11. राज्य क्या है? राज्य के आवश्यक तत्व क्या हैं?
11. राज्य क्या है? राज्य के आवश्यक तत्व क्या हैं?
राज्य शब्द अंग्रेजी भाषा के State का हिन्दी रूपान्तर है। इसकी उत्पत्ति यूनानी भाषा के पोलिस (Polis) से हुई है। प्राचीन यूनान के नगर राज्यों को पोलिस ही कहा जाता था। इसे विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न समयों में परिभाषित किया है।
अरस्तू के अनुसार, “राज्य परिवार और ग्रामों का एक समुदाय है जिसका उद्देश्य पूर्ण एवं आत्मनिर्भर जीवन की प्राप्ति है।”
सेण्ट अगस्टाइन के अनुसार, “राज्य ऐसे व्यक्तियों की समझौते द्वारा निर्मित संस्था है। जिन्होंने अपना संगठन विधि और कर्तव्यों के प्रयोगों एवं पूर्ति के लिए तथा पारस्परिक सम्पर्क से लाभ की प्राप्ति के लिए बनाया है।”
आधुनिक युग में राज्य के स्वरूप के विषय में विचार बदला है, अतः राज्य की नवीन परिभाषाएँ अस्तित्व में आई हैं। आधुनिक विचारकों के अनुसार राज्य का स्वरूप प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों का एक निश्चित क्षेत्र में निवास भी होना चाहिए और शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिए कोई राजनीतिक सत्ता होनी चाहिए।
ब्लंटशली के शब्दों में, “किसी निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित व्यक्तियों को राज्य कहा जाता है।”
लास्की के अनुसार, “राज्य एक ऐसा प्रादेशिक समाज है जो सरकार और प्रजा में विभाजित है और जो अपने निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में समुदायों पर सर्वोच्च सत्ता रखता है।”
फिलिमोर के अनुसार, “राज्य मनुष्यों का एक समुदाय है जो एक निश्चित भू-भाग पर स्थायी रूप से बसा हुआ हो और जो एक सुव्यवस्थित सरकार द्वारा उस भू-भाग की सीमा के अन्तर्गत व्यक्तियों तथा पदार्थों पर पूरा नियंत्रण तथा प्रभुत्व रखता हो और जिसे विश्व के अन्य किसी भी राज्य से सन्धि या युद्ध करने अथवा अन्य किसी प्रकार से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करने का अधिकार प्राप्त हो।”
कार्लसन के अनुसार, “राज्य का क्षेत्र ग्लोब का वह भाग है, जिसकी सीमा में उसकी सर्वोच्च सत्ता होती है तथा वहाँ के निवासियों एवं साधनों पर प्रशासन होता है।”
प्रो. मूडी के अनुसार, “राज्य मात्र क्षेत्र या क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति से निर्मित नहीं है, अपितु यह एक अति जटिल संगठन है, जिसमें क्षेत्र, मनुष्य एवं उनका आपसी सम्बन्ध सम्मिलित रूप से एक इकाई बनाते हैं, जिनका एक व्यक्तित्व एवं चरित्र होता है, जो अन्य सभी राज्यों से भिन्नता का द्योतक है।”
डॉ. गार्नर के अनुसार, “राजनीतिक विज्ञान तथा सार्वजनिक धारणा के रूप में राज्य संख्या में कम या अधिक व्यक्तियों का ऐसा संगठन है जो किसी प्रदेश के निश्चित भू-भाग में स्थायी रूप से रहता हो जो बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्र या लगभग स्वतंत्र हो और जिसका संगठित शासन हो जिसके आदेशों का पालन नागरिकों का विशाल समुदाय स्वभावतः करता हो।”
राज्य के आवश्यक तत्व
ब्लंटशली के अनुसार, भू-भाग, जनता, एकता और संगठन राज्य के ये चार आवश्यक तत्व हैं।
गैटिल ने भी जनता, प्रदेश, सरकार तथा सम्प्रभुता ये चार तत्व राज्य के लिए आवश्यक माने हैं।
डॉ. गार्नर के अनुसार, राज्य के चार आवश्यक तत्व हैं-
(1) मनुष्यों का समुदाय,
(2) एक प्रदेश, जिसमें वे स्थायी रूप से निवास करते हैं,
(3) आन्तरिक सम्प्रभुता तथा बाहरी नियंत्रण से स्वतंत्रता,
(4) जनता की इच्छा को कार्यरूप में परिणत करने हेतु एक राजनीतिक संगठन।
वर्तमान में डॉ. गार्नर के विचारों को ही मान्यता प्राप्त है। राज्य के आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं:
(1) जनसंख्या ( Population)
(2) निश्चित भू-भाग (Definite Territory)
(3) सरकार (Government)
(4) सम्प्रभुता (Sovereignty)
(1) जनसंख्या:-
राज्य का सर्वप्रथम तथा आवश्यक तत्व है- जनसंख्या। राज्य मनुष्यों का ही एक संगठन है। व्यक्तियों से ही मिलकर राज्य का निर्माण होता है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यदि जनसंख्या न हो तो कौन शासक होगा और प्रजा कहाँ से आएगी। राज्य का अस्तित्व मानव तत्व के अस्तित्व पर ही आश्रित है। मानव राज्य की आधारिशला है। मनुष्य राज्य का कच्चा माल है। अतः राज्य के निर्माण के लिए जनसंख्या का होना नितान्त आवश्यक है।
अतः सभी विद्वान जनसंख्या को राज्य का आवश्यक तत्व मानते हैं। राज्य के तत्व के रूप में जनसंख्या की व्याख्या करने में सामान्यतः दो प्रश्न उपस्थित होते हैं। पहला, जनसंख्या कितनी होनी चाहिए तथा दूसरा जनसंख्या कैसी होनी चाहिए। किसी राज्य के लिए जनसंख्या कितनी होनी चाहिए, इस सम्बन्ध में विद्वानों के विचारों में मतभेद हैं।
प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘रिपब्लिक’ में बताया है कि एक आदर्श राज्य में 5,040 नागरिक ही होने चाहिए।
अरस्तू के अनुसार, राज्य की जनसंख्या 10,000 होनी चाहिए।
हिटलर और मुसोलिनी के अनुसार, राज्य एक शक्ति है और यह शक्ति भली प्रकार से कार्य कर सके, इसके लिए अधिकतम जनसंख्या का होना आवश्यक है।
राज्य के लिए यह आवश्यक है कि जनसंख्या कम-से-कम इतनी हो कि उन्हें ‘शासक’ और ‘शासित’ में विभाजित किया जा सके। आधुनिक युग में वैज्ञानिक प्रगति, आवागमन के साधनों के विकास तथा प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली के प्रचलन के कारण जनसंख्या का कम या अधिक होना बहुत महत्वपूर्ण नहीं है।
वास्तव में जनसंख्या राज्य के संगठन के निर्माण के लिए संख्या में पर्याप्त होनी चाहिए और वह वहाँ के प्राकृतिक साधनों तथा प्रदेश के अनुपात में होनी चाहिए। राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में डॉ. गार्नर का कथन सत्य है कि “जनता राज्य के संगठन के निर्वाह के लिए संख्या में पर्याप्त होनी चाहिए तथा यह उससे अधिक नहीं होनी चाहिए जितनी के लिए भूखण्ड तथा राज्य के साधन पर्याप्त हों।”
वर्तमान में भारत, चीन, अमेरिका जैसे करोड़ों जनसंख्या वाले राज्य भी हैं तथा सेनमेरिनो तथा मोनाको जैसे कुछ हजार की जनसंख्या वाले राज्य भी हैं।
राज्य की जनसंख्या अर्थात् जनता कैसी हो, इसका राजनीतिक जीवन में अत्यधिक महत्व है। चूंकि जनता के स्वरूप पर ही राज्य का स्वरूप निर्भर करता है, अतः इस सम्बन्ध में संस्था की अपेक्षा गुण अधिक महत्वपूर्ण हैं। राज्य के नागरिक शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से स्वस्थ होने चाहिए।
अरस्तू के शब्दों में “श्रेष्ठ नागरिक ही श्रेष्ठ राज्य का निर्माण कर सकते हैं, अतः यह आवश्यक है कि नागरिक चरित्रवान हों। “
(2) निश्चित भू-भाग:-
निश्चित भू-भाग राज्य का दूसरा आवश्यक तत्व है। निश्चित भू-भाग के अभाव में मनुष्यों द्वारा व्यवस्थित जीवन व्यतीत नहीं किया जा सकता।
ब्लंटशली के शब्दों में, “जैसे राज्य का वैयक्तिक आधार जनता है, उसी प्रकार उसका भौतिक आधार प्रदेश है। जनता उस समय तक राज्य का रूप धारण नहीं कर सकती, जब तक उसका कोई निश्चित प्रदेश न हो।”
गार्नर के शब्दों में, “ऐसी (फिरन्दर) अवस्था से लोग निर्माण की प्रक्रिया में राज्य हो सकते हैं, परन्तु वे तब तक राज्य नहीं होते जब तक वे स्थायी रूप से किसी निश्चित खण्ड पर स्थिर न हो जाएं।”
राज्य के आवश्यक तत्व के रूप में निश्चित भू-भाग से अभिप्राय केवल भू-क्षेत्र से ही नहीं है अपितु इसके अन्तर्गत उस प्रदेश में विद्यमान नदियाँ, सरोवर झीलें, खनिज पदार्थ, समुद्र तटों से 12 मील तक का समुद्र तथा राज्य की सीमा के अन्तर्गत आने वाला वायुमण्डल भी सम्मिलित है।
राज्य का क्षेत्र कितना होना चाहिए, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। प्लेटो, अरस्तू, रूसो, डी. टाकविल, आदि छोटे राज्यों के पक्षधर हैं। वर्तमान में राज्य का कम क्षेत्र होना हानिकारक समझा जाता है, क्योंकि कम क्षेत्र वाले राज्य आर्थिक तथा जैविक दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं हो सकते हैं। आधुनिक युग में संघवाद की व्यवस्था के कारण बड़े राज्यों की स्थापना को बल मिला है। उत्पादन तथा जनशक्ति की दृष्टि से विशाल आकार वाले राज्य छोटे राज्यों से प्रायः बढ़कर ही होते हैं।
राज्य के आकार के विषय में यह कहा जा सकता है, राज्य की जनसंख्या तथा क्षेत्र के बीच कोई अनुपात अवश्य होना चाहिए अन्यथा राज्य की प्रगति अवरुद्ध हो जाएगी। साथ ही राज्य का समस्त क्षेत्र परस्पर भली प्रकार से सम्बन्धित होना चाहिए। राज्य के विभिन्न टुकड़ों के बीच किसी प्रकार की प्राकृतिक बाधाएँ या किसी दूसरे राज्य का क्षेत्र नहीं होना चाहिए। यदि किसी राज्य के क्षेत्र एक-दूसरे से दूरी पर हों तो उसकी एकता को खतरा हो सकता है। सन् 1947 में पाकिस्तान का क्षेत्र त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि पाकिस्तान राज्य के दो भाग पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान एक-दूसरे से बहुत दूरी पर स्थित थे। यही दूरी पाकिस्तान के विघटन का कारण बनी।
(3) सरकार:-
सरकार राज्य का संगठनात्मक तत्व है। किसी निश्चित प्रदेश के निवासी तब तक राज्य का स्वरूप धारण नहीं कर सकते जब तक कि उनका एक राजनीतिक संगठन न हो। यह राजनीतिक संगठन सरकार है जो राज्य के लक्ष्य तथा नीतियों को क्रियान्वित करता है।
वस्तुतः सरकार राज्य का वह अभिन्न अंग है जिसके द्वारा राज्य उन उद्देश्यों की पूर्ति करता है जिसके लिए उसका संगठन होता है। यह वह एजेन्सी है जिसके माध्यम से राज्य के संकल्प बनते हैं और उसकी अभिव्यक्ति होती है। सरकार ही व्यवस्था स्थापित करती है और कानून पालन करने के लिए पुलिस या अन्य प्रकार की शक्ति का प्रयोग करती है। इस प्रकार, सरकार राज्य का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण निर्माणक तत्व है।
गैटिल के अनुसार, “सरकार के अभाव में जनसंख्या असंयमित, अराजक या विप्लवी जनसमूह हो जाएगा और किसी भी सामूहिक कार्य का होना असम्भव हो जाएगा।”
डॉ. गार्नर के अनुसार, “सरकार राज्य का वह साधन या यंत्र है जिसके द्वारा राज्य के उद्देश्य अर्थात् सामान्य नीतियों और सामान्य हितों की पूर्ति होती है। सरकार के बिना जनता असंगठित या अराजक जनसमूह के रूप में होगी जो सामूहिक रूप से कोई भी कार्य करने में अक्षम होगा।”
प्रारम्भिक काल में सरकार का संगठन सरल और कार्य सीमित थे, किन्तु वर्तमान में सरकार का संगठन जटिल हो गया है। सरकार के तीन अंग हैं—व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका। अतीत में सरकार का कार्य शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखना तथा बाहरी आक्रमण से रक्षा करना था, किन्तु आज लोक-कल्याणकारी राज्य की धारणा अपना लिए जाने के कारण राज्य के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि हो गई है।
सरकार का कोई एक निश्चित स्वरूप नहीं है। सरकार राजतन्त्रात्मक, कुलीनतन्त्रात्मक या प्रजातन्त्रात्मक किसी भी प्रकार की हो सकती है, जैसे—चीन, पोलैण्ड में साम्यवाद; सऊदी अरब, जोर्डन, आदि में राजतंत्र; टर्की, लीबिया में सैनिक शासन; भारत, ब्रिटेन व जापान में संसदीय लोकतंत्र तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में अध्यक्षात्मक लोकतंत्र है।
(4) सम्प्रभुता:-
गैटिल के अनुसार, “सम्प्रभुता ही राज्य का वह लक्षण है जो उसे अन्य समुदायों से अलग करता है।”
सम्प्रभुता सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। सम्प्रभुता राज्य का प्राण है। इसके अभाव में राज्य अस्तित्व में नहीं आ सकता। किसी निश्चित प्रदेश में रहने वाले सरकार सम्पन्न लोग भी उस समय तक राज्य का निर्माण नहीं कर सकते, जब तक कि इनके अधिकार में सम्प्रभुता न हो, जैसे- स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत एक राज्य नहीं था, क्योंकि वह सम्प्रभुता-सम्पन्न न होकर ब्रिटिश नियंत्रण में था।
राज्य की सम्प्रभुता से अभिप्राय है कि राज्य अपने क्षेत्र में स्थित सभी व्यक्तियों तथा समुदायों को आज्ञा प्रदान कर सके, इन आज्ञाओं का पालन करा सके तथा बाहरी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त हो अर्थात् दूसरे राज्यों के साथ अपनी इच्छानुसार सम्बन्ध स्थापित कर सके। इस सम्बन्ध में यह तथ्य स्मरणीय है कि यदि कोई राज्य अन्य राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करते समय किन्हीं प्रतिबन्धों को स्वीकार कर लेता है तो इससे उसकी सम्प्रभुता किसी भी रूप में खण्डित नहीं होती है।
निष्कर्ष
इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि राज्य के लिए जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सुसंगठित सरकार तथा सम्प्रभुता का होना अत्यावश्यक है। इनमें से एक भी तत्व के अभाव में उस संगठन को राज्य नहीं कहा जा सकता है।