Unique Geography Notes हिंदी में

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REGIONAL GEOGRAPHY (प्रादेशिक भूगोल)

6. The Concept of Regional Development (प्रादेशिक विकास की अवधारणा)

6. The Concept of Regional Development

(प्रादेशिक विकास की अवधारणा)



        Regional Development

             भूगोल की संकल्पना में प्रदेश अन्तर्निहित है। वास्तव में प्रदेश भूगोल की आत्मा है। प्रदेश का गठन, उसका संगठन, गत्यात्मकता और विकास ऐसे शब्द हैं, जिनकी उल्लेख भूगोल की प्रत्येक शाखा में किया गया है। कहीं यह उल्लेख प्रत्यक्ष होता है, तो कहीं परोक्ष।

         एक क्षेत्रीय विज्ञान के नाते तथा पृथ्वी सतह से सम्बन्धित होने के कारण भूगोल में मनुष्य एवं पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है। कहीं प्रदेश विधि अथवा उपागम के रूप में स्पष्ट होता है, कहीं किसी प्रदेश का क्रमबद्ध विधि से अध्ययन होता है अथवा क्रमबद्ध अध्ययन का आधार ही प्रदेश है। अतः भूगोल एवं प्रादेशिक विकास एक-दूसरे के पूरक हैं।

         पर्यावरण के विभिन्न तथ्यों के विस्तृत विवरण का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि सभी भौतिक तथ्य धरातल पर असमान रूप में वितरित है। जिन क्षेत्रों में प्राकृतिक तथ्य मानव निवास के अनुकूल हैं, उन्हीं क्षेत्रों में मानव सृजित वातावरण के तथ्य आसानी से केन्द्रित हो जाते हैं। इस तरह वहाँ मानवीय और भौतिक तथ्यों के बीच अल्पावधि में अन्तर्क्रिया सम्पन्न होती हैं। अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा विकास वहाँ पहले दृष्टव्य होता है।

            इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिन क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधन नहीं हैं, वहाँ विकास प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं होगी, ऐसे क्षेत्रों में भी मानवीय कारकों की प्रधानता रहने पर विकास प्रक्रिया प्रारम्भ अवश्य होगी लेकिन संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों की तुलना में यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत देर से प्रारम्भ होगी।

         यही कारण है कि विकास में क्षेत्रीय असमानता मिलती है। भूगोल में इसलिए विकास या आर्थिक विकास को प्रादेशिक विकास कहा जाता है। भौगोलिक रूप में इसको परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि “प्रादेशिक विकास मानवीय क्षमता और प्राकृतिक तथ्यों के गत्यात्मक अन्तर्क्रियात्मक अन्तर्सम्बन्धों के परिणामस्वरूप घटित क्षेत्रीय संरचनात्मक प्रत्यावर्तन से सम्बन्धित हैं।” यह प्रत्यावर्तन मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों स्तरों पर घटित होता है।

           स्पष्ट है कि क्षेत्रीय पक्ष प्रादेशिक आर्थिक विकास का मौलिक पक्ष है। इसलिये यह भौगोलिक अध्ययन का विषय है। लेकिन 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भूगोलवेत्ताओं ने इस ओर कोई रुचि नहीं ली थी। वास्तव में उस समय भूगोल का उद्देश्य विभिन्न देशों एवं क्षेत्रों की विशिष्टताओं को स्पष्ट करना ही था। इसी विशिष्ट वर्णनात्मक उपागम के कारण भूगोलवेत्ताओं का मुख्य उद्देश्य क्षेत्रीय विभिन्नता का वर्णन करना था। भूगोलवेत्ताओं ने आर्थिक विकास का अध्ययन द्वितीय महायुद्ध के बाद करना प्रारम्भ किया।

       इस समय लगभग साम्राज्यवाद और औपनिवेशीकरण समाप्त हो गया था। विभिन्न स्वतंत्र देश अपने संसाधनों के आधार पर आर्थिक विकास कर रहे थे। यूरो-अमेरिकी देश अपेक्षाकृत अधिक विकसित हो रहे थे, जबकि नये स्वतंत्र देश विकास प्रक्रिया को प्रारम्भ कर रहे थे।

          ऐसे समय ही विकसित देश विश्व का ‘विकसित’, ‘विकासशील’ और ‘अविकसित’ वर्गों में विभाजन करके विभिन्न विषयों का अध्ययन करने लगे। तत्कालीन भूगोलवेत्ताओं ने भी विकसित और अवकिसित देशों के मध्य विकास प्रतिरूप में अन्तर के कारणों को जानने हेतु आर्थिक विकास का अध्ययन प्रारम्भ किया।

          डडले स्टैम्प, नार्टन गिन्सबर्ग आदि भूगोलवेत्ताओं ने सर्वप्रथम आर्थिक विकास और प्राकृतिक पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन प्रस्तुत किया। कालान्तर में नार्टन गिन्सबर्ग ने ‘भूगोल एवं आर्थिक विकास’ (Essays on Geography and Economic Development) नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया। यह विभिन्न चरों पर आधारित विश्वस्तरीय आर्थिक विकास का प्रादेशिक वर्गीकरण था।

        इसी तरह अन्य भूगोलवेत्ताओं ने प्रारम्भिक स्तर पर आर्थिक विकास पर पर्यावरण के समग्र प्रभाव का भी वर्णन किया। आर्थिक विकास को निर्धारित करने वाले विभिन्न चरों के वितरण प्रकृति के आधार पर सामान्यीकरण एवं सिद्धान्त निरूपण केवल कुछ ही भूगोलवेत्ताओं ने किया, जिसमें गिन्सबर्ग, उलमान और हार्टशोर्न उल्लेखनीय हैं। तदुपरांत भारत के भूगोलवेत्ताओं ने आर्थिक विकास के विभिन्न आयामों का भौगोलिक वर्णन करके सामान्यीकरण और मॉडल निर्माण करना प्रारम्भ किया है।

      भारतीय भूगोलवेत्ताओं में आर० पी० मिश्रा, के० वी० सुन्दरम, वी० एल०एस० प्रकाशराव, मुनीस रजा, एल० के० सेन, डी० के० सिंह, जे०के० राउतराय, सुधीर वनमाली, पी०आर० चौहान, वी० के० श्रीवास्तव, नंदेश्वर शर्मा आदि ने भी आर्थिक विकास के विभिन्न पक्षों का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया है।

आर्थिक विकास एवं प्राकृतिक- मानवीय तथ्य

       आर्थिक विकास का अध्ययन करते समय भूगोलवेत्ताओं का उद्देश्य उन कारकों का वर्णन करना होना चाहिये, जिससे विकास में असमानता होती है। ऐसे तत्त्वों में सर्वप्रथम प्राकृतिक तत्त्वों यथा- भूमि, जलवायु, खनिज, ऊर्जा संसाधन, वनस्पति आदि में क्षेत्रीय अन्तर मिलता है। ये सभी प्राकृतिक तत्त्व किसी भी क्षेत्र के आर्थिक विकास के लिये उत्तरदायी हैं लेकिन मात्र इन्हीं के क्षेत्रीय वर्णन से विकास की असमानता का विश्लेषण नहीं किया जा सकता।

        विश्व में क्षेत्रीय आधार पर वितरित विभिन्न संस्कृति और सभ्यताएँ तंत्र और संसाधनों के दोहन का उद्देश्य प्राकृतिक तत्त्वों की अपेक्षा अधिक सशक्त रूप से विकास की असमानता को स्पष्ट करते हैं। बल्कि भौगोलिक रूप से सच यह है कि प्राकृतिक तत्त्व तो निर्जीव रूप से स्थिर हैं। मानवीय विशेषताएँ ही इन तत्त्वों के दोहन का प्रतिरूप निर्धारित करके विकास प्रतिरूप को अस्तित्व में लाती है। इसलिये भूगोल में आर्थिक विकास के निर्धारकों में प्राकृतिक तत्त्वों से अधिक महत्त्व मानवीय तत्त्वों को दिया जाना चाहिये।

       हार्टशोर्न के अनुसार क्षेत्रीय आधार पर अन्तर इन्हीं तत्त्वों के कारण उत्पन्न होता है। यही कहा जा सकता है कि किसी क्षेत्र विशेष की भौतिक स्थिति, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संगठन, वहाँ निवास करने वाली जनसंख्या की क्षमता को उसकी आवश्यकताओं और उद्देश्यों को पूरा करने के लिये निर्देशित करते हैं। इसलिये भूगोल में विकास का अध्ययन उत्पादन और प्राकृतिक संसाधनों के सन्दर्भ में न करके उत्पादन और जनसंख्या के सन्दर्भ में ही करना चाहिये, क्योंकि आर्थिक विकास का अन्तिम उद्देश्य भी मानव कल्याण हैं।

      विकास प्रतिरूप का भौगोलिक अध्ययन करते समय प्राकृतिक तत्त्वों के साथ-साथ मानव की भौतिक आवश्यकताओं और उनके प्रति उसके दृष्टिकोण का भी अध्ययन होना चाहिए। क्षेत्रीय आधार पर मानव समूहों की कुछ समान आवश्यकताएँ हैं, जैसे- भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य आदि। इनकी पूर्ति मानव के हर कार्य का मुख्य उद्देश्य है। इसको प्राप्त करने के लिये मनुष्य संसाधनों से अन्तर्क्रिया करता है। इससे विकास घटित होता है। चूँकि मानव की इच्छाओं, आवश्यकताओं और उसकी क्षमताओं में पर्याप्त वैभिन्य है। इसलिये विकास प्रतिरूप में भी विभिन्नता का मिलना स्वाभाविक है।

       अतः अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, स्थानीय अथवा मानवीय समूह यहाँ तक कि नितान्त व्यक्तिगत स्तर पर विकास का अर्थ अलग-अलग होना अपरिहार्य है। मालकम आदिशेषैया ने सही कहा है कि एक पूर्ण विकसित औद्योगिक समाज में और पारम्परिक समाज में विकास का अभिप्राय अलग-अलग होना निश्चित है क्योंकि दोनों समाजों के मनुष्यों की आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, जीवनयापन का ढंग, प्राविधिक स्तर अलग-अलग प्रकार के हैं। आवश्यकताओं एवं इच्छाओं में यह अन्तर विकास हेतु भी विभिन्न प्रकार की तकनीक पर आधारित है। यह तकनीक भी क्षेत्र विशेष की भौतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर आधारित होती है।

       भौगोलिक विश्लेषण से यह भी स्पष्ट होता है कि प्राकृतिक तत्त्वों के अतिरिक्त विकास प्रतिरूप को निर्धारित करते हैं। भौतिक (पदार्थगत) तत्त्वों में परिवहन, वित्त, शक्ति के साथ-साथ संसाधन (कच्चे माल) हैं, जबकि अभौतिक तत्त्वों में श्रम, विपणन, उद्यम आदि हैं। ये सभी एक-दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित होकर ही विकास प्रतिरूप को निर्धारित करते हैं।

      यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि किन्हीं एक या दो तत्त्वों के अभाव से क्षेत्र का विकास प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि ऐसे तत्त्वों को आयात करके या उनका विकल्प खोलकर विकास किया जा सकता है। इसीलिये हार्टशोर्न का मत है कि विकास में अन्तर का मिलना प्राकृतिक संसाधनों में अन्तर का ही परिणाम नहीं है बल्कि मानवीय या अभौतिक कारक इस अन्तर के लिये अधिक उत्तरदायी है।

      उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि भूगोल में आर्थिक विकास की संकल्पना क्षेत्रीय संदर्भ लेकर ही की जा सकती है। इस तरह प्रादेशिक विकास के रूप में आर्थिक विकास का एक मात्र उद्देश्य भूगोल में प्रति व्यक्ति आय अथवा राष्ट्रीय आय में वृद्धि ही नहीं है बल्कि इसमें भौतिक और अभौतिक कारकों द्वारा समन्वित रूप में मानव के सन्दर्भ में किया जाने वाला आर्थिक विकास सम्मिलित है। भूगोल का उद्देश्य इन कारकों के वितरण अन्तर, अन्तर्सम्बन्ध और पारस्परिक अन्तरक्रिया का विश्लेषण करके विकास के सम्बन्ध सामान्यीकरण करना होना चाहिये।

निष्कर्ष

      विकास की प्राचीन अवधारणा से लेकर द्वितीय महायुद्धोत्तरकालीन संकल्पना और भूगोल में विकास की संकल्पना के उपर्युक्त विश्लेषण से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं:-

(i) विकास अन्तर्विषयक, अन्तरप्रखण्डीय और बहुआयामी शब्द हैं।

(ii) मौलिक रूप में विकास का अभिप्राय आर्थिक विकास ही है। यह आर्थिक विकास भी क्षेत्रीय सन्दर्भ में सामाजिक न्याय और सहभागिता की विशेषता से युक्त है।

(iii) विकास की संकल्पना आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भों में एक देश से दूसरे देश, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र, एक समाज से दूसरे समाज अथवा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के सन्दर्भ में अलग-अलग होती हैं।

(iv) विकास के सन्दर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि किसी क्षेत्र का संसाधन आधार ही उसके विकास का एक मात्र कारण नहीं है बल्कि मानवीय तत्त्व की प्रकृति एवं प्रतिरूप अधिक उत्तरदायी हैं।

(v) क्षेत्र विशेष में विद्यमान राजनीतिक तंत्र विकास को निश्चित दिशा देकर उसे नियोजित करते हैं।

(vi) विकास का सर्वप्रमुख उद्देश्य मानव कल्याण है और यह मानव कल्याण भी सम्पूर्ण मानव समुदाय के सन्दर्भ में होना चाहिये इसलिये विकास तभी तक  उपयुक्त एवं प्रासंगिक है, जब तक कि उसमें असमानता न्यूनतम स्तर पर रहती है।

(vii) विकास की संकल्पना गत्यात्मक है। अविकसित और पिछड़े समाज या क्षेत्र के विपरीत विकसित अथवा औद्योगिक समाज के सन्दर्भ में, इसकी संकल्पना अलग-अलग है, क्योंकि दोनों की आवश्यकताओं एवं क्षमताओं में पर्याप्त अन्त मिलता है। इसलिये सामाजिक प्रत्यावर्तन के साथ ही साथ विकास की संकल्पना भी परिवर्तित होती जाती है।

प्रश्न प्रारूप

 1. प्रादेशिक विकास की अवधारणा प प्रकाश डालें।

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I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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