3.आपका कर्तव्य
3.आपका कर्तव्य
आपका कर्तव्य
नाममात्र का मानव अगर सच में मानव बनना चाहता है तो उसका अनिवार्य कर्तव्य है कि उसके सभी कर्म और विचार आदर्श उज्ज्वल और पावन परिष्कृत हों, जिससे उससे शुभ-मंगल ही निःसृत होकर संसार को प्राप्त हो। संसार पोषित शरीर से लोकमंगल की दिशा में ही चरित्र-चिंतन का विकास हो।
जिस भारतीय संस्कृति के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ से सुसंस्कृत हो गया, उस देवसंस्कृति के प्रचार-प्रसार में सभी का योगदान हो। मानवमात्र के त्राता (रक्षा करने वाला) इस अलौकिक, वैज्ञानिक संस्कृति की रक्षा और प्रचार में यदि तन- मन-धन से जुटा जाता है तो निश्चय ही ऋण और बंधन से मुक्त हो मोक्ष और परम शांति की दिशा में अग्रसर हो जाया जाएगा।
तन-मन-धन से संसार, राष्ट्र और देवसंस्कृति की सेवा करें, मान- बड़प्पन के लिए नहीं, सुख-स्पृहा के लिए नहीं, प्रत्युत परमात्म की प्रसन्नता और कर्तव्यपालन के लिए। निष्कामतापूर्वक किया गया कर्म साधन बन जाता है, जो पापों से बचाता है, पापों को काटता है एवं अंतःकरण की शुद्धिकर साध्य ईश्वर की अनुभूति कराता है। परम सद्गुरु कबीर साहब अपनी एक साखी में कहते हैं-
हाड़ बड़ा सेवा किये, धन बड़ा कछु देय।
अक्ल बड़ी उपकार कर, जीवन का फल येह ।। (कबीर साखी दर्पण, भाग-२)
‘हाड़ (शरीर) का सदुपयोग दूसरों की सेवा करने में है, धन का सदुपयोग अपनी आवश्यकताओं की न्यूनतम पूर्ति कर अधिक-से-अधिक सद्कार्यों में नियोजित करने में है और बुद्धि का सदुपयोग दूसरों के हित-संपादन में है-इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है।’
स्रोत: चिंता क्यों
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