38. भारत में हरित क्रान्ति का प्रभाव
38. भारत में हरित क्रान्ति का प्रभाव
हरित क्रांति शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम डब्लू. एस. गौड ने खाद्यान्न उत्पादन में आई क्रांति, जो कि गेहूँ के HYV (High Yielding Varieties- उच्च उत्पादकता किस्में) प्रकार के आविष्कार से संभव हुई थी, के लिए किया था। यह क्रांति भारत, पाकिस्तान एवं विकासशील देशों में विद्यमान खाद्यान्न संकट को दूर करने में अत्यन्त मददगार रही। भारत में मुख्य रूप से भारतीय कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन द्वारा निर्देशित थी, जो नॉर्मन ई. बोरलॉग की बड़ी हरित क्रांति पहल का हिस्सा थी, जिसने अविकसित देशों में कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कृषि अनुसंधान और प्रौद्योगिकी का उपयोग किया था।
उन्नत किस्म के बीज के अलावा अच्छी सिंचाई की व्यवस्था, आधुनिक यंत्रों का उपयोग, अच्छे उर्वरक का वैज्ञानिक प्रयोग इत्यादि हरित क्रांति के आधार थे। इसमें सस्ते मूल्य पर बिजली उपलब्ध कराने के साथ-साथ अन्य बैंकिंग एवं बाजार की सुविधा उपलब्ध करायी गयी। हरित क्रांति की सफलता के दो पक्ष रहे, एक सकारात्मक तो दूसरा नकारात्मक।
सकारात्मक पक्ष
इस क्रांति से खाद्यान्न की उपज में काफी बढ़ोत्तरी हुई। 1950 में भारत में 50 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था, जो बढ़कर अब 200 मिलियन टन हो चुका है। गेहूँ के उत्पादन में 177 प्रतिशत, चावल में 76 प्रतिशत तथा मक्के में 56 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई। खाद्यान्न में वार्षिक वृद्धि 2.62 प्रतिशत हो गयी, जो पहली बार जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक थी अर्थात् खाद्यान्न संकट दूर हुआ।
कृषि क्षेत्र में 1961 से 1999 के बीच 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 1960-61 में यह कुल कृषि क्षेत्र का 72 प्रतिशत था, जो 1970-71 में 78 प्रतिशत हो गया, 1980-81 में 81 प्रतिशत और अब 82 प्रतिशत के करीब है। पिछले तीन दशकों में गेहूँ के क्षेत्र में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिसमें 82 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र है तथा 95 प्रतिशत HYV के अंतर्गत आता है। चावल क्षेत्र में भी 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
भारतीय कृषि पहली बार बाजार में लाभदायक व्यापार के रूप में आई क्योंकि अब किसानों के पास अतिरिक्त अन्न मौजूद था। कृषि उत्पादों पर आधारित उद्योगों का विकास हुआ तथा कृषि में प्रयुक्त होने वाले यंत्रों के निर्माण में भी लौह एवं यांत्रिक उद्योग को बढ़ावा मिला। भारतीय किसानों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ, भारतीय किसान बढ़ी पैदावार को देखते हुए नवीन कृषि प्रणाली को अपनाने को तुरंत तैयार हो गये और कृषि सहायता से लाभदायक वाणिज्यिकी में परिणत हो गये।
खाद्यान्न का आयात रुका तथा भारतीय मुद्रा का विदेश गमन भी नियंत्रित हुआ। भारत जैसे विकासशील देश में यह मुद्रा अधः संरचना के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी। ग्रामीण रोजगार के भी शुभ अवसर पैदा हुए। घरेलू उद्योग धंधों का भी विकास हुआ तथा मजदूरी में बढ़ोतरी हुई।
नकारात्मक पक्ष
परंतु हरित क्रांति के नकारात्मक पक्ष भी उभर का सामने आये हैं। हरित क्रांति ने उसी क्षेत्र में सफलता पाई, जहाँ पर पूर्व से ही अधः संरचना का विकास हुआ था, किसान बड़े एवं धनी थे, कुल जोत अधिक थी तथा दूसरी भौगोलिक एवं सामाजिक शर्तें पूरी हो रही थीं। अतः यह पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों में तो सफल रही, परन्तु उड़ीसा, मध्य प्रदेश आदि में असफल रही, जिससे आर्थिक विकास में असमानता आयी।
उत्तर प्रदेश के अंदर ही पूर्वी एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विकास की विषमता दिखती है। इसी तरह कृष्णा, गोदावरी क्षेत्र एवं तेलंगाना और रायल सीमा क्षेत्र में विषमता दिखती है।
अंतर्वैयक्तिक विषमता का भी जन्म हो गया। क्योंकि बड़े किसान ही इसका भरपूर फायदा उठा सके जबकि छोटे किसान आर्थिक रूप से असफल ही रह गये। गेहूँ और चावल की उपज एवं उपज क्षेत्र में तो बढ़ोत्तरी हुई, परंतु तिलहन एवं दलहन की उपज एवं उपज क्षेत्र दोनों ही घट गये। अंतर्वैयक्तिक विषमता ने बड़े किसानों के समाज में प्रभुत्व को पूर्वस्थापित कर दिया। छोटे किसान अपनी जमीन को बढ़ी कीमत में बेचने पर प्रलोभित हो गये तथा उनकी आर्थिक दुर्गति बढ़ गयी। कृषि में यांत्रिकी के प्रवेश से रोजगार के अवसर भी घट गये।
हरित क्रांति के सर्वाधिक दुष्परिणाम पर्यावरणीय दृष्टि से उभर कर सामने आये। कृषि में HYV किस्म की आवश्यकता अधिक रहती है। हरित क्रांति के क्षेत्र में अपवाह प्रणाली बेहद खराब है। अतः नहरों से सिंचित क्षेत्र में जल जमाव एवं कूप तथा नलकूप क्षेत्र में लवणता की समस्या का जन्म हो गया। हरियाणा एवं पंजाब के अर्द्धशुष्क भौगोलिक दशा में लवणता को और बढ़ावा मिला।
कृषि क्षेत्र को बढ़ाने के लिए वनस्पति का विनाश हुआ, अधिक उर्वरक के प्रयोग से प्राकृतिक उर्वरता का ह्रास तथा कृषि प्रणाली में परिवर्तन (जैसे दलहन का न बोया जाना) आदि प्रयोगों एवं कार्यों से मृदा अपरदन एवं प्रदूषण दोनों बढ़े। एकल कृषि तथा कृषि पारिस्थितिकी पर प्रभाव भी नकारात्मक पड़े। एक ही फसल उपजाने से कृषि पारिस्थतिकी का विनाश हो रहा है।
रासायनिक खादों के उपयोग से तथा खाद्यान्नों में सीसा, तांबा, जस्ते आदि की मात्रा बढ़ने से यकृत संबंधी रोग तथा जल जमाव से मलेरिया, डेंगू आदि रोग बढ़े। डीडीटी और कीटनाशक दवाओं का दुधारू जानवरों के दूध में पाया जाना भी घातक संकेत है। इस तरह एक तरफ तो हरित क्रांति से खाद्यान्न उत्पादन में आशानुरूप वृद्धि हुई तो दूसरी तरफ इसने पर्यावरणीय एवं सामाजिक दुर्व्यवस्था को भी जन्म दे दिया।