28. स्थानिक या भूवैन्यासिक संगठन (Spatial Organisation) की संकल्पना
28. स्थानिक या भूवैन्यासिक संगठन (Spatial Organisation) की संकल्पना
मानव समाज के स्थानिक या भूवैन्यासिक संगठन का अध्ययन आर्थिक एवं सामाजिक भूगोल में अध्ययन की मुख्य विषय-वस्तु है। पृथ्वी सतह पर या उसके साथ विभिन्न मानव समाजों की होने वाली अन्तर्क्रिया ही स्थानिक व्यवस्था का आधार है। स्थानिक विश्लेषण का मुख्य उद्देश्य इस स्थानिक व्यवस्था की संरचना और क्रियाविधि का परीक्षण करते हुए मानवीय गतिविधियों के स्थानिक प्रारूपों एवं प्रक्रियाओं को पहचानना है।
मानवीय गतिविधियों के फलस्वरूप उत्पन्न स्थानिक प्रारूपों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है, यथा:
(i) अवस्थिति- जो पृथ्वी सतह पर बिन्दु के रूप में है।
(ii) अन्तर्क्रिया- जो संचरण की रेखाएँ हैं जिनके सहारे माल, मनुष्य, विचारों और सेवाओं का वहन होता है।
(iii) प्रदेश- जो पृथ्वी सतह के समरूपी विशेषता वाले स्वरूपी या कर्मोपलक्षी क्षेत्र हैं।
इन प्रारूपों को जन्म देने वाली स्थानिक प्रक्रियाएँ बड़ी जटिल हैं जिन्हें स्थानिक अन्तर्क्रिया द्वारा स्पष्ट किया जाता है। इन स्थानिक अन्तर्क्रियाओं में माल और सेवाओं का प्रवाह, प्रवसन, अल्पकालीन संचरण (जैसे- खरीददारी, वासस्थल से कार्यस्थल तक की यात्रा), सामाजिक संचरण, सूचनाओं का प्रसरण, आदि को सम्मिलित किया जाता है।
इन प्रक्रियाओं के स्पष्टीकरण में मानवीय व्यवहार के अध्ययन पर विशेष जोर दिया जा रहा है। विशेषकर इस बात पर कि मानव व्यवहार उन माध्यमों से कैसे प्रभावित होता है। जिन माध्यमों से उसने अपने स्थान का अवबोध या प्रत्यक्षीकरण किया है। इस प्रकार के प्रारूप एवं प्रक्रियाएँ स्थानिक पर्यावरण में उत्पन्न होते हैं, जो बढ़ती दूरी के साथ घटते प्रभाव के कारण स्थानिक अन्तर्क्रिया को बाधित या नियंत्रित करते हैं, लेकिन जिस स्थान में मानव अपनी गतिविधियों को संचालित करता है, वह स्थान सापेक्षिक है, क्योंकि यह स्थान दूरियों पर आधारित है और दूरी सापेक्षिक होती है तथा निरन्तर परिवर्तनशील है।
स्थानिक संगठन एक जटिल प्रक्रिया है। मानव प्रतिदिन अपने आवास स्थल से अपने कार्यस्थल को जाता है। यह कार्यस्थल खेत हो सकता है, कार्यालय हो सकता है, कोई कारखाना या शिक्षण संस्थान या व्यावसायिक प्रतिष्ठान आदि हो सकता है। इस संचरण (Movement) के फलस्वरूप मार्गों का निर्माण होता है। इस प्रकार, मनुष्य के आवास एवं कार्यस्थल में पारस्परिक रूप से कर्मोपलक्षी अन्तर्प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कृषि कार्य का क्षैतिज प्रसार अधिक होता है अतः ग्रामीण क्षेत्रों का स्थानिक संगठन ग्रामीण संस्कृति से प्रभावित होता है। उद्योग या व्यापार केन्द्राधारित (Nodal) होते हैं। इन केन्द्रों पर मनुष्य का गमनागमन एक भिन्न प्रतिरूप को जन्म देता है। मार्ग संगम बिन्दुओं पर केन्द्रस्थलों (Central Places) की स्थापना होती है।
केन्द्रस्थल तृतीयक क्रियाकलापों के केन्द्र होते हैं तथा भूवैन्यासिक संगठन में इनकी प्रमुख भूमिका होती है। गमनागमन के मार्ग पगडंडी, कच्ची सड़क, पक्की सड़क, राज्य मार्ग, राष्ट्रीय राजमार्ग, आदि स्तरों के होते हैं। इनके संगम बिन्दुओं पर स्थापित केन्द्र स्थल भी अपने कर्मोपलक्षी रूप में छोटे एवं बड़े होते हैं। इसे केन्द्र स्थलों का पदानुक्रम (Hierarchy) कहते हैं। यह स्थानिक संगठन की संरचना का आधार होता है। उपभोक्ता अपनी आवश्यकतानुसार किसी केन्द्र स्थल पर आता-जाता है। इसे उपभोक्ता व्यवहार कहते हैं।
उपभोक्ता किसी केन्द्र स्थल के चयन का निर्णय मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण से करता है। इसके साथ ही निवास या कार्यस्थल से केन्द्र स्थल की दूरी का प्रभाव भी उपभोक्ता व्यवहार एवं गमनागमन प्रतिरूप पर पड़ता है। यह सार्वभौमिक प्रवृत्ति होती है कि मानव न्यूनतम श्रम (लागत) से अधिकतम लाभ प्राप्त करना चाहता है। साथ ही बढ़ती दूरी के अनुरूप ही केन्द्र स्थलों का प्रभाव घटता भी जाता है। इस प्रकार स्थानिक या भूवैन्यासिक संगठन के मूल तत्व कार्यस्थल, गमनागमन, परिवहन मार्ग, अन्तर्सम्बन्ध, केन्द्र स्थल, पदानुक्रम, दूरी क्षय, आदि हैं।
स्थानिक संगठन की संरचना गमनागमन की बारम्बारता, केन्द्र स्थल के पदानुक्रमीय वर्ग एवं इनके बीच होने वाली अन्योन्याश्रित प्रक्रिया से सम्बन्धित है। उल्लेखनीय है कि केन्द्र स्थल कर्मोपलक्षी रूप से छोटे एवं बड़े होते हैं। केन्द्र स्थलों का पदानुक्रमीय महत्व गमनागमन प्रतिरूप एवं बारम्बारता को प्रभावित करता है। इसी आधार पर प्रत्येक केन्द्र स्थल के प्रभाव क्षेत्र का निर्धारण किया जाता है। केन्द्र स्थल सिद्धान्त के अनुसार ये कर्मोपलक्षी प्रदेश षटकोणीय होते हैं तथा न्यूनतम श्रम से अधिकतम लाभ के सिद्धान्त का अनुपालन करते हैं। किसी भी क्षेत्र का स्थानिक संगठन वहाँ की भूमि के मूल्य से प्रभावित होता है।
स्थानिक संगठन की प्रथम अवस्था में कोई गाँव या नगर दूरी पर स्थित होता है। धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ने से उसका प्रमुख कार्यक्षेत्र नगर के मध्य में स्थित होता है तथा जनसंख्या का बहाव बाहर की तरफ बढ़ता जाता है। इससे संलग्न ग्रामीण क्षेत्र की भूमि का उपयोग नगरीय कार्यों में होने लगता है, अतः इसका मूल्य बढ़ने लगता है। मानव अपनी बुद्धि चातुर्य के द्वारा परिवहन और संचार साधनों का विकास कर स्थानिक पर्यावरण को विशिष्टता प्रदान करता है।
परिवहन और संचार साधनों के विकास द्वारा पृथ्वी सतह पर माल, सेवाओं, मनुष्यों और सूचनाओं के वहन में वृद्धि हुई है। समय और लागत दूरी को कम करके आपूर्ति एवं माँग के क्षेत्रों को समीप लाकर आर्थिक स्थानों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है। इसी प्रकार दूरसंचार और शिक्षा द्वारा स्थान के सम्बन्ध में किए गए अवबोधों में विद्यमान अन्तरों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है।
इस प्रकार भूवैन्यासिक संगठन के संकल्पना सूत्र से भौगोलिक चिन्तन को न केवल सुनिश्चित दिशा मिली वरन् भौगोलिक अध्ययन मात्र वर्णनात्मक न रहकर प्रक्रिया विश्लेषण, सामान्यीकरण तथा सिद्धान्त प्रतिपादन के सोपानों से बढ़ता हुआ भविष्य के प्रक्षेपण (Projection) तथा पुनर्गठन के स्तर तक पहुँच गया। सभी गुण किसी विषय के सही अर्थ में वैज्ञानिक होने के दावे को स्थापित करते हैं। स्वाभाविक है कि इस स्तर तक पहुँचने में परम्परागत मानचित्र विवेचन के साथ-साथ सशक्त सांख्यिकीय विश्लेषण एवं प्रक्रियात्मक विवेचन की विधि बड़े पैमाने पर अपनाई गई। अतएव भूगोलवेत्ता क्षेत्रीय आयामयुक्त व्यावहारिक समस्याओं का निराकरण तथा समन्वित क्षेत्रीय विकास में अन्य विशेषज्ञों के साथ हाथ बंटाने में अधिक आत्मविश्वास के साथ अग्रसर हुए।
प्रश्न प्रारूप
1. स्थानिक या भूवैन्यासिक संगठन (Spatial Organisation) की संकल्पना का संक्षिप्त में विवरण दीजिए।