13. Climatic Change (जलवायु परिवर्तन)
13. Climatic Change
(जलवायु परिवर्तन)
हरितगृह प्रभाव, प्रदूषण एवं अन्य भौतिक परिवर्तनों से पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन उल्लेखनीय मात्रा में हो रहे हैं। पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन का बहुत बड़ा कारण ग्रीन हाउस गैस (कार्बन डाइ ऑक्साइड, जलवाष्प, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड) की सतत् वृद्धि से बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारतीय उपमहाद्वीप की लाखों एकड़ उपजाऊ जमीन पानी में समा जायेगी।
अकेले बांग्लादेश की ही 13 मिलियन आबादी प्रभावित होगी। चावल उत्पादन में 16 प्रतिशत की कमी आ जायेगी, क्योंकि बाग्लादेश में चावल उत्पादन के लिए उपाजाऊ जमीन का 17.5 प्रतिशत हिस्सा सागरों में समा जायेगा। बढ़े हुए तापमान के कारण पेड़ों तथा जमीन की ऊपरी सतह नमी के वाष्पीकरण में तेजी से वृद्धि होगी। अमेरीका की सम्मानित संस्था ईपीए के अनुसार तापमान में 4ºC वृद्धि से वाष्पीकरण में 30 से 40 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है, जिससे एशिया तथा अफ्रीका के अर्द्धशुष्क प्रदेश पूर्ण शुष्क प्रदेशों में बदल जायेंगे। घास के बड़े-बड़े मैदानों में तेजी से कमी आयेगी, जिससे पशुओं के चारे, पानी की समस्या विकराल रूप लेगी।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अफ्रीका, मध्य पूर्व तथा दक्षिण यूरोप में पीने के पानी की समस्या और बढ़ेगी। विश्व की औसत वर्षा में वृद्धि होगी पर इसके वितरण में असमानता बढ़ती जायेगी। तापमान में वृद्धि के कारण वातावरण के निचले स्तर में शक्तिशाली प्रदूषक “ओजोन” की मात्रा में वृद्धि हो रही है। तापमान के साथ-साथ मच्छरों से फैलने वाले रोग जैसे- मलेरिया, पीला बुखार, डेंगू आदि में वृद्धि होगी। सन् 2001 तक अमरीका में उद्योगों से उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा सन् 1990 के स्तर से 8.3 प्रतिशत बढ़ चुकी थी।
जलवायु परिवर्तन के निम्नलिखित कारक जिम्मेदार है-
1. प्रदूषण:-
प्रदूषण आज की अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन चुका है। जलवायु परिवर्तन में प्रदूषण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बढ़ती आबादी के कारण विभिन्न क्षेत्रों में पर्यावरण असन्तुलित हो रहा है। महानगरीय क्षेत्रों में औद्योगीकरण एवं जनसंख्या विस्फोट के कारण तापमान द्वीप, प्रदूषण, गुम्बद तथा ‘ओजोन परत में छेद’ आदि के कारण पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है जिससे प्रदूषण क्षेत्र न्यून वर्षा के गर्म क्षेत्र बन जाते हैं। वायुमण्डल में ओजोन परत में छेद होने के कारण आगत वर्षों में पराबैंगनी किरणों का प्रभाव 8 से 15 प्रतिशत और बढ़ जायेगा। महानगरीय सीमेंट के जंगलों में एक विशेष जलवायु परिवर्तन हो जाया करता है जिससे उच्च तापमान द्वीप बनते हैं।
2. भौतिक परिवर्तन-
अलनिनो प्रभाव इस भौतिक परिवर्तन में उल्लेखनीय है। दक्षिणी अमेरीकी महाद्वीप के तटवर्ती प्रशांत महासागर में तापमान असमान रूप से बढ़ जाने से मौसम में बदलाव आता है। इसका सीधा असर भारत के दक्षिणी-पश्चिमी मानसून पर पड़ता है जो भारत में 80 प्रतिशत वर्षा से अधिक के लिये जिम्मेदार है। यह मानसून मई से सितम्बर तक सक्रिय रहता है।
भारत, बांग्लादेश एवं पाकिस्तान में अलनिनो का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। अर्थात् भारतीय महाद्वीप में अलनिनो ने भारतीय मानसून को अत्यधिक प्रभावित किया ही है। साथ ही आस्ट्रेलिया और दक्षिणी चीन में अनावृष्टि की है।
अलनिनो का प्रभाव-
अलनिनो प्रशांत महासागर में पैदा होने वाली गर्म जलधाराओं का प्रभाव है जो पूरी दुनिया में उथल-पुथल मचा सकता है। यह गर्म जलधारा मात्रा प्रशांत महासागर में इसलिए पैदा होती है क्योंकि इस क्षेत्र पर सूर्य की सीधी किरणों के कारण समुद्र का तापमान बहुत अधिक बढ़ जाता है। जलवायविक वैज्ञानिकों का मानना है कि अलनिनो के कारण पैदा होने वाली हवाएँ पूरब से पश्चिम की ओर जिस भी क्षेत्र से गुजरती है वहाँ पर जलवायु के विपरीत प्रभाव डालती हैं। अलनिनो के कारण इंडोनेशिया में सूखा पड़ा। भारत में भी अलनिनो के प्रभाव से मानसून अस्थिरता की पराकाष्ठा पर पहुँच गया है।
3. वनों का ह्रास-
वनों की आग का प्रभाव आस्ट्रेलिया और इण्डोनेशिया के जंगलों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। वन भूमि पर कृषि भूमि का दबाव भारत में सबसे अधिक वन विनाश का प्रभाव जलवायु पर और जलवायु का प्रभाव वन विनाश पर स्पष्ट है। विश्व सन्दर्भ में तापमान की बढ़ोत्तरी जलवायु परिवर्तन का मुख्य बिन्दु है।
विगत अनुमान से जलवायु परिवर्तन विशेषतः दुगना बढ़ रहा है। निरंतर जलवायु का पृथ्वी पर खतरनाक प्रभाव पड़ रहा है। यह जैसा सोचा गया था, उससे कहीं अधिक घातक है। पृथ्वी को इस भयावह प्रभाव से बचाने की सख्त जरूरत है। ये चेतावनी संयुक्त राष्ट्र द्वारा गत माह “मौसम परिवर्तन” पर तीसरी अध्ययन रिपोर्ट जारी करते हुए “Inter Governmental Panel on Climate Change” डॉ. राबर्ट वाटसन ने दी है। इस रिपोर्ट के अनुसार, पृथ्वी का तापमान पूर्वानुमानों की तुलना में दुगुनी गति से बढ़ रहा है। मौसम परिवर्तन पर्यावरण से जुड़ा यह गम्भीर मुद्दा है।
अध्ययन दल से जुड़े एक अन्य सदस्य ने भूमण्डल का तापमान बढ़ने का पर्यावरण के लिये महासंकट की भविष्यवाणी की है। संयुक राष्ट्र की ताजी रिपोर्ट तीन हजार वैज्ञानिकों के कठिन परिश्रम के बाद तैयार की गयी है। कम्प्यूटर आधारित गणना के आधार पर दावा है कि शताब्दी के अन्त तक तापमान में 5.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी हो सकती है। इस स्थिति के लिये वे प्रकृति को नहीं, बल्कि इंसानी गतिविधियों को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि औद्योगिक प्रदूषण और गैसों का निस्तारण हालात बिगाड़ने में सर्वाधिक दोषी हैं। पृथ्वी के पर्यावरण पर मँडरा रहे खतरे के लिए संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिकी रूप से समृद्ध देश जिम्मेदार हैं।
औद्योगिक प्रदूषण एवं उद्योगों से निकली गैसों के वायुमण्डल में मिलने से पृथ्वी क तापमान बढ़ रहा है। मौसम विज्ञान अध्येता डॉ. आर. वाटसन का कहना है कि “मौसम के पृथ्वी पर प्रभाव के बारे में हो सकता है कि हम अधिक आंक रहे हों, लेकिन यह भी हो सकता है कि हम वास्तविकता से कम आंक रहे हैं। इसलिये जरूरी है कि ग्रीन हाउ गैस सान्द्रता को घटाने के लिये हम प्रभावशाली कदम बढ़ाएँ।” उनका विश्वास है कि यह गैस औद्योगिक रूप से समृद्ध देश ही सर्वाधिक बढ़ रहे हैं।
विश्व सन्दर्भ में जलवायु परिवर्तन को संक्षेप में लिखा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन से मुख्य आशय तापमान की बढ़ोत्तरी है जिसे डॉ. दिनेश मणि ने अपने शोध लेख ‘पृथ्वी की गरमाहट’ में बतलाया कि भारत और अन्य देशों में 2010 से 2070 ई० तक की अवधि में हरित ग्रह प्रभाव के कारण मानसून में भारी वृद्धि होगी तथा नीचे के इलाके जलमग्न एवं बाढ़ग्रस्त हो जायेंगे। छोटे द्वीप डूब जायेंगे और समुद्र के तट नष्ट हो जायेंगें और कृषि भूमि एवं मछलियाँ कम हो जायेंगी। विश्व का तापमान बढ़ने से मलेरिया, कालाजार, मस्तिष्क शोध, नेत्र रोग, आदि बढ़ सकते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन की रिपोर्ट से भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, इथोपिया आदि देशों में मलेरिया, कालाजार की वापसी इसका प्रमाण है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार आगामी वर्षों में विश्व के औसत तापमान में प्रति दशक 0.3 प्रतिशत की वृद्धि होगी और इस प्रकार विद्वानों का एक वर्ग मानता है कि सन् 2100 के अन्त तक 3.6 सेल्सियस तापमान बढ़ जायेगा।
वाशिंगटन स्थिति प्रसिद्ध अनुसंधान केन्द्र ‘Climate Institute’ ने एशिया में जलवायु परिवर्तन नामक नवीन प्रतिवेदन में बतलाया कि हरित ग्रह गैसों की अधिकता के कारण भारत, लक्षद्वीप, पाकिस्तान, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम, फिलीपीन्स, ब्रिटेन (आइसलैण्ड) आदि देशों में तापमान और समुद्र सतह में उठाव का संकट निकट भविष्य में है।
प्रतिवेदन के अनुसार यदि ग्रीन हाउस गैसों में ज्यादा वृद्धि होती है तो इन देशों के समुद्री क्षेत्रों के तापमान में 0.5 डिग्री से 3 डिग्री और मैदानी क्षेत्रों के तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस से 4.5 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हो सकती है। ऐसी स्थिति में समुद्र का जलस्तर 15 सेमी. से 90 सेमी. तक बढ़ सकता है। यदि ग्रीन हाउस गैसों में मध्यम स्तर की वृद्धि होती है तब समुद्री क्षेत्रों के तापमान में 0.3 डिग्री और मैदानी क्षेत्रों के तापमान में 0.5 डिग्री से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हो सकती है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से फलोत्पादन एवं कृषि उत्पादन में अंतर आना स्वाभाविक है। कार्बन डाई ऑक्साइड की सान्द्रता के कारण वायुमण्डल में नमी बढ़ती है और वर्षा की सम्भावना बढ़ जाती है। कीटजनित रोगों के लिए अनुकूल होते हैं तो खाद्य समस्या को प्रत्यक्ष प्रभावित करते हैं
सर्वात्रिक परिसंचरण मॉडल सन् 2030 तक विश्व तापमान में 1.5 से 5.2 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होने का संकेत देते हैं। ये मॉडल ऊपरी वायुमण्डल के ठण्डा होने के साथ-साथ सतह के गर्म होने का संकेत भी देते हैं। खासकर ऊपरी तथा मध्य अक्षांशों में तापमान में सर्वाधिक परिवर्तन होने की सम्भावना है।
शरदकाल में तापमान की वृद्धि औसत परिवर्तन में दुगुनी या उससे भी ज्यादा हो सकती और यह वृद्धि बड़ी तेजी से होगी। दुगनी कार्बन डाइ ऑक्साइड सान्द्रता के साथ जलचक्र 10 प्रतिशत अधिक तीव्रता से काम करेगा, वायुमण्डल के तापमान में 5.8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि औसत उसकी जलवहन क्षमता की लगभग 40 प्रतिशत तक बढ़ा देगी जो कि जलवायु में भारी परिवर्तन का संकेत है।