6. Concept of Resources(संसाधनों की अवधारणा)
6. Concept of Resources
(संसाधनों की अवधारणा)
संसाधन का अर्थ
प्रकृति के वे सभी पदार्थ या वस्तुएँ जो मानवजीवन की परिसंपत्ति (assets) बन जाएँ, संसाधन ( resources) कहलाती हैं। दूसरे शब्दों में, पर्यावरण के वे सारे पदार्थ जो मानवजीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सुख-सुविधा प्रदान करने के लिए उपयोगी हों, संसाधन हैं। ये अवयव प्रकृति में विभिन्न रूपों में पाए जाते हैं।
मानव-एक संसाधन के रूप में
मानव शरीर स्वयं भी सबसे बड़ा संसाधन है, क्योंकि इससे जीवन के अनेक कार्य किए जाते हैं; जैसे- बोझा ढोना, कार्यालय का काम आदि। मानव स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने शरीर और अपनी विभिन्न तकनीकों का उपयोग करता है तथा प्रकृति की अन्य वस्तुओं का भी उपयोग करने के लिए अपनी कार्यात्मकता, अर्थात कार्य करने की योग्यता का विकास करता है।
मानवीय क्रियाकलाप सर्वाधिक महत्त्व के हैं। मानव न रहे तो सारे पदार्थ या धन यों ही पड़े रह जाएँगे। अपने अनुपम साहस, अपितु दुःसाहस, पराक्रम, शौर्य, संघर्षशीलता, ज्ञान, विलक्षण प्रतिभा, जिज्ञासा और सूझ-बूझ, अन्वेषण करने की तीव्र उत्कंठा इत्यादि गुणों के कारण मनुष्य सभी प्रकार के संसाधनों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यह स्वयं संसाधन होते हुए भी संसाधनों का उपभोक्ता भी है।
मानव-सभी प्रकार के संसाधनों के निर्माता के रूप में
संसाधन के रूप में किसी पदार्थ का अस्तित्व उसकी उपयोगिता या उपयोगी कार्य/संक्रिया (function/operation) पर निर्भर करता है। कोई पदार्थ जब तक जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होता तब तक वह संसाधन नहीं कहलाता।
छोटानागपुर पठार के खनिज भंडार का युगों तक कोई महत्त्व न था, अतः वे खनिज पदार्थ संसाधन न बन पाए। किंतु, जब खनिजों का महत्त्व समझा जाने लगा और लोगों ने अपनी कुशलता का प्रदर्शन कर उनका निष्कासन आरंभ किया तथा उपयोग करने लगा तब वे खनिज संसाधन बन गए। इन खनिजों ने छोटानागपुर क्षेत्र को आर्थिक विकास का सुअवसर प्रदान किया।
इसी तरह, पश्चिमी घाट के पश्चिमी भाग में जोग जलप्रपात (Jog Falls) युगों तक जल की धारा बहाता रहा, किंतु जब शक्ति के विकास में उसका उपयोग जलविद्युत उत्पादन के लिए किया जाने लगा तब वह संसाधन के रूप में उभर आया।
नदियाँ तभी संसाधन बन पाती हैं जब मानव उनका उपयोग सिंचाई में, जलविद्युत उत्पादन में, मत्स्योद्यम में, जल यातायात में और ऐसी ही अनेक आर्थिक क्रियाओं में करने लगता है। भूगोलवेत्ता जिम्मरमैन ने ठीक ही कहा था कि- “संसाधन हुआ नहीं करते, बना करते हैं।”
संसाधनों का महत्त्व
विश्व में अनेक पदार्थ बिखरे पड़े हैं। मानव पहले उनका पता लगाता है, फिर वह अपनी बुद्धि, प्रतिभा, क्षमता, तकनीकी ज्ञान और कुशलता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, अपने आर्थिक विकास के लिए, उनके उपयोग की योजना बनाता है और उनका उपयोग करता है।
उपयोग में लाकर ही वह उन्हें संसाधन बना पाता है। मनुष्य के आर्थिक विकास के लिए संसाधनों की उपलब्धि अत्यावश्यक है। संसाधनों का महत्त्व इसी तथ्य से स्पष्ट होता है कि इनकी खोज और प्राप्ति के लिए ही मनुष्य कठिन से कठिन परिश्रम करता है। दुर्गम मार्गों पर चलकर दुःसाहसिक यात्राएँ करता है। विश्व के प्रायः सभी युद्ध इन्हीं संसाधनों को पाने या छीनने के लिए हुए हैं।
संसाधनों की परिभाषा
संसाधन को कई रूपों में पारिभाषित किया जा सकता है। मनुष्य अपने जीवन को सुखद-समृद्ध बनाने तथा अपने आर्थिक विकास के लिए जिन वस्तुओं का उपयोग करता है, उनका निर्माण कुछ मूलभूत पदार्थों से होता है। इन मूलभूत पदार्थों को संसाधन कहते हैं।
हमारे वातावरण में विद्यमान वे सभी पदार्थ जो हमें उपलब्ध हो तथा हमारे जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके, वे केवल उसी स्थिति में संसाधन कहे जा सकते हैं जब हमें उन तक पहुँचने की तकनीक ज्ञात हो साथ ही, उनके परिष्करण और परिवर्द्धन के विभिन्न स्तरों पर होनेवाले खर्चे के लिए हमारे पास पर्याप्त धन हो, श्रमशक्ति हो तथा उनके उपयोग करने पर भी हमारी संस्कृति और परंपरा अक्षुण्ण रह सके।
वस्तुतः, व्यापक रूप से मनुष्य की इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाले सभी पदार्थ संसाधन कहे जा सकते हैं। मनुष्य अपनी व्यापक समझ और सूझ-बूझ से अपने तथा विश्व के वातावरण को बिना प्रभावित किए जिन प्रकृतिप्रदत्त वस्तुओं का उपयोग और उपभोग करता है तथा प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखता है उन्हें ही मूलरूप से संसाधन कहा जाता है।
कोई गायक, चित्रकार या साहित्यकार अपने क्रियाकलाप से धन कमाता है तो ये कार्य भी संसाधन कहलाते हैं।
संसाधनों का वर्गीकरण
संसाधनों का वर्गीकरण विभिन्न दृष्टिकोणों से किया जाता है। कुछ वर्गीकरण निम्नलिखित हैं:-
(क) उपलब्धता के आधार पर प्रकृतिप्रदत्त और मानवकृत,
(ख) स्रोत या उत्पत्ति के आधार पर जैविक और अजैविक,
(ग) पुनः प्राप्ति के आधार पर नवीकरणीय और अनवीकरणीय,
(घ) स्वामित्व के आधार पर निजी, सामुदायिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय,
(ङ) विकास के स्तर के आधार पर- संभाव्य, ज्ञात, भंडारित और संचित,
(क) प्रकृतिप्रदत्त और मानवकृत संसाधन:-
प्रकृति में उपस्थित पदार्थों के साथ ही जलवायु, उच्चावच जैसी भौगोलिक परिस्थितियाँ जो मनुष्य के क्रियाकलापों पर व्यापक प्रभाव डालती है, उन्हें प्रकृतिप्रदत्त या प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है। परंतु, केवल उसी स्थिति में जब उन्हें प्राप्त करने और परिष्कृत एवं परिवर्द्धित करने की व्यापक तकनीक उपलब्ध हो तथा उन्हें उपयोगी बनाने हेतु की जानेवाली विभिन्न प्रक्रियाओं के अंतर्गत होनेवाले खर्च को वहन करने के लिए समुचित धन जुटाने की क्षमता हो।
इसी प्रकार, भवन, सड़कें, रेल लाइनें, विभिन्न प्रकार के निर्मित सामान तथा शिक्षण-प्रशिक्षण, खोज और विकास की विभिन्न संस्थाएँ मानवकृत संसाधन कहलाते हैं।
व्यावहारिक रूप में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग मानवीय क्रियाकलापों के प्रथम चरण में किया जाता है, जिसके उपरांत द्वितीयक, तृतीयक और चतुर्थ कोटि के क्रियाकलापों में मुख्यतः मानवकृत संसाधनों का उपयोग किया जाता है।
(ख) जैविक और अजैविक संसाधन:-
जीवमंडल में विद्यमान और उससे प्राप्त होनेवाले विभिन्न प्रकार के जीव जैसे पक्षी, मछलियाँ, पेड़-पौधे और स्वयं मानव भी जैविक संसाधन कहे जाते हैं। जीव जगत के जीवित सदस्यों में संतानोत्पत्ति की क्षमता होती है। अनुकूल प्राकृतिक परिस्थतियों में ये नई संतानों को उत्पन्न करते रहते हैं। अतः, सभी जैविक संसाधन नवीकरणीय संसाधन होते हैं।
इसी प्रकार, वातावरण में उपस्थित सभी प्रकार के निर्जीव पदार्थ; जैसे- खनिज, चट्टानें, मिट्टी, नदियाँ, पर्वत इत्यादि अजैविक संसाधन कहे जाते हैं।
(ग) नवीकरणीय और अनवीकरणीय संसाधन:-
वातावरण में उपलब्ध सूर्य का प्रकाश, हवा, तालाब, झीलें, नदियाँ और समुद्र, मछलियाँ, पेड़-पौधे, उनपर बसेरा लगाए हुए पक्षी एवं वन्य जीव सभी नवीकरणीय संसाधन कहलाते हैं, क्योंकि या तो वे प्राकृतिक रूप से स्वतः उपलब्ध होते हैं या विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक, भौतिक, रासायनिक या जैविक प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न होते रहते हैं। इनमें से वन और वन्य जीव-जंतु, तालाबों और समुद्रों में एकत्रित जल हमेशा उपलब्ध होते हैं। अतः, इन्हें सतत उपलब्ध संसाधन कहते हैं।
सूर्य का प्रकाश वर्ष के कुछ दिनों में प्रचुर मात्रा में मिलता है जबकि वर्षाकाल या अन्य कारणों से कुछ दिनों तक या तो कम उपलब्ध होता है अथवा उसकी तीव्रता कम रहती है। इसी प्रकार, नदियों में बहता जल वर्षाऋतु में बाहर निकलकर बाढ़ के रूप में अभिशाप बन जाता है और संसाधन के रूप में नहीं रह पाता है। हवा भी समान गति से उपलब्ध नहीं रहती और आँधी-तूफान में यह लाभप्रद होने के स्थान पर हानिकारक हो जाती है। इन प्रकार के संसाधनों को प्रवहनीय संसाधन कहते हैं।
कोयला और पेट्रोलियम लाखों वर्षों की जटिल जैव-रासायनिक तथा अन्य भौतिक-रासायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बने है और पृथ्वी के अंदर उनका भंडार जहाँ-तहाँ जमा हो गया है।
धात्विक खनिजों के साथ भी यही स्थिति है। इनका संचित भंडार सीमित है तथा इन्हें अल्पकाल में कृत्रिम रूप से पुनः बनाना प्रायः असंभव है, अर्थात एक बार इनके समाप्त हो जाने के बाद पुनः इन्हें प्राप्त करना संभव नहीं। ऐसे संसाधनों को अनवीकरणीय संसाधन कहा जाता है।
कुछ धातुओं को बार-बार पिघलाकर शोधित करके प्रयोग किया जा सकता है, अर्थात इनका चक्रीकरण हो सकता है जबकि कोयले और तेल को जला देने पर प्राप्त राख से कोयला एवं तेल नहीं बन सकता। इनका उपयोग केवल पुनः एक ही बार हो सकता है। इन्हें अचक्रीय संसाधन कहते हैं।
(घ) निजी, सामुदायिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संसाधन:-
स्वामित्व के आधार पर संसाधन निजी, सामुदायिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय होते हैं। इनका विवरण निम्नलिखित है-
(i) निजी संसाधन-
उपयोग की अनेक वस्तुएँ; जैसे- कृषि भूमि, उद्यान, मकान, कार, मोटर साइकिल, मोबाइल फोन इत्यादि निजी संसाधन हैं। इनका स्वामी अपनी इच्छानुसार इनका किसी प्रकार से किसी भी समय उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होता है।
(ii) सामुदायिक संसाधन-
सामुदायिक संसाधन वे संसाधन हैं जिनका उपयोग समुदाय, गाँव और नगर के सभी लोगों के लिए सुलभ हो। गाँवों में चरागाह, खेल के मैदान, तालाब, श्मशान भूमि, साप्ताहिक बाजारों की भूमि, पंचायत भवन, विद्यालय, पर्यटन स्थल इत्यादि सामुदायिक संसाधन हैं।
(iii) राष्ट्रीय संसाधन-
वैधानिक रूप से किसी राज्य या देश की सीमा के अंदर सभी प्रकार के संसाधनों पर उस राज्य या देश का स्वामित्व होता है। कृषि भूमि को निजी माना जा सकता है, क्योंकि सरकार के द्वारा इसपर खेती करने अथवा निजी उपयोग के लिए किसानों और उपभोक्ताओं को अधिकृत किया गया है जिसके बदले उनसे लगान अथवा अन्य कर लिए जाते हैं।
प्राचीनकाल में राजाओं को राज्य की संपत्ति का स्वामी माना जाता था। वर्तमान काल में यह अधिकार सरकार के पास है, इसीलिए आवश्यकता पड़ने पर सरकार द्वारा सड़क या रेल लाइन बिछाने, नहरों और कारखानों के निर्माण इत्यादि कार्य के लिए किसी भी भूमि का अधिग्रहण कर लिया जाता है। इसके बदले सरकार कुछ मुआवजा राशि भी देती है तथा विस्थापितों के पुनर्वास का प्रबंध किया जाता है, क्योंकि नागरिकों को यह सुविधा प्रदान करना सरकार का प्रमुख उत्तरदायित्व भी है। सागरतटों के पास 12 समुद्री मील, अर्थात 19.2 किलोमीटर तक के महासागरीय क्षेत्र में पाए जानेवाले संसाधन भी देश की संपत्ति हैं।
(iv) अंतरराष्ट्रीय संसाधन-
पृथ्वी के अधिकांश भाग में सागर और महासागर हैं। यथार्थ में मात्र 29 प्रतिशत भूतल ही विभिन्न राष्ट्रों की राष्ट्रीय संपत्ति है और शेष 71 प्रतिशत भाग किसी की अपनी संपत्ति नहीं है। ज्ञातव्य है कि जलीय जीवों के साथ ही विभिन्न संसाधनों का विपुल भंडार इन समुद्रों में विद्यमान है। इनके उपयोग के लिए कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ हैं। अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार, सागरतट से 200 किलोमीटर तक के महासागरीय क्षेत्र को किसी देश का अपवर्जक आर्थिक क्षेत्र माना जाता है जहाँ से मछलियाँ पकड़ने तथा भूतल से धातुएँ एवं अन्य वस्तुएँ प्राप्त करने का उसे अधिकार है, परंतु अन्य देशों के जहाजों के परिवहन अथवा अन्य उपयोगों की भी स्वतंत्रता रहती है।
(ङ) संभाव्य, ज्ञात, भंडारित और संचित संसाधन-
विकास के स्तर के आधार पर संसाधनों की निम्नलिखित चार श्रेणियाँ होती हैं-
(i) संभाव्य संसाधन-
ऐसे सभी संसाधन जिनका उपयोग किया जा सके, भले ही उचित तकनीक, अर्थाभाव या अन्य किसी कारण से उनका उपयोग नहीं होता हो, संभाव्य संसाधन कहे जाते हैं। उदाहरणस्वरूप, भारत में पेट्रोलियम मिलने की संभावना पूर्वी और पश्चिमी तटों के साथ ही असम, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान इत्यादि अनेक स्थानों पर है, परंतु केवल असम तथा पश्चिमी घाट के पास से लगभग 20 प्रतिशत पेट्रोलियम निकाला जा सका है।
इसी प्रकार, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, सागरीय ज्वार ऊर्जा इत्यादि के लिए भारत में अपार संभावना है, परंतु कुछ ही स्थानों पर इनका उपयोग हो पाता है सस्ती, सुगम तकनीक के विकास से इनके उपयोग की बड़ी संभावना है अन्वेषण या सर्वे (survey) विभाग द्वारा इनकी खोज की जाती है।
(ii) ज्ञात संसाधन-
जिन संसाधनों को ढूंढकर उनका उपयोग किया जाता हो उन्हें ज्ञात संसाधन कहते हैं, जैसे असम, बॉम्बे हाई. गुजरात के तेल कूपों से पेट्रोलियम निकाला जा रहा है। ज्ञात संसाधन वे संसाधन है जिनकी तकनीक विकसित हो चुकी हो तथा सार्थक उपयोग ज्ञात हो।
(iii) भंडारित संसाधन-
विकसित देशों ने ऐसी तकनीकों की खोज की है जिनसे पृथ्वी के अंदर उपस्थित खनिजों की पहचान संभव हो सकी है। विकसित देश कई किलोमीटर गहराई तक भूतल को भेदकर खनिज निकालते हैं जबकि भारत जैसे विकासशील देश एक किलोमीटर से अधिक गहराई तक नहीं खोद पाते। अविकसित देशों में तो इतना भी उपयोग नहीं हो पाता।
अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की नदियों की विपुल जल राशि व्यर्थ बहकर समुद्र में गिरती है, परंतु अपार संभावनाओं के बाद भी तकनीक और धन के अभाव में जलविद्युत का उत्पादन नहीं हो पाता। यह संसाधन भंडारित नहीं हो पाता है। वस्तुतः इसके विकास से ही अर्थव्यवस्था में व्यापक परिवर्तन संभव है।
(iv) संचित संसाधन-
कुछ संसाधन जिनके उपयोग करने की तकनीक ज्ञात हो, परंतु और सस्ती तकनीक के अभाव अथवा अन्य कारणों से उनका उपयोग वर्तमान में न होता हो तथा भविष्य में उपयोग करना संभव हो, उन्हें संचित संसाधन कहते हैं। अमेरिका के तटीय प्रदेशों में पेट्रोलियम का प्रचुर भंडार है, परंतु वह खाड़ी या अन्य देशों के पेट्रोलियम का उपयोग करता है। इन भंडारों के समाप्त होने पर ही अपने संचित भंडारों का उपयोग करेगा।
इसी प्रकार, हाइड्रोजन गैस सर्वोत्तम ईंधन है और इसे पानी से प्राप्त किया जा सकता है। पानी नदी, तालाब और समुद्रों में आसानी से बड़ी मात्रा में उपलब्ध भी है। फिर भी, इसका उपयोग सीमित मात्रा में ही होता है, क्योंकि इसे पानी से अलग करना कुछ कठिन है। परंतु, पेट्रोलियम के सीमित भंडार के समाप्त होने पर एकमात्र हाइड्रोजन ईंधन ही ऊर्जा का प्रमुख साधन होगा। अभी इसे भंडारित संसाधन भी कहा जा सकता है और संचित भी।
प्रायः, संचित भंडार के कुछ भाग को ज्ञात तकनीक द्वारा उपयोग में लाया जाता है और शेष भाग को भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखा जाता है। सिंचाई के लिए नदियों से नहरें निकाली जाती है, परंतु बरसात के दिनों में इनका उपयोग नहीं होता। खेतो में वर्षा जल प्राप्त होता रहता है। इस समय नहरों में जमा जल संचित भंडार है जिसका उपयोग वर्षा के बाद सिंचाई के लिए किया जाता है।