4. लाप्लास की निहारिका परिकल्पना (Nebular Hypothesis of Laplace)
4. लाप्लास की निहारिका परिकल्पना
(Nebular Hypothesis of Laplace)
लाप्लास की निहारिका परिकल्पना
फ्रान्सीसी विद्वान लाप्लास ने अपना मत सन् 1796 ई० में व्यक्त किया, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Exposition of the World System’ में किया है। यह परिकल्पना काण्ट के विचार से कुछ साम्य रखती है। लाप्लास ने काण्ट की कुछ गलतियों को दूर करके अपना संशोधित विचार व्यक्त किया।
काण्ट की परिकल्पना के मुख्य तीन दोष थे:-
(1) निहारिका अथवा आद्य पदार्थ के कणों के टकराव से पर्याप्त ताप उत्पन्न नहीं हो सकता है।
(2) कणों के टकराव से गति नहीं हो सकती है।
(3) आकार में वृद्धि के साथ गति में वृद्धि नहीं हो सकती है।
इन अशुद्धियों को दूर करने के लिए लाप्लास ने कुछ कल्पनायें की हैं, जिन पर आधारित होकर उनका सिद्धान्त आगे चलता है:-
(1) प्रथम समस्या अर्थात् निहारिका के ताप की समस्या हल करने के लिये उन्होंने यह मान लिया कि ब्रह्माण्ड में पहले से एक विशाल तप्त निहारिका (नेबुला ) थी।
(2) यह निहारिका प्रारम्भ से ही गतिशील थी।
(3) यह निहारिका निरन्तर शीतल होकर आकार में सिकुड़ती गयी।
इस प्रकार उपर्युक्त तीन स्वयं के माने हुये तथ्यों के अनुसार अतीत काल में ब्रह्माण्ड में एक गतिशील एवं तप्त महापिण्ड था, जिसको लाप्लास ने निहारिका नाम दिया है। निहारिका की गति के कारण विकिरण द्वारा उष्मा का ह्रास होने लगा जिस कारण इसका बहिर्भाग शीतल होने लगा।
इस प्रकार निहारिका के निरन्तर शीतल होने के कारण उसमें संकुचन होने लगा। परिणामस्वरूप निहारिका के आकार अथवा आयतन में ह्रास होने लगा। आयतन में कमी के कारण निहारिका की गति में निरन्तर वृद्धि होने लगी। यहाँ पर काण्ट की तृतीय गलती भी दूर हो जाती है। अत्यधिक गति के कारण केन्द्रापसारित बल (centrifugal force) के कारण निहारिका के मध्यवर्ती भाग के पदार्थ भारहीन होने लगे तथा मध्य भाग बाहर की ओर उभरने लगा।
ऊपरी भाग निरन्तर शीतल होने के कारण अत्यधिक घना हो गया, परन्तु यह ऊपरी भाग निचले भाग के साथ भ्रमण नहीं कर सका। इस प्रकार ऊपरी भाग, निरन्तर शीतल होते तथा सिकुड़ते मध्य भाग से, छल्ला के रूप में पृथक होने लगा। कुछ समय बाद यह गोल छल्ला निहारिका से अलग होकर बाहर निकल आया तथा निहारिका का चक्कर लगाने लगा।
लाप्लास के अनुसार निहारिका से केवल एक ही छल्ला बाहर निकला तथा बाद में यह छल्ला नौ छल्लों में विभाजित हो गया। (जबकि काण्ट के अनुसार निहारिका से ही नौ छल्ले निकले थे) तथा प्रत्येक छल्ला एक-दूसरे से दूर हटता गया। प्रत्येक छल्ले के समस्त पदार्थ ने एक स्थान पर गांठ के रूप में एकत्रित होकर ‘गर्म वायव्य ग्रन्थि’ (Hot gaseous agglomeration) का रूप धारण किया, जो आगे चलकर शीतल होकर ठोस बन कर ग्रह बन गया।
इस प्रकार नौ ग्रहों का निर्माण हुआ। इसी क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण ग्रहों से उपग्रहों का आविर्भाव हुआ। निहारिका का अवशिष्ट भाग सूर्य बना।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में फ्रान्सीसी विद्वान रॉस “(Roche) ने लाप्लास की परिकल्पना में संशोधन प्रस्तुत किया। लाप्लास के अनुसार निहारिका से निकले एक भारी छल्ले से कई पतले छल्ले बाहर निकल गये परन्तु रॉस ने बताया कि मुख्य निहारिका से ही कई पतले छल्ले क्रमश: अलग हो गये। प्रत्येक छल्ला घनीभूत होकर ग्रह बन गया। इसी क्रम के जारी रहने से समस्त ग्रहों की उत्पति हुई।
मूल्यांकन
अपने सरल रूप के कारण लाप्लास की परिकल्पना को प्रारम्भ में पर्याप्त समर्थन मिला तथा लगभग 150 वर्षों तक इसका समादर (आदर) होता रहा। परन्तु सौर्य-मंडल सम्बन्धी नवीन वैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धान्तों के प्रकाश में आने के कारण इस परिकल्पना का समर्थन जाता रहा।
इस परिकल्पना में न केवल पृथ्वी की उत्पत्ति की समस्या ही हल की गयी है, वरन् उसकी रचना तथा स्वभाव का भी वर्णन किया गया है। इसके अनुसार ग्रह प्रारम्भ में मौलिक रूप में वायव्य अवस्था में थे। तत्पश्चात् शीतल होते समय तरल अवस्था में आये एवं अन्त में ठोस भूपटल (solid crust) का निर्माण हुआ। परन्तु इस मत के विपरीत कुछ विद्वानों ने यह बताया है कि पृथ्वी अपनी उत्पत्ति एवं वृद्धि-काल से ही एक ठोस रूप में रही होगी।
अधिकांश विद्वानों के अनुसार पृथ्वी के इतिहास में एक तरल अवस्था अवश्य रही होगी। अत: ‘निहारिका परिकल्पना’ का इस सम्बन्ध में पर्याप्त महत्व है। इस परिकल्पना के विरोध में निम्नांकित तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
(1) सौर्य-मण्डल के विभिन्न ग्रहों का वर्तमान ‘कोणीय आवेग’ (angular momentum), जो कि प्रारम्भ में मौलिक निहारिका में व्याप्त था, भ्रमण की अधिकता से निहारिका को तोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि निहारिका के मौलिक कोणीय आवेग से पदार्थ निहारिका से अलग नहीं हो सकता था।
‘कोणीय आवेग की स्थिरता के सिद्धान्त’ (laws of conservation of angular momentum) के अनुसार मौलिक निहारिका का कोणीय आवेग, वर्तमान सूर्य एवं उसके सदस्य ग्रहों के कुल कोणीय आवेग के बराबर होना चाहिये, जबकि ऐसा न होकर सम्पूर्ण कोणीय आवेग का 98 प्रतिशत भाग ग्रहों तथा शेष 2 प्रतिशत भाग वर्तमान सूर्य में है। इस प्रकार यह परिकल्पना गणितीय सूत्रों के विपरीत है।
(2) निहारिका से 9 छल्ले ही क्यों निकले? नौ से अधिक भी छल्ले निकल सकते थे। इस समस्या का निदान लाप्लास की तरफ से नहीं मिलता है। घनीभवन के कारण एक छल्ले का सारा पदार्थ एक ही गोल पिण्ड के रूप में नहीं बदल सकता है। वस्तुत: छल्ला छोटे-छोटे कई टुकड़ों में टूट जायेगा तथा एक ही छल्ले से कई छोटे-छोटे स्वतंत्र ग्रह बनेंगे।
(3) निहारिका के कणों की ”अल्प पारस्परिक संलग्नता” (small degree of cohesion between the particles of nebula) के द्वारा छल्लों के निकलने का क्रम जारी रहेगा तथा उस क्रिया में अवकाश नहीं हो सकता।
(4) यदि ग्रहों की उत्पत्ति निहारिका से हुई तो प्रारम्भ में वे द्रवित अवस्था में रहे होंगे। परन्तु द्रवित अवस्था में ग्रह निर्बाध रूप से परिभ्रमण तथा परिक्रमा नहीं कर सकते क्योंकि द्रव के विभिन्न स्तरों की गति समान नहीं होती और उनमें घर्षण होता रहता है। केवल ठोस पिण्ड ही पूर्णरूपेण परिभ्रमण तथा परिक्रमा कर सकता है।
(5) इस परिकल्पना के अनुसार सभी ग्रहों के उपग्रहों को अपने पिता ग्रहों की दिशा में ही घूमना चाहिए। इस तथ्य के विपरीत शनि तथा वृहस्पति के उपग्रह अपने पिता-ग्रह के विपरीत दिशा में भ्रमण करते हैं। सम्भवत: लाप्लास की परिकल्पना के समय तक केवल ऐसे ही उपग्रहों का पता लग पाया था जो अपने पिता ग्रह के चारों तरफ घूमते थे। बाद में चलकर ऐसे अन्य उपग्रहों की खोज हुई जो कि अपने पिता-ग्रह के विपरीत दिशा में घूमते हैं।
(6) यदि सूर्य, निहारिका का ही एक भाग है तो तरल अवस्था में होने के कारण इसके बीच में उभार होना चाहिए जिससे यह मालूम पड़ता हो कि एक नवीन छल्ला पृथक् होकर बाहर निकलने ही वाला है। पर ऐसा नहीं देखा जाता है।
(7) लाप्लास यह मानकर चलते हैं कि प्रारम्भ में एक गतिशील तथा तप्त निहारिका थी, पर यह निहारिका कहाँ से आयी? उसमें उष्मा तथा गति कैसे पैदा हुई? इन प्रश्नों का उत्तर इस परिकल्पना से नहीं मिल पाता है।
इस प्रकार यह कहा जाता है कि लाप्लास की यह परिकल्पना कल्पना मात्र ही है। उपर्युक्त त्रुटियों के आधार पर यह प्रमाणित किया जाता है कि यह ‘निहारिका परिकल्पना’ पृथ्वी की उत्पति के विषय में गलत धारणा तो प्रस्तुत करती ही है, साथ ही साथ पृथ्वी के इतिहास तथा उसके भूगर्भ के विषय में भी गलत तथ्यों का प्रचार करती है। वर्तमान समय में यह परिकल्पना मान्य नहीं है।