7. मानसून क्षेत्र की मुख्य विशेषताओं का वर्णन
7. मानसून क्षेत्र की मुख्य विशेषताओं का वर्णन
मानसून क्षेत्र की मुख्य विशेषताओं का वर्णन
मानूसन क्षेत्र की निम्न विशेषताएँ होती हैं:-
अक्षांशीय स्थिति:-
मानसूनी जलवायु का विस्तार भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5º से 36° अक्षांशों के मध्य पाया जाता है। वास्तव में ये प्रदेश व्यापारिक हवाओं की पेटी में आते हैं, जिनमें ऋतुवत उत्तर तथा दक्षिण की ओर खिसकाव होता रहता है; जिस कारण मानूसन प्रकार की विशिष्ट जलवायु की उत्पत्ति होती है, जिसमें 6 महीने तक हवायें सागर से स्थल की ओर तथा शेष 6 महीने में स्थल से सागर की ओर चला करती हैं। इस जलवायु के अन्तर्गत पाकिस्तान, भारत, बांगलादेश, बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, लाओस, उ० तथा द० वियतनाम, पू० द्वीप समूह, आस्ट्रेलिया के उत्तरी भाग आदि को शामिल किया जाता है।
तापक्रम:-
तापक्रम वर्ष भर ऊँचा बना रहता है, परन्तु सूर्य की उत्तरायण तथा दक्षिणायन की स्थितियों की वजह से ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल का आविर्भाव होता है। कुल मिलाकर यहाँ पर तीन मौसम होते हैं-
(i) ग्रीष्मकाल
(ii) वर्षाकाल और
(iii) शीतकाल
इनमें ग्रीष्मकाल मार्च से जून, वर्षाकाल जुलाई से अक्टूबर और अन्तिम शीतकाल नवम्बर से फरवरी तक रहता है। ग्रीष्मकाल का औसत तापक्रम 80° से 90° फ० रहता है, परन्तु मई तथा जून में तापक्रम कई स्थानों पर 105° से 120° फा० तक पहुँच जाता है। उत्तरी भारत में तो मई और जून में कई बार गर्म हवायें चलने लग जाती हैं। तटीय भागों में तापक्रम 80° से 950 फ० के बीच आंका जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि उच्च तापक्रम पर धरातलीय प्रभाव की छाप है।
शीतकाल में औसत तापक्रम 50º से 80º फा० के बीच होता है। सूर्य की स्थिति दक्षिणायण हो जाती है, जिस कारण वह मकर रेखा पर लम्बवत चमकता है, परिणामस्वरूप इस भाग का तापक्रम गिर जाता है। इस तरह वार्षिक तापान्तर अधिक हो जाता है। वार्षिक तापान्तर पर सागर से दूरी तथा वर्षा की मात्रा का पर्याप्त प्रभाव होता है। तट से दूर शुष्क भागों में वार्षिक तापान्तर बढ़ता जाता है। दैनिक तापान्तर 10° से 20° फा० के बीच रहता है। वर्षाकाल में तापक्रम ग्रीष्मकाल की अपेक्षा कुछ कम हो जाता है।
वायु दाब तथा हवायें:-
ग्रीष्म तथा शीतकाल के कारण मानसूनी प्रदेश क्रमशः निम्न तथा उच्च दाब से प्रभावित होता रहता है। ग्रीष्म काल में 21 मार्च से सूर्य उत्तरायण होने लगता है तथा 21 जून को कर्क रेखा पर लम्बबत् चमकता है, परिणामस्वरूप उच्च तपक्रम के कारण निम्न वायुदाब का निर्माण हो जाता है जिस कारण सागर से स्थल की ओर हवायें चलने लगती है जो द०-पू० मानसून होती है।
23 सितम्बर के बाद सूर्य की स्थिति दक्षिणायण हो जाती है और वह 24 दिसम्बर को मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है, जिस कारण उत्तरी गोलार्द्ध के मानसूनी प्रदेशों में शीतकाल के कारण उच्च वायुदाब का निर्माण होता है। परिणामस्वरूप स्थल से सागर की और हवायें चलने लगती है। ये हवायें ‘उ०-पू० मानसून’ कही जाती है।
वास्तव में उ०-पू० मानसूनी हवायें व्यापारिक हवायें होती है, जो कि सूर्य की दक्षिणामण स्थिति के कारण वायुदाब की पेटियों के द० की ओर खिसकाव के कारण द०-पू० एशिया आदि पर स्थापित हो जाती है। चूँकि ये हवायें स्थल से होकर आती है, अतः ये शुष्क होती हैं, परन्तु जहाँ कहीं भी ये सागर के ऊपर से चलती हैं, नमी धारण कर लेती है तथा वर्षा कर बैठती हैं। मानसून की तापीय उत्पत्ति के सिद्धांत के समर्थकों के अनुसार द०-प० मानसूनी हवायें भी द०-पू० व्यापारिक हवायें ही होती है।
सूर्य की उत्तरायण स्थिति के कारण वायुदाब की पेटियों के उत्तर दिशा में खिसकने के कारण द०-पू० व्यापारिक हवायें भूमध्य रेखा को पार कर लेती हैं तथा ‘फेरल के नियम’ के अनुसार उनकी दिशा द०-प० हो जाती है, चूँकि ये हवायें सागर से होकर आती है। अतः आर्द्र होने के कारण वर्षा करती हैं।
मानसून की गतिक उत्पत्ति के समर्थकों के अनुसार सूर्य की उत्तरायण स्थिति के समय डोलड्रम की पेटी का द०-पू० एशिया पर विस्तार हो जाता है तथा उसमें प्रवावित होने वाली विषुवत रेखीय पछुवा ही द०-पू० मानसून हवा होती है। डोलड्रम के साथ द०-पू० एशिया पर चक्रवातीय दिशायें व्याप्त हो जाती है। ये उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात प्रायः पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर चलते हैं तथा पर्याप्त वर्षा प्रदान करते हैं। विभिन्न स्थानों पर इन्हें “टाइफून” चक्रवात तथा “हरीकेन” नाम से पुकारा जाता है।
वर्षा:
मानसून प्रदेशों में वर्षा मुख्यतः चक्रवातीय तथा पर्वतीय प्रकार की होती हैं। परन्तु कुछ वर्षा संवहनीय प्रकार की होती है। अर्द्ध मानसून हवायें जब पर्वतीय अवरोध का सामना करती हैं तो उन्हें ऊपर उठना पड़ता है परिणामस्वरूप पर्याप्त वर्षा हो जाती है। हिमालय के दक्षिणी ढाल पर आसम से लेकर काश्मीर तक इन हवाओं से पर्याप्त वर्षा होती है परन्तु जैसे-जैसे ये हवायें आगे बढ़ती जाती है वर्षा की मात्रा घटती जाती है। जून से अक्टूबर तक द०-पू० मानसून हवाओं से वर्षा प्राप्त होती है। शरद काल में पश्चिम से आने वाले चक्रवातों से कुछ वर्षा होती है।
वर्षा के वार्षिक वितरण में पर्याप्त विषमता पाई जाती है। वर्षा का अधिकांश भाग केवल चार महीनों (जून, जुलाई, अगस्त, सितम्बर) में प्राप्त हो जाता है। यहाँ वर्षा भी लगातार नहीं होती है। बीच-बीच में सूखा भी पड़ जाता है। वर्षा के प्रादेशिक वितरण में भी पर्याप्त अन्तर होता है। उदाहरणार्थ भारत के चेरापूँजी में वार्षिक वर्षा 426″ तक होती है जबकि थार के रेगिस्तान में 10″ से भी कम होती है। इस तरह मानसून वर्षा की मात्रा, वितरण, समय आदि सभी अनिश्चित होते हैं जिस कारण कृषि कार्य भी अनिश्चित हो जाती है।
वनस्पति:-
मानसूनी प्रदेशों में वर्षा की मात्रा में विषमता के कारण कई प्रकार की वनस्पति मिलती है। 200 से० मी० से अधिक वर्षा वाले भागों में सदाबहार वन मिलते हैं। उदाहरणार्थ भारत के पश्चिमी घाट क्षेत्र में 100 से 200 से० मी० वर्षा वाले क्षेत्रों में पतझड़ वृक्ष मिलते हैं। 50 से 100 सेमी० वर्षा वाले भागों में घास पर्णपाती वन मिलते हैं। शुष्क भाग में झाड़ियाँ आदि मिलती है।
प्रश्न प्रारूप
1. मानसूनी भूमि की स्थिति, जलवायु तथा वनस्पति के विषय में आप क्या जानते हैं? संक्षेप में लिखिये।
अथवा, मानसून क्षेत्र की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।