3. वॉन थ्यूनेन के कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त
3. वॉन थ्यूनेन के कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त
कृषि उत्पादन का कार्य विस्तृत क्षेत्र पर होता है, इसीलिए साधारणतया इसमें स्थानीयकरण सम्बन्धी कोई समस्या प्रथम दृष्टया नजर नहीं आती, किन्तु जिस तरह किसी उद्योग के किसी स्थान विशेष पर स्थानीयकरण की समस्या उत्पन्न होती है, उसी तरह यह समस्या कृषि उत्पादन में भी होती है। इस समस्या के समाधान हेतु 1826 में सर्वप्रथम वॉन थ्यूनेन ने प्रयास किया।
जॉन हेनरिज वॉन थ्यूनेन (1783-1850) एक जर्मन विद्वान थे। सन् 1810 में वे रोस्टोक नगर के नजदीक मैकलनबर्ग में टेलो कृषि फार्म के मैनेजर बने। थ्यूनेन जीवनपर्यन्त 40 सालों तक बड़ी ही कुशलता एवं सफलता के साथ अपना पद सम्भाले रहे।
अपने जीवन के अन्तिम 40 वर्षों में उन्होंने अपना फार्म चलाने के लिए लागत तथा उत्पादन की छोटी से छोटी जानकारी का अध्ययन किया। उन्होंने अपने कृषि अवलोकनों के माध्यम से एक विशेष तरह के परस्पर सम्बन्ध को ढूँढ निकाला, जो कि तुलनात्मक लाभ के सिद्धान्त पर आधारित था।
वॉन व्यूनेन के उस कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त पर विचार करने से पहले उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ शब्दाबलियों से परिचित होना आवश्यक है:
(अ) आर्थिक लगान (Economic Rent)- आर्थिक लगान वस्तुतः वह सापेक्षिक लाभ है, जो किसी फसल को बाजार के नजदीक की भूमि पर उपजाने से प्राप्त होता है।
(ब) लगान शून्य भूमि (No Rent Land)- ऐसी सीमान्त क्षेत्र की भूमि जहां फसल उत्पादन से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता, लगान शून्य भूमि कहते हैं।
वॉन थ्यूनेन ने अपने जटिल सिद्धान्त को सरल रूप देने के लिए कुछ मान्यताओं की एक सूची तैयार की, ताकि सम्बन्धित बाधाओं पर अंकुश रखा जा सके। इनकी मान्यताएँ निम्न प्रकार थीं:
1. सर्वप्रथम उन्होंने एक ऐसे विलग प्रदेश (Isolated (State) की कल्पना की, जिसके केन्द्र में एक ही नगर स्थित हो और उस नगर के चतुर्दिक विस्तृत क्षेत्र हो। वह नगर उस प्रदेश का एकमात्र क्रय-विक्रय स्थल (बाजार) हो। उस प्रदेश से न तो कृषि उत्पाद बाहर बेचा जाता हो और न ही वह नगर अन्य प्रदेश से आयात करता हो।
2. केन्द्रीय नगर को छोड़कर सम्पूर्ण क्षेत्र में ग्रामीण आबादी हो। ग्रामीण आबादी अधिकतम लाभ प्राप्ति की इच्छुक हो और नगर में मांग के अनुरूप फसलों की किस्मों में फेरबदल करने में सक्षम हो।
3. उस विलग प्रदेश में भूतल समान हो तथा सर्वत्र समान भौतिक दशाएँ हों, अर्थात् धरातल, जलवायु, मृदा की उत्पादन क्षमता, आदि सर्वत्र समान हो तथा फसलोत्पादन के अनुकूल हो।
4. सम्पूर्ण प्रदेश में उत्पादन एवं परिवहन की लागत समान हो। साथ ही कृषि उत्पादन में प्रदेश आत्मनिर्भर भी हो।
5. इस विलग प्रदेश में एक ही प्रकार का परिवहन साधन घोड़ा गाड़ी उपलब्ध हो।
6. परिवहन व्यय दूरी एवं भार के अनुपात में वृद्धिमान हो।
इन मान्यताओं के पश्चात् थ्यूनेन ने कहा कि उक्त प्रकार अनुकूल दशाओं वाले विलग प्रदेश में केन्द्रीय नगर के चारों की तरफ नगर से बढ़ती दूरी के अनुरूप विभिन्न फसलों का उत्पादन पृथक्-पृथक् संकेन्द्रीय वृत्तखण्डों (Concentric Zones) में होगा।
नगर के निकटतम प्रथम वृत्तखण्ड में फल, शाक-सब्जी व दूध का उत्पादन होगा, क्योंकि इन वस्तुओं की मांग नगर में अधिक रहती है और ये जल्दी खराब भी हो जाती हैं। इस पेटी का क्षेत्रीय विस्तार नगर की जरूरतों पर निर्भर करता है। अगर नगरीय जनसंख्या में इन चीजों की मांग अधिक होगी, तो यह पेटी अधिक दूरी तक विस्तृत होगी।
द्वितीय वृत्तखण्ड में ईंधन के लिए लकड़ी का उत्पादन कार्य होगा। लकड़ी के भारी होने के कारण यद्यपि परिवहन व्यय अधिक होगा, परन्तु शाक-सब्जी व दूध के परिवहन व्यय से कम ही होगा, अतः इन्हें द्वितीय वृत्तखण्ड में ही स्थान दिया जाएगा।
तृतीय वृत्तखण्ड की भूमि में गहन कृषि द्वारा अन्नोत्पादन किया जाएगा। गहन अन्नोत्पादन की वजह से पशुचारण के लिए परती जमीन नहीं छोड़ी जाएगी, किन्तु चतुर्थ वृत्तखण्ड में विस्तृत कृषि प्रणाली द्वारा अन्नोत्पादन होगा और साथ ही पशुपालन भी। परिवहन व्यय की सापेक्षिक दर के अनुसार ही पंचम वृत्तखण्ड में तीन खेत प्रणाली अपनाई जाएगी। अन्त में, षष्टम खण्ड में मांस तथा दूध प्राप्ति हेतु पशुपालन होगा। मांस वाले पशुओं को पैदल ही नगर को भेज दिया जाएगा, किन्तु दूध को परिवर्तित स्वरूप में अर्थात् मक्खन, पनीर, आदि के रूप में बाजार में भेजा जाएगा।
1. फल तथा सब्जी
2. ईंधन के लिए लकड़ी
3. गहन कृषि
4. कृषि और पशुपालन
5. तीन खेती प्रणाली
6. विस्तृत पशुपालन (मांस तथा दुग्ध प्राप्ति हेतु पशुपालन)
इस तरह, वॉन थ्यूनेन के अनुसार नगर के चारों तरफ छह संकेन्द्रीय वृत्तखण्डों में विभिन्न फसलों का उत्पादन होगा। उन वृत्तखण्डों अनुसार का सीमांकन अधिकतम लगान के सिद्धान्त के होगा। दूसरे शब्दों में, इस विलग प्रदेश में नगर से बढ़ती दूरी के अनुसार विभिन्न वृत्तखण्डों में विभिन्न फसलों का उत्पादन स्पष्टतः परिवहन व्यय के अनुरूप निर्धारित होगा, जिसे निम्न सूत्र से स्पष्ट किया जा सकता है:
P= S – (E+T)
जहाँ, P = किसान को फसल विक्रय से लाभ
S = फसल का विक्रय मूल्य
E = उत्पादन लागत
T = परिवहन व्यय
अर्थात् किसी फसल का उत्पादन नगर से उतनी दूरी तक ही हो सकेगा, जितनी दूरी तक उसके उत्पादन लागत और बाजार में पहुंचने तक के व्यय का योग उस फसल के प्रचलित मूल्य के बराबर हो। इस तरह अब तक हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कृषि पेटी की बाह्य दूरी परिवहन लागत के कारण घटते हुए लाभ के द्वारा निर्धारित होती है, परन्तु सिर्फ ऐसा ही नहीं है, वॉन थ्यूनेन के विचार से परिवहन व्यय तो मुख्य निर्धारक घटक है ही, साथ ही विभिन्न फसलों से प्राप्त ‘सापेक्षिक लाभ’ भी प्रभाव डालता है।
अतः उन्होंने कहा कि किसी कृषि वृत्तखण्ड में आन्तरिक क्षेत्र में उसी फसल का उत्पादन किया जाएगा, जिससे किसान को अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक लगान प्राप्त हो। इस तथ्य को थ्यूनेन ने संलग्न चित्र 2 के माध्यम से समझाया है।
चित्र में ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ तथा ‘घ’ फसलों हेतु आर्थिक लगान और बाजार से दूरी का सम्बन्ध प्रदर्शित है, जबकि अन्य तथ्य समान माने गए हैं। कोई फसल बाजार से जितनी दूर उत्पादित की जाएगी, स्पष्टतः उस पर परिवहन व्यय उसी अनुपात में बढ़ जाएगा और लगान घटता चला जाएगा। यही कारण है कि लगान व दूरी का सम्बन्ध प्रदर्शित करती सरल रेखाएं झुकती हुई दिखाई गई हैं। चूंकि सभी फसलों की परिवहन दशाएं समान नहीं हैं, अतः ढाल प्रवणता में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है।
ग्राफ में ‘क’ फसल का उत्पादन 4.5 मील तक हो सकता है। इसी प्रकार ‘ख’ फसल का 10 मील, ‘ग’ का 25 मील तथा ‘घ’ का 40 मील तक उत्पादन हो सकता है, क्योंकि क्रमशः इन्हीं दूरियों तक इन फसलों के उत्पादन से कुछ-न-कुछ आर्थिक लगान जरूर प्राप्त होगा, परन्तु सापेक्षिक लाभ के सिद्धान्त के आधार पर देंखे तो ‘क’ फसल (शाक-सब्जी-दूध) का उत्पादन विक्रय स्थल (नगर) से 1.7 मील की दूरी तक ही हो सकता है, क्योंकि उसके आगे इससे प्राप्त लगान ‘ख’ फसल से कम हो जाता है।
इसी तरह ‘ख’ फसल (ईंधन हेतु लकड़ी) का उत्पादन 5 मील तक, ‘ग’ फसल (गहन कृषि) 19 मील तथा ‘घ’ फसलोत्पादन (विस्तृत कृषि) 40 मील की दूरी तक हो सकता है।
इसके बाद की भूमि पर मांस व दूध के लिए पशुपालन होगा। अगर विक्रय स्थल (नगर) को केन्द्र मानकर इन्हीं दूरियों की त्रिज्या से वृत्त खींचे जाएं, तो नगर के चारों ओर इन विभिन्न फसलों के उत्पादन वाले संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड बन जाते हैं।
समय गुजरने के साथ-साथ वॉन थ्यूनेन द्वारा प्रतिपादित संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड में फसल उत्पादन की आलोचना होने लगी। लोगों द्वारा यह प्रश्न उठाया जाने लगा कि यदि परिवहन के साधनों में बदलाव हो जाए, तो क्या संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड का स्वरूप बरकरार रह सकेगा? थ्यूनेन को भी लगा कि उनके सिद्धान्त में कहीं कुछ कमी है।
अतः सिद्धान्त को संशोधित करने के लिए उन्होंने एक नौ-परिवहन योग्य नदी को भी परिवहन के साधन के रूप में माना और कहा कि इससे माल ढुलाई तीव्र गति से होगी एवं धरातलीय परिवहन की तुलना में इस पर मात्र 10 प्रतिशत लागत आएगी।
दूसरे, उन्होंने एक वैकल्पिक विक्रय स्थल को भी इस मॉडल में स्थान दिया, जिसमें प्रतियोगिता की पर्याप्त गुंजाइश हो। तीसरा परिवर्तन उन्होंने भूमि की समरूप उर्वरता शक्ति वाली मान्यता में किया। इन सब परिवर्तनों का प्रभाव यह हुआ कि आज के भूमि उपयोग विन्यास की भांति थ्यूनेन के संशोधित मॉडल का भी स्वरूप अनियमित दिखने लगा।
वर्तमान में कृषि स्थानीयकरण सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप से चरितार्थ करने में थ्यूनेन की काल्पनिक मान्यताएं खरी नहीं उतरतीं। आज के युग में विविध प्रकार के तथा तीव्रगामी परिवहन के साधनों का विकास हो गया है। उत्तरोत्तर प्राविधिक विकास के फलस्वरूप परिवहन के साधनों के अलावा अन्य सामाजिक-आर्थिक कारक यथा- कृषि उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीक, आदि भी किसी प्रदेश के भूमि उपयोग को प्रभावित करने लगे हैं।
19वीं सदी में, जब इस सिद्धान्त का जन्म हुआ था, नगरों में लकड़ी का महत्व अधिक था। खाना पकाने के अतिरिक्त घरों को गर्म रखने के लिए लकड़ी जलाई जाती थी, जबकि आज खाना पकाने हेतु रसोई गैस या मिट्टी के तेल का उपयोग होता है और घरों को गर्म रखने के लिए विद्युत् चालित रूम हीटर का।
वायुयान, रेल जैसे तीव्रगामी एवं शीत-प्रशीतकों से परिवहन साधनों का विकास हो जाने के कारण फल, ‘युक्त शाक-सब्जी, दूध, आदि शीघ्र खराब होने वाले पदार्थों को बहुत दूर उत्पादित कर भी उन्हें शीघ्र शहर भेजना सम्भव है।
अब किसी क्षेत्र में फसल के क्रय-विक्रय हेतु मात्र एक विक्रय स्थल (बाजार) न होकर कई विक्रय स्थल उपलब्ध हैं। तीव्रग्रामी परिवहन साधनों के विकसित हो जाने के कारण परिवहन व्यय दर भी भार तथा दूरी के अनुसार नहीं बढ़ती। थ्यूनेन ने विलग प्रदेश में एक समान प्राकृतिक वातावरण की कल्पना की थी, जो असम्भव है।
अगर एकाकी प्रदेश में केन्द्रीय नगर के एक तरफ धरातल अधिक समतल व उपजाऊ है, तो स्वाभाविक सी बात है कि संकेन्द्रीय वृत्तखण्ड का एक ओर विस्तार अधिक होगा और दूसरी ओर कम, फलतः संकेन्द्रीय वृत्त का वास्तविक आकार नहीं बनेगा और उसका रूप विकृत हो जाएगा।
इस तरह वर्तमान समय में विलग प्रदेश में पाई जाने वाली विभिन्नताएं कई नगर, उपनगर व केन्द्रीय नगरों की उपस्थिति, वैज्ञानिक व तकनीकी ढंग से कृषि का होना, परिवहन के विविध आधुनिक साधन, परिवहन व्यय में भिन्नता तथा प्राकृतिक वातावरण में विभिन्नता के फलस्वरूप कृषि के स्थानीयकरण में क्रमबद्धता का पाया जाना कठिन है। तथापि इस मॉडल का सारा कुछ अप्रासंगिक हो गया हो, ऐसा भी नहीं है। इसके ऐतिहासिक पक्ष को नजरअन्दाज कर इसकी आलोचना करना अवैज्ञानिक है।
वॉन थ्यूनेन ने इस सिद्धान्त का विवेचन बड़े तार्किक व वैज्ञानिक ढंग से किया है। अनेक त्रुटियों के होते हुए भी उनके सिद्धान्त का विशेष महत्व है, क्योंकि इस सिद्धान्त ने कृषि भूगोल के अध्ययन में एक नवीन अध्याय का शुभारम्भ किया और अनेक विद्वानों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया।
उत्तर लिखने का दूसरा तरीका
वॉन थ्यूनेन के कृषि स्थानीयकरण सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या करें तथा वर्तमान में इसकी क्या प्रासंगिकता है। इसकी भी चर्चा करें।
वॉन थ्यूनेन एक जर्मन अर्थशास्त्री थे जिन्होंने 1826 ई० में कृषि स्थानीयकरण का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इनका सिद्धांत “सकेन्द्रीय वलय सिद्धांत” के नाम से जाना जाता है। हालांकि यह सिद्धांत 198 वर्ष पूर्व दिया गया था, लेकिन इसकी चर्चा आज भी भूगोल में की जाती है। वर्तमान समय में कृषि का प्रारूप बदल गया है। इसके बावजूद भी इनका सिद्धांत आर्थिक भूगोल में मान्यता रखता है।
मान्यताएँ:-
वॉन थ्यूनेन का कृषि स्थानीयकरण सिद्धांत एक चिर सम्मतकालीन सिद्धांत (Classical theory) है जो निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है।
(1) भौगोलिक प्रदेश एकाकी (पृथक) होना चाहिए।
(2) भौगोलिक प्रदेश के बीच में एक केन्द्रीय बाजार होना चाहिए।
(3) इसकी भौगोलिक प्रदेश में सभी भौतिक परिस्थितियाँ (जैसे – स्थलाकृति, जलवायु, मृदा और वनस्पति) एक समान हो।
(4) केन्द्रीय बाजार की एकाकी भौगोलिक प्रदेश में क्रय-विक्रय का केन्द्र हो।
(5) केन्द्रीय बाजार निश्चित बाजार मूल्य पर क्रय-विक्रय का कार्य करता हो।
(6) सम्पूर्ण एकाकी प्रदेश में कृषि उत्पादन लागत एक समान हो, लेकिन दूरी के अनुसार परिवहन मूल्य में परिवर्तन होता हो।
(7) कृषकों को बाजार का पूर्ण ज्ञान हो।
(8) एकाकी भौगोलिक प्रदेश में घोड़ागाड़ी और नौका का प्रयोग परिवहन के रूप में किया जाता हो।
(9) दूरी और भार में वास्तविक वृद्धि के अनुसार परिवहन मूल्य में वृद्धि होता हो।
ऊपर वर्णित मान्यताएँ जिन भौगोलिक प्रदेशों में लागू होती है वहीं वॉन थ्यूनेन के कृषि अवस्थिति सिद्धांत लागू होता है।
परिकल्पनाएँ:-
वॉन थ्यूनेन ने निम्नलिखित दो प्रमुख परिकल्पनाओं का निर्धारण किया है।
(1) केन्द्रीय नगर से ज्यों-2 दूर जाते हैं त्यों-2 फसल विशेष की गहनता में क्रमिक रूप से कमी आती है।
(2) केन्द्रीय नगर से दूरी में ज्यों-2 वृद्धि होती है त्यों-2 भू-उपयोग प्रारूप में संकेन्द्रीय पेटी के रूप में परिवर्तन होता है।
सकेन्द्रीय वलय सिद्धांत
वॉन थ्यूनेन के अनुसार केन्द्रीय नगर के चारों तरफ कृषि भूमि उपयोग की 6 संकेन्द्रीय वलय पेटियों का विकास होता है। वॉन थ्यूनेन ने नगरों के चारों ओर विकसित सकेन्द्रीय वलय पेटियों को समझाने हेतु दो मॉडल प्रस्तुत किया है:-
(1) सैद्धांतिक मॉडल
(2) व्यवहारिक मॉडल
सैद्धांतिक मॉडल पूर्णतः ज्यामितीय है जबकि व्यवहारिक मॉडल पूर्णतः संशोधित है। वॉन थ्यूनेन ने संशोधन के लिए दो करकों को जिम्मेदार ठहराया है।
(1) अधिकतर नगर नदी के किनारे होते हैं और नदी परिवहन प्रभाव के कारण सकेन्द्रीय वलय पेटियाँ पूर्णतः गोल न होकर नदी प्रवाह की तरफ प्रक्षेपित हो जाती है।
(2) बड़े नगरों के बाहरी क्षेत्रों में भी छोटे केन्द्रीय बस्तियों का विकास हो जाता है जिसके कारण भी सकेन्द्रीय वलय पेटियाँ निरूपित हो जाती है।
वॉन थ्यूनेन के द्वारा प्रस्तुत सैद्धांतिक मॉडल एवं व्यवहारिक मॉडल नीचे के चित्र में देखा जा सकता है-
वॉन थ्यूनेन के अनुसार नगरों के चारों ओर निम्नलिखित सकेन्द्रीय वलय पेटी का विकास होता है:-
1. फल, सब्जी एवं दुग्ध
2. ईंधन के लिए लकड़ी/वन
3. गहन खाद्यान कृषि
4. कृषि और पशुपालन
5. तीन खेती प्रणाली
6. पशुपालन (चारागाह)
वॉन थ्यूनेन ने बताया कि नगर के तत्काल बाहर फल, सब्जी और दुग्ध की कृषि की जाती है क्योंकि ये दैनिक आवश्यकता की वस्तु है तथा शीघ्र विनष्ट होने की प्रवृति रखते हैं। अगर इसकी खेती नगरों से दूर किया जाता है तो वे बर्बाद हो सकते हैं।
दूसरी पेटी में जलावन की लकड़ी या वन का विकास होता है क्योंकि यह कम मूल्य का भारी वस्तु है। अत: दूर से इसका परिवहन मंहगी होती है।
तीसरी पेटी में खाद्यान्न फसल पेटी का विकास होता है क्योंकि फल, सब्जी, दुग्ध मिलने के बाद खाद्य फसल अनिवार्य वस्तु है। नगरों में खाद्यान्न की मांग बहुत अधिक होती है। इसलिए किसान तीसरी पेटी में खाद्यान्न फसल का विकास करते हैं।
चौथी पेटी में खाद्यान्न फसल, परती भूमि और पशुचारण साथ-2 की जाती है। चौथी पेटी में खाद्यान्न फसल की खेती गहनता से नहीं की जाती है क्योंकि एक ओर बाजार से जहाँ दूरी बढ़ जाती है वहीं खाद्यान्न फसलों की माँग में कमी आने लगती है। चौथी पेटी में निवास करने वाले किसान समय-समय पर परती भूमि को छोड़ते रहते हैं तथा पशुचारे की कृषि भी करते हैं।
पाँचवी पेटी में कृषि भूमि का तीन भागों में विभाजन होता है। इसलिए इस पेटी को तीन कृषि पद्धति वाली पेटी कहते हैं। 5वीं पेटी का किसान अपने कुल भूमि के 1/3 भाग पर खाद्यान्न के उत्पादन, 1/3 भूमि पर पशुपालन और शेष 1/3 भूमि परती भूमि के रूप में उपयोग करता है। कृषि भूमि का यह विभाजन फसल चक्र के नियम पर आधारित होता है अर्थात इस पेटी के किसान अपने भूमि पर लगातार 2-3 वर्षों तक कृषि करते है। उसके बाद उसे परती भूमि के रूप में छोड़ देते हैं।
छठी पेटी में पशुपालन का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाता है क्योंकि छठी पेटी में जनसंख्या का दबाव बहुत कम होता है और नगर से दूरी बहुत अधिक होती है। किसानों के पास अधिक भूमि रहने के कारण पशुपालन को प्रमुखता प्रदान करते हैं।
सकेन्द्रीय वलय पेटी के निर्धारण की विधि
वॉन थ्यूनेन महोदय ने एक ग्राफ के माध्यम से सकेन्द्रीय वलय पेटियों का निर्धारण किया है। उन्होंने परिकल्पना में कहा है कि नगर से बढ़ती दूरी के साथ-साथ फसलों की गहनता में कमी आते-जाती है। अतः वह बिन्दु जहाँ आर्थिक लगान किसी भी अन्य फसल की तुलना में अधिक होता है वही बिन्दु उस सकेन्द्रीय वलय पेटी की अंतिम सीमा होती है। इसे नीचे के ग्राफ से समझा जा सकता है।
आलोचनात्मक मूल्यांकन
वर्तमान समय में कृषि तकनीक का विकास नगरीकरण में वृद्धि और जनसंख्या में तेजी से वृद्धि होने के बावजूद वॉन थ्यूनेन के सिद्धांत में कोई आधारभूत परिवर्तन नहीं हुआ है।
1925 में जॉनसन महोदय ने स्टॉकहोम (स्वीडेन) को केन्द्र मानकर और 1932 ई० में बाल्केनबर्ग महोदय ने नगर में उ०-पश्चिमी यूरोप को एक केन्द्र मानकर इनके सिद्धांत को पुष्ट किया। दोनों ने अपने अध्ययन में बताया है कि वॉन थ्यूनेन के मुताबिक ही यहाँ सकेन्द्रीय पेटियों का विकास हुआ है। इन पेटियों में थोड़ा बहुत परिवर्तन देखा जा सकता है। जैसे:- पहली पेटी में आज भी दुग्ध और सब्जी की खेती होती है। दूसरी पेटी में खाद्यान्न फसल, तीसरी पेटी में पशुपालन और चौथी पेटी में वानिकी का कार्य होता है। इस परिवर्तन का कारण बताते हुए कहा है कि जीवाश्म ऊर्जा के विकास के कारण ईंधन की लकड़ी का महत्त्व घट गया है, इसलिए यह पेटी अब खिसकर बाहरी क्षेत्र में चला गया है।
भारत के संदर्भ में वॉन थ्यूनेन की कृषि स्थानीयकरण सिद्धांत
कई भारतीय भूगोलवेत्ताओं ने भी इनके मॉडल का अध्ययन किया है। 1972 ई० में भी प्रोमिला कुमार ने भोपाल नगर के संदर्भ में इसका अध्ययन किया और पाया कि वॉन थ्यूनेन सिद्धांत के अनुरूप ही सकेन्द्रीय वलय पेटियों का विकास हुआ है। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के अली मुहम्मद सहित कई लोगों ने UP नगरों के संदर्भ में, जशबीर सिंह (हरियाणा) के संदर्भ में, BL शर्मा (राजस्थान) के संदर्भ में इस मॉडल का अध्ययन किया और पाया कि वॉन थ्यूनेन के सिद्धांत के अनुसार ही प्रथम पेटी और तीसरी पेटी का विकास हुआ है लेकिन दूसरी पेटी खिसककर बाहर चला गया है।
सैद्धांतिक तौर पर इनका सिद्धांत एक आदर्शवादी सिद्धांत प्रतीत होता है। लेकिन इस सिद्धांत की आलोचना कई आधारों पर की जाती है।
आलोचना
(1) वॉन थ्यूनेन ने अपनी संकल्पना (मान्यता) में एकाकी प्रदेश की संकल्पना प्रस्तुत किया है जो गलत है क्योंकि कोई भी प्रदेश वर्तमान समय में एकाकी प्रदेश नहीं रह सकता।
(2) किसी भी प्रदेश में केन्द्रीय नगर ही खरीद-बिक्री का एकमात्र केन्द्र नहीं हो सकता।
(3) भौगोलिक कारकों में समरूपता असंभव है।
(4) बाजार से बढ़ती दूरी के अनुसार वस्तुओं का मूल्य एक समान वृद्धि होना असंभव है।
(5) वर्तमान समय में आधुनिक परिवहन के साधन विकसित हो चुके हैं। इसलिए नाव एवं घोड़ागाड़ी अव्यवहारिक हो चुका है।
(6) वॉन थ्यूनेन ने कहा है कि फल एवं सब्जी पेटी का विकास नगर के ठीक बाहरी क्षेत्रों में होता है। लेकिन वर्तमान समय में नगर से हजारों किमी० दूर फल, सब्जी एवं दुग्ध की कृषि की जा रही है और नगरों में आपूर्ति की जाती है। जैसे:- अमेरिका के झील प्रदेश में कैलिफोर्निया तथा फ्लोरिडा राज्य से फल एवं सब्जी की आपूर्ति की जाती है।
(7) वॉन थ्यूनेन के अनुसार दूसरी पेटी में ईधन लकड़ी की खेती की जाती है। लेकिन व्यवहारिक रूप में यह पेटी कहीं नहीं पायी जाती।
(8) वॉन थ्यूनेन के अनुसार व्यवहारिक सिद्धांत मॉडल में दो कारणों से संसोधन होता है- (i) नदी एवं (ii) छोटे नगर के कारण। लेकिन वर्तमान समय में उपजाऊ भूमि, नवीन तकनीक, रेल एवं सड़क परिवहन इत्यादि भी सकेन्द्रीय वलय पेटी में संशोधन लाते हैं।
निष्कर्ष
अतः उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वर्तमान समय के संदर्भ में इस सिद्धांत में कई त्रुटियाँ है। इन त्रुटियों के बावजूद कृषि स्थानीयकरण के संबंध में प्रस्तुत किया गया यह पहला सिद्धांत था, इसीलिए यह आज भी मान्यता रखता है।