22. वाताग्र किसे कहते है? / वाताग्रों का वर्गीकरण
22. वाताग्र किसे कहते है? / वाताग्रों का वर्गीकरण
वाताग्र किसे कहते है? ⇒
जब दो अलग-अलग स्वभाव अर्थात तापमान और आर्द्रता में भिन्न वाली वायुराशियाँ दो विपरीत दिशाओं से आकर अभिसरण करने का प्रयास करती हैं, तब वे पूर्ण रूप से मिश्रित नहीं हो पाती एवं उनके सीमांत प्रदेश में ढलुआं सीमा सतह का निर्माण होता है, जिसे ही वाताग्र कहा जाता हैं।
इस प्रकार वाताग्र से आशय उस ढलुआं सीमा से है जिसके सहारे दो विपरीत स्वभाव वाली वायु-राशियाँ आकर मिलती है। जहाँ कहीं दो भिन्न वायु-राशियों का अभिसरण होता है वहाँ उनके बीच एक विस्तृत संक्रमणीय प्रदेश स्थापित हो जाता है। इस संक्रमणीय प्रदेश को ही वाताग्र प्रदेश अथवा वाताग्र-उत्पत्ति क्षेत्र कहा जाता है।
वाताग्र तथा वाताग्र उत्पत्ति के संबंध में कई विद्वानों ने अपने मत प्रकट किये है। प्रसिद्ध विद्वान पीटरसन के अनुसार, “वाताग्री सतह एवं धरातलीय सतह को अलग करने वाली रेखा को वाताग्र कहते हैं तथा जिस प्रक्रिया द्वारा वाताग्र की उत्पत्ति होती है उसे वाताग्र-उत्पत्ति क्षेत्र कहा जाता है।”
ट्रिवार्था के अनुसार “वाताग्र कोई रेखा नहीं अपितु वे पर्याप्त चौड़ाई वाले ऐसे क्षेत्र होते है जो 3 से 50 मील तक चौड़े होते है। इसके साथ ही वे क्षेत्र जहाँ दो भिन्न स्वभाव वाली वायु राशियाँ आमने-सामने से आकर अभिसरण करती है तो उस अभिसरण क्षेत्र को वाताग्र-उत्पत्ति क्षेत्र कहा जाता है।”
अतः स्पष्ट है कि वाताग्र न तो धरातल के ऊपर लम्बवत् रूप में होता है और न धरातलीय सतह के समान्तर ही पाया जाता है। इसके विपरीत वह कुछ कोण पर झुका हुआ होता है। वाताग्र का ढाल पृथ्वी की घूर्णन गति पर आधारित होता है जो ध्रुवों की ओर बढ़ता जाता है। इस प्रकार वाताग्र विपरीत स्वभाव वाली वायु-राशियों को अलग करने वाली ढलुआं सीमा सतह का ही दूसरा नाम है।
ट्रिवार्था के अनुसार “The sloping Boundary surfaces separating contrusting air-masses are called surfaces of discontinuity of front.” वाताग्र अपनी उत्पत्ति के बाद कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में नष्ट हो जाते हैं।
वाताग्रों के इस प्रकार लोप होने की प्रक्रिया को वाताग्र-क्षय कहते है। किसी क्षेत्र-विशेष की जलवायु तथा मौसम को समझने के लिए आजकल जलवायु विज्ञान में वाताग्र का अध्ययन महत्वपूर्ण स्थान रखता है क्योंकि ये मौसम संबंधी विशिष्ट अवस्थाओं को जन्म देते हैं जिन्हें चक्रवातीय अथवा प्रतिचक्रवातीय अवस्थायें कहा जाता है। इस प्रकार वाताग्र चक्रवातों और प्रतिचक्रवाती के पालने कहे जाते हैं।
वाताग्र उत्पत्ति (Frontogenesis)
वाताग्रों के बनने की क्रिया को वाताग्र उत्पत्ति कहा जाता है। मुख्य रूप से वाताग्रों की उत्पत्ति निम्नलिखित दो बातो पर आधारित होती हैं:-
1. भौगोलिक कारक (Geographical Factor):-
जब दो भिन्न स्वभाव वाली वायुराशियों एक-दूसरे के समीप आती हैं तो वाताग्रों की उत्पत्ति होती है। दूसरे शब्दों में वाताग्रों की उत्पत्ति के लिए तापमान और आर्द्रता की दृष्टि से वायु राशियों में भिन्नता होना आवश्यक है।
2. गतिक कारक (Dynamic Factor ):-
वाताग्रों की उत्पत्ति के लिए वायु राशियों में प्रवाह अर्थात् गति होना आवश्यक है। पीटरसन एवं बर्गरान नामक विद्वानों ने अपने अध्ययन के द्वारा इस बात को प्रमाणित किया है कि वायुराशियों की गति वाताग्रों को तीव्र बना देती है। इस प्रकार वाताग्र बनने के लिए अभिसरण की स्थिति का होना परम आवश्यक है।
वाताग्र-उत्पत्ति एवं वाताग्र-क्षय क्षेत्र (Areas of Frontogenesis and Frontolysis)
1. उत्पत्ति क्षेत्र:-
जिन क्षेत्रों में दो भिन्न गुण वाली वायु-राशियाँ आकर परस्पर मिलती हैं अर्थात् अभिसरण करती हैं उन क्षेत्रों को वाताग्र-उत्पत्ति क्षेत्र कहते हैं। उदाहरण के लिए जाड़े की ऋतु में पूर्वी एशिया, उत्तरी अमेरीका का पूर्वी तट एवं ग्रीनलैंड आदि वाताग्र-उत्पत्ति क्षेत्र हैं।
2. क्षय क्षेत्र:-
जिन क्षेत्रों में वायुराशियाँ अपसरित होती हैं उन क्षेत्रों में वाताग्रों का क्षय होने लगता है। अतः ऐसे क्षेत्रों को वाताग्र-क्षय क्षेत्र कहा जाता है। उदाहरण के लिए साइबेरिया तथा उत्तरी कनाडा आदि वाताग्र-क्षय क्षेत्र हैं।
वाताग्र उत्पत्ति के लिए आवश्यक दशाएँ
धरातल पर वाताग्रों की उत्पत्ति कुछ विशिष्ट दशाओं में ही होती हैं। प्रमुख रूप से इन दशाओं का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
1. तापमान की भिन्नता:-
वाताग्र की उत्पत्ति के लिए दो विपरीत तापमान वाली वायु-राशियों का होना आवश्यक है। इसमें एक वायु-राशि ठण्डी और शुष्क तथा दूसरी वायु-राशि का गर्म तथा आर्द्र होना आवश्यक है। ये वायु-राशियाँ जब परस्पर मिलती हैं जो ठण्डी वायु-राशि गर्म तथा हल्की वायु-राशि को ऊपर उठा देती है जिससे वहाँ वाताग्र का निर्माण हो जाता है।
2. वायु-राशियों की विपरीत दिशा:-
जब कभी वितरित तापमान वाली दो वायुराशियाँ विपरीत दिशाओं से आकर आमने-सामने मिलती है तो एक-दूसरे के क्षेत्र में घुसने की चेष्टा करती हैं। परिणामस्वरूप उनके मिलने के क्षेत्र में एक लहरनुमा वाताग्र बन जाता है। इसके विपरीत जब कभी दो भिन्न तापमान वाली वायु-राशियाँ आमने-सामने न मिलकर विपरीत दिशाओं की ओर चलने लगती हैं तो उस अवस्था में वहाँ वाताग्र का निर्माण नहीं हो सकता।
प्रसिद्ध विद्वान पीटरसन ने विभिन्न पवन क्रमों को स्पष्ट कर यह बताने का प्रयास किया है कि किन अवस्थाओं में वाताग्र के निर्माण की संभावनायें होती हैं। वाताग्र निर्माण की सम्भावनाओं का विवेचन निम्नलिखित बिंदुओं के अन्तर्गत किया गया है-
(i) स्थानान्तरणी प्रवाह:-
इस प्रकार के पवन प्रवाह में हवायें क्षैतिज रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान को एक ही दिशा में चलती है। इस दशा में तापमान की विपरीत अवस्था पैदा नहीं हो पाती। फलस्वरूप इस प्रकार के पवन प्रवाह से वाताग्र की उत्पत्ति नहीं होती।
(ii) घूर्णन प्रवाह:-
इसमें हवायें चक्रवातीय और प्रतिचक्रवातीय रूप में प्रवाहित होती हैं। यद्यपि इस प्रकार के पवन प्रवाह में विपरीत तापमान की अवस्थायें होती हैं लेकिन फिर भी वाताग्र की उत्पत्ति नहीं हो पाती। क्योंकि इसमें हवायें विपरीत दिशाओं से आकर आमने-सामने नहीं मिलती।
(iii) अभिसरण तथा अपसरण:-
जब हवायें चारों ओर से आकर एक ही बिन्दू पर मिलती हैं तो वह अभिसरण की स्थिति होती है। इस स्थिति में यद्यपि विपरीत तापमान की अवस्था रहती है फिर भी वाताग्र का निर्माण नहीं हो पाता है क्योंकि इस दशा में विपरीत तापक्रम एक रेखा के सहारे न होकर एक केन्द्र पर होता है जहाँ चारों ओर की हवायें आकर तापमान और आर्द्रता की आदर्श दशाओं को भंग कर देती हैं।
इसके विपरीत जब हवायें एक बिन्दु से चारों ओर चलती हैं तो वे परस्पर कभी नहीं मिल पाती जिससे वहाँ वाताग्र का निर्माण कदापि सम्भव नहीं होता। हवाओं की इस स्थिति को अपसरण कहते हैं।
(iv) विरूपणी प्रवाह:-
इस प्रकार के पवन प्रवाह में दो विपरीत तापमान वाली हवायें एक-दूसरे से क्षैतिज रेखा के सहारे आकर मिलती हैं। इस प्रकार की हवायें दो प्रकार की बाह्य प्रवाह अक्ष और अन्त प्रवाह अक्ष रेखायें बनाती हैं। वाताग्र निर्माण की दृष्टि से पवन-प्रवाह का यह क्रम सर्वाधिक अनुकूल होता है। फिर भी वाताग्र का बनना न बनना स्थान विशेष की प्राकृतिक स्थिति तथा अक्षांशों पर निर्भर करता है।
वाताग्रों के प्रमुख लक्षण
वाताग्र प्रदेशों में पाये जाने वाले वाताग्रों के मुख्य लक्षणों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
1. वाताग्रों की गति:-
यद्यपि मानचित्रों पर वाताग्र स्थिर दिखलाई देते है, किन्तु वस्तुतः वाताग्रों में गति होती है। ये प्रायः 50 से 80 किलोमीटर प्रति घण्टे की गति से चलते है। इस प्रकार वाताग्र एक दिन-रात अथवा 25 घण्टे में एक विस्तृत क्षेत्र को पार कर जाते है।
2. वाताग्रों की ऊर्ध्व गति:-
वाताग्र क्षेत्र में वायु सदैव नीचे से ऊपर उठती रहती है। इस प्रकार ऊर्ध्व गति वाताग्रों का एक प्रमुख लक्षण है। इस गति के कारण वाताग्र क्षेत्र में ऊष्ण वायु शीतल वायु के ऊपर चढ़ती है क्योंकि उष्ण वायु हल्की एवं शीतल वायु भारी होती है। उष्ण व आर्द्र वायु के ऊपर उठने से मेघ बनते हैं और वर्षा होती है।
3. वाताग्रों की गहराई:-
वाताग्रों की रचना करने वाली वायुराशियों में ऊपरी तलों की अपेक्षा निम्न तलों अर्थात् धरातल के समीप गति अधिक होती है। इसलिए वाताग्रों की रचना ऊपरी भागों में नहीं होती। सामान्यतः वाताग्रों की रचना 3,000 मीटर के ऊपर बहुत कम और 5,000 मीटर के ऊपर तो बिल्कुल ही नहीं होती।
4. वाताग्रों की चौड़ाई:-
यद्यपि वाताग्रों की कोई निश्चित चौड़ाई नहीं होती। ये प्राय: 5 से 80 किलोमीटर तक चौड़े होते हैं।
5. वाताग्रों का भंग होना:-
वाताग्र में दोनों ओर की वायु-राशियों के गुण भिन्न होते हैं। जब वायु-राशियों के अपने गुणों का फैलाव बहुत विस्तृत क्षेत्र में हो जाता है तो वाताग्र भंग हो जाते हैं। वायु-राशियों के गुणों में तापमान, वायुदाब, पवन-दिशा, प्रवणता आदि मुख्य हैं। वायु-राशियों के इन गुणों में परिवर्तन के साथ ही वाताग्र की समाप्ति हो जाती है।
वाताग्रों के प्रकार (Types of Fronts)
तापमान और आर्द्रता की भिन्नता के आधार पर वाताग्रों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अर्न्तगत विभाजित किया गया है:-
1. उष्ण वाताग्र (Warm Front):-
जब आगे बढ़ती हुई उष्ण वायु-राशि किसी ठण्डा वायु-राशि के ऊपर चढ़ती है तो उसे उष्ण वाताग्र कहते हैं। उष्ण वाताग्र सदैव दायीं तरफ से बायीं तरफ आगे बढ़ता है। इसका ढाल मध्य अक्षांशों में प्राय: 1:100 से 1:400 अनुपात में पाया जाता है।
2. शीत वाताग्र (Cold Front ):-
एक ही दिशा से आती हुई ठण्डी एवं उष्ण वायु-राशियाँ जब आपस में मिलती हैं और ठण्डी वायु-राशि आक्रामक होती हैं तो वह उष्ण वायु-राशि को ऊपर धकेल देती है। इसी को शीत वाताग्र कहा जाता है। इनका ढाल 1:25 से 1:100 तक होता है। इसमें वाताग्र शीतल से ऊष्ण भाग की ओर अर्थात् बायीं ओर से दायीं ओर बढ़ता है।
3. अवशिष्ट वाताग्र (Oecluded Front):-
जब कभी शीत वाताग्र तीव्र गति से चलकर ऊष्ण वाताग्र से मिल जाता है तो ऊष्ण वायु ऊपर उठ जाती है और धरातल से उसका सम्पर्क समाप्त हो जाता है। इसी अवस्था को अवशिष्ट वाताग्र कहते हैं।
4. स्थायी वाताग्र (Stationary Front):-
जब कभी दो विपरीत स्वभाव वाली वायु-राशियाँ एक-दूसरे के समान्तर चलकर एक वाताग्र के रूप में अलग हो जाती है तो ऐसी दशा में वायु ऊपर नहीं उठ पाती जिसे स्थायी वाताग्र कहते हैं।
वाताग्र प्रदेश (Frontal Zones)
पृथ्वी तल पर उन प्रदेशों में वाताग्रों की उत्पत्ति होती है जहाँ वायु-राशियों के तापमान में अधिक अन्तर पाया जाता है और जहाँ वायु-राशियाँ अभिसरित होती हैं। पृथ्वी के धरातल पर चलने वाली वायु-राशियों और उनके मिलने के क्षेत्रों का वर्णन निम्नलिखित दिन्दुओ के अन्तर्गत किया गया है-
1. ध्रुवीय वाताग्र प्रदेश (Polar Frontal Zone):-
यह प्रदेश दोनों गोलार्द्ध में 30° से 45° अक्षांशों के मध्य स्थित है। इस प्रदेश में ध्रुवीय ठण्डी वायु-राशि तथा ऊष्ण कटिबंधीय गर्म वायु-राशि के मिलने से ध्रुवीय वाताग्र का निर्माण होता है। इनका विस्तार उत्तरी अटलांटिक महासागर तथा उत्तरी प्रशान्त महासागर में अधिक पाया जाता है। ये वाताग्र जाड़ों में अत्यधिक सक्रिय होते हैं किन्तु गर्मियों में शिथिल हो जाते हैं।
2. आर्कटिक वाताग्र प्रदेश (Arctic Frontal Zone):-
ध्रुव वृत्तीय क्षेत्रों में महाद्वीपीय ध्रुवीय हवायें तथा सागरीय ध्रुवीय हवायें परस्पर मिलती है। इसी से यहाँ वाताग्रों का निर्माण होता है। इन दोनों वायु-राशियों के तापमान में विशेष अन्तर नहीं पाया जाता। परिणामस्वरूप यहाँ वाताग्र अधिक सक्रिय नहीं होते। इन वाताग्रों का विस्तार मुख्यतः यूरेशिया तथा उत्तरी अमेरीका के उत्तरी भागों में पाया जाता है।
3. आन्तरिक उष्ण कटिबंधीय वाताग्र प्रदेश (Inter Tropical Frontal Zone):-
यह प्रदेश विषुवतीय रेखीय न्यून वायुदाब की पेटी में फैला हुआ है। यहाँ जब कभी उत्तरी-पूर्वी तथा दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक हवायें मिलती हैं तो वाताग्र का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार यहाँ व्यापारिक हवाओं के अभिसरण के कारण वाताग्रों का निर्माण होता है। ये वाताग्र प्रदेश के मौसम के अनुसार ऊपर-नीचे सरकते रहते है।
निष्कर्ष:
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वाताग्रों की उत्पत्ति कुछ निर्दिष्ट दशाओं के सम्यक रूप से अनुकूल होने पर ही होती है। इनमें विभिन्न विपरीत तापमान वाली दो वायु-राशियों की उपस्थिति तथा उनकी विपरीत प्रवाह दिशा मुख्य है। अन्यथा किसी एक के अनुपस्थित होने पर उनका बनना असंभव हो जाता है।
प्रश्न प्रारूप
प्रश्न 1. सीमाग्र क्या है? स्पष्ट कीजिए। (What do you mean by Front ? Explain.)
Or वाताग्र किसे कहते हैं? प्रत्येक की उत्पत्ति एवं लक्षणों की व्याख्या कीजिए। (What is Fronts? Describe the origin and characteristics of each.)
Or वाताग्र से आप क्या समझते हो? प्रमुख वाताग्र प्रदेशों का वर्णन कीजिए। (What do you understand by Fronts? Describe main Frontal Zones.)
Or, वाताग्रों का वर्गीकरण कीजिए एवं उनकी विशेषताओं की विवेचना करें।
- 1. थार्नथ्वेट का जलवायु वर्गीकरण / Climatic Classification Of Thornthwaite
- 2. कोपेन का जलवायु वर्गीकरण /Koppens’ Climatic Classification
- 3. कोपेन और थार्न्थवेट के जलवायु वर्गीकरण का तुलनात्मक अध्ययन
- 4. हवाएँ /Winds
- 5. जलचक्र / HYDROLOGIC CYCLE
- 6. वर्षण / Precipitation
- 7. बादल / Clouds
- 8. भूमंडलीय उष्मण के कारण एवं परिणाम /Cause and Effect of Global Warming
- 9. वायुराशि / AIRMASS
- 10. चक्रवात और उष्णकटिबंधीय चक्रवात /CYCLONE AND TROPICAL CYCLONE
- 11. शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात / TEMPERATE CYCLONE
- 12. उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का तुलनात्मक अध्ययन
- 13. वायुमंडलीय तापमान / ENVIRONMENTAL TEMPERATURE
- 14. ऊष्मा बजट/ HEAT BUDGET
- 15. तापीय विलोमता / THERMAL INVERSION
- 16. वायुमंडल का संघठन/ COMPOSITION OF THE ATMOSPHERE
- 17. वायुमंडल की संरचना / Structure of The Atmosphere
- 18. जेट स्ट्रीम / JET STREAM
- 19. आर्द्रता / HUMIDITY
- 20. विश्व की प्रमुख वायुदाब पेटियाँ / MAJOR PRESSURE BELTS OF THE WORLD
- 21. जलवायु परिवर्तन के विभिन्न प्रमाण
- 22. वाताग्र किसे कहते है? / वाताग्रों का वर्गीकरण
- 23. एलनिनो (El Nino) एवं ला निना (La Nina) क्या है?
- 24. वायुमण्डलीय सामान्य संचार प्रणाली के एक-कोशिकीय एवं त्रि-कोशिकीय मॉडल
- 25. सूर्यातप (Insolation)