9. What do you understand by Water Pollution? Throw light on its classification, Causes, Effects and Control Measures. (जल प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसके वर्गीकरण, कारण, प्रभाव तथा नियंत्रण के उपाय पर प्रकाश डालें।)
9. What do you understand by Water Pollution? Throw light on its classification, Causes, Effects and Control Measures.
(जल प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसके वर्गीकरण, कारण, प्रभाव तथा नियंत्रण के उपाय पर प्रकाश डालें।)
जल प्रदूषण से आशय उसमें कोई रंग, गंध, स्वाद या जैविकीय परिवर्तन है जो मानवीय स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है अर्थात् स्वच्छ जल रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, पारदर्शक, जीवाणु, विषाणु रहित होता है। जब इस मूलभूत गुणों में ऋणात्मक परिवर्तन हो जाते हैं, जो मानवीय सहनक्षमता से अधिक हो तो यह प्रदूषण के अन्तर्गत आ जाता है।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जिसमें अशुद्धियाँ या खनिज इतनी अधिक मात्रा तक मिल गयी हों जो मानवीय स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो गयी हो अथवा उनकी मात्रा इतनी कम हो जो पर्याप्त पोषक न दे सके तब जल को प्रदूषित कहा जा सकता है।
गिलपिन के अनुसार, “जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक लक्षणों में होने वाले परिवर्तन, जो मनुष्य तथा जलीय जीवों पर हानिकारक प्रभाव छोड़ते हैं।” जल प्रदूषण को अन्य ढंग से भी परिभाषित किया जा सकता है-
1. जल में अनावश्यक पदार्थों का अत्यधिक मात्रा में मिलना जिससे मनुष्य, जन्तु तथा जलीय जीव क्षतिग्रस्त हो सकते हैं।
2. जल के संघटन (Composition) में कोई विपरीत परिवर्तन होता है जिससे वह उस कार्य के अनुपयुक्त हो जाता है जिस कार्य के लिए प्राकृतिक अवस्था में उपयुक्त होता है।
जल जीवन्त जगत की आत्मा है। इसके प्रदूषित होते ही समस्त प्राण संकटग्रस्त हो जायेंगे। जल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में ऐसा परिवर्तन जो उसके स्वरूप, गंध और स्वाद के कारण जन स्वास्थ्य, पशुओं, जल-जीवों तथा वाणिज्यिक, औद्योगिक तथा कृषि कार्यों के लिये हानिकारक हो। यह परिवर्तन जल में सीवर नलिका के मिलने, गैस तरल अथवा ठोस पदार्थों के मिलने से होता है।
प्राकृतिक जल में किसी बाह्य घुलनशील अथवा अघुलनशील वस्तुओं के मिलने के साथ ही प्रदूषण प्रारम्भ हो जाता है। अर्थात् मानवीय हस्तक्षेप के कारण जल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में ह्रास हो तो उसे प्रदूषित जल कहते हैं। प्रायः रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, उदासीन, गुणवत्ता वाले जल में जब कोई मानवीय क्रियाओं के कारण विजातीय पदार्थ मिलते हैं तो उसे प्रदूषित जल कहते हैं।
जल में स्वतः शुद्धीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। जल में उपस्थित विभिन्न प्रकार के जलीय पौधे; जैसे- एल्गी (काई) सूर्य की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण द्वारा पानी में ऑक्सीजन उत्पन्न करते हैं जो जलीय जीव-जन्तुओं और जीवाणुओं के द्वारा अपघटन के कार्यों में प्रयुक्त ऑक्सीजन की क्षतिपूर्ति करते रहते हैं। ऑक्सीजन का उपयोग और उत्पादन में सन्तुलन होने से जल प्रदूषित होने से बचा रहता है किन्तु जब इस सीमा से अधिक विजातीय पदार्थ या कूड़ा-करकट जलागारों में पहुँचता है तो वायुजीवी जीवाणु द्विगुणित होकर पानी में घुलनशील और तैरते हुए कूड़े को हजम करते हुए पानी में घुलित ऑक्सीजन का उपयोग संश्लेषण द्वारा पानी में पुनः ऑक्सीजन घोल देते हैं।
इस प्रकार से स्वतः शुद्धिकरण की प्रक्रिया चलती रहती है किन्तु वर्तमान में महानगरों, औद्योगिक क्षेत्रों एवं सघन जनसंख्या के क्षेत्रों से प्राकृतिक शोधन की जनसंख्या सन् 1931 में 60 हजार थी। उस समय भोपाल के तालाब में विसर्जित गन्दगी का कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ, किन्तु आज जनसंख्या लगभग 14 लाख से अधिक हो गयी तो घरेलू अपशिष्ट जल के कारण छोटी झील प्रदूषित हो गयी। साथ ही विभिन्न प्रकार के प्रदूषण से बड़ी झील भी प्रदूषण की ओर है।
जल प्रदूषण के प्रकार
Kinds of Water Pollution
विभिन्न आधारों पर इसे वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे- जल गुणवत्ता के आधार पर इसे चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) भौतिक प्रदूषण
(2) रासायनिक प्रदूषण
(3) जैविक प्रदूषण
(1) भौतिक प्रदूषण-
इसमें जल में भौतिक गुणों में परिवर्तन होता है, जैसे रंग, स्वाद, पारदर्शिता (गंदलापन), गन्ध, विद्युत चालकता एवं सूक्ष्म जीव आदि।
(2) रासायनिक प्रदूषण-
इसमें जल की अम्लीयता, क्षारीयता, घुलित ऑक्सीजन में परिवर्तित होती है। यह कार्बनिक प्रदूषकों या अकार्बनिक प्रदूषकों या दोनों द्वारा होता है। ये पतनशील और अपतनशील (Non-Biodegradable) दोनों हो सकते हैं। उदासीन अथवा पेय जल का pH मान 7 होता है। जैसे-जैसे यह मान घटता है जल की प्रकृति अम्लीय तथा pH मान बढ़ने पर क्षारीय हो जाती है। पेय जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 14.5 मिलीग्राम प्रति लीटर (शून्य डिग्री से. पर) से 7.5 मिली ग्राम प्रति लीटर (30°C पर) तक होती है।
प्रदूषित जल में रासायनिक एवं जैव-रासायनिक ऑक्सीजन मांग (C.O.D. – Carbon Oxygen Demand और B.O. D. – Biological Oxygen Demand) बढ़ जाती है जो प्रदूषण की मात्रा का सूचक है। कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण के लिये आवश्यक ऑक्सीजन को C.O.D. कहते हैं। सूक्ष्म जीवों द्वारा कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण के लिये आवश्यक ऑक्सीजन को B.O.D. कहते हैं। प्रदूषित जल में ये मांगे बढ़ जाने से घुलित ऑक्सीजन कम हो जाती है।
(3) जैविक प्रदूषण- जीवाणु प्रदूषण को जैविक प्रदूषण कहते हैं जो मनुष्य, पालतू एवं जंगली पशुओं से उत्सर्जित पदार्थों के छोड़े जाने से होता है। जैविक प्रदूषित जल संदूषित होकर जीवों की आँतों में संक्रमित रोग जैसे- दस्त, उलटी (Vomiting), हैजा, आंत्र शोध आदि उत्पन्न करते हैं।
जल प्रदूषण के कारण
Causes of Water Pollution
मुख्यतः जल प्रदूषण के निम्नलिखित कारण हैं-
(1) प्राकृतिक प्रक्रमों द्वारा,
(2) मानवीय प्रक्रमों द्वारा।
(1) प्राकृतिक प्रक्रमों द्वारा-
प्राकृतिक प्रक्रमों में सड़ी-गली वस्तुएँ, जीव-जन्तु, वनस्पति पदार्थ जल स्रोत में मिल जाते हैं, जिससे जल की प्रकृति प्रदूषित हो जाती है।
(2) मानवीय प्रक्रमों द्वारा जैसे-
(i) अपमार्जन-
निवास स्थानों एवं अन्य स्थानों में बर्तन साफ करने में प्रयुक्त पाउडर, कीटाणुनाशक, फिनायल, डिटोल एवं अन्य नहाने में और कपड़े धोने में प्रयुक्त साबुन, अपमार्जक जल के साथ नालियों तथा नालों से होता हुआ तालाबों, झीलों तथा नदियों में पहुँचकर प्रदूषित करते हैं।
(ii) वाहित मल-
नगरों तथा कस्बों के मकानों से निकला मल-मूत्र, कूड़ा-करकट आदि नालियों तथा नालों द्वारा नदियों, तालाबों और झीलों में डाल दिया जाता है जिसके फलस्वरूप जल प्रदूषित हो जाता है। दिल्ली में यमुना और भोपाल में छोटी झील का जल मानवीय उपयोग का नहीं रहा है। आगरा, कानपुर और पटना में भी यही हाल है।
(iii) कृषि उपयोगी पदार्थों का जल में मिलना-
अधिक उपज लेने हेतु जब खेतों में कीटनाशी, कवकनाशी, खरपतवार नाशी तथा उर्वरक मिलाये जाते हैं तो इन पदार्थों का अधिकांश भाग मिट्टी में मिल जाता है, जो कि अंतत: बहकर नदी-नालों में पहुँच जाता है तथा कल-कारखानों से निकलने वाले जल में अनेक प्रकार की कार्बनिक तथा अकार्बनिक अशुद्धियाँ विद्यमान रहती हैं। यह जल नदियों में डाल दिया जाता है जिससे नदियों का जल प्रदूषित हो जाता है।
(iv) ईंधनों का जल में मिलना-
भिन्न प्रकार के ईंधनों जैसे- कोयला, पेट्रोल, डीजल आदि के जलने से कई प्रकार की विषैली गैसें निकलती हैं जो वर्षा जल में घुलकर नदियों, तालाबों व झीलों में पहुँचकर जल को प्रदूषित करती हैं।
(v) रेडियोधर्मी पदार्थ-
रेडियोधर्मी पदार्थ ऊर्जा के स्रोत के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रक्रम में जल की अत्यधिक आवश्यकता होती है। उपरोक्त प्रक्रम से निकलने वाले विकिरण जल में घुल जाते हैं तथा प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। इसके साथ-साथ समुद्री जल में भी नाभिकीय विस्फोट किये जाते हैं। इससे अनेक प्रकार के घातक विकिरण निकलते हैं जो कि जल को प्रदूषित करते हैं।
(vi) जल का शोधन करने में-
अशुद्ध जल को शुद्ध जल बनाने हेतु विभिन्न प्रकार के विषैले रासायनिक यौगिक मिलाये जाते हैं। यदि ये यौगिक अधिक मात्रा में मिला दिये जायें तो भी जल प्रदूषित हो जाता है।
जल प्रदूषण के प्रभाव
Effect of Water Pollution
1. पेड़-पौधों पर प्रभाव-
यदि खेतों की सिंचाई प्रदूषित एवं संदूषित जल से की जाए तो पौधे संदूषित हो जाते हैं अर्थात् रोगग्रस्त हो जाते हैं जिसके फलस्वरूप उनके विकास व वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि मनुष्य या जीव-जन्तु इन प्रदूषित पौधों को या इनके फलों को लें तो स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
2. जीव-जन्तुओं पर प्रभाव-
यदि जल प्रदूषित होता है तो उसमें ऑक्सीजन की कमी हो जाती है जिसके फलस्वरूप उसमें पलने वाली मछलियाँ या अन्य जीव-जन्तुओं पर घातक प्रभाव पड़ता है तथा उनकी मृत्यु तक हो सकती है। जब नदी, तालाब आदि के जल में निलम्बित पदार्थ तली में बैठ जाते हैं तो शैवाल तथा जड़ वाले पौधे नष्ट हो जाते हैं।
3. पारिस्थितिक तत्व पर प्रभाव-
चूँकि प्रदूषित जल के सेवन से पेड़-पौधे, जीवन-जन्तु, मनुष्य सभी कुप्रभावित होते हैं। अतः पारिस्थितिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। इससे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जैसे- वर्षा समय पर न होना, अधिक गर्मी या सर्दी का होना जिससे समस्त जल परितंत्र और जलचक्र प्रभावित हो जाता है। मध्य प्रदेश की न्यूनतम प्रदूषित नर्मदा नदी में रायसेन जिले की फैक्टरी से निकले रसायन युक्त जल के कारण विगत् वर्षों में मछलियाँ मरी थीं। म. प्र. की सबसे प्रदूषित नदी सोन है। उसके जल से वनों पर संकट उल्लेखनीय है।
4. मनुष्यों पर प्रभाव-
यदि मनुष्य प्रदूषित जल का सेवन करता है तो वह विभिन्न प्रकार के रोगों; जैसे- हैजा, पेचिश, पीलिया, टायफाइड, पक्षाघात, पोलियो आदि से ग्रसित हो जाता है। विषैले धातुयुक्त जल के सेवन से हृदय, गुर्दा, फेफड़े, मस्तिष्क आदि के रोग हो जाते हैं। रेडियोधर्मी पदार्थों से कैंसर, अपंग सन्तानें उत्पन्न हो जाती हैं।
जल में लोहा, मँगनीज, नाइट्रेट, आर्सेनिक, क्रोमियम, पारा, सीसा, फ्लोराइड, डी.डी.टी., एल्ड्रिन, डाइएल्ड्रिन, हेप्टाक्लीन, बी. एच. सी. और एंडोसल्फान आदि हानिकारक तत्व पहुँचने लगे हैं। इनके लगातार अधिक मात्रा में प्रयोग से चर्मरोग, हैजा, आंत्रशोध, टायफाइड, पीलिया, गैस्ट्रोएण्यइटिस, ब्लू बेबी रोग, अस्थि, गुर्दे, यकृतीय एवं स्नायुतन्त्रीय सम्बन्धित बीमारियाँ आदि प्रमुख रूप से पायी जा रही हैं। एक अनुमान के अनुसार अशुद्ध जल की वजह से 10,500 गाँवों में लगभग 1 करोड़ 22 लाख लोग आर्थराइटिस (जोड़ों का दर्द) नामक बीमारी से 5 करोड़ वयस्क एवं बच्चे अन्य जलजन्य बीमारियों से पीड़ित हैं।
देश में प्रदूषित जल के सेवन से होने वाले रोगों के कारण 7 करोड़ 30 लाख जीवन नष्ट हो रहे हैं। बीमारियों के इलाज में 1600 करोड़ से भी अधिक रूपये खर्च हो रहे हैं। विश्वभर में अशुद्ध जल का सेवन करने वाले लगभग 18 प्रतिशत अर्थात् 1 अरब 10 करोड़ लोग हैं। इसी कारण विश्वभर में लगभग 62 प्रतिशत मौत प्रदूषित जल के सेवन से हो रही है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) के अनुसार स्वच्छ जल उपलब्ध होने पर 50 प्रतिशत अतिसार एवं 90 प्रतिशत तक हैजा में कमी लायी जा सकती है। अर्थात् भारत में होने वाली दो-तिहाई बीमारियाँ प्रदूषित जल से होती हैं। पेय जल के साथ रोगवाहक बैक्टीरिया, वायरस, प्रोटोजोआ एवं कृमि मानव शरीर में पहुँचकर हैजा, टायफाइड, पेचिस, पीलिया, अतिसार, एक्जीमा, जियार्डियता, नारू, एकाकायलो, स्टोमियरा, सटाजिवाईडियोसिस, लेप्टोस्पाइरोसिस जैसे भयंकर रोग उत्पन्न करते हैं।
5. घटते जल संसाधनों पर प्रभाव-
औद्योगिक एवं नगरीय अपशिष्ट से आज कुमायूँ, हिमालय की सबसे बड़ी झील, ताल (नैनीताल) म. प्र. का भोपाल ताल सिकुड़ रहे हैं। छोटी झीलें व तालाब गाद जमाव से जल क्षेत्र घट रहा है। अकेले कर्नाटक में 25,000 झीलें में से अब मात्र 10,000 तक सिमट कर रह गयी हैं। उत्तरांचल में पर्यटन में प्रमुख स्थान रखने वाले नैनीताल की प्रसिद्ध साल्ट लेक जो 80 वर्ग किमी. में फैली थी, वर्तमान में आधी से भी कम रह गयी है।
इसी प्रकार बंगलौर में 262 में से 181 तालाब सूख चुके हैं और मैसूर में 25 तालाब और झीलों में मात्र 10 हजार ही शेष बचे हैं। देश के अन्य स्थानों पर भी तालाबों, झीलों तथा अन्य वर्षा जल संग्रहकर्ता दयनीय स्थिति में हैं। पूरे देश में तालाबों, झीलों, पोखरों आदि की परम्परा को पुनर्जीवित करना बहुत आवश्यक है।
जल प्रदूषण के नियंत्रण के उपाय
Control measures of water pollution
भारत सरकार ने जल प्रदूषण नियंत्रण एवं संरक्षण कानून सन् 1974 में बनाया, किन्तु अशिक्षा, स्वार्थपरता, अनिवार्य आर्थिक विकास एवं जनसंख्या में वृद्धि के कारण जल प्रदूषित हुआ। रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, सस्ता सहज उपलब्ध जल प्रकृति के इस उपहार की प्राकृतिक गुणवत्ता संरक्षित करने के निम्नलिखित उपाय हैं:
1. प्रदूषण स्रोतों पर नियंत्रण-
प्रदूषण पैदा करने वाले कारखानों, उद्योगों पर कानून का कठोर नियंत्रण अनिवार्य है जो प्रकृति प्रदत्त पर्यावरण को प्रदर्शित करते हैं अथवा औद्योगिक अपजल ओर अपशिष्ट बिना उपचार के नदियों और तालाबों में छोड़ते हैं। अतः प्रदूषण स्रोत पर ही नियंत्रण अपरिहार्य हो जाता है। जिस तरह एक उद्योगपति उपचार संयंत्रों में व्यय राशि को उत्पादित मूल्य में जोड़ता है और उद्योगपति उपचार पर व्यय नहीं करते वे बाजार में तुलनात्मक रूप में सस्ते दामों पर उत्पाद बेचता है। परिणामस्वरूप स्वार्थी उद्योगपति अधिक लाभ पा जाते हैं। अतः सभी पर कठोर नियंत्रण होना चाहिये। विगत दशकों में आर्थिक विकास को बहुत अधिक बल दिया गया है।
अत: जब औद्योगिक कचड़ा एवं नगरीय संदूषित अपजल उपचार के बाद ही जलागारों में मिलाये जाने पर ध्यान देना होगा। समय-समय पर औद्योगिक अपजल का परीक्षण होना चाहिये। संदूषित जल में मैथागोनिक बैक्टीरिया से पेयजल स्रोतों को दूर रखने के लिये उपचारित जल में क्लोरिन मिला देनी चाहिये। वरना ये मुख्य नदी के जीव और वनस्पति की भी कुप्रभावित करेंगे।
2. जनमानस की जल प्रदूषण के प्रति जागरूकता पैदा करना-
रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र-पत्रिकाओं एवं विभिन्न विज्ञापनों के माध्यम से जल प्रदूषित होने के कारण और उनके कुप्रभावों को विज्ञापित करते रहना चाहिए। प्राथमिक पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में शोध परिचर्चा, संगोष्ठी, कार्यशालाओं एवं प्रदर्शनी के माध्यम से आगत पीढ़ी में जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए।
3. प्रदूषक जन्य कारकों से रक्षा-
नगरीय क्षेत्रों में सघन जनसंख्या के सैप्टिक टैंकों से प्राप्त संदूषित जल के शोधन हेतु प्रति 6 मिलोमीटर पर उपचार केन्द्र हों, ताकि मल-जल उपचारित होने पर ही मुख्य जल स्रोतों से मिल सकें। यदि विभिन्न केन्द्र से थोड़ी मात्रा में अपजल मिलता है तो नदी स्वशुद्धकरण क्षमता के कारण थोड़ी दूर जाकर शुद्ध हो जाती है। यदि बड़ी मात्रा में नगरीय अपजल प्राप्त हुआ तो बड़ी नदियाँ भी प्रदूषित हो जाती हैं। जैसे बिहार में गंगा नदी के साथ हुआ। इसलिये बड़ी मात्रा में नगरीय क्षेत्रों में मल-जल शोधन केन्द्रों की स्थापना अनिवार्य है। नहीं तो गंगा जैसी नदयाँ भी जीवाणु प्रदूषित हो जाती हैं।
4. प्रदूषण निवारण हेतु नयी तकनीकी के विकास से-
सीवेज वाटर को पेयजल में बदला जा सकता है। फायनेंशियल टाइम्स लन्दन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, आस्ट्रेलिया की एक कम्पनी मेमटेक ने एक पर्यटक नगर के समुद्र तट को साफ स्वच्छ कर दिया है और दावा किया है कि उसने जो माइक्रो फिल्ट्रेशन तकनीक विकसित की है, उससे मल कीचड़युक्त जल न केवल उद्योगों में पुनः काम में लिया जा सकेगा, वरन् उससे बाग-बगीचे भी सींचे जा सकेंगे और उसका पेयजल की तरह उपयोग भी हो सकेगा ही नहीं यह पेयजल उन सारे बैक्टीरिया और वायरस से मुक्त होगा, जो हम आज पानी के साथ पी रहे हैं। कीचड़ अलग निकलेगा, वह खेतों के लिए उपयोगी और उपजाऊ खाद देगा।
उल्लेखनीय है कि ऐसी ही जल शुद्धिकरण प्रक्रिया से जापान में गोल्फ के मैदान और बाग-बगीचे कई वर्षों से सींचे जा रहे हैं। जापान में यह भी प्रयोग किया गया कि अपजल को घुमावदार रास्तों से लाकर नदी में या खेतों के मध्य में मिलने दिया जाये, जिससे प्रदूषण का 50 प्रतिशत भाग कम हो गया। इस विधि का प्रयोग सस्ता, सरल और सुगम है। इस प्रकार की योजनाएँ भागोल के छात्र स्थानीय परिवेश के अनुसार सरलता से सुझा सकते हैं।
इसको क्रमशः तीव्र ढंग से किया जा सकता है।
(i) शुद्धिकरण क्षमता का उपयोग-
घरेलू अपजल को घुमावदार लम्बे मार्गों से ले जाने पर धूप, हवा, मिट्टी, पेड़ पौधे, जीव-जन्तु भी जल को शुद्ध करते हैं। साथ ही प्रदूषण स्रोत से दूर जाने पर जल को स्वयं शुद्धिकरण क्षमता के कारण प्रदूषण घटते घटते समाप्त हो जाता है। अतः संदूषित जल को घुमावदार मार्गों से ले जाकर जलाशयों में छोड़ना चाहिये।
(ii) ऑक्सीजन ताल-
मल जल की गन्दगी को शैवाल द्वारा खुले तालाबों में प्रविष्ट कराया जाता है। इन तालाबों को ऑक्सीकरण या निरीक्षण ताल कहते हैं। इन तालाबों में गन्दे जल को भरा जाता है जिससे ठोस निलम्बित कण बैठ जाते हैं। इन कृत्रिम तालाबा मे विषाक्त पदार्थों को रासायनिक विधि से तथा कार्बनिक पदार्थों को जीवाणुओं की क्रिया द्वारा विघटित कराते हैं। यह ऑक्सीकरण द्वारा किया जाता है। ऑक्सीजन की आवश्यकता की पूर्ति कृत्रिम विधियों से की जाती है। इसमें हरे शैवालों का उपयोग होता है जो जल में प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा ऑक्सीजन उत्पन्न करते हैं। यह कार्य जीवाणु और शैवाल की सहजीविता द्वारा सम्पन्न होता है।
(iii) शैवाल का पृथक्करण-
जल में नीला थोथा (कापर सल्फेट) मिलाने से शैवाल नष्ट हो जाते हैं। सूर्य के प्रकाश की अनुपस्थिति में भी शैवाल की वृद्धि रूक जाती। अतः जल को सार्वजनिक उपयोग हेतु ढक कर रखा जाता है।
5. जल की किस्म का परीक्षण एवं पेय जल स्रोत का चयन-
इस सन्दर्भ में भूगोल का विद्यार्थी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकता है। सतही जलागारों को पानी की किस्म के अनुसार अ, ब, स और द वर्गों में विभाजित कर सकते हैं ताकि उन जलागारों का अनुकूल उपयोग सम्भव हो सके। जल की किस्म का परीक्षण होने से वैज्ञानिक और स्थानीय जनता बचाव के साधन खोज सकती है। पेयजल स्थानों के चयन नदी की ऊपरी धारा से किये जाने चाहिए वृक्षारोपण जल प्रदूषण का एक प्रभावी उपाय है। पारिस्थितिक संतुलन में वृक्षों की भूमिका अहम् है। वनस्पतियों में काई से लेकर बड़े वृक्ष तक प्रदूषण मुक्ति में सहायता करते हैं।
वैज्ञानिक प्रमाणित कर चुके हैं कि वायु, ध्वनि, मृदा और जल प्रदूषण को वृक्ष रोकते हैं, अन्य उपायों में कीटाणुनाशकों का न्यूनतम उपयोग, शहरों में सीवर की सुविधा और शैवाल जल के ऐसे पौधे हैं जो जल को शुद्ध रखन में सहायक होते हैं। ऐसे शैवालों को जल में बढ़ने देना चाहिये।
प्रदूषण की रोकथाम के लिये नाभिकीय विखण्डन, मृत जीव-जन्तुओं को नदी में बहाने और धार्मिक उत्सवों में निस्त पूजा सामग्री को विसर्जित करने पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिये। इसके साथ दो नगरों एवं कस्बों के मकानों से निकलने वाला मल-मूत्र तथा कूड़ा-करकट सड़, गल कर कम्पोस्ट खाद में परिवर्तित हो जाता है जिसे खेतों में खाद के रूप में डालना अधिक हितकारी होगा। घरों, उद्योगों आदि से निकलने वाले अपमार्जन पदार्थ तथा विषैले पदार्थों को नदियों, तालाबों, झीलों आदि में डालने से पूर्व शुद्ध करना चाहिये। इस प्रकार जल प्रदूषण की रोकथाम हो सकती है। इस दिशा में शासन द्वारा कार्य प्रारम्भ किया गया है।
6. जैव नियंत्रकों की खोज-
अभी हाल में ही आस्ट्रेलिया के डेविड वूर्ने ने नदी के पानी में रिफन्गोमोनास वंश के एक ऐसे जीवाणु की खोज की है जिससे तीव्र एन्जाइम्स बनते हैं। एक एन्जाइम्स जिसे माइक्रो सिस्टेम नाम दिया गया है, की आकृति बदलकर मारक क्षमता प्रदान करता है। आस्ट्रेलिया के लोग इस जीवाणु की उत्पत्ति प्रदूषित जल को साफ कराने हेतु कर रहे हैं।
जैव प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत कछुआ प्रदूशित जल को साफ करने में भविष्य में उललेखनीय भूमिका निभाएँगे तथा चम्बल के कछुए प्रदूषित गंगा के जल को श्री शुद्ध करने के लिये भेजे जाने की योजना है क्योंकि कछुए पानी को साफ करते हैं। चम्बल का जल इन्हीं कछुओं के कारण शुद्ध रहता है।
7. अपशिष्ट उपचार (Waste Treatment)-
प्रदूषित जल में उपस्थित अपशिष्ट पदार्थों के उपचार परम्परागत तरीके से काफी खर्चीले हैं। नीरी NEERI (नागपुर) के वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीक विकसित की है जो कम व्यय पर उच्च क्षमता रखती है, जैसे- घरेलू अथवा औद्योगिक अपशिष्ट को उथले तालाब में कुछ दिनों के लिये रखते हैं जिससे जीवाणु तेजी से कार्बनिक अपशिष्टों को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार यह जल सिंचाई के लिए प्रयुक्त हो जाता है।
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