11. संथाल जनजाति के वास स्थान, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशेषताएँ
11. संथाल जनजाति के वास स्थान, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशेषताएँ
संथाल जनजाति के वास स्थान, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशेषताएँ
भारतीय जनजातियों में संथाल अपने परम्परावादी सामाजिक संगठन, हिन्दू रीती-रिवाज के अनुसार मृतक एवं शादी संस्कार और अनेक प्रकार के आर्थिक कार्यों के कारण अपनी पहचान बनाये हुए हैं। ये कृषि, पशुपालन, वन, वस्तु-संग्रह, आखेट और नौकरी अनेक आर्थिक कार्य करते हैं। श्रमिक के रूप में इनका मौसमी स्थानान्तरण दूर-दराज के मैदानी भागों में होता है जहाँ वे कृषि और अन्य निर्माण कार्यों में काम करते हैं और पुनः अपने क्षेत्र में लौट आते हैं। इससे प्रकट होता है कि इन्हें अपनी मिट्टी से बहुत लगाव होता है।
संथाल बारह गोत्रों में बँटे हुए हैं यथा-हल्डाक, विस्कृ, भरमू, हेमब्रायी, भारण्डी, सरेन, टूड, बैसर, वास्के, बेडिंम, चोरे तथा पैरिया। प्रत्येक गोत्र की अपनी परम्परा होती है और बहुधा एक गोत्र के लोग एक गाँव में रहते हैं। अनुमानतः संथालों की संख्या 30 लाख से अधिक है जिसका अधिकांश झारखंड के संथाल परगना में निवास करते हैं। अपने रूप-रंग भाषा और परम्परा से ये मलाया, जावा और हिंदेशिया के आदिवासियों से मिलते जुलते हैं। कहा जाता है कि संथाल यहाँ के आदिवासी हैं।
इनका काला रंग, औसत कद, सामान्य नाक-नक्शा द्रविड़ प्रजाति के निकट है जिसे कोल के नाम से जाना जाता है। ये शरीर से चुस्त और मन से भोले-भाले किन्तु सच्चे और सहिष्णु होते हैं। यही कारण है कि मैदानी भागों में आसानी से खप जाते हैं। अपनी रोटी के लिए संथाल बड़ी संख्या में बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में स्थानान्तरण करते हैं। इनका पूरा परिवार साथ-साथ प्रवास करता है।
निवास क्षेत्र:-
संथाल जनजाति के लोग बंगाल की वीर-भूमि उड़ीसा के कटक और झारखंड के पलामू, हजारीबाग, राँची और संथाल परगना आदि जनपदों में पाये जाते हैं। इनके निवास का प्रमुख क्षेत्र बिहार का संथाल परगना राँची पठार का भाग है जिसकी औसत ऊँचाई 200 से 250 मी० के मध्य है। यह पठारी भाग उत्तर एवं दक्षिण में राजमहल की पहाड़ियों से घिरा हुआ है।
पठार लावा निक्षेपण के कारण लगभग समतल है। लेकिन बीच-बीच में पहाड़ियों और नदी घाटियों के कारण एकबद्ध नहीं हैं। ब्राह्मणी, युआनी, अजय एवं मोर प्रमुख नदियाँ हैं जिनकी तलहटी जलोढ़ के कारण काफी उपजाऊ है। पठार एवं पहाड़ी ढाल वनों से आच्छादित है क्योंकि वहाँ पर्याप्त वर्षा होती है जिसका औसत 150 से०मी० से अधिक है। ऐसे भौगोलिक परिवेश में संथाल उपयुक्त भूमि पर कृषि करते हैं जहाँ कृषि भूमि नहीं है वहाँ वन वस्तु-संग्रह आखेट और पशुपालन से अपना जीवन-यापन करते हैं।
शारीरिक लक्षण:-
संथाल जनजाति का कद औसतन कम, इनका मुँह बड़ा, मोटे होठ, लम्बा सिर, चौड़ी नाक तथा बाल घुंघराले होते हैं।
अर्थव्यवस्था:-
आदिवासी लोग आज के विज्ञान के युग में भी अधिकांशतया प्रकृति पर ही आश्रित हैं। हजारों वर्षों से उनकी सम्पत्ति के मुख्य स्रोत जंगल, पहाड़, घाटियाँ एवं नदियाँ ही रही हैं। जंगलों तथा पहाड़ों से खाद्य-संग्रह करना, नदियों तथा तालाबों से मछली पकड़ना तथा कहीं-कहीं घाटियों व अन्यत्र पहाड़ी ढालों पर कृषि करना ही उनकी आजीविका के प्रमुख साधन रहे हैं।
संथाल लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। कृषि उत्पादन की कमी को आखेट द्वारा पूरा किया जाता है। ये मुख्यतः मोटे अनाजों की फसलें उगाते हैं। ये लोग वनों को काटकर खेती योग्य भूमि प्राप्त करते हैं तथा उनका प्रयोग बसने के रूप में भी करते हैं। पूर्णतः कृषि से जीवन-निर्वाह न चलने के कारण ये लोग चाय के बागों, मिलों तथा खानों में मजदूरी करते हैं।
संथाल जनजाति में विवाह:-
संथालों में विवाह शब्द ‘बाप्ला’ नाम से जाना जाता है। अपने हो वंश में विवाह इन लोगों में निषेध है। ये किसी भी अन्य वंश में विवाह कर सकते हैं। यह प्रचलित प्रथा है कि तीन पीढ़ी के बाद आपस में विवाह सम्पन्न किया जा सकता है। लेकिन कभी-कभी कुछ वंशों में विवाह परम्परागत संघर्षो की वजह से निषिद्ध माना जाता है, जिसका ये लोग आज भी पालन करते हैं। अक्सर विवाह में लड़कियों को वरण का अवसर मिलता है।
विवाह विशिष्ट दो प्रकारों से ही सम्पन्न होता है। प्रथम, वह जिसमें विवाह ‘रैबर’ (Marriage Maker) के द्वारा तय किया जाता है, जिसका प्रचलन आजकल बढ़ गया है। दूसरी प्रथा, जिसमें विवाह बिना ‘रैबर’ की सहायता के लड़के तथा लड़की के माता-पिता अथवा स्वयं लड़के-लड़की निश्चय करते हैं।
धर्म एवं जादू:-
संथालों में धर्म का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है, जिसने सम्पूर्ण जनजाति को सामाजिक एकता के सूत्र में रखने का प्रयत्न किया है। जादू के द्वारा उस अज्ञात रहस्यमय शक्ति पर नियंत्रण तथा प्रभुत्व रखा जाता है जो कि हानिकारक सिद्ध हो सकती है। विभिन्न प्रकार के धार्मिक प्रकार्यों के लिये अलग-अलग व्यक्ति होते हैं जिन्हें भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है जैसे- ओझा, जगुरु, कामरुगुरु, रेरेनिक, अतोनेक, कुदामनेक तथा देहरी।
प्राकृतिक कारणों से बीमार व्यक्ति का उपचार करने वाला व्यक्ति रेरेनिक कहलाता है अथवा जड़ी-बूटी वाला डाक्टर कहा जाता है। जब यह व्यक्ति उपचार करने में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता है तो फिर उन लोगों को उपचार करने के लिये बुलाया जाता है जिन्हें ‘बोंगा’ का समर्थन प्राप्त होता है तथा जनगुरु अथवा ओझा को भी बुलाया जाता है, जो जड़ी-बूटी के अतिरिक्त जादुई शक्ति से बीमार व्यक्ति को ठीक करने का प्रयत्न करते हैं।
प्रश्न प्रारूप
1. संथाल जनजाति के वास स्थान, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।