32. भारत में बाढ़ के कारण, प्रभावित क्षेत्र एवं समाधान
32. भारत में बाढ़ के कारण, प्रभावित क्षेत्र एवं समाधान
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार “बाढ़ वह स्थिति है जब नदी का जल खतरे के निशान से ऊपर बहने लगती है।” खतरे का निशान स्तर 50 वर्षों के औसत प्रवाह का स्तर है। संपूर्ण भारत में 80 नदियों के जलस्तर के गहन अध्ययन के बाद खतरे का निशान का निर्धारण किया गया है।
बाढ़ के लिए अनेक भौगोलिक कारक जिम्मेदार है जिसकी चर्चा नीचे के शीर्षक में किया जा रहा है-
(i) मानसून की अनिश्चिता-
मानसून अपने अनिश्चिता के लिए विश्व प्रसिद्ध है। अति अनुकूल मानसून के स्थिति में भारी वर्षा होती है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करती है। मानसून के अनिश्चितता की व्याख्या करने के लिए तापीय सिद्धांत, पछुआ हवा सिद्धांत, जेट स्ट्रीम सिद्धांत और एल-नीनो सिद्धांत दिया गया है। लेकिन अंतिम दो सिद्धांत ज्यादा प्रासंगिक है।
(ii) वनों का विनाश और मृदाक्षरण-
वनों के विनाश से सतह की मिट्टी कमजोर होती है और कमजोर होने की स्थिति में वर्षा के बाद मिट्टी का तेजी से अपरदन होता है जिससे चट्टानें नग्न अवस्था में आ जाती है। जिसके परिणामस्वरूप नग्न चट्टानों में ग्राहय क्षमता निम्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में जब पुनः वर्षा होती है तो बहाव तेज हो जाता है और बेसिन क्षेत्र में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। शिवालिक प्रदेश में और मुख्यतः हिमाचल प्रदेश में जलस्तर का गिरना और पंजाब में बाढ़ आने की समस्या इससे जुड़ी हुई है।
उत्तर-पूरब भारत और गढ़वाल क्षेत्र में भी इसी के कारण गंभीर समस्या उत्पन्न हुई है। हाल के वर्षों में राजस्थान और गुजरात आदि जैसे राज्यों में भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती रही है। यह निम्न वर्ष का क्षेत्र है लेकिन जब आकस्मिक तीव्र वर्षा होती है तो नग्न चट्टानों पर जल का बहाव तेजी से होता है और आकस्मिक बाढ़ की स्थिति को उत्पन्न करता है।
(iii) नदी के ताली में मालवों का जमाव-
खास करके मैदानी भारत में नदियों का ढाल अत्यंत ही निम्न है। ऐसी स्थिति में चौड़ी घाटी के तली पर मलवे का जमा हो जाता है और मानसून ऋतु में जलस्तर तेजी से ऊपर उठ जाता है और उसके आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम में आने वाले बाढ़ इसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है।
(iv) नदियों के स्रोत क्षेत्र में भारी वर्षा का होना-
हिमालय का दक्षिणी ढाल पर वर्षा अत्यधिक होती है। इसका परिणाम यह है कि मैदानी क्षेत्र में कम वर्षा के बावजूद बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। जैसे वर्षा नेपाल में होने के कारण उत्तर बिहार में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है।
(v) नदियों के मोड़दार प्रवाह-
मोड़दार नदियों के प्रवाह से भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। यह स्थिति मुख्यत: पूर्वी गंगा के मैदान में देखने को मिलती है। पश्चिमी पंजाब और हरियाणा में समानांतर बहने वाली नदियों का जल वृहत क्षेत्र में नहीं फैलता है जबकि पूर्वी भारत की मोड़दार नदियां जल को बहुत क्षेत्र में फैला देती है।
(vi) उच्च ज्वार-
तटवर्ती क्षेत्रों में चक्रवात के साथ आने वाले उच्च ज्वार भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करती है। ऐसी स्थिति में नदी का मुहाना बंद हो जाता है और नदी का जल पीछे धकेला जाने लगता है जिससे नदियों के जलस्तर में उछाल आता है। उठता हुआ जल वृहत क्षेत्र में फैल जाता है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करती है। इसी प्रक्रिया से गोदावरी, महानदी, कृष्ण, कावेरी आदि के बेसिन क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करती है।
(vii) भूस्खलन-
उत्तरी-पूर्वी भारत के हिमाचल प्रदेश में भू-स्खलन से भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। इसमें बड़े-बड़े चट्टानी टुकड़े भूस्खलित होकर नदियों में चली जाती है और मार्गों को अवरुद्ध कर देती है जिससे नदियों के ऊपरी भाग में पानी फैल कर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करती है। हिमाचल प्रदेश में तिब्बत की ओर से आने वाली पारछु नदी के कारण कुछ वर्ष पहले ही गंभीर बाढ़ की समस्या उत्पन्न हुई थीपरिछु नदी
(viii) नदियों के द्वारा मार्ग परिवर्तन-
पृथ्वी के घूर्णन गति के प्रभाव के कारण मैदानी भारत की नदियां मार्ग परिवर्तन करती रहती है क्योंकि उत्तर भारत की नदियां प्राय: उत्तर से दक्षिण की तरफ बहती है लेकिन घूर्णन गति पश्चिम से पूर्व की ओर होती है। ऐसी स्थिति में बड़ी नदियों के जाल में घूर्णन के विपरीत दिशा में प्रवाह की प्रवृत्ति विकसित होती है, जिसे नदियों के पश्चिमी तट का अपरदन अधिक होता है। ऐसी स्थिति में नदी में स्थानांतरण की प्रवृत्ति होती है जिससे कई नदियों के द्वारा पुराना मार्ग का निर्माण हो जाता है। वहां वर्षा के दिनों में जल जमाव की स्थिति होती है जो की बाढ़ की स्थिति का दो तक द्योतक है।
(ix) पठारीय स्थित-
पठारीय क्षेत्रों से निकलने वाली नदियों में भी बाढ़ आती है। यहां धरातल पर अगम्य चट्टानों की उपस्थिति तथा तीव्र वर्षा के कारण बार की स्थिति उत्पन्न होती है। लेकिन बाढ़ की अवधि लंबी नहीं होती है। नदियों के ढाल तीव्र होते हैं, इसलिए पानी तुरंत बह जाती है।
(x) गंगा द्वारा सहायक नदी के जल स्रोतों में अवरोध-
गंगा मैदानी भारत की रीढ़ के समान एक विशाल नदी है जिसमें उत्तर एवं दक्षिण दिशा से आकर अनेक नदियां मिलती है। जब गंगा का जलस्तर खतरे के निशान को पार कर रहा होता है, ठीक उसी समय अगर सहायक नदियों का भी जलस्तर ऊपर उठने लगता है तो सहायक नदी के जल को गंगा ग्रहण नहीं कर पाती है जिसके परिणामस्वरुप सहायक नदियों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। इसी तरह नदियों के संगम वाले स्थान पर सहायक नदी गंगा के स्वतंत्र जल के प्रवाह को बाधित करती है, जिसके कारण ऊपरी क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है।
(xi) उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र की बनावट-
उत्तर भारत का मैदानी क्षेत्र हिमालय और प्रायद्वीपीय भारत के बीच कभी टेथिस सागर का गर्त रहा है। इसी में मालवा के जमाव से मैदानी क्षेत्र का यहाँ निर्माण हुआ है। यह क्षेत्र आज भी टेथिस सागर के छाड़न क्षेत्र के रूप में जो वर्षा ऋतु में अस्थाई समुद्र में बदलकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करती है।
(xii) मानवीय कारण-
मानव निर्मित बड़े-बड़े बांधों का जलस्तर जब ऊपर उठने लगता है तो अचानक जल को छोड़ दिया जाता है जिसके कारण निम्न मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। फरक्का बांध के कारण बांग्लादेश में बाढ़ आती है। मैटूर डैम के कारण कावेरी के डेल्टाई क्षेत्रों में बाढ़ आती है। टिहरी के कारण उत्तर प्रदेश और बिहार में बाढ़ आने की संभावना रहती है।
आधुनिक युग में नगरीय बाढ़ की समस्या भी उत्पन्न होने लगी है जो पूर्ण रूपेण मानवीय कर्ण के कारण उत्पन्न होती है। जैसे नगरों में मकानों के जंगल कंक्रीट के द्वारा खड़ा किया जा रहा है। जल रिचार्ज वाले क्षेत्रों पर मकान बना दिए गए हैं। नालियों में पॉलिथीन के जमाव के कारण प्रवाह रुक जाने से आकस्मिक वर्षा होने पर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है।
बाढ़ वाले क्षेत्रों का वितरण
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार भारत में 342 मिलियन हेक्टेयर भूमि बाढ़ से प्रभावित है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्र मुख्यतः पूर्वी भारत में स्थित है। गहनता के दृष्टि से असम सर्वाधिक प्रतिकूल क्षेत्र है लेकिन वास्तविक हानी के दृष्टि से उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य प्रमुख है।
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, असम और आंध्र प्रदेश ऐसे राज्य है जहां प्रतिवर्ष बाढ़ आते हैं। कुल हानि का दो-तिहाई भाग उत्तर प्रदेश, बिहार और आंध्र प्रदेश में होता है। 60% बाढ़ प्रभावित क्षेत्र गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र में स्थित है और बाढ़ के विभिषका के लिए कभी कोसी, दामोदर, ब्रह्मपुत्र आदि नदियां प्रसिद्ध थी। कभी कोसी बिहार का शोक तो दामोदर को बंगाल का शोक कहा जाता था लेकिन वर्तमान समय में कुछ नवीन नदियां भी बाढ़ प्रभावित क्षेत्र को विस्तार दिए हैं जिसमें महानदी और तीस्ता नदी प्रमुख है।
बाढ़ के प्रभाव का समय सभी क्षेत्रों में एक समान नहीं होता है। सबसे लंबी अवधि ब्रह्मपुत्र के मैदान में होती है जहां प्रतिवर्ष बाढ़ का प्रभाव 6 सप्ताह तक या अधिक रहता है। उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में इसका प्रभाव 4 से 6 सप्ताह होते होता है।
पूर्वी तटवर्ती मैदानी और डेल्टाई क्षेत्रों में इसका प्रभाव 1 से 3 सप्ताह तक रहता है तथा पंजाब, नर्मदा और ताप्ती के घाटियों में सामान्यत: इसका प्रभाव एक सप्ताह होता है और आकस्मिक बाढ़ वाले क्षेत्रों में गुजरात, राजस्थान और पूर्व के पर्वतीय क्षेत्र में इसका प्रभाव एक सप्ताह से कम होता है। लेकिन उत्तर-पूर्वी भारत में बाढ़ के बारंबारता अधिक होने के कारण कुल प्रभाव का समय 4 सप्ताह से अधिक हो जाता है। बाढ़ प्रणव क्षेत्र को नीचे के मानचित्र में देखा जा सकता है।-
समाधान हेतु किया गया प्रयास-
आजादी के पूर्व इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया था। जो भी प्रयास हुए हैं वह आजादी के बाद के हैं। इन प्रयासों में नदी घाटी प्रदेश के विकास की एकीकृत योजना सबसे प्रमुख है। इसके अंतर्गत बहुउद्देशीय नदी घाटी योजना सबसे प्रमुख है। यह ऐसी योजना है जो बाढ़ और सुखे दोनों ही समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है। दामोदर पर डीवीसी और कोसी पर हनुमान नगर में, गंडक पर भैंसा लोटन में बांध बनाकर बाढ़ की समस्या एवं प्रभाव को कम किया गया है।
इस योजना के साथ वनों का विकास, वृक्षारोपण तथा मृदा संरक्षण जैसी भी एकत्रित योजनाएं चल रही है। सामाजिक वानिकी का कार्यक्रम संपूर्ण भारत में चलाया जा रहा है। वन रोपण कार्यक्रम में नदी के स्रोत क्षेत्र में प्रमुख रूप से वृक्ष लगाए जा रहे हैं ताकि मृदा कटाव को रोककर बार की समस्या को कम कर सके।
बाढ़ नियंत्रण के लिए अनेक विशिष्ट कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। ऐसे कार्यक्रमों में मृदा संरक्षण हेतु बेडिंग तथा कंटूर कृषि का विकास किया जा रहा है। बेडिंग के तहत छोटी-छोटी सरिताओं के प्रवाह को बाधित करने का प्रयास किया जाता है जबकि कन्टूर कृषि के तहत पहाड़ी क्षेत्रों में समोच्च रेखा के सहारे जुताई का कार्य किया जाता है ताकि मृदा का अपरदन न हो सके।
भारत में पर्वतीय क्षेत्रों एवं वन्य क्षेत्रों में झूम कृषि के द्वारा वनों का विनाश हो रहा है। अतः इसे रोकने के लिए 1976 ई० में ही “झूम प्रीवेंशन फार्मिंग एक्ट” का निर्माण किया गया था। इससे वनों का संरक्षण होगा और बंजर भूमि का विकास नहीं होगा इससे बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी।
बाढ़ के प्रभाव को रोकने के लिए बाढ़ के पूर्व सूचना देने का भी प्रयास किया जा रहा है और इस दिशा में विशेष कार्य भारतीय बाढ़ आयोग और भारतीय मौसम विज्ञान ने किया है। वर्तमान समय में कृत्रिम उपग्रहों का सहारा लेकर सात केन्द्रों पर बड़े और 147 स्थानों पर छोटे भविष्यवाणी केंद्र स्थापित किए गए हैं। इनका 57% भविष्यवाणी सही रहता है। बड़े केंद्र के रूप में है- भुवनेश्वर में महानदी पर, दिल्ली में यमुना नदी पर, गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र नदी पर, जलपाईगुड़ी में तीस्ता नदी पर, लखनऊ में गोमती नदी पर, पटना में गंगा पर और सूरत में ताप्ती नदी पर स्थापित किया गया है।
बाँध, तटबंध, विशिष्ट प्रकार के खुले पूल और जल निकासी का विकास कार्य भी वृहत स्तर पर किया गया है। जिसका मुख्य उद्देश्य बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की सुरक्षा है। इन बचाव कार्यक्रम के तहत 1954 से 1987 के बीच 14511 किलोमीटर तटबंधों का निर्माण किया गया था। 2838 किलोमीटर जल निकासी का विकास किया गया था।
नदी के तली से मलवों को निकालने का कार्यक्रम बहुत खर्चीला है। सामान्यत: यह कार्य उन क्षेत्रों में किया जा रहा है जहाँ नदी का उपयोग नावों के लिए किया जाता है।
ऊपर वर्णित कार्यक्रमों के लिए प्रत्येक पंचवर्षीय योजनाओं में बाढ़ हेतु विशिष्ट राशियों का आवंटन होता है। जैसे प्रथम पंचवर्षीय योजना में 13.77 करोड रुपए आवंटित किए गए थे। जबकि आठवीं में 1623 करोड रुपए जारी किए गए थे।
बाढ़ की समस्या से निपटने हेतु कई तात्कालिक कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। इसके लिए पैसों का आवंटन वार्षिक बजट में किया जाता है। आठवीं वित्त आयोग के अनुसार हानि की समीक्षा का कार्य केंद्र सरकार का होगा। केंद्र द्वारा समीक्षा कर केंद्रीय सहयोग शुरू किया जाएगा। सरकार बाढ़ संभावित वाले क्षेत्र से बचाकर सुरक्षित स्थानों पर ले जाती है।
बाढ़ आ जाने पर बाढ़ राहत कार्यक्रम चलती है। हेलीकॉप्टर, गोताखोरों, प्लास्टिक बोट का सहारा लेती है। भोजन के पैकेट का वितरण करती है। पेयजल हेतु जलापूर्ति किया जाता है। मवेशियों हेतु चारा उपलब्ध कराए जाते हैं। बाढ़ समाप्त होने पर अनेक संक्रामक बीमारियों से बचाव हेतु टीका, दवा का प्रबंध करती है। जल निकासी, संचार व्यवस्था और परिवहन आदि का प्रबंध किया जाता है। केंद्र एवं राज्य सरकारों के अलावे स्वंय सेवी संस्थाओं का भी सहारा लिया जाता है।
सुझाव-
यद्यपि बाढ़ की समस्या से निपटने हेतु कई प्रयास किया जा रहा है फिर भी समस्या लगभग यथावत है। अतः इस समस्या से निपटने हेतु और अधिक पेनिट्रेटिव योजनाओं की जरूरत है। पुनः टिकाऊ विकास नीति के अंतर्गत ऐसी योजनाओं की जरूरत है जिसमें पर्यावरण के असंतुलन किए बगैर इन समस्याओं का समाधान किया जा सके।
बाढ़ एवं जल जमाव वाले क्षेत्रों में ऐसी कृषि का विकास किया जाए जो बाढ़ के स्थिति में भी उग सके। जैसे चावल के ऐसे किस्म विकसित किए जाए जो 15 से 20 दिन तक चल मग्न रहने पर भी स्वस्थ रहें। द्वितीय जल कृषि का विकास किया जाए। इसके लिए मखाने, सिंघाड़े की खेती किया जा सकता है तथा बड़े पैमाने पर मछली का पालन किया जा सकता है।
बाढ़ वाले क्षेत्रों में निर्माण तकनीक को विकसित किया जाए। बाढ़ वाले क्षेत्रों में सीमेंट एवं ईट से मकान निर्माण की गतिविधि को प्रोत्साहित किया जाए।
बाढ़ वाले क्षेत्रों में ऐसे पुल निर्माण तकनीक पर बल दिया जाए जिससे जल ऊपर एवं नीचे दोनों से आसानी से बह सके। इसके लिए खुला पुल का निर्माण सर्वाधिक उपयोगी होगा। इसके साथ ही वानिकी कार्यक्रम और अन्य विकास कार्यक्रम को भी तीव्रता से लागू करने की आवश्यकता है।
भारत में बाढ़ नियंत्रण में सबसे बड़ी बाधा नेपाल से आने वाली नदियों के जल को रोका जाना है। अतः इस कार्य के लिए भारत को अंतर्राष्ट्रीय कानून को पालन करना पड़ता है। ऐसे में भारत सरकार एवं राज्य सरकारें नेपाल से आने वाली नदियों को अनेक चैनलों में विभाजित कर गंगा नदी में जल को गिराकर समाधान का प्रयास करना चाहिए।
बाढ़ प्रणव वाले क्षेत्रों में कृत्रिम उपग्रह के माध्यम से सूचना तंत्र को और प्रभावी बनाए जाने की आवश्यकता है।
भूमि जल रिचार्ज करने वाले तकनीक को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इसके लिए जोहार, आहरा, कच्चे कुआं एवं तालाब, पाइन इत्यादि को पुर्नोद्धार किया जाए।
बाढ़ राहत कार्यक्रम को भ्रष्टाचार से मुक्त कर सही तरीके से चलाया जाए। अंततः क्रांति के तहत नदी जोड़ो कार्यक्रम को अतितीव्र गति से कार्य रूप दिया जाए। जहां आवश्यक हो वहां पर बड़े बांध और छोटे बांधों का निर्माण किया जाए। नगरों में “वाटर हार्वेस्टिंग” को अनिवार्य गतिविधि के रूप में शामिल किया जाए।
प्रश्न प्रारूप
1. भारत में बाढ़ के कारण, प्रभावित क्षेत्र, समाधान के दिशा में किया गया प्रयास एवं सुझाव की चर्चा करें।