7. भू-राजनीति का अर्थ तथा इसका विकास
7. भू-राजनीति का अर्थ तथा इसका विकास
भू-राजनीति मानव भूगोल की एक महत्वपूर्ण शाख है। वर्तमान राजनीतिक भूगोल इसी का पूर्ण विकसित रूप है। इसके अन्तर्गत राज्य की अवस्थिति, संसाधन व समाज क उसकी राजनीतिक प्रक्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, जिससे राज्य की शक्ति व नीति निर्धारित होती है और उस पर राज्य की प्रगति व कल्याण निर्भर करता है।
भू-राजनीति की अवधारणा रैटजेल की जैविक राज्य संकल्पना तथा जेलेन की ज्योपोलिटिक संकल्पनाओं पर आधारित है। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के पश्चात् जर्मनी के विद्वानों, विचारकों व सैन्य अधिकारियों द्वारा पराजय के कारणों का विश्लेषण किया गया। इस प्रक्रिया में विस्तारवादिता की नीति से जर्मनी की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के प्रयास किए गए।
भू-राजनीति शब्द जर्मन भाषा के Geopolitik से व्युत्पन्न अंग्रेजी के Geopolitics से लिया गया है।
परिभाषा (Definition)- भू-राजनीति को विद्वानों ने इस प्रकार परिभाषित किया है:-
रूडोल्फ जेलेन के अनुसार, “भू-राजनीति राज्य के प्राकृतिक पर्यावरण से सम्बन्धित है। यह स्पष्ट करता है कि राज्य ऐतिहासिक एवं यथार्थ वास्तविकता में गहराई से प्रविष्ट है। यह जीव की भांति विकसित होता है और जीवधारी रचना का एक प्रमुख प्रकार है। जिस प्रकार एक मनुष्य होता है।”
हॉशोफर के अनुसार, “भू-राजनीति ‘क्षेत्र’ को राज्य के रूप में देखता है अर्थात् इसका समस्त अध्ययन ‘क्षेत्र’ पर ही केन्द्रित रहता है।”
ओटोमाल के अनुसार, “भू-राजनीति राज्य की क्षेत्रीय आवश्यकताओं से सम्बन्धित है, जबकि राजनीतिक भूगोल केवल राज्य की स्थानिक पारिस्थितियों का परीक्षण करता है।”
भूराजनीति का विकास-
भूराजनीति के विकास में मुख्यतः जर्मन भूगोलवेत्ताओं का विशेष योगदान रहा है। इनके अनुसार राज्य एक भूराजनीतिक जीव है तथा इसे जीवित रखने के लिए क्षेत्र की आवश्यकता होती है। राज्य के विकास के अनुसार क्षेत्र विस्तार की आवश्यकता में वृद्धि होती जाती है। फ्रेडरिक रैटजेल इस विचार के जनक रहे हैं।
स्वीडिश विद्वान जेलेन ने रैटजेल के विचारों को स्पष्ट भी किया है और इनकी पुष्टि भी की है। जेलेन के अनुसार राज्य रूपी जीव का शरीर क्षेत्र है, सीमाएं अंतस्थ अंग हैं, उत्पादन क्षेत्र भुजाएं हैं, परिवहन के साधन रक्त तन्त्र है तथा राजधानी उसका मस्तिष्क, हृदय तथा फेफड़ा हैं। भूराजनीति में इन विचारों को और अधिक विकसित करने में जर्मन भूराजनीतिज्ञ होशोफर का भी सक्रिय एवं व्यावहारिक योगदान रहा है।
रैटजेल का योगदन (1844-1904)-
यदि काण्ट को राजनीतिक भूगोल का जनक कहा जा सकता है तो रैटजेल को इसके पोषक एवं पालनकर्ता के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यद्यपि रेटजेल जर्मन विदेश नीति से सम्बन्धित समस्याओं से पृथक रहे और उन्होंने केवल राज्य-विकास सम्बन्धी सैद्धान्तिक विचार प्रस्तुत किए फिर भी इनके विचारों ने न केवल राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में राष्ट्र शक्ति दृष्टिकोण को जन्म दिया अपितु अप्रत्यक्ष रूप में भू-राजनीतिक विचारों को भी जन्म दिया।
रैटजेल के अनुसार राज्य के पोषण क्षेत्र को ही लैबेन्स् रॉम अर्थात् निर्वाह क्षेत्र कहा जाता है। जिसे प्राप्त करने के लिए राज्य को सदैव संघर्षरत रहना पड़ता है तथा अस्तित्व के लिए किया गया संघर्ष क्षेत्र संघर्ष में परिवर्तित हो जाता है। इतिहास में संघर्ष सदैव प्रभावकारी कारक रहा है। राज्य विकास के लिए क्षेत्र चेतना एवं राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टिकोण से उपयोगी क्षेत्रों पर नियन्त्रण आवश्यक होता है। उसने बताया कि राज्य क्षेत्र के प्रसारण तथा संकुचन के अनुसार सीमान्त परिवर्तित होते रहते हैं और ये राज्य प्रसार, शक्ति तथा परिवर्तन को प्रतिबिम्बित करते हैं।
सीमान्त की चौड़ाई संलग्न राज्यों की प्रकृति पर निर्भर करती है अर्थात् यदि विकसित एवं कम विकसित राज्यों के मध्य सीमान्त की चौड़ाई सर्वाधिक होती है तो समान रूप से विकसित राज्यों के मध्य न्यनूतम । साथ ही सीमावर्ती समुदाय अपनी परिधीय स्थिति के कारण स्वतन्त्रता की अभिलाषा रखते हैं। रैटजेल के अनुसार राज्य एक जैविक सत्ता है जो मानवीय एवं धरातलीय अंशों से निर्मित है। राज्य का प्रारम्भिक क्षेत्र नाभि क्षेत्र कहलाता है तथा इसी क्षेत्र से राज्य का क्षेत्रीय प्रसार होता है।
जेलेन का योगदान-
जेलेन ने रैटजेल के विचारों को और अधिक स्पष्ट किया तथा भूराजनीति शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया। जेलेन ने राज्य के अध्ययन हेतु भूराजनीति, जनसंख्या राजनीति, आर्थिक संसाधन राजनीति, समाज राजनीति और राज्य प्रशासन विषयों का विश्लेषण आवश्यक माना। रैटजेल की भांति इन्होंने राज्य को न केवल एक जैविक इकाई ही माना अपितु नैतिक तथा बौद्धिक गुण सम्पन्न चेतन सत्ता के रूप में देखा। रैटजेल के अनुरूप जेलेन की भी यह मान्यता थी कि राज्य विकास का अन्तिम उद्देश्य शक्ति संग्रहण है। इनकी यह भी मान्यता थी कि शक्ति संग्रहण केवल क्षेत्रीय प्रसार के सरल जैविक नियमों के अनुसार ही नहीं होता है अपितु इसके लिए आधुनिक प्रगति एवं तकनीकी विकास की भी आवश्यकता होती है।
राज्य शक्ति के विकास हेतु बाह्य दृष्टिकोण से प्राकृतिक सीमान्त एवं आन्तरिक दृष्टिकोण से समन्वित एकता प्राप्त करना आवश्यक है। विश्व राजनीति के क्षेत्र में भविष्यवाणी करते हुए इन्होंने कहा था कि सामुद्रिक शक्ति पर आधारित साम्राज्यों की सत्ता के स्थान पर महाद्वीपीय शक्ति पर आधारित साम्राज्य अधिक शक्ति सम्पन्न हो जाएंगे जो कालान्तर में समुद्रों पर भी नियन्त्रण करेंगे। इनके साथ ही इन्होंने यह भी कहा कि अन्त में कुछ विशालकाय राज्यों का उद्भव एवं विकास होगा जिनमें यूरोप, अफ्रीका तथा पश्चिमी एशिया के क्षेत्र में जर्मनी महान शक्ति के रूप में उभरेगा।
ग्रेट ब्रिटेन के वयोवृद्ध अनुभवी तथा बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न भूगोलवेत्ता मेकिण्डर ने सार्वभौम स्तर पर राज्यशक्ति विकास की व्याख्या हेतु महाद्वीपीय शक्ति सम्बन्धी नवीन विचार प्रस्तुत किए। मेकिण्डर ने 1919 में अपनी हृदय स्थल सम्बन्धी अवधारणा को निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया-
जो पूर्वी यूरोप पर शासन करता है, वही हृदय स्थल को नियंत्रित करेगा।
जो हृदय स्थल पर शासन करेगा, वही विश्व द्वीप को नियंत्रित करेगा।
जो विश्व द्वीप पर शासन करेगा, वही विश्व को नियंत्रित करेगा।
मेकिण्डर के समकालीन जर्मन भूराजनीतिज्ञ कार्ल होशोफर मेकिण्डर के विचारों से न केवल प्रभावित हुए अपितु उन्होंने अपने भूराजनीतिक विचारों की पुष्टि हेतु इनके विचारों का प्रयोग किया। स्पष्ट है कि मेकिण्डर ने अपने विचारों द्वारा जर्मन भूराजनीति को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित किया।
दो विश्वयुद्धों के मध्य के काल को भूराजनीति के विकास का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। इस काल में जेलेन द्वारा स्थापित भूराजनीति को कार्ल होशोफर और उनके अनुयायियों ने और भी अधिक सुदृढ़ बनाया। होशोफर के विचारों ने जर्मन विदेश नीति को प्रभावित करने के साथ हिटलर की युद्ध एवं प्रसार नीति को भी प्रभावित किया। भूराजनीति किसी एक विद्वान के विचारों की उपज नहीं है, अपितु अनेक विद्वानों के विचारों का फल है।
रैटजेल, महान, मेकिण्डर जेलेन, आदि विद्वानों ने भूराजनीति सम्बन्धी विचार सैद्धान्तिक स्तर पर प्रस्तुत किए तो कार्ल होशोफर ने उन विचारों को शाब्दिक अभिव्यक्ति एवं व्यावहारिक सन्दर्भ प्रदान करने के साथ-साथ उनका प्रचार एवं प्रसार भी किया। फलस्वरूप जर्मन भूराजनीति के रूप में यह राजनीतिक भूगोल से अलग हटकर राज्य के क्षेत्रीय विस्तार के अधिकार को दर्शाने वाली संकल्पना के रूप में विकसित हुई।
कार्ल होशोफर का योगदान (1869-1946)-
होशोफर जेलेन तथा मेकिण्डर के समकालीन थे। भूराजनीति के क्षेत्र में इनका चिन्तन यद्यपि जापान प्रवास काल से ही प्रारम्भ हो गया। था फिर भी म्यूनिख विश्वविद्यालय में जाने के पश्चात् ही इनका भूराजनीतिक अध्ययन परिपक्वता प्राप्त कर सका। यहाँ इन्होंने Institut fur Geopolitik नामक संस्था की स्थापना की एवं 1924 में ओटोमोल एवं एरिक ओबस्ट के साथ Zeitschrift fur Geopolitik नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन प्रारम्भ किया। कार्ल होशोफर के भूराजनीति सम्बन्धी विचार निष्कर्ष रूप में निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किए जा सकते हैं-
⇒ उनके अनुसार राज्य एक जैविक सत्ता है। राज्य के लिए क्षेत्र अथवा रॉम प्रथम आवश्यकता है।
⇒ निर्वाह क्षेत्र (लैबेन्स् रॉम) का विचार होशोफर द्वारा विकसित भूराजनीति का केन्द्र बिन्दु माना जाता है।
⇒ राज्य शक्ति के उपार्जन हेतु क्षेत्र विस्तार अपरिहार्य है तथा जर्मनी के लिए क्षेत्र विस्तार पूर्व दिशा में स्लाव क्षेत्र में ही सम्भव है।
⇒ राज्य के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता (ओटोरकी) आवश्यक है जिसकी प्राप्ति क्षेत्रीय प्रसार द्वारा ही सम्भव है।
⇒ भूराजनीतिक दृष्टि से प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
⇒ जर्मनी के लिए ग्रेट ब्रिटेन की शक्ति का विनाश आवश्यक है। पूर्वी गोलार्द्ध में अमेरिकी हस्तक्षेप अवांछनीय है। जर्मनी के नेतृत्व में सोवियत संघ, भारत, चीन तथा जापान के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध वांछनीय है तथा सोवियत संघ से जर्मनी का संघर्ष अनुचित है।
⇒ मेकिण्डर द्वारा वर्णित धुरी क्षेत्र के कारण भी जर्मनी का सोवियत संघ से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखना आवश्यक है, क्योंकि वह क्षेत्र शक्ति आधार रूप में है।
⇒ जर्मन भूराजनीतिज्ञों ने हृदय स्थल में आर्थिक और सैन्य समझौतों के माध्यम से मैत्रीपूर्ण ढंग से प्रवेश करने और उसके क्षेत्रों को जर्मन प्रभुत्व में लाने पर बल दिया।
होशोफर के अनुसार भूराजनीति एक गतिक विज्ञान है जो राज्य के असीमित प्रसार की इच्छा को व्यक्त करता है तथा विश्वव्यापी परिवर्तनशील अवस्थाओं का क्षेत्र अनुप्राणित दृष्टि से अध्ययन करता है। इसके विपरीत राजनीतिक भूगोल स्थितिक एवं विवरणात्मक अध्ययन मात्र ही है। उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि होशोफर के भूराजनीतिक विचार जर्मन राष्ट्रहित को दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत किए गए थे।
यह उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के साथ ही होशोफर और उनके साथियों द्वारा परिश्रम से निर्मित भूराजनीति का प्रासाद ध्वस्त हो गया एवं पर्याप्त समय तक भूगोलवेत्ता तथा राजनीतिशास्त्रियों द्वारा इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
ग्लोबीय सम्बन्धों का भूराजनीतिक अध्ययन अमेरिकी राजनीति शास्त्री स्पाइकमेन एवं ब्रिटिश भूगोलवेत्ता फेअरग्रीव ने मेकिण्डर के हृदय स्थल सिद्धान्त के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। जेम्स फेअरग्रीव ने अपनी पुस्तक The Geography of World Power के प्रथम संस्करण में अपने विचार प्रस्तुत किए एवं कुछ समय पश्चात् अपने विचारों में संशोधन करते हुए हृदय स्थल, सामुद्रिक शक्ति एवं इन दोनों के मध्य सन्तुलन मण्डल का उल्लेख किया।
निकोलस जे. स्पाइकमेन (1893-1943)-
इन्होंने मेकिण्डर की हृदय स्थल अवधारणा का खण्डन अपने परिधीय स्थल-खण्ड (Rimland) सिद्धान्त के माध्यम से किया। स्पाइकमेन ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या निम्नांकित शब्दों में अभिव्यक्त की-
जो परिधीय स्थल खण्ड पर नियंत्रण करता है,
वही यूरेशिया पर शासन करेगा,
जो यूरेशिया पर शासन करेगा, वही विश्व निर्यात को नियंत्रित करेगा।
स्पाइकमेन राष्ट्र शक्ति एवं विदेशी नीति की दृष्टि से विश्व में राज्य की स्थिति का अध्ययन आवश्यक मानते हैं। इसी कारण से कहा जाता है कि स्पाइकमेन के विचार राष्ट्र शक्ति दृष्टिकोण पर आधारित होने के साथ-साथ भूराजनीतिक भी हैं, क्योंकि ये विचार संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर प्रकट किए गए हैं।
स्पाइकमेन की इस भूराजनीतिक अवधारणा का अभिप्राय यह था कि हृदय स्थल के आन्तरिक पेटी के समुद्रीय राष्ट्र अधिक महत्वपूर्ण हैं। इन पर नियंत्रण करने वाला राज्य ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महान शक्तिशाली बन सकता है। स्पाइकमेन की यही अवधारणा आगे चलकर संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति का आधार बनी।
स्पष्ट है कि जर्मन भूराजनीति का संकल्पनात्मक विकास रैटजेल की राज्य विकास की जैवीय अवधारणा, जेलेन की भूराजनीति और लैबेन्स् रॉम एवं खिसकते सीमान्त की विचारधाराओं तथा मैकिण्डर की हृदय स्थल के सिद्धान्त को आधार मानकर ही हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् भूराजनीति की पुनर्स्थापना के अतिरिक्त ग्लोबीय सम्बन्धों का भूराजनीतिक अध्ययन ईस्ट, मीनिंग, डाल, डीसेवेरस्की, ईस्ट एवं मूडी, सूजन, आदि विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किया गया। इन विद्वानों द्वारा किया गया अध्ययन मुख्य रूप से मेकिण्डर तथा स्पाइकमेन द्वारा प्रतिपादित हृदय स्थल एवं परिधीय स्थल-खण्ड सिद्धान्तों के पुनरावलोकन के रूप में है। भूराजनीति के अध्ययन में शक्ति विश्लेषण उपागम का प्रयोग अधिक किया गया।
इस उपागम के अनुसार राज्य के आन्तरिक एवं बाह्य सम्बन्ध शक्ति उपार्जन एवं संगठन से सम्बन्धित हैं तथा राज्य को शक्ति क्षेत्र की दृष्टि से देखा जाता है। राज्य संगठन ही राज्य शक्ति है एवं राज्य शक्ति ही संगठन है। इस उपागम के प्रतिपादकों ने राज्य के विकास की जैवीय प्रक्रिया का अनुकरण करते हुए सामाजिक डार्विनवाद को अपनाया और यह माना गया कि सबसे शक्तिशाली राज्य ही अपने अस्तित्व को बनाए रख सकता है। इसके लिए राज्य के विभिन्न प्राकृतिक और मानवीय तत्वों का शक्ति के निर्धारक रूप में वर्णन किया जाने लगा। इस उपागम के परिणामस्वरूप जर्मन भू-राजनीति और ब्रिटिश तथा अमेरिकी विद्वानों ने अपने-अपने देश के सन्दर्भ में भूराजनीतिक दृष्टिकोणों की परिकल्पना की।
प्रश्न प्रारूप
1. भू-राजनीति का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके विकास को समझाइए।