23. Intensive Subsistence Farming (गहन निर्वाहन कृषि)
23. Intensive Subsistence Farming
(गहन निर्वाहन कृषि)
यह कृषि व्यवस्था विशेषकर मानसून एशिया के उन भागों में मिलती है जहाँ भौगोलिक दशाएँ कृषि के लिए विशेष अनुकूल है। स्थानीय उपयोग के के लिए खाद्यान्न फसलों का उत्पादन किया जाता है। विश्व की एक-तिहाई जनसंख्या इस प्रकार की कृषि में लगी हुई है। अधिक जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए गहन कृषि को अपनाना अति आवश्यक हो जाता है। इस व्यवस्था की निम्न विशेषताएँ हैं-
(i) खाद्यान्न फसलों में ‘विशेषकर चावल’ की प्रधानता होती है।
(ii) फसलोत्पादन प्रमुख तथा पशुपालन का गौण स्थान है।
(iii) जनसंख्या की अधिकता से सभी प्रकार के कृषि कार्यों में मानवीय श्रम का उपयोग मिलता है।
(iv) कृषि क्षेत्र बिखरे एवं छोटे-छोटे होते हैं तथा कृषक गाँवों में निवास करते हैं।
(v) इस कृषि में आधुनिक कृषि उपकरणों का प्रयोग कम होता है। साथ ही रासायनिक उर्वरकों, दवाइयों आदि का भी प्रयोग कम होता है।
(vi) इस कृषि व्यवस्था में प्रति व्यक्ति उत्पादन कम होने से कृषकों की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय होती है। बहुत ही मुश्किल से आवश्यकता की आपूर्ति उत्पादन से हो पाती है। जो पैदा करते हैं, वही खाते भी हैं। भोजन में सब्जी आदि का प्रयोग बहुत ही कम होता है।
(vii) जनसंख्या की अधिकता के कारण उत्पादन की खपत स्थानीय स्तर पर ही हो जाती है। बाजार के लिए अतिरिक्त उत्पादन नहीं हो पाता। बाजार या बड़ी-बड़ी मण्डियों का भी अभाव मिलता है।
गहन निर्वाहन कृषि व्यवस्था को फसलों की प्रधानता के आधार पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1. चावल प्रधान गहन जीविकोपार्जन कृषि व्यवस्था,
2. चावल विहीन गहन जीविकोपार्जन कृषि व्यवस्था।
1. चावल प्रधान गहन जीविकोपार्जन कृषि व्यवस्था
विश्व के गहन चावल उत्पादक भागों में वर्ष पर्यन्त ऊँचा तापमान तथा वार्षिक वर्षा 200 सेमी. से अधिक मिलती है। भौगोलिक दशाओं की उपयुक्तता के कारण ही वर्ष में तीन बार तक चावल की कृषि होती है। चावल की इस कृषि व्यवस्था को ‘सावाह’ (Sawah) कृषि के नाम से जाना जाता है।
मानसून एशियाई देश विश्व का लगभग 90% चावल उत्पन्न करते हैं। मुख्य चावल उत्पादक देश चीन (30%), भारत (21%), इण्डोनेशिया (8.5%), बांग्लादेश (5.6%), थाईलैण्ड (3.8%), वियतनाम (3.7%), म्यामांर (2.5%) एवं जापान (2.3%) हैं।
इन उपर्युक्त सभी देशों में चावल की कृषि डेल्टाई भागों, बाढ़ के मैदानों, सीढ़ीदार तथा निम्नवर्ती भागों में की जाती है। मुख्य चावल उत्पादित भागों में- गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावदी, मीनांग, सीक्यांग, यांगटिसिक्यॉग के निचले मैदानी एवं डेल्टाई भाग है। कृषि भूमि उपयोग की दृष्टि से भी दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों में चावल के अन्तर्गत अधिकाधिक क्षेत्र मिलता है जिसमें लाओस (95%), थाईलैंड (65%), म्यामांर (60%), जापान (42%), भारत एवं चीन (25%) आदि प्रमुख हैं।
इस भाग में जनसंख्या घनत्व अधिक है। अतः चावल उत्पादन का अधिकांश भाग स्थानीय उपयोग में ही खपत हो जाता है। इसके बावजूद दक्षिणी-पूर्वी एशिया के ही देश जिसमें म्यामांर, थाईलैंड, कम्बोडिया, ताइवान एवं दक्षिणी वियतनाम मुख्य हैं जो चावल का निर्यात करते हैं। दक्षिणी-पूर्वी एशिया के वही देश जहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक है, चावल उत्पादक हैं। इस प्रकार चावल उत्पादक क्षेत्र एवं सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व का घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता हैं।
2. चावल विहीन गहन जीविकोपार्जन कृषि व्यवस्था
मानसून एशिया के ऐसे भाग जहाँ 100 सेमी. से कम वर्षा एवं निम्न तापमान होता है, वहाँ चावल के अतिरिक्त अन्य फसलें भी उत्पन्न की जाती हैं। ऐसे भागों में शुष्क कृषि की प्रधानता होती है जिसमें ज्वार, बाजरा, मक्का, अरहर आदि फसलें उगायी जाती हैं। जहाँ सिंचाई की सुविधा है, वहाँ गेहूँ एवं कपास का भी उत्पादन होता है। इस प्रकार तापमान एवं वर्षा की मात्रा के अनुसार गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि फसलों में से किसी एक ही फसल की प्रधानता रहती है। दक्षिणी पूर्वी एशिया विश्व का लगभग 60% मूंगफली, 57% ज्वार-बाजरा, 40% सोयाबीन, 20% गेंहूँ तथा 16% जौ उत्पन्न करता है।
मौसमी परिवर्तन के फलस्वरूप जीविकोपार्जन कृषि को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(i) ग्रीष्म कालीन मौसम की फसलें
(ii) वर्षा कालीन मौसम की फसलें, एवं
(iii) शीत या शुष्क मौसम की फसलें।
इस कृषि व्यवस्था वाले भाग में जनसंख्या का घनत्व अधिक है। कृषक वर्ष में दो या तीन फसलें उत्पन्न करते हैं। वर्षाकाल में ज्वार-बाजारा, मक्का, गन्ना, चावल; शीतकाल में गेहूँ, जौ, चना, मटर; तथा ग्रीष्मकाल में सब्जियाँ मूँग, हरे चारे आदि की खेती उन भागों में की जाती है, जहाँ सिंचाई की विशेष सुविधा होती है।
इस व्यवस्था में मांस-पशु, दुग्ध पशु आदि का पालन कार्य कम है। जनसंख्या की अधिकता के कारण कृषक खाद्यान्न फसलों को ही उत्पन्न करना आवश्यक समझता है। चारागाहों के अन्तर्गत क्षेत्रफल नगण्य है। निम्नवर्गीय परिवारों के लोग भेड़, बकरी, सूअर, मुर्गी आदि पालते हैं। इस भाग के लोग शाकाहारी हैं। कृषक हल जोतने के लिए पशुओं (बैल) को पालते हैं। दुग्ध के लिए कृषक गाय, भैंस पालते हैं। हाल के वर्षों में भारत सरकार द्वारा दुग्ध पशुपालन, सूअर पालन, भेड़ पालन, मुर्गीपालन, मत्स्यपालन, रेशम के कीड़ों आदि के पालन के लिए विशेष प्रोत्साहन दिया जा रहा है।