Unique Geography Notes हिंदी में

Unique Geography Notes in Hindi (भूगोल नोट्स) वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर के उन छात्रों और अध्ययन प्रेमियों को काफी मदद मिलेगी, जिन्हें भूगोल के बारे में जानकारी और ज्ञान इकट्ठा करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस वेबसाइट पर नियमित रूप से सभी प्रकार के नोट्स लगातार विषय विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित करने का काम जारी है।

POLITICAL GEOGRAPHY (राजनितिक भूगोल)

14. हिन्द महासागर के भूराजनीतिक महत्व 

14. हिन्द महासागर के भूराजनीतिक महत्व



हिन्द महासागर

हिन्द महासागर का भूराजनीतिक महत्व 

        19वीं शताब्दी के आरम्भ में अमेरीकी नौसेना विशेषज्ञ अल्फ्रेड माहन ने कहा था, “जो भी देश हिन्द महासागर को नियंत्रित करता है वह एशिया पर वर्चस्व स्थापित करेगा। यह महासागर सात समुद्रों की कुंजी है। 21वीं शताब्दी में विश्व का भाग्य निर्धारण इसकी समुद्री सतहों पर होगा।” माहन का यह कथन सिर्फ ब्रिटेन के लिए ही नहीं, बल्कि अमेरीका सहित सभी विश्व शक्तियों के लिए नौसैनिक नीति निर्धारण करता आ रहा है।

         वर्तमान समय में हिन्द महासागर विश्व का ऐसा क्षेत्र है जो अस्थिर और अशान्त है। राजनीतिक हलचल और महाशक्तियों की प्रतिद्वन्द्विता इस क्षेत्र की मूल विशेषताएँ हैं। जब से नौसैनिक शक्ति के महत्व को समझा जाने लगा है, विशेषकर द्वितीय महायुद्ध के बाद से, तब से यह क्षेत्र संघर्ष, तनाव और टकराव का केन्द्र बन गया है। अपना नौसैनिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए विश्व की महाशक्तियाँ विशेषकर अमेरीका व सोवियत संघ, हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति बढ़ाती रही हैं।

हिन्द महासागर : भौगोलिक स्थिति एवं महत्व

         हिन्द महासागर विश्व का तीसरा बड़ा महासागर है। यह 10,400 किलोमीटर लम्बा, 9,600 किलोमीटर चौड़ा है। यह संसार के 20.6% समुद्री क्षेत्र में फैला हुआ है और 47 राज्य उसके तटों को छूते हैं। पूरब से पश्चिम की दिशा में यह आस्ट्रेलिया से अफ्रीका तक और उत्तर से दक्षिण में यह केप कोमोरिन से अटलांटिक महाद्वीप तक फैला हुआ है। इसका जल आस्ट्रेलिया, एशिया और अफ्रीका के तीन महाद्वीपों को छूता है। मलक्का जलडमरूमध्य तथा स्वेज नहर के बीच से यह क्रमशः प्रशान्त महासागर के तीन महाद्वीप को छूता है। तीसरी दुनिया के अधिकांश राष्ट्र इसके तट पर स्थित हैं या इसके भीतरी प्रदेश में हैं। इसके 36 तटवर्ती और 11 भीतरी देश हैं।

       इस विशाल जल क्षेत्र में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण द्वीप और प्रवालद्वीप हैं। आस्ट्रेलिया द्वीप तो पूरा महाद्वीप ही है। संसार में क्षेत्रफल की दृष्टि से पांचवां द्वीप मेडागास्कर भी यहाँ पर स्थित है। इसके अलावा श्रीलंका, सुमात्रा और जावा जैसे बड़े द्वीप, तीन बड़े द्वीप समूह तथा सारे महासागर में फैले अनेक छोटे-छोटे द्वीप हैं। 15वीं शताब्दी में एक मानचित्र बनाने वाले ने अनुमान लगाया था कि हिन्द महासागर में 12,600 टापू है।

       हिन्द महासागर का महत्व उसके जल मार्गों और उसके क्षेत्र में उपलब्ध कच्चे माल के कारण अत्यधिक है। इसके जल मार्ग पश्चिम और जापान के लिए जीवन रेखाएँ हैं जिनके बन्द होने या जिन पर विरोधी का प्रभुत्व स्थापित होने से उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न पैदा हो जाता है। इसके गर्भ में उपलब्ध कच्चे माल के भण्डार महाशक्तियों में प्रतिद्वन्द्विता के कारण हैं। विश्व का 37% तेल, 90% रबड़, 70% टिन, 79% सोना, 28% मैंगनीज, 27% क्रोमियम, 16% लोहा, 12.5% सिक्का, 11.5% टंगस्टन, 11% निकल, 10% जिंक, 98% हीरे और 60% यूरेनियम इसके क्षेत्र में पाये जाने की आशा है।

      इसकी समुद्री सतह पर उपलब्ध होने वाले स्रोतों, विशेषकर ऊर्जा स्रोतों की कमी नहीं सोवियत लेखक येठोनी सम्यात्सेव ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द महासागर शान्ति और सुरक्षा की समस्याएं’ में लिखा है, “संयुक्त राज्य अमेरिका यहाँ से 40 तरह का कच्चा माल ले जाता है जिसमें यूरेनियम, लिथियम, बेरीलियम, इत्यादि सैनिक महत्व का कच्चा माल भी होता है। जापान अपनी तेल की प्रायः शत-प्रतिशत मांग फारस की खाड़ी के तेल से पूरी करता है। हिन्द महासागर क्षेत्र के देशों से ही वह 75 प्रतिशत लौह अयस्क 35 प्रतिशत कोक कोयले, 90 प्रतिशत बॉक्साइट, जिंक और प्राकृतिक खड़ का आयात करता है।”

        एक परिवहन मार्ग के नाते हिन्द महासागर का महत्व अपार है। यूरोप, पूर्वी अफ्रीका, पश्चिमी दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशिया, सुदूरपूर्व, आस्ट्रेलिया तथा ओशियाना को जोड़ने वाले जल एवं वायु मार्ग ययाँ से गुजरते हैं। हिन्द महासागर अटलांटिक और प्रशान्त महासागरों को जोड़ता है। जल मार्गों का जाल यहाँ सबसे घना है। उदाहरणार्थ, संसार में टैंकरों द्वारा ढोये जाने वाले खनिज तेल का 57 प्रतिशत ओर्मुज जलडमरूमध्य से होकर जाता है। हर ग्यारह मिनट में एक जहाज यहां से गुजरता है।

      कुछ समय पहले इस मार्ग से माल से लदे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जहाजों का ही आना-जाना होता था, परन्तु आज अमेरीका व रूस की पनडुब्बियाँ यहाँ से आती-जाती हैं एवं तेल से भरे सैकड़ों जहाज प्रत्येक माह जापान, यूरोप एवं उत्तरी व दक्षिणी अमेरीका जाने के लिए हिन्द महासागर से होकर ही गुजरते हैं क्योंकि इनके लिए यही मुख्य मार्ग बन गया है। हिन्द महासागर के ऊपर से जाने वाले वायुमार्गों का महत्व भी इधर बहुत बढ़ गया है। इनकी कुल लम्बाई दस लाख किलोमीटर से अधिक है। अन्तर-महाद्वीप वायुभागों की सेवाएं प्रदान करने वाले संसार के 240 हवाई अड्डो में से लगभग एक-तिहाई हिन्द महासागर क्षेत्र के देशों में हैं।

    उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस क्षेत्र में शान्ति और सहयोग का वातावरण बनाना तथा ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करना कितना आवश्यक है जिनमें सभी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुरूप हिन्द महासागर का निर्बाध उपयोग कर सकें।

हिन्द महासागर महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा का केन्द्र

       द्वितीय महायुद्ध से पूर्व हिन्द महासागर के अधिकांश तटवर्ती क्षेत्रों पर ब्रिटेन का नियंत्रण था तथा हिन्द महासागर को ब्रिटेन की झील के नाम से पुकारा जाता था। द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के साथ हिन्द महासागर के तटवर्ती क्षेत्रों से ब्रिटेन का प्रभुत्व समाप्त होने लगा; 1966 में ब्रिटेन ने स्वेज से पूर्व में स्थित अपने नौ सैनिक अड्डों को धीरे-धीरे समाप्त करने की घोषणा कर दी। इससे यह क्षेत्र महाशक्तियों की राजनीति का एक प्रधान अखाड़ा बन गया। इस सम्बन्ध में तीन दृष्टिकोण प्रचलित हैं-

     प्रथम यह कहा जाता है कि हिन्द महासागर में अमेरीकी हित उसकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित हैं, तथा वह जानबूझकर सोवियत प्रसारवाद का भूत खड़ा कर रहा है।

     द्वितीय, कतिपय विद्वानों का मत है कि महाशक्तियों की हिन्द महासागर में रुचि शीत युद्ध का एक विस्तार है जिसने इस क्षेत्र में अति शक्ति प्रतिद्वन्द्विता को जन्म दिया है।

     तृतीय, कतिपय चीनी और अमेरीकी कूटनीतिज्ञ किसिंगर आदि यह मानते हैं कि सोवियत संघ इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य स्थापित करने को लालायित रहा है।

       भारत और आस्ट्रेलिया को छोड़कर किसी तटवर्ती देश के पास बड़ी नौसेना नहीं है और भारत और ऑस्ट्रेलिया की नी सेनाएँ भी बाहरी शक्तियों की नौसेनाओं की तुलना में बहुत साधारण हैं। बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप की स्थिति में महासागरीय क्षेत्र कमजोर और असुरक्षित होता है।

      1960 के दशक के अन्तिम वर्षों में ब्रिटिश नौसेना ने इस क्षेत्र से हटना प्रारम्भ कर दिया। इससे इस महासागर में अन्य शक्तियों की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो गयीं। इन शक्तियों के इस क्षेत्र में रुचि के अनेक कारण हैं-व्यापारिक, राजनीतिक, सामरिक। इस समय इस महासागर में भारतीय नौसैनिक बेड़ा है, अमेरीका का सातवां नौसैनिक बेड़ा है, रूस की पनडुब्बियाँ और लड़ाकू जहाज हैं, ब्रिटेन और फ्रांस के घटते हुए पर महत्वपूर्ण नौसैनिक हित हैं तथा चीन और जापान की उभरती हुई नौसैनिक उपस्थिति है। इस समय कुल मिलाकर हिन्द महासागर में 181 विदेशी युद्धपोत तैनात हैं। इनमें से अमेरीका के 77, रूस के 40, ब्रिटेन के 18, और फ्रांस के 33 युद्धपोत शामिल हैं।

हिन्द महासागर में अमेरीकी उपस्थिति:-

        हिन्द महासागर में अमेरीका की उपस्थिति सन् 1959 के बाद से ही देखी जा सकती है जब उसने साम्यवाद के प्रतिरोध की नीति अपना ली थी। अमेरीका ने हिन्द महासागर क्षेत्र से अपनी उपस्थिति का विस्तार उस समय करना प्रारम्भ किया जब ब्रिटेन ने यह संकेत दिया था कि वह हिन्द महासागर क्षेत्र से हटने की मजबूरी में है। अमेरीकी विचारकों का मत था कि हिन्द महासागर क्षेत्र से ब्रिटिश वापसी से वहाँ एक शक्ति-शून्य उत्पन्न हो जायेगा जिसका भरा जाना आवश्यक है। अगस्त 1964 में आंग्ल-अमेरीकी संयुक्त दल ने सैनिक अड्डों के लिए द्वीपों के चुनाव के निमित्त हिन्द महासागर का संयुक्त सर्वेक्षण किया।

       1970 के दशक में अमेरीका का हिन्द महासागर के मुख्य प्रवेश द्वारों पर नियंत्रण हो गया। उसने सामन्स टाउन पर अर्थात् हिन्द महासागर में अटलाण्टिक महासागर के केप मार्ग द्वारा प्रवेश पर नियंत्रण स्थापित कर लिया; मसीरा पर अर्थात् डियागो गार्शिया पर अर्थात् मध्यवर्ती हिन्द महासागर और दक्षिण से प्रवेश पर नियंत्रण कर लिया; कोकबर्न साउण्ड और केप उत्तर-पश्चिम पर अर्थात् प्रशान्त महासागर के दक्षिण से हिन्द महासागर में प्रवेश पर नियंत्रण कर लिया।

      अमेरीका ने आसियन (ASEAN) देशों के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित करके मलक्का जलडमरूमध्य पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। कहा जाता है कि अमेरीका अब हिन्द महासागर के सभी प्रवेश पथों को नियंत्रित करता है और उसने हिन्द महासागर को एक अमेरीकन झील में परिवर्तित कर लिया है।

    हिन्द महासागरीय क्षेत्र में अमेरीका के न्यस्त आर्थिक हित बड़े महत्वपूर्ण हैं। अर्थशास्त्रियों की गणनाओं के अनुसार हिन्द महासागर क्षेत्र के देशों की अर्थव्यवस्थाओं में अमेरीका का सीधा पूँजी-निवेश दस अरब डॉलर से अधिक का है। विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में लगाये गये हर डॉलर से अमेरीका 4.25 डॉलर का लाभ पाता है। जिन देशों से यह लाभ पाया जाता है, उनमें अधिसंख्य हिन्द महासागर क्षेत्र में ही स्थित हैं।

      हिन्द महासागर में अमेरीका की उपस्थिति का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें उसके न केवल स्थायी सैनिक अड्डे हैं बल्कि उसे अनेक देशों की हवाई पट्टियों और बन्दरगाहों के प्रयोग की सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं। उसके परमाणु अस्त्रों से लैसे युद्धपोत इसमें निरन्तर गश्त लगाते हैं। अमेरीका का ‘निमित्ज’ नामक विमान वाहक जहाज भी यहाँ विद्यमान है।

        डियागो गार्शिया उसका एकमात्र बन्दरगाह बन गया है। जिन देशों में अमेरीका को हवाई पट्टियों या बन्दरगाहों की सुविधाएँ उपलब्ध हैं उनमें प्रमुख ये हैं- मिस्र में एट्ज्योन का हवाई सैनिक अड्डा, शर्म-अल-शेख का नौसैनिक अड्डा तथा रस बानस का अड्डा, सोमालिया में बरबेरा, पाकिस्तान में करांची के पश्चिम में ग्वादर का बन्दरगाह, कीनिया में मोम्बासा, ओमान में मसीरा हवाई अड्डा और मैराड, आस्ट्रेलिया में डार्विन हवाई अड्डा, आदि। इसके अतिरिक्त, बहरीन, जिबूती और सऊदी अरब में अमेरीका के पास स्थायी अड्डे हैं।

      अमेरीका के हिन्द महासागरीय अड्डों में डियागो गार्शिया सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इस अड्डे का संचार नेटवर्क आणविक पनडुब्बियों से प्रक्षेपित सामरिक प्रक्षेपास्त्रों की दिशा निर्धारित करने की क्षमता रखता है। इस अड्डे का तेजी से विस्तार किया जा रहा है। इस अड्डे को नये नये शस्त्रास्त्रों से सुजज्जित किया जा रहा है। यहाँ नाभिकीय और रासायनिक अस्त्र रखे गये हैं। भण्डार पोतों को यहाँ स्थायी लंगर डालकर खड़ा किया गया है।

       डियागो गार्शिया’ अमेरीका का न केवल नौसैनिक अड्डा ही है, वरन् यहाँ पर वायुसैनिक अड्डे का भी निर्माण किया गया है। इसी द्वीप पर बारह हजार फीट लम्बी हवाई पट्टी का भी निर्माण किया गया है। डियागो गार्शिया पर अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ़ करके अमेरीका एशिया और अफ्रीका के महाद्वीपों पर अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहता है और सोवियत संघ के नौसैनिक रास्तों पर नजर रखने लगा।

हिन्द महासागर में सोवियत उपस्थिति:-

          सोवियत संघ भी अपनी सुरक्षा नाम पर हिन्द महासागर क्षेत्र में सक्रिय रहा है। 1967 में ब्रिटेन द्वारा स्वेजपूर्व के नौसैनिक अड्डों को छोड़ देने की घोषणा के बाद हिन्द महासागर में प्रथम बार सोवियत नौसैनिक गतिविधियों की शुरूआत हुई। मार्च 1968 में पांच युद्धपोतों का एक सोवियत नौसैनिक स्क्वैड्रन दक्षिण एशिया, अरब सागर, फारस की खाड़ी, लाल सागर और पूर्वी अफ्रीका के बन्दरगाहों में पहुँचा। उसके बाद अनेक वर्षों तक सोवियत संघ का एक नौसैनिक स्क्वैड्रन हिन्द महासागर की यात्रा करता रहा। 1979 से सोवियत संघ ने हिन्द महासागर में अधिक संख्या और अधिक बार युद्धपोत भेजना प्रारम्भ कर दिया।

       लगभग 20 से 40 सोवियत जहाज इस क्षेत्र में लगातार उपस्थित रहने लगे। बाद में सोवियत संघ ने सोकोतरा द्वीप अदन, होदेदा, सिचेलेस और कम्पूचिया में कुछ सुविधाएँ प्राप्त की, परन्तु अमेरीका के समान कोई स्थायी सैनिक या असैनिक अड्डा प्राप्त नहीं किया।

      सोवियत संघ के अनुसार अपनी सुरक्षा के खातिर ही उसे हिन्द महासागर में अपने युद्धपोत रखने पड़ रहे हैं। सोवियत संघ के यहाँ कभी कोई अड्डे नहीं रहे और न ही वह कोई अड्डा बनाने का इरादा रखता था।

हिन्द महासागर में फ्रांस और चीन:-

      री यूनियन द्वीप पर फ्रांस का अधिकार है, इसलिए फ्रांस भी कभी-कभी इस क्षेत्र में घुसपैठ करता रहता है। हाल ही में चीन भी हिन्द महासागर में रुचि लेने लगा है। चीन हिन्द महासागर में सोवियत संघ का प्रतिद्वन्द्वी बनना चाहता था। हाल ही में उसने कोको द्वीप पर अपनी नौसेनाएँ तैनात कर दी हैं। म्यांमार की गुंटा सरकार ने अण्डमान द्वीपों के निकट कोको द्वीप जिस पर बर्मी सम्प्रभुता है चीन को लीज पर दे दिया है। तथा चीन ने वहाँ पर एक भारी नौसैनिक अड्डा तैयार कर लिया है। अब तो चीनी पनडुब्बियाँ बंगाल की खाड़ी के मुहाने तक पहुंच चुकी हैं।

      इस प्रकार इसे महाशक्तियों की सीनाजोरी ही कहा जायगा कि वे तटवर्ती देशों की मांग की उपेक्षा करके हिन्द महासागर के शान्त जल को अशान्त बनाने पर तुली हुई हैं। महाशक्तियाँ हिन्द महासागर को अपने शक्ति प्रदर्शन का अखाड़ा बना सकती हैं, इस सम्भावना को ध्यान में रखते हुए ही भारत ने 1975 में हिन्द महासागर को ‘शान्त क्षेत्र’ घोषित किये जाने की मांग उठायी थी।

पर्यावरण प्रदूषण के खतरे-

       हिन्द महासागर पर पर्यावरण प्रदूषण का प्रकोप कुछ अधिक ही रहा है। वर्तमान समय में सैनिक खतरों से भी अधिक गम्भीर खतरा पर्यावरण प्रदूषण से है जिसके कारण इस महासागर के अस्तित्व का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। हिन्द महासागर विश्व के दो प्रमुख जल मार्गों में से एक है। जिन देशों में जलमार्ग के माध्यम से तेल की आपूर्ति होती है उनके जहाज प्रायः इसी महासागर से होकर जाते हैं। इस कारण इस मार्ग पर चलने वाले तेल के टैंकरों से रिसने वाला तेल हिन्द महासागर में गिरता है एवं पानी को प्रदूषित करता है।

     इतना ही नहीं, इस महासागर में ही तेल के खाली टैंकरों को धोया भी जाता है। इस प्रकार तेल का कचरा भी अत्यधिक मात्रा में समुद्र के पानी में मिल जाता है। समुद्र के बीच में जहाजों को धोना जहाजरानी व पर्यावरण कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है।

       वैज्ञानिकों का मानना है कि टैंकरों से गिरा कुछ तेल समुद्र के जल में मिल जाता है, बाकी तेल कचरे के साथ ठोस पिण्ड बनकर समुद्र के तल में बैठ जाता है। कुछ तेल तेज लहरों के साथ समुद्र तट पर आ जाता है, परन्तु जो तेल कचरा रहित समुद्र के तल में बैठ जाता है उससे प्रति वर्ष हजारों टन के ठोस पिण्ड समुद्र में बन जाते हैं। ये पिण्ड लगातार पर्वताकार होते जा रहे हैं।

हिन्द महासागर की समस्या और भारतीय दृष्टिकोण

       भारत दक्षिणी एशिया का न केवल प्रमुख देश है अपितु गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का अगुआ भी है। भारत सारे संसार में ही और, बेशक एशिया में भी, शान्ति और सुरक्षा के लिए संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। एशिया में आधिपत्यवादी ध्येयों की पूर्ति और विश्व प्रभुत्व की स्थापना की। साम्राज्यवादी देशों की नीति के कारण यहाँ तनाव में वृद्धि पर भारत गम्भीर चिन्ता व्यक्त करता है। भारत के विदेश मंत्रालय की 1981-82 की वार्षिक रिपोर्ट में हिन्द महासागर में महाशक्तियों द्वारा नये अड्डों की खोज को एक प्रमुख कारण बताया गया।

     एशिया महाद्वीप में सामान्य स्थिति में उत्पन्न जटिलता को देखते हुए भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा तभी सुनिश्चित कर सकता है, जबकि न केवल उसकी सीमाओं से लगे भागों में, बल्कि सारे एशिया में तनाव में शिथिलता आये, शान्ति और स्थिरता का वातावरण बने। यही कारण है कि भारतीय नेता दक्षिणी एशिया में तनाव बढ़ाये जाने और हिन्द महासागर का सैन्यीकरण करने के विरोध को, दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण-पश्चिमी तथा सुदूरपूर्व में राजनीतिक नियमन लाने में सहयोग को देश की विदेश नीति के प्रमुख कार्यभारों में गिनते हैं।

        हिन्द महासागर के बढ़ते सैन्यीकरण पर भारत में उचित ही चिन्ता व्याप्त हो रही है। इस सैन्यीकरण का भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः भारत के व्यापक राष्ट्रीय, सुरक्षात्मक और आर्थिक हित इसके शान्त बने रहने पर निर्भर करते हैं।

     प्रथम, हिन्द महासागर का जल भारत को तीन दिशाओं से छूता है। इसके शान्त और स्थिर रहने से उसकी समुद्री सीमाएं सुरक्षित हैं।

       द्वितीय, भारत की सीमाएं हिन्द महासागर में सैकड़ों मील दूर तक चली गयी हैं। उसमें स्थित सैकड़ों द्वीपों की सुरक्षा इसके शान्त बने रहने पर ही निर्भर करती है। उदाहरणार्थ, केवल बंगाल की खाड़ी में उसके 667 द्वीप हैं और अरब सागर में 508 द्वीप हैं। अण्डमान और निकोबार द्वीपों की सुरक्षा, जो भारतीय तट से क्रमश: 500 और 700 मील दूर हैं, इसके शान्त बने रहने पर ही निर्भर करती है।

       तृतीय, भारत को दूसरे क्षेत्रों और महाद्वीपों से जोड़ने वाले समुद्री और वायु मार्ग यहाँ से गुजरते हैं। इन मार्गों की सुरक्षा उसके लिए बुनियादी महत्व का प्रश्न है। यह बात देश की 6 हजार किलोमीटर से अधिक लम्बी समुद्री सीमा के लिए भी सही है और देश के प्रमुख औद्योगिक एवं सांस्कृतिक केन्द्रों के लिए भी, क्योंकि वे मुख्यतः सागर तट पर या उससे थोड़ी दूर ही स्थित हैं।

       चतुर्थ, हिन्द महासागर के अनेक द्वीपों में जैसा कि श्रीलंका, मालदीव, मारीशस, सेशेल्स आदि में भारतीय मूल के अनेक लोग निवास करते हैं, उनके हितों और अधिकारों की रक्षा की भी आवश्यकता है।

      पंचम, तेल और दूसरे खनिज भण्डारों के दोहन की, मत्स्य पालन के विकास की भारत की व्यापक योजनाएँ भी सागर से ही जुड़ी हुई हैं।

        स्पष्ट ही है कि ये योजनाएँ शान्तिपूर्ण है। इनका ध्येय देश की आर्थिक उन्नति करना, जनता की खुशहाली बढ़ाना है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट है कि अमेरीका द्वारा हिन्द महासागर के सैन्यीकरण से भारत की सुरक्षा के लिए खतरा है। भारतीय विद्वान जेड इमाम ने चिन्ता व्यक्त करते हुए पैट्रियट में लिखा है, “डियागो गार्शिया अड्डे से छोड़े गये नाभिकीय अस्त्रयुक्त प्रक्षेपास्त्र कुछ मिनटों में ही नई दिल्ली पहुँच सकते हैं।” अतः हिन्द महासागर के परिप्रेक्ष्य में भारत इस समूचे क्षेत्र को ‘शान्ति क्षेत्र’ घोषित करने तथा इस प्रश्न पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने के समर्थन में अपनी आवाज बुलन्द करता आया है।

          हिन्द महासागर में शान्ति क्षेत्र के प्रश्न का अपना इतिहास है। 1964 में यह विचार रखा गया था कि इस महासागर को ‘शान्ति और चैन’ का क्षेत्र घोषित करने सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय समझौता किया जाय। ऐसा प्रस्ताव काहिरा में हो रहे गुटनिरपेक्ष देशों के दूसरे सम्मेलन में श्रीलंका ने रखा था। एशिया और अफ्रीका के गुटनिरपेक्ष देशों ने इस पहल का समर्थन किया। परिणामस्वरूप, काहिरा सम्मेलन के प्रस्ताव में यह परामर्श प्रकट हुआ कि सर्वप्रथम उन महासागरों को परमाणु अस्त्र-रहित क्षेत्र घोषित किया जाये, जहाँ अभी ऐसे अस्त्र नहीं पहुंचे हैं। हिन्द महासागर में फौजी अड्डे बनाने के साम्राज्यवादी राज्यों के इरादे की सम्मेलन में भर्त्सना की गयी।

        सातवें और आठवें दशक में हिन्द महासागर को परमाणु अस्त्र-रहित घोषित करने का विचार अधिसंख्य तटवर्ती देशों के लिए अपर्याप्त हो गया था। वे अब अपना लक्ष्य यह मानते थे कि इस महासागर में न केवल नाभिकीय अस्त्रों को न आने दिया जाये, बल्कि यहाँ साम्राज्यवादी ताकतों की सैनिक उपस्थिति को ही रोका जाये। इस प्रकार उपर्युक्त विचार का आगे विकास हुआ और हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने का प्रश्न अधिकाधिक सक्रिय रूप से उठाया जाने लगा।

      1970 में लुसाका में हुए गुटनिरपेक्ष देशों के तीसरे शिखर सम्मेलन में श्रीलंका ने यह प्रस्ताव रखा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बनाने सम्बन्धी पेशकश की जाये। इस सम्मेलन में स्वीकृत ‘संयुक्त राष्ट्र के बारे में प्रस्ताव’ में सम्मेलन के सहभागियों ने एक ऐसा घोषणा-पत्र तैयार करने का समर्थन किया, जिसमें सभी देशों से आह्वान किया जाये कि वे हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र मानें वहाँ थलसेना, नौसेना या वायुसेना किसी का भी कोई विदेशी अड्डा न हो और साथ ही इस क्षेत्र में नाभिकीय अस्त्र न लगाये जायें।

       संयुक्त राष्ट्र महासभा के 26वें अधिवेशन में 16 दिसम्बर, 1971 को हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने सम्बन्धी घोषणा-पत्र स्वीकार किया गया। इसका मसौदा निम्न 13 देशों ने तैयार किया- इराक, ईरान, कीनिया, जाम्बिया, तंजानिया, बुरुण्डी, भारत, यमन, युगाण्डा, यूगोस्लाविया, श्रीलंका, सोमाली और स्वाजीलैण्ड। इस घोषणा पत्र में कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा यह विश्वास रखते हुए कि विशाल भौगोलिक क्षेत्र में शान्ति क्षेत्र की स्थापना समानता और न्याय के आधार पर सार्विक शान्ति लाने पर सुप्रभाव डाल सकती है, संयुक्त राष्ट्र संघ के ध्येयों और सिद्धान्तों के अनुरूप:

       “घोषणा करती है कि हिन्द महासागर को उन सीमाओं में, जिन्हें अभी निर्धारित किया जाना है, इसके ऊपर फैले आकाशीय क्षेत्र तथा उसके समुद्र तल सहित इस प्रस्ताव द्वारा चिरकाल के लिए शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाता है।”

        घोषणा-पत्र में बड़े देशों से आह्वान किया गया कि वे हिन्द महासागर में सैनिक उपस्थिति का विस्तार रोकने, यहाँ से अपने सभी फौजी अड्डे, फौजी ठिकाने, नाभिकीय संयंत्र और जनसंहार के शस्त्रास्त्र हटाने तथा अपनी सैनिक उपस्थिति का प्रदर्शन समाप्त करने के उद्देश्य से तटवर्ती देशों, इस क्षेत्र के निकटवर्ती देशों, सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य देशों का भी आह्वान किया गया कि वे इस बात को आवश्यक प्रत्याभूति दें कि हिन्द महासागर के इलाके में जो युद्धपोत और वायुसैनिक टुकड़ियाँ हैं वे बल प्रयोग का खतरा पैदा नहीं करेंगी; वे हिन्द महासागर के तटवर्ती या निकटवर्ती किसी देश की सम्प्रभुता, क्षेत्रीय अखण्डता या स्वतंत्रता को खतरे में न डालें।

        26वें अधिवेशन में इस प्रस्ताव के पक्ष में 61 देशों ने मत दिया और 55 ने मतदान में भाग नहीं लिया। इसके विरुद्ध किसी ने मत नहीं दिया।

       सन् 1993 में महासभा ने हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बनाने का संकल्प पारित किया। इस संकल्प में हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने की 1971 की घोषणा का अनुसरण किया गया।

        संक्षेप में, भारत हिन्द महासागर क्षेत्र की लगभग आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है, अतः इस क्षेत्र में भूमिका निभाने के लिए प्रयत्नशील है। भारत इस बात का समर्थन करता है कि:

      मुख्य हिन्द महासागर शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाय; सभी विदेशी अड्डों का उन्मूलन हो; यहाँ नाभिकीय शस्त्रास्त्र तथा जनसंहार के दूसरे शस्त्रास्त्र न लगाये जायें; तटवर्ती और तटेनर देशों के विरुद्ध नाभिकीय अन्त्रों का उपयोग न हो और सभी नाभिकीय राष्ट्र तत्सबन्धी दायित्व ग्रहण कर लें; यहाँ ऐसी सशत्र सेनाएँ और शास्त्रास्त्र न रखे जायें जो इस क्षेत्र के देशों की सम्प्रभुता, क्षेत्रीय अखण्डता और स्वतन्त्रता के लिए खतरा पेश करें। भारत की इन प्रस्थापनाओं की पूर्ति से हिन्द महासागर वास्तव में ही शान्ति क्षेत्र बन सकता है। मार्च 1983 में दिल्ली में हुए गुटनिरपेक्ष देशों के सातवें शिखर सम्मेलन में हिन्द महासाग के प्रश्न की ओ विशेष ध्यान दिया गया।


Read More:-


 

Tagged:
I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

LEAVE A RESPONSE

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Posts

error:
Home