25. भारतीय मानसून की प्रमुख विशेषताएँ तथा मानसून की उत्पत्ति संबंधी कारकों की विवेचना
25. भारतीय मानसून की प्रमुख विशेषताएँ तथा मानसून की उत्पत्ति संबंधी कारकों की विवेचना
भारतीय मानसून की प्रमुख विशेषताएँ तथा मानसून की उत्पत्ति संबंधी कारकों की विवेचना
भारत एक मानसूनी प्रदेश है। यहाँ ही जलवायु मानसूनी है। मानसून एक मौसमी हवा है। ‘मानसून’ शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ (Mausim) अथवा मलायन भाषा के मोनसिन (Monsin) शब्द से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है- मौसम के अनुसार हवाओं का उलट-फेर।
ब्रिटिश भूगोलवेता हैली महोदय ने बताया कि मानसून एक ऐसी वायु प्रवाह है जो छ: महीने द०-प० से उ०-पू० की ओर (15 मई से 15 नवम्बर तक) तथा अगले छ: महीने (15 नवम्बर से 15 मई तक) उ०-पू० से द०-प० की ओर प्रवाहित होती है। इन्हें चित्रों से समझा जा सकता है:
मानसून का प्रकार
भूगोलवेत्ताओं ने मानसून का अध्ययन वैश्विक स्तर पर करते हुए इसे दो भागों में बाँटा है:- उष्ण कटिबंधीय मानसून और शीतोष्ण प्रदेश की मानसून।
भारत में उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र की मानसून है। इसे भी दो भागों में बाँटा गया है :-
(i) द०-प० मानसून,
(ii) उ०-पू० मानसून
द०-प० मानसून को ग्रीष्मकालीन मानसून तथा उ०-पू० मानसून को शीतकालीन मानसून कहा जाता है। द०-प० मानसून ही भारत की प्रमुख मानसून है। भारत की 80% वर्षा इसी द०-प० मानसून से होती है। यह मानसून अरब सागर से भारतीय उपमहाद्वीप पर जलवाष्प लाकर वर्षा करती है। जबकि उ०-पूर्वी मानसून बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प लाकर तमिलनाडु के तट पर वर्षा करती है। द०-प० मानसून की तुलना समुद्री समीर से और उ०-पूर्वी मानसून की तुलना स्थलीय समीर से की जा सकती है।
भारतीय मानसून की विशेषताएँ
भारतीय मानसून की कई विशेषताएँ हैं जिनमें मुख्य निम्नवत हैं:-
(1) भारतीय मानसून अपने अनिश्चितताओं के लिए विश्व विख्यात है। अर्थात इनकी आने और जाने की तिथि अनिश्चित है।
(2) भारतीय मानसून भारत का वास्तविक बजट निर्माता है।
(3) मानसून मौसम विशेष की हवा है।
(4) मानसून के कारण भारत में मुख्यत: प्रकार की वर्षा होती है-
(i) पर्वतीय वर्षा
(ii) चक्रवातीय वर्षा।
(5) मानसूनी वर्षा का वितरण अत्यन्त अनियमित है।
(6) मानसूनी वर्षा की मात्रा काफी अनिश्चित है।
(7) मानसून की विश्वसनीयता संदिग्ध है।
(8) मानसून की वर्षा निरंतर नहीं होती, बल्कि कुछ दिनों के अन्तराल पर रुक-रुक कर होती है।
(9) मानसूनी वर्षा मूल रूप से धरातलीय वर्षा है।
(10) मानसूनी वर्षा भारतीय उपमहाद्वीप के तापमान में कमी लाती है।
इस तरह उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भारतीय मानसून कई विशेषताओं से युक्त हैं।
भारतीय मानसून को प्रभावित करने वाले कारक:-
भारतीय मानसून को अनेक कारक प्रभावित करते हैं जिनमें मुख्य निम्नवत हैं:-
(1) स्थिति एवं अक्षांशीय विस्तार:-
भारत मोटे तौर पर 8°4’N से 37°6’N अक्षांशों के मध्य स्थित है। कर्क रेखा भारत के मध्य से होकर गुजरती है। विषुवत रेखा के पास होने के कारण दक्षिणी भागों में वर्ष भर उच्च तापमान रहता है। दूसरी उतरी भाग गर्म शीतोष्ण पेटी में स्थित है।
अत: यहाँ विशेषकर शीतकाल में निम्न तापमान रहता है। इसके कारण स्थल और समुद्र पर मिलने वाले वायुदाब में अन्तर आ जाता है। फलत: मध्य मई से मध्य नवम्बर तक द०-प० मानसून सागर से भारतीय उपमहाद्वीप की ओर और मध्य नवम्बर से मध्य मई तक उ०-पूर्वी मानसून भारतीय उपमहाद्वीप से सागर की ओर अग्रसारित होती है और वे वर्षा करते है।
(2) समुद्र से दूरी:-
प्रायद्वीपीय भारत अरब सागर, हिन्द महासागर तथा बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ है। अत: भारत के तटीय प्रदेशों की जलवायु सम है। इसके विपरीत जो प्रदेश देश के आन्तरिक भागों में स्थित हैं, वे समुद्री प्रभाव से अछूते हैं। फलस्वरूप उन प्रदेशों की जलवायु अति विषम या महाद्वीपीय है। समुद्र से निकटवर्ती क्षेत्रों में मानसूनी वर्षा अधिक और जैसे-2 इससे दूरी बढ़ती जाती है वैसे- वर्षा की मात्रा भी घटती जाती है।
(3) उत्तरी पर्वतीय श्रेणियाँ:-
हिमालय तथा उसके साथ की श्रेणियाँ जो उत्तर-पश्चिम में कश्मीर से लेकर उ०-प० में अरुणाचल प्रदेश तक फैली हुई हैं। ये भारत को शेष एशिया से अलग करते हैं। ये श्रेणियाँ शीतकाल में मध्य एशिया से आने वाली अत्याधिक ठण्डी व शुष्क पवनों से भारत की रक्षा करती हैं। साथ ही वर्षादायिनी द०-पश्चिम मानसून पवनों के सामने एक प्रभावी अवरोध बनाती हैं, ताकि वे भारत की उत्तरी सीमाओं को पार न कर सकें। इस प्रकार ये श्रेणियाँ उपमहाद्वीप तथा मध्य एशिया के बीच एक जलवायु विभाजक का कार्य करती है।
(4) स्थलाकृति:-
देश के विभिन्न भागों में स्थलाकृतिक लक्षण वहाँ के तापमान, वायुमण्डलीय दाब, पवनों की दिशा तथा वर्षा की मात्रा को प्रभावित करते हैं। उत्तर में हिमालय पर्वत नमीयुक्त मानसून पवनों को रोककर समूचे उत्तरी भारत में वर्षा का कारण बनता है। मेघालय पठार में पहाड़ियों की कीपनुमा आकृति से मानसून पवनों द्वारा विश्व की सबसे अधिक वर्षा होती है। अरावली पर्वत मानसून पवनों की दिशा के समानान्तर है।
अत: यह मानसूनी पवनों को रोकने में असफल होता है। फलस्वरूप वहाँ वर्षा नहीं हो पाती और लगभग सम्पूर्ण राजस्थान एक विस्तृत मरूस्थल में बदल गया है। पश्चिमी घाट द०-प० मानसून पवनों के मार्ग में दीवार की भाँति खड़ा है जिसके कारण इस पर्वत के पश्चिमी ढालों तथा पश्चिमी तटीय मैदान में भारी वर्षा होती है। इसके पूर्व में पवनें नीचे उत्तरती है और ठण्डी व शुष्य हो जाती है। अतः इस क्षेत्र में वर्षा बहुत कम होती है और यह “वृष्टि छाया क्षेत्र” कहलाता है।
(5) मानसूनी पवनें:-
द०-प० पश्चिमी ग्रीष्मकालीन पवनें समुद्र से स्थल की ओर चलती है और समस्त देश को प्रचुर वर्षा प्रदान करती हैं। इसके विपरीत शीतकालीन उ०-पूर्वी मानसून पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलती है और वर्षा करने में असमर्थ होती है। बंगाल की खाड़ी से कुछ जलवाष्प प्राप्त करने के पश्चात ये पवनें तमिलनाडु के तट पर थोड़ी सी वर्षा करती है।
(6) ऊपरी वायु परिसंचरण:-
भारत में मानसून के अचानक विस्फोट का एक अन्य कारण भारतीय भाग के ऊपर वायु परिसंचरण में होने वाला परिवर्तन भी है। ऊपरी वायुतंत्र में बहने वाली जेट वायुधरायें भारतीय जलवायु को निम्न प्रकार से प्रभावित करती है। जैसे:-
(i) पश्चिमी जेट वायुधारा-
शीतकाल में, समुद्र तल से लगभग 8Km की ऊँचाई पर पश्चिमी जेट वायुधारा अधिक तीव्र गति से समशीतोष्ण कटिबंध के ऊपर चलती है। यह जेट वायुधारा हिमालय की श्रेणियों द्वारा दो भागों में विभाजित हो जाती है। इस जेट वायुधारा की उत्तरी शाखा इस अवरोध के उत्तरी सिरे के सहारे चलती है। दक्षिणी शाखा हिमालय श्रेणियों के दक्षिण में 25°N अक्षांश के ऊपर पूर्व की ओर चलती है।
मौसम वैज्ञानिकों का ऐसा विश्वास है कि यह शाखा भारत की शीतकालीन मौसमी दशाओं को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह जेट वायुधारा भूमध्य सागरीय प्रदेशों से पश्चिमी विक्षोभों को भारतीय उपमहाद्वीप में लाने के लिए उत्तरदायी है। उत्तर पश्चिम मैदानों में होने वाली शीतकालीन व ओलावृष्टि तथा पहाड़ी प्रदेशों में कभी-2 होने वाली भारी हिमपात इन्हीं विक्षाओं का परिणाम है। इसके बाद सम्पूर्ण उतरी मैदानों में शीत लहरें चलती है।
(ii) पूर्वी जेट वायुधारा-
ग्रीष्मकाल में, उतरी गोलार्द्ध में सूर्य के उत्तरायण के कारण ऊपरी वायु परिसंचरण में परिवर्तन हो जाता है। पश्चिमी जेट वायुधारा के स्थान पर पूर्वी जेट वायुधारा चलने लगती है, जो तिब्बत के पठार के गर्म होने से उत्पन्न होती है। इसके परिणामस्वरूप पूर्वी गर्म जेट वायुधारा विकसित होती है जो 15°N अक्षांश के आस-पास प्रायद्वीपीय भारत के ऊपर चलती है। यह द०-पश्चिमी मानसून पवनों के अचानक आने में सहायता करती है।
(7) एलनीनो प्रभाव:-
भारत में मौसमी दशाएँ एलनीनो से भी प्रभावित होती है, जो संसार के उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में विस्तृत बाढ़ों और सूखों के लिए उत्तरदायी है। एलनीनो एक सतही उप गर्म जलधारा है। यह कभी-2 द० अमेरिका के पेरू तट से कुछ दूरी पर दिसम्बर के महीने में दिखाई देती है। कई बार पेरू की ठंडी धारा के स्थान पर अस्थायी धर्म धारा के रूप में बहने लगती है। कभी-2 अधिक तीव्र होने पर यह समुद्र के ऊपरी जल के तापमान को 10ºC तक बढ़ा देती है।
उष्ण कटिबंधीय प्रशान्त महासागरीय जल के गर्म होने से भूमण्डलीय दाब व पवन तंत्रों के साथ-2 हिन्द महासागर में मानसून पवनें भी प्रभावित होती है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि 1987 ई. में भारत में भयंकर सूखा एलनीनो का ही परिणाम था।
(8) दक्षिणी दोलन:-
दक्षिणी दोलन मौसम विज्ञान से संबंधित वायुदाब में होने वाली परिवर्तन का प्रतिरूप है, जो हिन्द व प्रशांत महासागरों के मध्य प्राय: देखा जाता है। ऐसा देखा गया है कि जब वायुदाब हिन्द महासागर में अधिक होता प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र पर अधिक होता है तथा हिन्द महासागर पर कम होता है अथवा इन दोनों महासागरों पर वायुदाब की स्थिति एक-दूसरे के उलटा होती है। जब वायुदाब प्रशांत महासागरीय क्षेत्र पर अधिक होता है तथा हिन्द महासागर पर कम होता है तो भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून अधिक शक्तिशाली होती है। इसके विपरीत परिस्थिति में मानसून के कमजोर होने की संभावना अधिक होती है।
उपरोक्त कारकों के अलावे पश्चिमी विक्षोभ, उष्ण कटिबंधीय चक्रवात, पृथ्वी की परिभ्रमण गति, उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब का खिसकाव इत्यादि भारतीय मानसून को प्रभावित करने वाले कारक हैं।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि मानसून एक मौसमी हवा है। इसकी कई विशेषताएँ होती हैं। ये विशेषताएँ मानसून को प्रभावित करने वाले कारकों द्वारा निर्धारित होती हैं, जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है।