10. गोंड जनजाति के निवास तथा आर्थिक-सामाजिक क्रिया-कलाप
10. गोंड जनजाति के निवास तथा आर्थिक-सामाजिक क्रिया-कलाप
गोंड जनजाति के निवास तथा आर्थिक-सामाजिक क्रिया-कलाप
गोंड मध्य प्रदेश की सबसे महत्त्वपूर्ण जनजाति है जो प्राचीनकाल में उस क्षेत्र में रहती थी जिसे गोंडवानालैण्ड कहते हैं। यह एक स्वतंत्र जनजाति थी।
निवास क्षेत्र:-
गोंड जनजाति के वर्तमान निवास स्थान मध्य प्रदेश के पठारी भाग (जिसमें छिन्दवाड़ा, बैतूल, सिवनी और मांडला के जिले सम्मिलित है) छत्तीसगढ़ मैदान के दक्षिणी दुर्गम क्षेत्र (जिसमें बस्तर जिला सम्मिलित है), छत्तीसगढ़ और गोदावरी एवं वेनगंगा नदियों के पर्वतीय क्षेत्रों के अतिरिक्त बालाघाट, बिलासपुर, दुर्ग, रायगढ़ एवं रायसेन जिलों में है। इनका सर्वाधिक जमाव मध्य प्रदेश में मध्यवर्ती पहाड़ी एवं वनाच्छादित पठारों तथा सतपुड़ा पर्वत के पूर्वी और दक्षिणी अगम्य क्षेत्रों में पाया जाता है। इनका निवास क्षेत्र 17°46′ से 23°22′ उत्तरी अक्षांश और 80°15′ तथा 82°15′ पूर्वी देशान्तरों के बीच है।
वातावरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ:-
गोंडों का निवास क्षेत्र पूर्णतः पहाड़ी और वनाच्छादित है। ऊँची-नीची भूमि, वनस्पति एवं पशुओं का गोंडों के जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। एकान्त में रहने से ये पिछड़े हुए किन्तु ईमानदार और सरल चित्त, उदार, साहसी एवं चतुर और स्पष्टवादी होते हैं। ये आलसी नहीं होते किन्तु परिस्थितियों ने इन्हें निष्क्रिय अवश्य बना दिया है। वनों से जंगली कन्दमूल फल, गृह निर्माण और टोकरियाँ बनाने के लिए अनेक प्रकार की बेंते एवं शराब बनाने के लिए महुआ, ताड़, खजूर आदि का रस प्राप्त किया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में लोहा मिलने से ये उसे पिघलाकर सामान्य औजार भी बना लेते हैं।
शारीरिक गठन:-
गोंड लोग काले तथा गहरे रंग के होते हैं। उनका शरीर सुडौल होता है किन्तु अंग भद्दे होते हैं। बाल मोटे, गहरे और घुंघराले, सिर गोल, चेहरा अण्डाकार, आँखे काली, नाक चपटी, ओठ मोटे, मुँह चौड़ा, नथुने फैले हुए, दादी एवं मूँछ पर बाल कम कद 165 सेमी० होता है। गोंडों की स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में कद में छोटी, शरीर सुगठित एवं सुन्दर रंग पुरुषों की अपेक्षा कुछ कम काला, होठ मोटे, आँखें काली और बाल लम्बे होते हैं।
बस्तियाँ और घर:-
गोंडों के घर और बस्तियों के बसाव में सामान्यतः दो बातों का ध्यान रखा जाता है-भौगोलिक अनुकूल स्थिति एवं जल प्राप्ति की सुविधा।
ये पठारों, मैदानों, ऊँचे-नीचे पहाड़ी ढालों तथा निम्न मैदानी भागों में बनाये जाते हैं जहाँ प्राकृतिक रूप से सुरक्षा मिल सके। इनके खेतों के निकट ही जल के स्रोत उपलब्ध हों। गाँव की स्थिति में वनों की निकटता का महत्व अधिक होता है क्योंकि इसी से इन्हें लकड़ियों, कन्द-मूल फल एवं शिकार की प्राप्ति करने की सुविधा होती है।
गोंडों की सभी झोंपड़ियाँ आँगन के चारों ओर बनायी जाती हैं। नयी झोपड़ियाँ फसल कटाई के बाद और पुरानी झोंपड़ियों की मरम्मत वैशाख महीने में की जाती है।
भोजन:-
गोंड अपने वातावरण द्वारा प्रस्तुत भोजन-सामग्री पर अधिक निर्भर रहते हैं। इनका मुख्य भोजन कोदों और कुटकरी मोटे अनाज होते हैं जिन्हें पानी में उबालकर झोल (Broth) या राबड़ी अथवा दलिये के रूप में दिन में तीन बार खाया जाता है-प्रातःकाल, मध्यान्ह और राधि में।
रात्रि में चावल अधिक पसन्द किये जाते हैं। कभी-कभी कोदों और कुटकी के साथ सब्जी एवं दाल का भी प्रयोग किया जाता है। कोदों के आटे से रोटी (गोदाला) भी बनायी जाती है। महुआ, टेंगू और चर के ताजे फल भी खाये जाते हैं। आम, जामुन, सीताफल और आँवला तथा अनेक प्रकार के कन्द-मूल भी खाने के लिए काम में लाये जाते हैं। रोटी को तेल से चुपड़ते हैं। सब्जियों में कद्दू, ककड़ी, चने की पत्तियाँ, रतालू, इमली तथा आम मुख्य होते हैं। बाँस की कॉपल कुकरमुत्ता, प्याज, लहसुन, मिर्च आदि का भी उपयोग किया जाता है। चावल, उबली हुई दाल और मसाले मुख्यतः उत्सवों व दावतों के अवसर पर ही अधिक काम में लेते हैं। कन्द-मूल और लाल चीटियाँ इनके प्रिय खाद्य पदार्थ हैं।
मैदानी क्षेत्रों में शिकार से प्राप्त सुअर, गाय, बकरी, बतख, कुत्ते, हिरण, मगरमच्छ, साँप, कबूतर आदि का माँस बड़े शौक से खाया जाता है। ये लोग चूहे, गोह, गिलहरी का माँस भी खाते हैं। जिन क्षेत्रों में मछलियाँ मिल जाती हैं, वहाँ मछलियाँ भी खायी जाती हैं। ये लोग भोजन में कन्द-मूल, पशु-पक्षी, सभी का उपयोग करते हैं। इनमें मद्यपान का प्रचलन अधिक है। विवाह और उत्सवों के अवसर पर विशेष रूप से शराब पी जाती है।
महुआ के फूलों से मंडिया, ताड़ और खजूर के रस से ताड़ी (Toddy) और चावल से लोंगा शराब का प्रचलन अधिक है। गाँजा, भाँग, तम्बाकू, पान, सुपारी खाने का भी काफ रिवाज है। तम्बाकू मिट्टी या पत्तों से बनी चिलम से पी जाती है। गाय, भैंस और बकरी का दूध भी पिया जाता है। वनों से प्राप्त शहद का भी प्रयोग करते हैं।
वस्त्राभूषण:-
आरम्भ में गोंड लोग या तो पूर्णतः नंगे रहते थे अथवा पत्तियों से अपने शरीर को ढँक लेते थे। अब वे वस्त्रों का प्रयोग करने लगे हैं किन्तु वस्त्र कम ही होते हैं। अधिकांश पुरुष लंगोटी से अपने गुप्तांगों एवं जांघों को ढँक लेते हैं। कभी-कभी सिर पर एक अंगोछे प्रकार का कपड़ा भी बाँध लेते हैं। कुछ लोग पेट और कमर ढँकने के लिए अलग से पिछ लपेट लेते हैं। स्त्रियाँ धोती पहनती हैं जिससे शरीर के ऊपर और नीचे का भाग ढँक जाता। ये चोली नहीं पहनतीं छातियाँ खुली रहती हैं। 7-8 वर्ष तक के बालक नंगे रहते हैं तथा 5-6 साल की लड़कियाँ लंगोटी बाँधे रहती हैं। वर्षा से बचाव के लिए बरसाती कोट और टोप भी उपयोग किया जाता है जो पतियों और बाँस की खपच्चियों का बना होता है।
सर्दियों में शरीर को ढँकने के लिए ऊनी कम्बल काम में लाया जाता है। अपने शरीर को सजाने के लिए राख तथा रंगों से इसे पोत लेते हैं। अनेक प्रकार के पशुओं और बतखों के पंखों को सिर पर लगा लेते हैं। पुरुषों के बाल लम्बे होते हैं। बैलों के सींगों से भी सिर को सजाया जाता है। पुरूष गले में सफेद या लाल मोतियों की माला और कानों में बालियाँ पहनते हैं तथा बालों में कंघी खोंसे रहते हैं। स्त्रियाँ अपने चेहरे, जाँघों तथा हाथों पर गोदने गुदवाती हैं। ये नकली बालों के जूड़े में फूल लगाती हैं तथा उसमें सीगों की कंघियाँ अनिवार्य रूप से लगाती हैं। कमर में पीतल की छोटी-छोटी घण्टियों वाली कमरधनी पहनी जाती है, कानों में बालियाँ पहनी जाती हैं। हाथों में काँच की चूड़ियाँ या चाँदी के दस्तबन्द पहने जाते हैं।
उत्सव अथवा पर्व के समय स्त्री-पुरुष आकर्षक रूप से अपने शरीर को प्राकृतिक वस्तुओं द्वारा सजाते हैं। नृत्य के समय विशेष प्रकार की पोशाक पहनी जाती हैं। ढोल, नगाड़े, बाँसुरी इनके प्रमुख वाद्य यंत्र होते हैं।
आर्थिक क्रियाकलाप:-
गोंडों का प्राचीन व्यवसाय शिकार करना और मछली मारना था किन्तु अब पशुओं के शिकार पर रोक लगा दिये जाने से चोरी-छिपे शिकार किया जाता है। पहले चीतों, जंगली भैसों, हिरणों और चिड़ियों का शिकार अधिक किया जाता था, अब प्रायः हिरणों, खरगोशों और जंगली भैसों का ही शिकार अधिक किया जाता है। सामान्यतः शिकार के लिए विष बुझे तीरों का प्रयोग किया जाता है, केवल खरगोश आदि के लिए जालों और फन्दों का उपयोग किया जाता है। गोंडों को जंगली पशु-पक्षियों के विभिन्न रूपों और आदतों का पूरा ज्ञान होता है। अतः उन्हें शिकार में पूरी सफलता मिलती है। स्त्रियाँ शिकार को शोर-गुल मचाकर नदियों की घाटियों में खदेड़ लाने का काम करती हैं।
अन्य बड़े जंगली पशुओं को फँसाने के लिए कई तरकीबें की जाती हैं। खेतों के चारों ओर बाँस का घेरा खींच दिया जाता है और एक स्थान पर मुख्य द्वार छोड़ देते हैं और दूसरे स्थान पर सँकरा रास्ता जिसके सामने एक लम्बा गड्ढ़ा खोदकर उसे टहनियों, पत्तियों, घास-फूस से पाटकर उस पर बालू मिट्टी डाल देते हैं। रात्रि में जब पशु खेत में घुस जाता है तो रक्षा करते हुए खेत का मालिक चिलाता है जिससे पशु घबड़ाकर सँकरे मार्ग की ओर भागता है और वहाँ बने गढ्ढे में गिर जाता है। चूहों और बन्दरों को भी मारा जाता है।
मछलियाँ सामान्यतः तालाबों और नदियों में मुख्यतः मारिया गोंड़ों द्वारा टोकरियों, जाल और बाँसों के सहारे पकड़ी जाती हैं। मछली पकड़ने का कार्य सभी वयस्कों द्वारा व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से किया जाता है। अनेक बार नदियों के जल को जहरीला कर दिया जाता है जिससे मछलियाँ मर जाती हैं और स्त्रियाँ उन्हें निकाल लेती हैं।
वनों से जंगली कन्द-मूल, फल, गाँठदार सब्जियाँ, जड़ी-बूटियाँ, शहद, फूल-पत्तियाँ, गूलर, महुआ, सेमल की रूई, चिरौंजी, कचनार, अमलतास, हारसिंगार, खजूर, ताड़ के फल, लाख, इमली, जामुन, साबूदाना एकत्रित कर उसे निकटवर्ती बाजारों में बेच दिया जाता है। इन्हें खाया भी जाता है। वनों से पशुओं की खालें भी एकत्रित की जाती हैं। गोंड लोग दूध के लिए गाय, भैंस, बकरी, बोझा ढोने के लिए बैल तथा माँस के लिए सुअर, बतखें और कबूतर भी पालते हैं।
अब अधिकांश गोंड़ खेती भी करते हैं जिसे स्थानान्तरित कृषि कहा जाता है। इस प्रकार की खेती में वृक्षों अथवा झाड़ियों को काटकर जला दिया जाता है, फिर 2-3 वर्ष उस पर खेती करने के बाद अन्यत्र दूसरे खेत तैयार किये जाते हैं। इस प्रकार की कृषि को डिप्पा (Dippa) या परका (Parka) कहा जाता है। परका कृषि में वृक्ष जलाये जाते हैं, जबकि डिप्पा में झाड़ियाँ। इस प्रकार की कृषि में फावड़े से खोदकर बीज बोया जाता है। बीज बो देने पर वन देवी एवं देवताओं को अच्छी फसल की प्राप्ति हेतु पशुओं की बलि चढ़ायी जाती है।
जब पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीनुमा आकार के खेत बनाकर कृषि की जाती है तो उसे पेंडा कृषि कहते हैं। यह सामान्यत: बस्तर में की जाती है। इसमें खेत बिना जोते ही बोये जाते हैं। दो-चार फसलें लेने के उपरान्त खेत खुले छोड़ दिये जाते हैं जिससे उन पर जब पुनः घास-फूस उग आती है तो उसे जला दिया जाता है। ढाल के निचले भागों की ओर लट्ठों या मिट्टी-पत्थर की मेंड़ बनाकर मिट्टी रोकी जाती है।
स्थानान्तरण खेती आज भी मांडला के वैगाचाक, बस्तर के अबूझमाड़, सरगुजा, बिलासपुर और रायगढ़ के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में की जाती है। खेती करने के ढंग पुराने हैं। लोहे के कुदाली और कुल्हाड़ी ही उनके औजार होते हैं। खाद, अच्छे बीज और सिंचाई की सुविधा न होने से उत्पादन कम होता है।
खेती सामान्यतः घरों के पास ही की जाती है। खेती में स्त्री-पुरुष सभी का सहयोग मिलता है। अनाज मांडने, उड़ाने और साफ करने का कार्य पुरूष और लड़के करते हैं। स्त्रियाँ खेतों को तैयार करने का कार्य करती हैं। खेती हेर-फेर के साथ भी की जाती है। यह क्रम इस प्रकार होता है-मोटे अनाज, मक्का, दाल और फलियाँ। घर के निकट कुछ ऊँची सामने वाली भूमि पर बाड़ियाँ होती हैं जिसमें पशुओं के गोबर तथा विष्टा का खाद देकर उसमें तम्बाकू, ककड़ी, चना, कद्दू आदि सब्जियाँ पैदा की जाती हैं।
खेती के अतिरिक्त गोंड लोग निर्माण कार्यों में मजदूरी, लकड़ी काटने, ग्वाले, कुम्हार, बढ़ई, लुहार, पालकियाँ उठाने तथा अन्य प्रकार के कार्य करते हैं। कुछ गोंड स्त्रियाँ टोकरियाँ और रस्सियाँ बनाती हैं। ये अन्य घरेलू काम भी करती हैं।
सामाजिक व्यवस्था:-
गोंड लोग अनेक छोटे-छोटे समूहों में विभक्त होते हैं। समूहों का वर्गीकरण सामान्यतः उस क्षेत्र के नाम पर होता है जिसमें गोंड लोग रहते हैं। बस्तर जिले में इन्हें मुरिया या मारिया कहते हैं। मुरिया तीन विभागों में बाँटें गये हैं- जगदलपुर मुरिया, झोरिया मुरिया और घोटुल मुरिया।
मुरिया(मारिया) लोगों के दो उप-विभाग हैं- पहाड़ी मारिया (Hill Marias) तथा सॉंग लगाने वाले मारिया (Bisan Horn Marias)। मण्डला जिले में गोंडों के चार उप-विभाग पाये जाते है-देव गोंड, राज गोंड, सूर्ववंशी देवगाड़िया गोंड और रावणवंशी गोंड। अन्तिम प्रकार के गोंडों का समाज व्यवस्था में सबसे निम्न स्थान होता है, जबकि अन्य तीन अपने को क्षत्रियों के समवर्ती मानते हैं।
झारखण्ड में तीन उप-विभाग हैं-राजगोंड, जो उच्च वर्ग की श्रेणी में आते हैं; धूरगोंड, जो कृषक श्रेणी अथवा सामान्य श्रेणी के होते हैं और कमिया जो श्रमिक श्रेणी के होते हैं।
राजगोंडों के अन्तर्गत मालगुजार, पटेल और गाँव की भूमि के स्वामी, गाँव का प्रधान मण्डल आते हैं। कृषक वर्ग पहले वर्ग से भूमि किराये या लगान पर लेकर खेती करता है, तीसरे वर्ग में श्रमिक आते हैं, इसमें ओझा, बैगा, गुनिया, लोहार आदि आते हैं जो विभिन्न वर्गों की सेवा करते हैं।
गोत्र:-
अधिकांश गोंड गोत्र पर आधारित होते हैं जो बहिर्विवाही हैं अर्थात् ये लोग अपने मित्र समूह के बाहर ही विवाह करते हैं। गोंडों के गोत्र पशुओं अथवा वृक्षों के नाम पर होते हैं। उदाहरणार्थ, तुमरीहावीका गोत्र तेंदू के वृक्ष से, टीकम गोत्र टीकम वृक्ष से, नाग से सम्बन्धित नागवान, बकरी से सम्बन्धित किटीमरबी, सुअर से सम्बन्धित पडीमरबी।
गोत्र का निर्धारण पिता के गोत्र से होता है। एक गोत्र के समस्त सदस्यों में एक सम्बन्ध माना जाता है तथा पारस्परिक विवाह निषिद्ध होता है। प्रायः एक गाँव में एक ही गोत्र के लोग रहते हैं।
गोंडों में संयुक्त परिवार और वैयक्तिक परिवार दोनों ही प्रथाएँ मिलती हैं। संयुक्त परिवार को भाईबन्द कहा जाता है। एक भाईबन्द में पति पत्नी, उनके अवयस्क लड़के-लड़कियाँ, विवाहित पुत्र एवं उनकी पत्नियाँ और बच्चे होते हैं। ये सब मिलकर एक सामाजिक और आर्थिक इकाई बनाते हैं। कृषि, शिकार, गृहनिर्माण आदि कार्यों में सभी सदस्य सामूहिक रूप से काम करते हैं। इनका मुखिया सरदार कहलाता है। इसके निर्देशानुसार सारी क्रियाएँ की जाती हैं और इसी का पारिवारिक अधिकार प्राप्त होते हैं।
इस परिवार की सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति मानी जाती है। वैयक्तिक परिवार में पति, पत्नी और उनके अवयस्क पुत्र-पुत्रियाँ सम्मिलित होते हैं। परिवार पितृसतात्मक होती है। स्त्री-पुरुष का कार्य विभाजन स्पष्ट होता है। स्त्रियाँ घरेलू कार्य (सफाई झांडू-पोंछा, भोजन बनाना, पशुओं की देखभाल करना), कृषि कार्यों में सहयोग देना तथा वन से लकड़ियाँ और अन्य वस्तुएँ एकत्रित कर लाने का काम करती हैं। पुरुष खेती, शिकार, व्यापार आदि करने का कार्य करते हैं।
विवाह:-
गोंडों में विवाह पद्धति विकसित अवस्था में पायी जाती है। बाल-विवाह प्रायः नहीं होते। जब तक लड़की रजस्वला न हो और जब तक उसने यौन-क्रियाओं का आनन्द न लिया हो, सामान्यतः विवाह नहीं किया जाता। लड़का 24-25 वर्ष की उम्र में विवाह करता है। जीवन-साथी का चुनाव वयस्क लड़के-लड़कियाँ स्वयं करते हैं। सामान्यतः एक विवाह की प्रथा प्रचलित है किन्तु सम्पन्न गोंड एक से अधिक पत्नियाँ रख सकते हैं। बहु-पत्नी प्रथा बाँझपन से छुटकारा पाने के लिए, यौन शक्ति का अतिरिक्त आनन्द उठाने के लिए तथा सम्पन्नता और सामाजिक श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए प्रचलित है।
गोंडों में मामा, बुआ की लड़की से विवाह करना (Cross-cousin marriage) सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। ऐसे विवाह को ‘दूध लौटाना’ कहते हैं। यदि किसी कारणवश ऐसा न हो तो दोषी पक्ष को हर्जाना देना पड़ता है जिसे ‘दूध बुँदा’ कहा जाता है। विवाह की दूसरी प्रथा पारस्परिक सम्पत्ति द्वारा विवाह करने की है जिसमें लड़की अपनी पसन्द के लड़के पर कुछ व्यक्तियों की मौजूदगी में हल्दी घोलकर डाल देती है और तब लड़का उसे घर ले जाकर बिरादरी को भोज दे देता है। जिससे विवाह वैध हो जाता है। विवाह की तीसरी प्रथा सेवा द्वारा पत्नी प्राप्त करने (लमसेना, लमना) की होती है जिसमें लड़का, लड़की के पिता के यहाँ 5 वर्षों तक खेती-बाड़ी और घर का काम करता है। इसके बाद दोनों का विवाह हो जाता है।
कभी-कभी लड़का अपने साथियों के साथ, अवसर पाकर लड़की को उसके गाँव से भगा लाता है और वह उस पर हल्दी का पानी घोलकर डाल देता है जिससे लड़की उसकी पत्नी बन जाती है। बाद में अन्य रस्में लड़के के दरवाजे पर पूरी की जाती हैं। एक अन्य पद्धति में लड़की अपने पसन्द के लड़के के घर में जा बैठती है, विशेषतः जब वह उससे गर्भवती हो जाती है।
इस प्रकार गोंडों के विवाह में इतनी विभिन्नता और लचीलापन पाया जाता है कि यह कहना प्रायः कठिन होता है कि कौन-सा विवाह नियमित और कौन-सा अनियमित और अस्वीकृत है। सभी प्रकार के विवाह के रूप यौन क्रियाओं के बाद पूरे हो जाते हैं और बिरादरी को दावत देकर स्त्री-पुरूष के सभी प्रकार के यौन सम्बन्धों को वैध बना दिया जाता है। विवाह की क्रियाओं में खम्भे के चारों ओर घूमना, लड़के-लड़की पर हल्दी का पानी डालना, तेल लगाना, नाच-गाना, मदिरापान करना मुख्य होते हैं।
पति या पत्नी दोनों में कोई भी विवाह विच्छेद कर सकता है किन्तु सामान्यतः तलाक बहुत ही कम होते हैं। चरित्रहीनता, झगड़ालूपन, यौन व्याधियाँ आदि तलाक के मुख्य कारण होते हैं। तलाक में गाँव पंचायत के समक्ष यदि पत्नी तलाक देती है तो नये पति को उसके पूर्व पति को पर्याप्त हर्जाना तथा बिरादरी को भोज देना पड़ता है। एक वर्ष बाद विधवा दूसरा विवाह कर सकती है। प्रायः बड़े भाई की विधवा पत्नी का विवाह छोटे भाई के साथ ही होता है किन्तु यदि विधवा किसी अन्य पुरुष को चाहे तो उस पर हल्दी और तेल लगा देती है और पुरूष उसे माला पहना देता है या अँगूठी अथवा चूड़ियाँ किन्तु उस पुरुष को बिरादरी को भोज देना आवश्यक होता है।
ग्रामीण संस्थाएँ:-
प्रत्येक गाँव में एक पंचायत अथवा अनेक गाँवों को मिलाकर (एक पंचायत) होती है जिसके प्रमुख को मण्डल पटेल या मुकद्दम कहते हैं। पंचायत का कार्य गाँव की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना, समस्याओं और विवादों को सुलझाना है। पंचायत के अन्य पदाधिकारी प्रमुख पुजारी (भूमा-गैत), जाति के पुजारी (वदाई) और गुनिया या वैध होते हैं। पुजारी का काम धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करना होता है। गुनिया जड़ी-बूटियों से गाँव के लोगों की चिकित्सा करता है तथा झाड़-फूंक द्वारा भूत-प्रेत सम्बन्धी व्याधियों को दूर करता है।
प्रश्न प्रारूप @
1. गोंड जनजाति के निवास तथा आर्थिक-सामाजिक क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालें।
अथवा गोंड के अधिवास, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
Read More:
- 1. मानव विकास सूचक / Human Development Index
- 2. मानव एवं वातावरण के बीच के सम्बन्ध
- 3. पर्वतीय वातावरण में मानवीय क्रिया-कलाप
- 4. मरूस्थलीय वातावरण में मानवीय क्रिया-कलाप
- 5. विषुवतरेखीय प्रदेशों में मानवीय क्रिया-कलाप
- 6. समशीतोष्ण घास के मैदानों में मानवीय क्रिया-कलाप
- 7. मानसून क्षेत्र की मुख्य विशेषताओं का वर्णन
- 8. बुशमैन की शारीरिक तथा सामाजिक-आर्थिक विशेषताओं का वर्णन
- 9. एस्किमों के निवास तथा सामाजिक-आर्थिक अध्ययन
- 10. गोंड जनजाति के निवास तथा आर्थिक-सामाजिक क्रिया-कलाप
- 11. संथाल जनजाति के वास स्थान, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशेषताएँ
- 12. What is species? Classify it. (प्रजाति क्या है? इसका वर्गीकरण कीजिए।)