39. Model and Its Types (प्रतिरूप एवं इसके प्रकार)
Model and Its Types
(प्रतिरूप एवं इसके प्रकार)
प्रश्न प्रारूप
Q. प्रतिरूप की परिभाषा दीजिए एवं इसके प्रकार की विवेचना करें।
(Define model and discuss its types.)
उत्तर- भिन्न-भिन्न भूगोलवेत्ताओं ने ‘मॉडल’ को भिन्न-भिन्न प्रकार से परिभाषित किया है।
स्किलिंग के अनुसार “मॉडल एक सिद्धांत, नियम, परिकल्पना अथवा संरचित विचार है। भौगोलिक दृष्टि से इसमें विश्व की यथार्थता के बारे में तर्कसंगत सोच को सम्मिलित कर सकते हैं। यह स्थान व काल के सन्दर्भ में दृश्य-जगत् (प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक) के विषय में सुरचित विचार है। इसे योग, संबंध अथवा समीकरण में व्यक्त करते है।”
अकॉफ के अनुसार “किसी सिद्धांत अथवा नियम को तर्कसंगत उपकरणों, सेट-सिद्धांत और गणित का प्रयोग कर औपचारिक प्रस्तुतीकरण मॉडल कहा जा सकता है”।
हेंस, यंग एवं पेच ने मॉडल का अभिप्राय किसी ऐसी विधि अथवा यांत्रिक उपायों को मॉडल कहा जो पूर्वानुमान उत्पन्न करे। तात्पर्य यह है कि मॉडल रचना एक ऐसी प्रक्रिया है जो सिद्धान्तों का तर्कसंगत ढंग से परीक्षण करती है।
इस प्रकार भौगोलिक यथार्थ, भू-दृश्य व मानव-प्रकृति संबंध को सरल बनाकर आदर्शों में प्रस्तुतिकरण ही मॉडल कहलाती है।
मॉडल/प्रतिरूप का महत्त्व
भूगोल में पृथ्वी एक ऐसा आलेख (डॉक्यूमेंट) है जो मानव संबंधों का अध्ययन कराती है। यह संबंध जटिल बना है, और सरलता से नहीं समझा जा सकता है, क्योंकि पृथ्वी तल पर प्राकृतिक सांस्कृतिक वैविध्य की विषमता का विकास हुआ है। इस विविधता को जो समय व स्थानानुसार परिवर्तनशील बनी है, सरल ढंग से समझने के अनेक साधन हैं।
मॉडल एक ऐसा साधन है जो पृथ्वी की सतह पर विकसित जटिलताओं को परिकल्पनाओं व सिद्धांतों के परीक्षण द्वारा सरल बनाता है। मॉडल पूर्वानुमान का उपाय है।
भूगोल में मॉडल-रचना की आवश्यकता
भूगोल में मॉडल-रचना की आवश्यकता के पक्ष में अनेक कारण हैं-
1. भावी अनुमानों, दृश्य-सत्ता के अनुरूपण (Simulation), अन्तर्वेशन (Interpolation), आंकड़ों के प्रजनन व आकलन के लिए मॉडलों का उपयोग लाभदायक है। इनकी सहायता से जनसंख्या के घनत्व और भावी विकास, भूमि-उपयोग व फसली- गहनता, जनसंख्या के प्रवास-प्रारूप, औद्योगीकरण, नगरीकरण, अवांछित बस्तियों का विकास जैसी घटनाएँ सरल ढंग से व्यक्त की जा सकती हैं। ये मौसम की भविष्यवाणी करने, जलवायु परिवर्तन, समुद्रतल के परिवर्तनों, पर्यावरण प्रदूषण, मिट्टी-अपरदन व मिट्टी क्षरण व भूमि की आकृतियों के विकास में भी उपयोगी सिद्ध होते हैं।
2. मॉडल के द्वारा व्याख्या, विश्लेषण और भौगोलिक तंत्र को सरल ढंग से व्यक्त किया जाता है। उद्योगों संबन्धी अवस्थितिजन्य सिद्धांतों, कृषि भूमि उपयोग के कटिबंधन, प्रवास-प्रारूप व भू-आकारों के विकास के सोपानों के बारे में समझबूझ और इनके पूर्वानुमानों में मॉडल सहायता प्रदान करते हैं।
3. भौगोलिक आंकड़ों की विविधता, विस्तार एवं उनके चयन तथा उनमें सहसंबन्धों की खोज में तथा उनके संगठित व संरचित करने में मॉडल-रचना सहायक क्रिया है।
4. तंत्रों के प्रतिनियुक्त प्रेक्षणों (Surrogate Observations) के लिए ‘विकल्पीय मॉडल’ (Alternative Models) प्रयोग किए जा सकते हैं। इन प्रेक्षणों को जो प्रत्यक्ष रूप में अवलोकित नहीं किए जा सकते व्यक्त करने हेतु विकल्पीय मॉडल रचे जाते हैं।
5. एक तंत्र के प्रधान व गौण लक्षणों को और उनका पर्यावरण के साथ संबन्ध को समझने में मॉडल उपयोगी विधि है।
6. औपचारिक रूप से व्यक्त सैद्धांतिक कथनों की आनुभविक यथार्थता को मॉडल का ढांचा स्पष्ट बनाता है।
7. मॉडल-क्रिया एक प्रकार की सूक्ष्म-भाषा है, इसे भौगोलिक एवं सामाजिक वैज्ञानिक समझते हैं।
8. मॉडलों द्वारा सामान्य एवं विशिष्ट नियमों का निर्माण एवं सिद्धांतों की रचना में सहायता मिलती है।
मॉडल/प्रतिरूप के लक्षण (Feature of a Model)
मॉडल में मुख्य लक्षण सम्मिलित हैं:-
1. मॉडल विश्व में पृथ्वी की सतह व मानव-पर्यावरण के जटिल संबन्ध की यथार्थता को अथवा विश्व के किसी भाग को व्यक्त करने का साधन है।
2. मॉडलों से कुछ लक्षण अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ गौण-रूप में व्यक्त होते हैं, क्योंकि वह चयन-क्रिया पर आधारित हैं।
3. मॉडलों में सामान्यानुमानों के सुझाव निहित होते हैं। वस्तुतः मॉडल यथार्थ जगत् के पूर्वानुमान ही हैं।
4. मॉडलों को ‘अनुरूपताएँ’ (Analogies) भी कह सकते हैं। ये यथार्थ जगत् से भिन्न परन्तु उसकी मिलती-जुलती तस्वीर हैं।
5. मॉडल परिकल्पनाओं की रचना के लिए हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।
6. मॉडल यथार्थ जगत् के कुछ ऐसे लक्षणों को सरलरूप में अवगत बनाता है जिससे निष्कर्ष निकाले जा सकें।
7. मॉडल सूचनाओं को परिभाषित करने, संग्रह करने व संरचित बनाने का ढाँचा प्रस्तुत करता है।
8. उपलब्ध आंकड़ों से अधिकतम सूचनाएँ निचोड़ लेने में मॉडल सहायक बनते हैं।
9. कोई विशेष घटना अथवा दृश्य-वस्तु किस भाँति पृथ्वीतल पर स्थित बनी, इसको स्पष्ट करने में मॉडल सहायक हैं।
10. मॉडल समान प्रकार के दृश्य-वस्तुओं के समूहों की तुलना में सहायक हैं।
11. दृश्य-वस्तुओं की विषमताओं के बीच में से इच्छित दृश्य-वस्तु समूह को दृष्टिपात कराने के साधन ‘मॉडल’ हैं।
12. सिद्धांत-रचना व नियम-निरूपण की प्राथमिक सीढ़ी का मॉडल काम करते हैं।
मॉडलों/प्रतिरूपों के प्रकार
मॉडलों के विभाजन का एक पक्ष उन्हें (1) विवरणात्मक और (2) नियामक में विभक्त करता है।
विवरणात्मक (Descriptive) मॉडल रीतिबद्ध विवरण द्वारा जगत् की यथार्थता प्रकट करते हैं। नियामक (Normative) मॉडल के द्वारा निश्चित परिस्थितियों अथवा मानी गई दशाओं के अधीन क्या कुछ घटित होना चाहिए, इसे प्रकट किया जाता है।
विवरणात्मक मॉडल में आनुभविक सूचनाओं को संघटित करते हैं। इसमें आंकड़ों का वैज्ञानिक वर्गीकरण संभव होता है, अतः इन्हें प्रायोगिक डिजायन भी कहते हैं। इसमें अनुमानित परिस्थितियों के आधार पर संरचना होती है। अतः, विवरणात्मक में व्यक्त यथार्थता जगत् की अनुमानित तस्वीर है।
मॉडलों को आंकड़ों की प्रकृति के आधार पर भौतिक (Hardware), प्राकृतिक अथवा प्रयोगमूलक (Physical or Experimenta) में विभक्त करते हैं। ये मॉडल मूर्तिनुमा (Iconic) हैं, और दृश्य-जगत् के यथार्थ की ज्यों-की-त्यों तस्वीर मापक परिवर्तन पर प्रस्तुत करते हैं। इनमें सार्थक लक्षण यथार्थ-जगत् के ही निहित होते हैं। इनके उदाहरण मानचित्र, ग्लोब और भू-गर्भीय मॉडल हैं। इन्हें भौतिक अथवा प्रयोगमूलक भी कहते हैं।
मॉडल सादृश्य (Analogue) भी हो सकते हैं जो यथार्थ-जगत् के गुणों से रचे जाते हैं। परन्तु इनकी सादृश्यता यथार्थ जगत् के अनुरूप होते हुए भी, इनकी रचना में भिन्न लक्षणों का प्रयोग करते हैं। इसलिए ये मॉडल अनुकरण-मॉडल (Simulation Model) भी कहलाते हैं। इनका यथार्थ-जगत्-अनुरूपण एक स्वांग अथवा नकल ही होता है। इनको सांकेतिक विधि द्वारा व्यक्त किया जाता है और इन्हें तर्क गणितीय भाषा में भी व्यक्त किए जाते हैं।
मॉडलों/प्रतिरूपों का सामान्य वर्गीकरण (General Classification of Models)
भौगोलिक भू-दृश्यों और भौगोलिक अवस्थाओं की जटिलता इस प्रकार की है कि भूगोल के अध्ययन में प्रतिरूपों का विशेष महत्त्व है। भूगोलवेत्ताओं द्वारा अनेकों प्रकार के मॉडलों की रचना की जा रही है। अतः, निम्न-परिच्छेदों में इनको सामान्य वर्गों में विभक्त कर स्पष्ट कर सकते हैं-
मापक ‘अनुमाप’ मॉडल (Scale Models)
इनको ‘हार्डवेयर मॉडल (Hardware Models) भी कहते हैं। वे सरल होते हैं और लघुमापक पर यथार्थता को प्रत्यक्ष रूप में व्यक्त करते हैं। ये ‘स्थिर’ जैसे भूगर्भीय-मॉडल अथवा ‘सक्रिय’ जैसे नदी-अवनालिका (River Flume) आदि जैसे भौतिक गुणों को रीतिबद्ध कर व्यक्त किए जाते हैं। भूगोल में सक्रिय मॉडलों की महत्ता व रोचकता विकसित है। इसमें इनके कारगर-प्रक्रिया का नियंत्रण सम्भव है।
सक्रिय मॉडल में प्रत्येक चर (Variable) का अध्ययन अलग-अलग कर सकते हैं। किसी तरंग- सरोवर में उसका भौतिक आकार, तरंग-लम्बाई, ढाल शुद्धतः मापी जा सकती है। इस हेतु दो चरों को स्थिर (Constant) बनाकर तीसरे को परिवर्तनीय रखते हैं। इस विधि पर आधारित मॉडल में दोनों स्थितियों से उपलब्ध संबंध-बिन्दु लगभग सीधे रेखा पर अथवा बिखराव (Scatter) में प्रकट होते हैं।
यदि संबंध लगभग सीधी रेखा पर है तो महत्त्वपूर्ण बना है, अन्यथा बिखराव की स्थिति में न्यून अथवा कोई संबंध व्यक्त नहीं करता।
ऐसे मॉडलों/प्रतिरूपों में एक दोष यह है कि इनसे स्वाभाविक स्थिति व्यक्त नहीं हो सकती। किसी वृहत् प्रोजेक्ट के बारे में कुछ कहने से पूर्व इंजीनियर उसका अनुमाप-मॉडल तैयार कर परीक्षण करते देखे जाते हैं। इनका प्रयोग अधिकतर भौतिक भूगोल में भू-आकार-वैज्ञानिक द्वारा किया जाता है। वे नदियों की क्रियाओं, हिमानियों की गति, वायु-अपरदन, समुद्री-क्रियाओं व भूगर्भीय-आवरण-क्षय जैसी प्रक्रियाओं को मापक-माडलों – द्वारा अपने शोध कार्यों में प्रयोग करते देखे जाते हैं।
मानचित्र (Maps)
मानचित्र भी मॉडल हैं। इनका प्रयोग भूगोलवेत्ताओं द्वारा बहुतायत से किया जाता है। ये भी अनुमाप-मॉडल की एक विशेष जाति हैं। इसमें मापक जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, इसमें यथार्थता समाप्त होती जाती है।
परन्तु, सूचनाएँ विस्तृत मात्रा में अंकित होती हैं और यह अमूर्त बनता जाता है। इसके एक सिरे पर अनुलम्ब वायुव्य चित्र (Vertical Air Photograph) हैं जो यथार्थ- जगत् का सही मापक मॉडल प्रदान करते हैं। बड़े मापक पर रचे मानचित्र में यद्यपि सूचनाएँ सीमित दर्शायी जाती है, परन्तु इमारतें, सड़कें व अन्य आकृतियाँ सही-सही प्रकट होती हैं। लघुतर मापक पर सूचनाएँ अधिक सांकेतिक बन जाती है, और मापक भी विकृत हो जाता है। यथार्थ-जगत् के सादृश्य-मॉडल की तुलना में मानचित्रों में क्षेत्रों का विस्तार अधिक प्रकट किया जाता है। इनमें स्थानिक परस्पर संबंधों की जानकारी सम्भव होती है। इन्हें तुलनात्मक स्वरूप में समझ-बूझ सकते हैं, वास्तविक धरातल पर समझना संभव नहीं होता है।
मानचित्रों का एक बड़ा दोष यह है कि वे क्षेत्र, दूरियों व दिशाओं के दृष्टिकोण से विकृत बने होते हैं। यह विकार इसलिए है कि गोलाभ पृथ्वी की वक्राकार सतह को चौकोर कागज पर उतारा गया है। इसका सही रूप ग्लोब है। परन्तु, ग्लोब भूगोल में उपयोग में कम आ सकता है। बड़े मापक ग्लोब तो अध्ययन कक्ष में समा भी नहीं सकता।
अनुकरण अथवा अनुरूपण और ‘स्टॉक्स्टिक’ मॉडल (Simulation and Stochastie Models)
किसी स्थिति के व्यवहार का अनुकरण का मॉडल रचने को अनुरूपण (Simulation) कहते हैं। यह अनुरूपण सादृश्य-स्थिति द्वारा अथवा उपकरण की सहायता से किया जा सकता है। स्टॉकस्टिक (Stochastic) से तात्पर्य बेतरतीव निर्धारित सम्भावना (Randomly Determined Probability) है। इसको सांख्यिकीय विधि द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं, परन्तु इसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता।
ये मॉडल गतिशील अथवा परिवर्तनशील स्थितियों को प्रकट करने के लिए विकसित हुए और मानचित्र (जो स्थिर स्थितियों का प्रदर्शन है) से भिन्न होते हैं। इनकी रचना किसी प्रक्रिया के अनुकरण को बेतरतीव चयनों द्वारा की जाती है। इसके घटित होने के अवसर हैं भी, अथवा नहीं भी हैं। जलप्रवाह का प्रारूप कैसा विकसित होगा, यह सम्भावना निश्चित रूप से निर्धारित नहीं की जा सकती। इन सम्भावनाओं का चयन बेतरतीव ही निर्धारित है। आकस्मिक चयन (Chance-Choice) की पुनरावृत्ति से जल प्रवाह प्रक्रिया का एक पूर्ण जाल प्रकट हो जाता है। यह जाल बहुत कुछ स्वाभाविक प्रवाह प्रारूप (Nature Drainage Pattern) के अनुरूप है।
बेतरतीव सम्भावित अनुरूपण मानव भूगोल में भी सफलता पूर्वक उपयोग किए गए हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के भू-दृश्यों के स्थानिक विसरण प्रक्रिया (Spatial Diffusion Process) को व्यक्त करने में इनका प्रयोग किया जा सकता है, जैसे जनसंख्या में मलेरिया विसरण, चेचक-रोग, क्षय-रोग, एड्स आदि। नवोन्मेष तकनीकों- मशीन, ट्रैक्टरों, रासायनिक उर्वरक, कीटाणुनाशक रसायन आदि के विसरण की संभावना प्रकट करने के लिए इन मॉडलों का उपयोग उपयुक्त ठहरता है। ‘मॉण्टे कार्लो’ और मारकोव चेन इसके उच्छे उदाहरण हैं। ये दोनों मॉडल भौगोलिक शोध के अनेक क्षेत्रों में व्यवहार में लाए गए हैं।
गणितीय मॉडल/प्रतिरूप (Mathematical Models)
गणितीय मॉडल अधिक विश्वसनीय होते हैं। परन्तु, इनकी रचना कठिन है। इन मॉडलों से अनेक मानवीय मूल्य ओझल बन जाते हैं, अनेक प्रासंगिक व नियामक प्रश्नों और अभिवृत्तियों विषयक समस्याएँ भी अनुत्तरित रह जाती है। फिर भी, गणितीय मॉडल तर्कसंगत रूप से संकेत-भाषा में कथनों का सटीक विवेचन करते हैं। उदाहरण के लिए
(1) ‘A’ बड़ा है ‘B’ से और (2) ‘B’ बड़ा है ‘C’ से। अत: (1) व (2) के सम्मिलित आधार पर यह निष्कर्ष (Theorem) बना कि ‘A’ बड़ा है ‘C’ से ।
इस निष्कर्ष की तर्कसंगत सार्थकता काल-परिवर्तन से भी नहीं बदलती है। तार्किक रूप से यह निष्कर्ष ई. पू. 3000 में भी सत्य था, 2000 ई. पू. में भी सत्य बना रहा, और 2025 ई. पू. व आगे भी सत्य ही बना रहेगा। तात्पर्य यह है कि इस निष्कर्ष की सार्थकता ऐतिहासिक अवधि पर निर्भर नहीं होती है। यह शाश्वत बनी सार्थकता है, और गैर-ऐतिहासिक है।
इसी प्रकार सिद्धान्त की तार्किक यथार्थता स्थानिक रूप से भी शाश्वत है। यह तर्क संयुक्त राज्य अमेरिका में सार्थक है, जर्मनी, रूस, चीन, फ्रांस, भारत आदि सभी स्थानों में भी सार्थक है।
गणितीय मॉडल को आगे उनकी संभाविता की मात्रा के आधार पर विभक्त किया जा सकता है- वे नियतिवादिता (Deterministic) और अनिश्चित-संभावना (Stochastic) प्रकार के हो सकते हैं।
गणितीय मॉडल विशिष्ट प्रक्रियाओं के समीकरणों को हल करने के साधन हैं। इसके लिए सशक्त ज्ञान चाहिए जिससे भौतिक प्रक्रियाएँ जुड़ी हैं। अतः, यह मुख्यतः भौतिक विज्ञान के विद्वानों द्वारा उपयोग में आते हैं। जे. एफ.नाए ने ‘हिमानी-प्रवाह’ का गणितीय मॉडल रचा। उसने मूल अवधारणा को सरल बनाया और एक हल किए जाने योग्य सरल समीकरण की रचना की। हिमानी के तल (Bed) को U- आकार का एक चतुर्भुज माना जो समान आकार व विशेष उबड़-खबड़ (Specific Rougness) का है। हिम को दबाव के प्रति सुनम्र (Plastic) माना।
मानव भूगोल में इनका चलन संभव बना, परन्तु वहाँ इनका स्वरूप अवकलन- समीकरणों में व्यक्त नहीं करते। यहाँ सम्बन्धों की प्रकृति भिन्न है और प्रायः ‘आनुभविक’ परीक्षा विश्व के अनेक भागों में की जा सकती है। प्रायः Double Log Scale पर यह लगभग रेखीय (Linear) सम्बन्ध है।
गणितीय मॉडल अर्थशास्त्री भूगोल में Linear Programming है जो समस्या का अनुकूलतम हल (Optimum Solution) प्रस्तुत करते हैं। किसी Factory की आवश्यकताओं में श्रमिक, कच्चा माल, यातायात, बाजार (माल की खपत क्षेत्र) आदि मुख्य हैं। ऐसी प्रतीक दशाओं की गणितीय समीकरणों को ग्राफ पर सीधी रेखाओं द्वारा व्यक्त करते हैं। ये सभी अंकित करके एक अनुकूलतम-बिन्दु ज्ञात हो जाता है जो उस Factory के लिए लाभदायक ‘अवस्थिति’ (Location) होगी।
अनुरूप मॉडल/प्रतिरूप (Analogue Models)
अनुरूप मॉडल संकेतों व समीकरणों के स्थान पर दृश्य-जगत् के आकृति से मिलते-जुलते तुल्य रूप सादृश्य का अनुमान कर रचे जाते हैं। एक सुपरिचित परिस्थिति का प्रयोग कर कम परिचित परिस्थिति का मॉडल ‘अनुरूप मॉडल’ (Analogue Models) हैं। ऐसे मॉडल का मूल्य वह शोधकर्ता पहचानता है जो दो परिस्थितियों के समानुमानों की पहचान कर सकता है। समानुमानों के घटक सार्थक (Positive) होने चाहिए, और निरर्थक घटकों को नज़रन्दाज किया जा सकता है।
सादृश्य की संकल्पना (Concept of Analogy) का भूगोल में बहुत समय से प्रयोग करते आ रहे हैं। जॉन हट्टन ने 1795 में ही. भू-दृश्य के उत्कर्ष और अपकर्ष में सामग्री के संरचण की तुलना शरीर में रक्त-परिसंचरण से करके दोनों में सादृश्यता की पहचान की। ऐसी सादृश्यता जलीय चक्र में भी देखी जा सकती है। डेविस के अपरदन-चक्र (Cycle of Erosion) और रेटजेल के ‘राज्य एक जैविक जीव’ (State as a Living Organism) संकल्पनाएँ अच्छे उदाहरण हैं जो राज्य एवं भूदृश्य को जैव-जगत् के सादृश्य मानते हैं।
सादृश्य-मॉडल द्वारा किसी समस्या को बिल्कुल दूसरी स्थिति में बदल कर समझाने का प्रयास किया जाता है, जैसे गतिमूलक लहरों के अध्ययन से सड़क पर दौड़ने वाले वाहनों की भीड़-भाड़ को स्पष्ट बनाना, नदियों में बाढ़ के दौरान पत्थरों के टुकड़ों का वहन अथवा हिमानी-प्रोथ (Glacier Snout) पर प्रोतकर्ष के निर्माण को समझाना आदि-आदि।
मानव भूगोल में अनेक समस्याएँ सादृश्यों द्वारा समझायी जाने की चेष्टा हुई है। इसका अच्छा उदाहरण ‘गुरुत्व मॉडल’ (Gravity Model) है। इसका तात्पर्य दो पिण्डों के मध्य गुरुत्व बल, उनके मात्रा के गुणक फल को उनके मध्य अन्तर के वर्ग से विभाज्य द्वारा ज्ञात करते हैं। यह गुरुत्व बल उन दो पिण्डों अथवा स्थानों में घटित क्रिया अथवा कार्य-विवरण बना है। इसी प्रकार अन्य भौतिक संबंधों का उपयोग भी ‘अनुरूप मॉडलों’ की ‘उष्मा-गतिकी’ के द्वितीय नियम आदि को भी अनुरूप मॉडलों में सम्मिलित किया जा सकता है।
सैद्धांतिक मॉडल/प्रतिरूप (Theoretical Models)
सैद्धांतिक मॉडल दो श्रेणियों में विभक्त किए जा सकते हैं- संकल्पनात्मक (Conceptual) और सिद्धान्त (Theory)।
संकल्पनात्मक किसी समस्या विशेष के लिए ऐसे सिद्धान्त में से निसृत किए (Deduced from a Theory) विचार हैं जो यथार्थ जगत् में मेल रखते हैं, जैसे समुद्र तल का तट पर ऊँचा उठना व नीचे गिरना और इसका तट पर प्रभाव। यह मान्यता है कि समुद्री लहरें किसी निश्चित गहराई तक चट्टानों का अपरदन करती हैं। यह सीमा 13 मीटर (40 फीट) के लगभग है। इसके नीचे लहरों का प्रभाव चट्टानी प्लेटफॉर्म पर नगण्य होता है। इस क्रिया में ढाल का आरंभिक भाग अधिक ढालू होता है। लहरों की यह क्रिया कालान्तर में पर्याप्त चौड़ा प्लेटफॉर्म का निर्माण करती है।
सैद्धांतिक रूप से विभिन्न दशाओं के अधीन तटीय कटिबंध के विभिन्न स्वरूप स्थापित किए जा सकते हैं, और इनकी तुलना वास्तविक तटीय कटिबंधों से कर सकते हैं। इस संकल्पना का विस्तार आगे ‘ढाल पार्श्विका विकास’ (Slope Profile Evolution) के अध्ययन में कर सकते हैं। ऐसे अध्ययनों का आधार भिन्न-भिन्न ढाल प्रक्रियाओं के ज्ञात अथवा संकल्पित प्रभाव होते हैं।
इस प्रकार के मॉडलों से विकास-चरणों के क्रमों की स्थापना की जा सकती है, और इस विभिन्न चरणों में सैद्धांतिक ढाल की वास्तविक ढालों से तुलना की जा सकती है। सैद्धांतिक मॉडल का दूसरा वर्ग ‘सिद्धांत’ (Theory) शब्द से संबंधित है। यह विषय के सम्पूर्ण जगत् का ढाँचा इंगित करता है (Framework of Whole Discipline) और सरल रचा गया है।
यह मॉडल इतना दुर्गम्य अथवा जटिल (Rigid) नहीं होता है कि विषय को अवरुद्ध करे। यह लचीला ढाँचा भूगोल के विस्तार को समाए हुए हैं। विस्तृत होते हुए भी यह विषय को उद्देश्यपरक और सुसंगत बनाए रखता है। इस सिद्धांतपरक श्रेणी में मॉडल भूगोल के लिए मूल्यवान बन उठे हैं, क्योंकि वे विषय की सभी शाखाओं के लिए लागू हैं। अतः ये मॉडल विषय को एकता प्रदान करते हैं।
विस्तृत भौगोलिक आंकड़ों का विश्लेषण-तकनीक हेतु किस भाँति सुसंगठित किया जाता है, इसका दिग्दर्शन ऊपर के आरेख में किया गया है। भूगोल का सैद्धांतिक ढाँचा एक पाँच-मंजिली इमारत के समान है। इसकी प्रत्येक मंजिल अपनी निचली मंजिल द्वारा सहायता प्राप्त करती है, और अपने से ऊपर स्थित मंजिल को सहायता पहुँचाती है।
(1) सबसे निचली आधारभूत मंजिल भौगोलिक अध्ययन की अव्यवस्थित सामग्री, अर्थात् आंकड़ों का समूह है।
(2) आंकड़ों के ऊपर स्थित दूसरी मंजिल उनको उपयुक्त विधि द्वारा सुसंगठित बनाने की है जिससे विश्लेषण में सरलता हो।
(3) विश्लेषण-तकनीक के लिए तीसरी मंजिल है जो अपनाए गए मॉडल (सिद्धांत) पर आधारित बनी है।
(4) चौथी मंजिल विश्लेषण से उपलब्ध सिद्धान्तों की है।
(5) अंतिम शीर्ष पर स्थित मंजिल सिद्धान्तों पर आधारित नियम-निर्माण से संबंधित है। यही भौगोलिक विधि का लक्ष्य है।
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