ़ आने की आशंका है तथा हिमनद के नष्ट हो जाने से सदावाहिनी नदियों के सूखने का अंदेशा है। हिमालय क्षेत्र में कई हिमनद सिकुड़ते जा रहे हैं।
(viii) मानव स्वास्थ्य को खतरा- तापमान वृद्धि से मानव स्वास्थ्य को भी गंभीर खतरा है। जलवायु में परिवर्तन के कारण मध्य एवं उच्च अक्षांशों में कई जल जनित और कीटाणु जनित रोगों के फैलने की आशंका है। त्वचा कैंसर एवं आंखों से संबंधित बीमारियाँ बढ़ेंगी।
(ix) पारिस्थितिक असंतुलन- भूमंडलीय उष्मण के कारण पृथ्वी पर अवस्थित सभी पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन बढ़ रही है। परिणाम स्वरूप समस्त जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा।
(x) दावानल में वृद्धि- वैश्विक तापन के कारण दावानल में वृद्धि की संभावना है। USA के कैलिफोर्निया क्षेत्र, आस्ट्रेलिया तथा इंडोनेशिया के जंगलों में यह समस्या प्रतिवर्ष उत्पन्न होने लगी है।
(xi) ऊर्जा संकट- तापमान में वृद्धि के कारण मध्य अक्षांशीय प्रदेशों में एयर कंडीशनर, पंखा, कूलर आदि के अधिक प्रयोग से विद्युत खपत बढ़ेगी, जिससे ऊर्जा संकट उत्पन्न हो जाएगी।
भूमंडलीय उष्मण को नियंत्रित करने के उपाय:-
भूमंडलीय उष्मण के नियंत्रण को लेकर विश्व स्तर पर कई सम्मेलन और समझौते हुए जिनमें प्रथम विश्व सम्मेलन (1972) मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, (1987) पृथ्वी सम्मेलन, रियो डे जेनरियो (1992), क्योटो संधि (1997 व 2005), कोपनहेगन 2009 इत्यादि प्रमुख है। वर्ष 1997 में आयोजित क्योटो संधि 141 देशों द्वारा स्वीकार की गई कि 34 औद्योगिक राष्ट्रों का ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन वर्ष 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करना है। किंतु इस दिशा में कोई ठोस परिणाम दिखाई नहीं दिए। अमेरिका जो सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करता है, स्वंय अपना हाथ पीछे खींचता नजर आ रहा है।
भूमंडलीय उष्मण को कम करने की दिशा में निम्नलिखित कदमों के पहल की आवश्यकता है:-
(i) वनों की कटाई रोकते हुए भूमंडल के 33% भूभाग पर सघन वृक्षारोपण किया जाए ताकि अधिक उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण वृक्षों द्वारा किया जा सके।
(ii) कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन कम-से-कम किया जाए।
(iii) जनसंख्या तीव्र वृद्धि पर प्रभावी अंकुश लगाई जाए।
(iv) क्लोरो फ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन कम-से-कम किया जाए, साथ ही इसके विकल्प की खोज की जाए।
(v) उर्जा प्रदूषण रहित तकनीकों का विकास हो और इसके अनुसंधान की ओर ध्यान दिया जाए।
(vi) प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग तथा वैकल्पिक स्रोत का विकास किया जाए।
(vii) पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने हेतु जन सहभागिता कार्यक्रमों को संचालित किया जाए।
(viii) अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ठोस और कारगर कानून बनाकर उसका दृढ़ता से अनुपालन किया जाए।
अर्थात प्रत्येक विकसित और विकासशील दोनों देशों को मिलकर इस पर नियंत्रण रखना होगा। यदि समय रहते इस पर काबू नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हम सभी इससे झुलस जाएंगे और जल प्रलय की विभीषिकाओं से बच नहीं पाएंगे।
निष्कर्ष:-
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि पृथ्वी का बढ़ता हुआ तापमान वर्तमान विश्व की सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्या है। यह समस्या मानवीय क्रियाकलापों की देन है। बेशक विकास की धारा को मोड़ा नहीं जा सकता है किंतु इसे मानवीय हित में इतना नियंत्रित तो अवश्य किया जा सकता है कि जिससे पृथ्वी पर मंडरा रहे इस गंभीर संकट को दूर किया जा सके। ऐसे विकास का कोई औचित्य नहीं है जिस कारण मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जाए। पृथ्वी मानव के अलावा असंख्य जीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों का भी घर है। अतः मानव को अपनी करतूतों पर लगाम लगानी चाहिए तथा “जियो और जीने दो” के सिद्धांत का पालन करते हुए पर्यावरण सुरक्षा में जुट जाना चाहिए।
- 1. थार्नथ्वेट का जलवायु वर्गीकरण / Climatic Classification Of Thornthwaite
- 2. कोपेन का जलवायु वर्गीकरण /Koppens’ Climatic Classification
- 3. कोपेन और थार्न्थवेट के जलवायु वर्गीकरण का तुलनात्मक अध्ययन
- 4. हवाएँ /Winds
- 5. जलचक्र / HYDROLOGIC CYCLE
- 6. वर्षण / Precipitation
- 7. बादल / Clouds
- 8. भूमंडलीय उष्मण के कारण एवं परिणाम /Cause and Effect of Global Warming
- 9. वायुराशि / AIRMASS
- 10. चक्रवात और उष्णकटिबंधीय चक्रवात /CYCLONE AND TROPICAL CYCLONE
- 11. शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात / TEMPERATE CYCLONE
- 12. उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का तुलनात्मक अध्ययन
- 13. वायुमंडलीय तापमान / ENVIRONMENTAL TEMPERATURE
- 14. ऊष्मा बजट/ HEAT BUDGET
- 15. तापीय विलोमता / THERMAL INVERSION
- 16. वायुमंडल का संघठन/ COMPOSITION OF THE ATMOSPHERE
- 17. वायुमंडल की संरचना / Structure of The Atmosphere
- 18. जेट स्ट्रीम / JET STREAM
- 19. आर्द्रता / HUMIDITY
- 20. विश्व की प्रमुख वायुदाब पेटियाँ / MAJOR PRESSURE BELTS OF THE WORLD
- 21. जलवायु परिवर्तन के विभिन्न प्रमाण
- 22. वाताग्र किसे कहते है? / वाताग्रों का वर्गीकरण
- 23. एलनिनो (El Nino) एवं ला निना (La Nina) क्या है?
- 24. वायुमण्डलीय सामान्य संचार प्रणाली के एक-कोशिकीय एवं त्रि-कोशिकीय मॉडल
- 25. सूर्यातप (Insolation)