3. पर्वतीय वातावरण में मानवीय क्रिया-कलाप
3. पर्वतीय वातावरण में मानवीय क्रिया-कलाप
पर्वतीय वातावरण में मानवीय क्रिया-कलाप
भूपृष्ठ की बनावट मानव जीवन को अत्यन्त प्रभावित करती है। भूपृष्ठीय रचना के अनुरूप स्थलरूपों को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा गया है- पर्वत, पठार और मैदान। मानव पर प्रभाव डालने में प्रत्येक की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं।
(1) पर्वत और मानव जीवन:-
पर्वतों पर मानव जीवन के सामने अनेक तरह की कठिनाइयाँ आती हैं जिनका आभास समतल मैदानी भागों में नहीं होता। पर्वतीय क्षेत्रों में समतल भूमि अत्यन्त सीमित होती है। तीव्र ढाल की अपेक्षा साधारण ढाल वाले क्षेत्र मानव के लिए अधिक उपयोगी होते हैं। साधारण ढाल भूमि पर सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि की जाती है किन्तु ऊपरी डालों पर सिंचाई की सुविधा प्रदान नहीं की जाती, वहाँ केवल शुष्क कृषि की जाती है।
अधिक ऊँचाई पर तापमान गिर जाता है या बर्फ गिरने की वजह से मानव का रहना सम्भव नहीं होता। इसके अलावा ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ वायुदाब घटता जाता है। 6000 मीटर से अधिक ऊँचाई पर मनुष्य को साँस लेने में कठिनाई होती है। अतः ऐसे स्थानों पर मानवीय कार्य-कलाप नगण्य मिलता है।
पर्वतों की ऊँची नीची भूमि पर परिवहन के साधनों को बनाया जाना भी काफी कठिन होता है।
(2) पर्वत एवं जलवायु:-
एक देश की जलवायु पर पर्वतों का भी प्रभाव पड़ता है। ऊँचाई पर जाते हुए तापमान कम होता जाता है। लगभग 160 मीटर की ऊँचाई पर 90 से०ग्रे० ताप कम हो जाता है। उष्ण देशों में जहाँ पर्वत स्थित है वहाँ, पर्वतों पर स्वास्थ्यवर्धक जलवायु मिल जाती है। पर्वत-शिखरों पर पर्यटक केन्द्र बन जाते हैं। भारत में शिमला, मंसूरी, दार्जिलिंग, उटकमण्ड आदि इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय नगर हैं।
पर्वतीय प्रदेश आर्द्रतापूर्ण पवनों को रोकने में पूर्ण सक्षम होते हैं इसलिए वर्षा भी मैदानों की अपेक्षा अधिक होती है। साथ ही पर्वत श्रेणियाँ एक देश को ठंडी पवनों से सुरक्षा भी प्रदान करती है। भारत के उत्तर में हिमालय स्थित होने के कारण मध्य एशिया की ठंडी पवनें भारत में प्रवेश नहीं कर पाती जबकि यही ठंडी पवनें चीन के आधे से अधिक भाग को प्रभावित करती हैं। इसी प्रकार उत्तरी अमेरीकी में कनाडा की ठंडी पवनें संयुक्त राज्य अमेरीका के दक्षिण तक पहुँच जाती है और तापमान को पर्याप्त गिरा देती है।
(3) पर्वत एवं वनस्पति:-
पर्वतों पर ऊँचाई के अनुसार वनस्पति के प्रकार में काफी भिन्नता पाई जाती है। अत: भूमि उपयोग भी प्रभावित होता है। पर्वतों पर एक विशिष्ट ऊँचाई से ऊपर वृक्ष नहीं उगते, केवल घास के मैदान पाये जाते हैं। यहाँ पशुओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ मिलती हैं।
ग्रीष्मकाल में यह क्षेत्र चरागाहों के रूप में बहुत उपयोगी होते हैं। पशुओं में भेड़, बकरियाँ ही ज्यादा पाई जाती हैं क्योंकि इनमें ठंड सहने की शक्ति ज्यादा होती है। चरागाहों के नीचे शंकुधारी वनों का कटिबन्ध मिलता है जहाँ मुलायम लकड़ी के अधिक उपयोगी वृक्ष उगे हुए पाये जाते हैं। शंकुधारी वनों से नीचे पर्णपाती वनों का कटिबन्ध मिलता है, इन दोनों के बीच मिश्रित वनों का कटिबन्ध मिलता है।
पर्वतीय क्षेत्रों में वनों की अधिकता की वजह से लकड़ी काटने का धन्या अत्यन्त लोकप्रिय होता है किन्तु यहाँ की ढालू भूमि पर लकड़ी काटना, छाँटना तथा लट्ठों को लकड़ी के चीरने वाले कारखानों तक पहुँचाना अत्यन्त कठिन काम होता है। इन कामों के लिये सरल उपाय खोज निकाले गये हैं। नार्वे और स्वीडन में लकड़ी के लट्ठों को बर्फ पर फिसलाकर जमी हुई नदियों तक पहुँचाया जाता है। हिमालय क्षेत्र के वृक्ष को काटकर तनों को नदियों में बहा दिया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पक्की सड़कें बना दी गई हैं। लट्ठों को ढोने का काम मोटर ठेलों से लिया जाता है। कहीं-कहीं पर बाँधकर लट्ठों को खिसकाकर ले जाया जाता है।
लकड़ी का उपयोग अनेक उद्योगों में कच्चे माल के रूप में किया जाता है। अतः लकड़ी की माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, इसलिए वनों को निर्दयतापूर्वक काटा जा रहा है। वन केवल उच्च क्षेत्रों में ही शेष रह गये हैं।
(4) पर्वत एवं कृषि:-
पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि कार्य केवल सीमित मात्रा में सम्भव है। यहाँ किसानों को अनेक समस्याओं से जूझना पड़ता है, जैसे-
(क) समतल भूमि की कमी,
(ख) मिट्टी का अधिक क्षरण,
(ग) मिट्टी का कम गहरा होना, तथा
(घ) जलवायु की बाधाएँ।
कृषि के काम के लिए समतल भूमि की जरूरत होती है। समतल भूमि पर ही पूर्ण सिंचाई का लाभ प्रदान किया जा सकता है तथा कृषि यंत्रों का भी उपयोग सम्भव होता है। इसलिए पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि मानव के कठिन परिश्रम पर ही टिकी है। यहाँ खेत जोतने से लेकर फसल काटने तक समस्त कार्य हाथों से ही करने होते हैं कहीं-कहीं तो मनुष्य को हल भी स्वयं ही चलाना पड़ता है, इसीलिए पहाड़ी भागों में हल्के किस्म के हलों का प्रचलन है।
कृषि योग्य समतल खण्ड बनाने के लिए पर्वतीय ढालों पर सीढ़ियाँ काटकर सोपानी कृषि की जाती है। ऐसा करने से खेतों में वर्षा या सिंचाई का जल कुछ समय तक रूकने में समर्थ होता है। स्पष्ट है कि पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर कृषि नहीं की जा सकती।
सीढ़ीनुमा, लम्बाकार तथा कम चौड़े खेत पर्वतों के चारों तरफ गोलाई में स्थित मिलते हैं। इस प्रकार के खेत विश्व के अधिकांश पर्वतीय क्षेत्रों में, जहाँ जलवायु अनुकूल होती है, पाये जाते हैं। किन्तु जापान का उदाहरण इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है। यहाँ किसानों ने अत्यधिक मेहनत करके जगह-जगह भूमि को सीढ़ीनुमा खेतों में तब्दील कर दिया है। मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए अनेक तरह की खादों को प्रयोग में लाया गया है। अतः प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद प्रति हैक्टेयर उत्पादन अत्यधिक है।
पर्वतीय क्षेत्रों में ढालू भूमि होने के कारण मिट्टी का क्षरण भी तीव्र गति से होता है। वर्षा के समय मिट्टी तेजी से कट कटकर जल के साथ बहती रहती है। पहाड़ी भागों में वर्षा भी अधिक होती है। निरन्तर मिट्टी के क्षरण से मिट्टी की गहराई कम रह जाती है और पथरीली भूमि उभर जाती है। कहीं-कहीं पर गहरी नालियाँ बन जाती हैं जहाँ भविष्य में कृषि सदा के लिए असम्भव हो जाती है। वैसे पर्वतीय क्षेत्रों में स्वभावतः मिट्टी की गहराई कम पाई जाती है। मिट्टियाँ अधिकतर कठोर होती हैं जो कृषि के लिए अधिक उपयोगी नहीं होती।
पर्वतों पर कृषि के लिए सभी स्थानों की जलवायु अनुकूल नहीं होती। विषुवत रेखा से 30° अक्षांशों तक 2500 से 3000 मीटर की ऊँचाई तक 30° और 45° अक्षांशों के मध्य 2000 से 3000 मीटर की ऊँचाई तक 45° से 55° अक्षांशों के मध्य 1500 से 2000 मीटर की ऊँचाई तक 55° अक्षांशों के निकट लगभग 200 मीटर की ऊँचाई तक कृषि सम्भव होती है।
ऊँचाई अथवा अक्षांशों के अन्तर का प्रभाव तापमान पर पड़ता है। पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा द्वारा वांछित लाभ नहीं उठाया जा सकता, जबकि वर्षा काफी होती है। ढालू भूमि होने के कारण वर्षा का जल जल्दी बह जाता है।
पर्वतों का सबसे ज्यादा लाभ यह है कि उनकी चट्टानों से बहुमूल्य खनिज सम्पत्ति का भण्डार मिलता है। प्राचीन पर्वतों में खनिज पदार्थ ज्यादा मिलते हैं। इसकी वजह यह है कि प्रकृति की क्षरण करने वाली शक्तियाँ ऊपर की परतों को बहाकर ले जाती हैं और खनिज पदार्थ भूपृष्ठ के ऊपरी भाग में उभर आता है।
इसके अतिरिक्त अन्तर्जात बलों के प्रभाव में जब भूमि की परतें मुड़ती हैं तो खनिज पदार्थ भी मुड़कर ऊपर पहुँच जाते हैं। इन्हीं कारणों के फलस्वरूप यूराल पर्वतों पर सभी खनिज पदार्थों का भण्डार है। अपलेशियन पर्वतों पर कोयला, लोहा और मिट्टी के तेल का भण्डार पाया जाता है। दक्षिणी भारत के प्राचीन पठार पर मैगनीज, लोहा, सोना, कोयला और अभ्रक आदि खनिज बहुतायत से मिलते हैं।
वर्तमान सभ्यता का आधार खनिज पदार्थों पर टिका हुआ है। खनिज पदार्थों का अधिक-से-अधिक उत्पादन और उपयोग किया जा रहा है। मानव खनिजों की खोज में दूर पर्वतीय भागों में कठिनाइयों का सामना करते हुए भटकना मंजूर कर लेता है। पर्वतों पर खान खोदना भी अत्यन्त मुश्किल का कार्य है।
अधिक ऊँचाई पर वायुदाब की कमी की वजह से श्रमिकों को कार्य करने में भी कठिनाई होती है। भारी मशीनों को ले जाकर स्थापित करना भी कठिन होता है क्योंकि उत्तम किस्म के सड़कों के निर्माण में कठिनाई होती है। इसके अलावा खानों से निकले पदार्थ को ढ़ोने की समस्या भी अत्यन्त जटिल होती है क्योंकि परिवहन के साधन अपर्याप्त होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में अपनी-अपनी अलग समस्याएँ हैं।
पर्वतीय क्षेत्रों में औद्योगिक केन्द्रों की स्थापना भी सरल नहीं उद्योगों की स्थापना के लिए तरह-तरह की वस्तुएँ जुटानी पड़ती हैं। कच्चे माल, श्रमिकों की व्यवस्था, शक्ति के साधनों की सफलता तथा परिवहन के साधनों की व्यवस्था करना आवश्यक है।
प्रश्न प्रारूप
1. पर्वतीय वातावरण मानवीय क्रियाओं को किस प्रकार प्रभावित करता है? संक्षेप में लिखिए।
अथवा, पर्वतीय वातावरण में मानवीय क्रिया-कलापों का वर्णन कीजिए।