21. Primary Economic Activities of Humans (मनुष्य की प्राथमिक आर्थिक गतिविधियाँ)
Primary Economic Activities of Humans
(मनुष्य की प्राथमिक आर्थिक गतिविधियाँ)
Q. मानव के प्राथमिक व्यवसायों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर- मानव अपनी मूलभूत और उच्चतर आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाएं करता है। इन क्रियाओं द्वारा मानव की आर्थिक प्रगति होती है। मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं पर भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है। चूंकि पृथ्वी सतह पर भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण में क्षेत्रीय विभिन्नता विद्यमान है, अतः मानव की आर्थिक क्रियाओं में भी क्षेत्रीय विभिन्नता पाई जाती है।
उदाहरण के लिए वनों में मानव एकत्रीकरण या संग्रहण, आखेट एवं लकड़ी काटने जैसी आर्थिक क्रियाएं सम्पन्न करता है तो घास के मैदानों में पशुचारण, उपजाऊ समतल मैदानी भागों में कृषि, खनिजों की उपलब्धि वाले क्षेत्रों में खनन, जल की उपलब्धि वाले क्षेत्रों में मत्स्याखेट जैसी आर्थिक क्रियाएं करता है। साथ ही अनुकूल अवस्थिति वाले क्षेत्रों में विनिर्माण उद्योगों, परिवहन, व्यापार एवं सेवाओं से सम्बन्धित आर्थिक गतिविधियों में भी संलग्न रहता है।
मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं या गतिविधियों को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, यद्यपि ये चारों वर्ग एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं:-
1. प्राथमिक व्यवसाय (Primary Occupation)
2. द्वितीयक व्यवसाय (Secondary Occupation)
3. तृतीयक (Tertiary Occupation)
4. चतुर्थक व्यवसाय (Quaternary Occupation)
1. प्राथमिक व्यवसाय (Primary Occupation):
प्राथमिक व्यवसाय पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित होते हैं। प्राथमिक व्यवसायों के संचालन हेतु अपेक्षाकृत विस्तृत क्षेत्र की आवश्यकता होती है। वनों से संग्रहण, आखेट, लकड़ी काटना, घास के मैदानों में पशु चराना, पशुओं से दूध, मांस, खालें, आदि प्राप्त करना, समुद्रों, नदियों एवं झीलों से मछली पकड़ना, कृषि तथा खानों से खनिज निकालना, आदि प्रमुख व्यवसाय हैं।
विश्व के विकासशील देशों में कार्यशील जनसंख्या का अधिकांश भाग प्राथमिक व्यवसायों में लगा हुआ है और विकसित देशों में कार्यशील जनसंख्या का अधिकांश भाग तृतीयक एवं चतुर्थक व्यवसायों में कार्यरत हैं। भारत में 60 प्रतिशत, चीन में 50 प्रतिशत, इथोपिया में 80 प्रतिशत, नाइजीरिया में 70 प्रतिशत जनसंख्या प्राथमिक व्यवसायों में लगी हुई है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में 8 प्रतिशत, ग्रेट ब्रिटेन में 1 प्रतिशत, जापान में 5 प्रतिशत जनसंख्या ही प्राथमिक व्यवसायों में संलग्न है। मानव के प्रमुख प्राथमिक व्यवसायों का विवरण निम्नानुसार है:-
(i) आखेट, एकत्रीकरण या संग्रहण:-
विश्व के कुछ प्रदेशों में आज भी लोग आखेट, संग्रहण या एकत्रीकरण जैसी आर्थिक क्रियाओं द्वारा अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। उष्ण कटिबन्धीय वनों में रहने वाले अफ्रीका के पिग्मी, मलेशिया के सेमांग, कालाहारी मरुस्थल के बुशमैन, आस्ट्रेलिया के मरुस्थल में रहने वाले आदिम लोग, उत्तरी ध्रुवीय प्रदेशों में रहने वाले एस्किमो एवं लैप्स लोग इस प्रकार की आर्थिक क्रियाओं में संलग्न हैं।
ये लोग अपने आस-पास के पर्यावरण पर पूर्णतया आश्रित होते हैं। ये लोग अपने भोजन के लिए पौधों से विभिन्न प्रकार के फल, जड़ें और पत्तियाँ एकत्रित करते हैं। ये इन पदार्थों की खोज में इधर-उधर घूमते रहते हैं। पशु-पक्षियों के आखेट तथा झीलों और नदियों में मछली पकड़कर ये लोग अपनी भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। आखेट के लिए ये भाले और धनुष-बाण जैसे साधारण हथियारों का प्रयोग करते हैं।
अपनी वस्त्र और मकान सम्बन्धी आवश्यकता पूर्ति के लिए ये लोग अपने आस-पास के पर्यावरण में उपलब्ध सामग्री उपयोग में लाते हैं। इन लोगों को अपने प्राकृतिक आवास की पूरी जानकारी होती है, क्योंकि इनकी सभी आवश्यकताएं स्थानीय पर्यावरण से ही पूरी होती हैं।
उष्ण कटिबन्धीय वनों में रहने वाले लोग साधारण पैमाने पर जीविकोपार्जन हेतु और निर्यात के लिए वाणिज्यिक संग्रहण का कार्य करते हैं। इसके लिए ये चिकिल रस (इसका उपयोग चिविंग गम बनाने में किया जाता है), बलाता (इसका उपयोग समुद्री केविल, गोल्फ की गेंद का खोल बनाने में किया जाता है), नट (गिरी फल), रेशों, जड़ी-बूटियों, लाख, गोंद, आदि संग्रहण करते हैं।
(ii) पशुपालन:-
आखेट और संग्रहण युग के बाद पशुपालन युग का प्रारम्भ हुआ। इस युग में विभिन्न पर्यावरण में रहने वाले लोगों ने विभिन्न प्रकार के पशुओं को पालतु बनाया। उदाहरण के लिए सवाना घास भूमियों में गाय-बैल, मरुस्थलों में ऊंट, स्टेपी घास भूमियों में भेड़, टुण्डा प्रदेशों में रेण्डियर, एण्डीज के पर्वतीय प्रदेशों में तामा और अल्पाका तथा तिब्बत एवं हिमालय के पर्वतीय प्रदेशों में याक, आदि पशुओं को पालतू बनाया गया। इन पालतू पशुओं से मानव को दूध, मांस, ऊन और खालों की प्राप्ति होती है। इनसे मानव की भोजन, वस्त्र और अन्य अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
चलवासी पशुपालक अपने पालतू पशुओं के लिए चारे और पानी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते हैं। प्रत्येक चलवासी जाति एक निश्चित क्षेत्र में रहती है तथा उन्हें अपने उस क्षेत्र में चारागाहों और जल की आपूर्ति के स्रोत क्षेत्रों तथा ऋतुओं के अनुसार होने वाले परिवर्तनों की पूरी जानकारी होती है।
सहारा मरुस्थल, पूर्वी अफ्रीका के तटीय भाग, सऊदी अरब, इराक, ईरान, अफगानिस्तान, चीन, मंगोलिया के शुष्क भाग, दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका, मालागासी के पश्चिमी भाग तथा यूरेशिया के दुण्ड्रा के दक्षिणी सीमान्त पर स्थित क्षेत्रों में चलवासी पशुपालन होता है।
पूर्वी अफ्रीका के मसाई, नाइजीरिया के फुलानी, सहारा मरुस्थल में बद्दू, मध्य एशिया में खिरगीज लोग चतवासी पशुपालन में संलग्न हैं। इन क्षेत्रों में जलवायु उष्ण एवं शुष्क है। यहाँ घास छोटी एवं विरल होती है जो ग्रीष्म ऋतु में सूख भी जाती है। इन क्षेत्रों में प्रति इकाई भूमि की वहन क्षमता कम होती है। ये पशुपालक अपने पशुओं के साथ चारागाहों की खोज में घूमते रहते हैं। ये लोग तम्बुओं में रहते हैं और कठोर जीवन व्यतीत करते हैं।
पर्वतीय प्रदेशों में चरवाहे ग्रीष्म ऋतु में अपने पशुओं को चराने के लिए अधिक ऊंचे स्थानों पर ले जाते हैं और शीत ऋतु में घाटियों में उतर आते हैं। इस प्रकार अपने पशुओं के साथ पशुपालकों के ऋतुओं के अनुसार प्रवास को ऋतु प्रवास (Transhumance) कहते हैं। उदाहरण के लिए हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के गुज्जर, गद्दी, बकरवाल और भोटिया ऋतु प्रवास करते हैं।
इसी प्रकार दुण्डा प्रदेश के लैप्स चरवाहे ग्रीष्म ऋतु में उत्तर की ओर तथा शीत ऋतु में दक्षिण में कोणधारी वनों की ओर प्रवास करते हैं।
वर्तमान में चलवासी पशुचारण क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना हो जाने से लोग अब उद्योगों के पास पक्के मकानों में रहने लगे हैं। इसी प्रकार दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में चलवासी पशुचारण का स्थान व्यापारिक पशुपालन ने ले लिया है। किरगीजस्तान, कजाखस्तान और उजबेकिस्तान में चलवासी पशुचारण क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराके कपास की कृषि की जाने लगी है।
आधुनिक युग में पशुपालन वैज्ञानिक तरीकों से व्यापारिक आधार पर हो रहा है। उत्तरी अमेरिका का प्रेयरी क्षेत्र, ब्राजील का पठारी भाग और अर्जेण्टीना में विस्तृत पम्पास घास स्थल, वेनेजुएला का लानोस घास स्थल, दक्षिणी अफ्रीका का वेल्ड क्षेत्र, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड की शीतोष्ण घास भूमि, कैम्पियन सागर के पूर्व तथा अरल सागर के उत्तर के विस्तृत भाग व्यापारिक पशुपालन के उल्लेखनीय क्षेत्र हैं।
व्यापारिक पशुपालन उद्योग पूर्णतया प्राकृतिक चारागाहों पर आश्रित नहीं है। विस्तृत क्षेत्रों में चारे की फसलों और पौष्टिक घासों की खेती की जाती है। पशुओं को सुख-सुविधा सम्पन्न बाड़ों में रखकर खिलाया-पिलाया जाता है। विशेष नस्ल के पशु पाले जाते हैं, जिनकी दूध या मांस उत्पादन क्षमता अत्यधिक होती है। पशुओं के प्रजनन, नस्ल सुधार, रोगों की रोकथाम तथा बीमार पशुओं के इलाज, आदि की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है।
पशुओं को बड़े-बड़े बाड़ों में रखा जाता है। इनमें मांस के लिए पशु पाले जाते हैं। डेनमार्क तथा न्यूजीलैण्ड में बड़े पैमाने पर दुग्ध व्यवसाय होता है। आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड में भेड़ ऊन तथा मांस के लिए व्यापारिक स्तर पर पाली जाती हैं।
व्यापारिक पशुचारण में लोगों को प्रवास नहीं करना पड़ता है। वे एक ही स्थान पर रहते हैं। चारे की फसलों की खेती तथा दूध और मांस से संसाधित पदार्थ बनाने के लिए मशीनों का अत्यधिक प्रयोग होता है। इन संसाधित पदार्थों का बाजार अन्तर्राष्ट्रीय है।
(iii) लकड़ी काटना:-
लकड़ी काटने के व्यवसाय का व्यापारिक स्तर पर विकास मुलायम लकड़ी के वृक्षों वाले शंकुधारी वन प्रदेशों में हुआ है। इमारती लकड़ी, लुग्दी, कागज तथा कृत्रिम रेशे बनाने के लिए वनों से लाखों पेड़ काटे जाते हैं। स्वीडन, फिनलैण्ड्स, रूस, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका के विस्तृत क्षेत्रों में शंकुधारी वन हैं। इन देशों के इन वनों में लकड़ी काटने का काम व्यापारिक स्तर पर होता है।
पेड़ काटने तथा लट्ठे ढोने के लिए मशीनों का उपयोग होता है। चिराई के कारखाने लकड़ी के लट्ठों को संसाधित करके लुग्दी और कागज बनाते हैं। इन प्रदेशों में काटे गए पेड़ों के स्थान पर नए पेड़ लगाने का कार्य साथ-साथ चलता रहता है। इन प्रदेशों में परिवहन की पर्याप्त सुविधाएं हैं। बड़ी मात्रा में लुग्दी, कागज और अखबारी कागज संसार के अनेक देशों को निर्यात किया जाता है।
उष्ण और उपोष्ण कटिबन्धीय वनों में लकड़ी काटने का व्यवसाय कुछ सुगम्य क्षेत्रों तक ही सीमित है। सागौन, महोगनी, चंदन और रोजवुड के वृक्ष उष्ण कटिबन्धीय वनों में तथा बीच, वर्थ, मैपिल और ओक के वृक्ष मध्य अक्षांशीय वनों में मिलते है। इनका उपयोग इमारते तथा कर्नीचर बनाने में किया जाता है।
भारत, चीन तथा अफ्रीका के घने बसे कुछ देशों में जलाऊ लकड़ी तथा काठ-कोयले की मांग को पूरा करने के लिए पेड़ों, झाड़ियों तथा दूसरे पौधों का सफाया हो चुका है। इन प्रदेशों में काटे गए पेड़-पौधों के स्थान पर नए पेड़ न लगाने के कारण मिट्टी का अपरदन और बाढ़ों की आवृत्ति बढ़ी है।
(iv) मत्स्य ग्रहण:-
मध्य अक्षांशों के तटीय प्रदेशों में मछली पकड़ने का काम व्यापारिक स्तर पर विकसित हो चुका है। शक्ति चालित नावों तथा जलपोतों के द्वारा मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। बड़े-बड़े जहाज तैरते हुए कारखानों का काम करते है जिनमें पकड़ी हुई मछलियों को संसाधित करके डिब्बों में पैक कर दिया जाता है। जहाजों में बने प्रशीतकों की सुविधा के कारण मछलियों को संसार के अनेक देशों में निर्यात किया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, जापान तथा नार्वे में व्यापारिक मत्स्य ग्रहण बड़े पैमाने पर विकसित हो गया है।
(v) खनन:-
भू-गर्भ में से खनिजों को निकालने की क्रिया को खनन कहते हैं। खनिजों की उपलब्धता वाले क्षेत्रों को खान क्षेत्र कहते हैं। खनिज प्रकृति में पाए जाने वाले वे जड़ पदार्थ हैं जो रासायनिक तत्व भी हो सकते हैं और यौगिक भी। पृथ्वी पर खनिजों का वितरण असमान है। अधिकांश खनिज नवीकरण के योग्य नहीं हैं।
कोई भी देश खनिजों की उपलब्धता की दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं है। खनिजों के व्यापारिक दोहन को अयस्क की मांग, अयस्क की गुणवत्ता, भू-वैज्ञानिक दशाएं, खान की गहराई तथा पहुंच की दृष्टि से खानों की सुगम्यता, उपलब्ध प्रौद्योगिकी, आवश्यक पूंजी की उपलब्धता, श्रमिकों की आपूर्ति, आदि कारक प्रभावित करते हैं। खनन का कार्य शुरू होने से परिवहन की सुविधाओं का विकास होने लगता है तथा उस क्षेत्र में लोग बसने के लिए आने लगते हैं।
अयस्कों के बेनीफिसीएशन संयन्त्र या तो खानों के समीप स्थापित होते हैं या फिर उपभोक्ता केन्द्रों के निकट स्थापित होते हैं। पेट्रोलियम से प्राप्त अनेक प्रकार के उत्पादों के परिवहन की तुलना में अशुद्ध पेट्रोलियम का परिवहन सस्ता पड़ता है। अतः तेल शोधनशालाएं बन्दरगाहों के समीप या उपभोक्ता केन्द्रों के समीप स्थापित की जाती हैं।
खनन तथा उससे जुड़े व्यवसायों में लगे लोगों की संख्या में प्रतिवर्ष परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन के अनेक कारण है, जैसे एक खान के बन्द होने के बाद दूसरी खान का प्रारम्भ होना, अयस्क का लागत मूल्य, अयस्क की मांग, अन्य देशों में नए निक्षेपों की खोज, आदि। अनेक देशों की अर्थव्यवस्था में खनिजों का उत्पादन उल्लेखनीय स्थान रखता है। बोत्सवाना, अजरबेजान, गेबन, कजाखस्तान, चिली, पश्चिमी सहारा, जाम्बिया, आदि कुछ ऐसे देश हैं जिनके कुछ निर्यात मूल्य में 90 प्रतिशत तक भाग खनिजों का होता है।
(vi) कृषि:-
कृषि एक बहुप्रचलित व्यवसाय है। कृषि के लिए सबसे पहले भूमि से वनस्पति को साफ करना पड़ता है। इसके बाद जुताई करके, चुने हुए पौंधों की खेती की जाती है। जिनसे मानव की भोजन, रेशों या अन्य उत्पादों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
कृषि के सबसे प्राचीन रूप को स्थानान्तरी कृषि कहते हैं। स्थानान्तरी कृषि अधिकतर उष्ण कटिबन्धीय वनों में रहने वाले लोगों द्वारा की जाती है। वे वनों में पेड़-पौधों को काटकर जला देते हैं। इस प्रकार वन भूमि साफ हो जाती है। वे कुदाल की मदद से रतालू, मैनिआक, टैपिओका, आदि जड़ वाली फसलें उगाते हैं।
वन भूमि के साफ किए गए भागों को दो या तीन साल तक खेती करने के बाद परती भूमि के रूप में छोड़ दिया जाता है और अन्यत्र वन भूमि का दूसरा टुकड़ा साफ कर कृषि की जाती है। स्थानान्तरी कृषि की इस प्रक्रिया में मूल वनों का स्थान कम घने वन ले लेते हैं। इस प्रकार की कृषि में एक छोटे से समुदाय के निर्वाह के लिए विशाल क्षेत्र की आवश्यकता होती है। उत्तर-पूर्वी भारत की जनजातियाँ, मलेशिया के सेमांग तथा अमेजन बेसिन की जनजातियाँ स्थानान्तरी कृषि करती हैं।
मानव सभ्यता के विकास में स्थायी कृषि एक महत्वपूर्ण चरण था। इससे स्थाई बस्ती बसाने को प्रोत्साहन मिला, क्योंकि आसपास ही खेतों में वर्ष भर काम रहता था। प्रत्येक ऋतु में चुनी हुई फसलों की खेती करने के लिए ऋतुओं की दशाओं का सावधानीपूर्वक अध्ययन जरूरी था। भूमि को साफ करने, मिट्टी की जुताई, उपलब्ध जल का सावधानीपूर्वक सिंचाई द्वारा उपयोग तथा फसल काटने के लिए गांव में रहने वाले लोगों का सहयोग आवश्यक हो गया था।
अतिरिक्त भोजन सामग्री उपलब्ध होने के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं रह गई। फसलों से प्राप्त भूसे तथा पुआल, आदि से पालतू पशुओं को चारा मिल जाता था। पशुओं का खेतों की जुताई तथा कृषि के अन्य कार्यों में उपयोग किया जाता था। इस प्रकार एक प्रभावशाली संगठन बन गया।
अतिरिक्त खाद्यान्न उन लोगों के हिस्से में आता था जो समुदाय की किसी न किसी रूप में सेवा करते थे। पहिए की खोज के बाद पशुओं को गाड़ी खींचने के काम में लाया जाने लगा। अतिरिक्त खाद्यान्न को अन्य उत्पादों से बदलने के लिए गाड़ियों में लाद कर बाहर ले जाया जाने लगा। सड़कों के निर्माण से विभिन्न समुदाय सम्पर्क में आने लगे, विचारों का आदान-प्रदान शुरू हुआ।
कृषि का प्रारम्भ निर्वाह कृषि के रूप में हुआ, क्योंकि इससे स्थानीय समुदाय की आवश्यकताएं तुरन्त पूरी हो जाती थी। पिछले 125 वर्षों में परिवहन तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास के साथ-साथ कृषि में विशिष्टीकरण हो गया है। अधिकतर कृषि कार्यों में मशीनों का प्रयोग करके, विशाल क्षेत्रों में एक फसल की खेती विशेष रूप से होने लगी है।
दूसरे देशों को निर्यात करने के लिए फसल विशेष की कृषि जैसे- कपास, मक्का, गेहूँ, आदि बड़े पैमाने पर होने लगी है। इस प्रकार की कृषि को व्यापारिक कृषि कहते हैं।
रोपण कृषि, कृषि का एक विशिष्टीकृत रूप है। रोपण कृषि के अन्तर्गत सैकड़ों हेक्टेअर भूमि में कहवा, चाय, मसाले, रबड़, आदि की फसलें पैदा की जाती हैं। इन फसलों को मुख्य रूप से निर्यात के लिए ही पैदा किया जाता है। निर्यात से पूर्व इन फसलों को बड़े-बड़े कारखानों में संसाधित किया जाता है। रोपण कृषि में भारी मात्रा में पूंजी का निवेश होता है तथा इसमें बड़ी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती है। रोपण कृषि भारत, श्रीलंका, मलेशिया, आदि देशों के कुछ भागों में की जाती है।
मिश्रित कृषि में फसलें उगाने तथा पशुओं को पालने का कार्य एक साथ किया जाता है। मिश्रित कृषि यूरोप, उत्तरी अमेरिका के पूर्वी भाग, अर्जेण्टीना के पम्पास, दक्षिण-पूर्वी आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अफ्रीका तथा न्यूजीलैण्ड में की जाती है।
ट्रक फार्मिंग एक विशेष प्रकार की कृषि है जिसमें साग-सब्जियों की कृषि नगरीय क्षेत्रों के समीप की जाती है।
उद्यान कृषि के अन्तर्गत नगरीय उपभोग केन्द्रों के समीपवर्ती क्षेत्रों में फल और फूलों की कृषि की जाती है।
आधुनिक कृषि के अन्तर्गत कृषि के विभिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न मशीनों का प्रयोग किया जाता है। अधिक उपज लेने के लिए उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक दवाइयाँ तथा सिंचाई की उत्तम सुविधा का प्रयोग किया जाता है।
विस्तृत कृषि, व्यापारिक कृषि, मिश्रित कृषि, डेयरी फार्मिंग कृषि, उद्यान कृषि आदि आधुनिक ढंग से की जाती है।