31. भारत में उष्णकटिबंधीय चक्रवात
31. भारत में उष्णकटिबंधीय चक्रवात
भारत में उष्णकटिबंधीय चक्रवात
जब किसी निम्न वायुदाब केंद्र के चारों ओर तीव्र गति से हवा घुमने की प्रवृति रखती है तो उसे चक्रवात कहते है। फेरल के नियम के अनुसार उत्तरी गोलार्द्ध में यह परिसंचरण घड़ी की सुई के उल्टी दिशा में और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुई की दिशा में होती है।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति 8º से 20º अक्षांश के बीच होती है। यह उष्ण कटिबंधीय प्रदेश की चक्रवात है। इसकी उत्पत्ति एक निम्न वायु दाब केंद्र के बनने से प्रारंभ होता है जिसे आँख या आवर्त (Vertex) कहा जाता है।
उष्ण चक्रवात के उत्पत्ति के लिए दो प्रकार के वायु राशि की आवश्यकता पड़ती है। ये दोनों वायु राशि अलग-अलग विशेषताओं के होते है लेकिन तापीय प्रभाव अधिक होने के कारण वायु तेजी से गर्म हो जाती है और अंततः प्रारंभिक गुणों को छोड़ तेजी से ऊपर उठने लगती है और निम्न वायुदाब केंद्र का निर्माण करती है। इस निम्न वायुदाब केंद्र को ठंडी वायु चारों ओर से भरने के लिए दौड़ती है लेकिन पृथ्वी के घूर्णन गति के प्रभाव में वायु घुमने लगती है और चक्रवात को जन्म देती है।
भारतीय उपमहाद्वीप पर आने वाले चक्रवात को पश्चिम बंगाल में नार्वेस्टर, बिहार में आंधी, पंजाब एवं हरियाणा में तूफान कहते है। इसका केंद्र सामान्यत: बंगाल की खाड़ी या उसके तटवर्ती क्षेत्र में होता है। प० तट पर चक्रवातीय प्रभाव सिर्फ गुजरात में देखने को मिलता है। भारत में आनेवाले उष्ण चक्रवात को समय के दृष्टि से तीन भागों भागों में बांटते है-
(1) मानसून पूर्व चक्रवात
(2) मानसून काल के दौरान आने वाला चक्रवात
(3) मानसून के बाद का चक्रवात
मानसून पूर्व चक्रवात का आगमन मुख्यत: 15 अप्रैल से जून के प्रथम सप्ताह के बीच आता है। इसका प्रभाव क्षेत्र मुख्यत: गोदावरी नदी के उत्तरी भाग में होता है। इसका प्रारंभिक केंद्र (15 अप्रैल से 15 मई के बीच) महाद्वीप या स्थलखंड के ऊपर होता है लेकिन 15 मई के बाद यह तट के किनारे अवस्थित होते है।
प्रारम्भिक चक्रवात कम विनाशकारी होते है जबकि तटीय चक्रवात अधिक विनाशकारी होते है। प्रारंभिक चक्रवात का केंद्र प० बंगाल के ऊपरी मैदान (सामान्यत: मालदा से दिनाजपुर के बीच) में होती है। इसकी उत्पत्ति का प्रमुख कारण मैदान की तुलना में आस-पास के क्षेत्र का उच्च भार क्षेत्र है उच्च भार का क्षेत्र मेघालय का पठार, छोटानागपुर का पठार, उपरी गंगा का मैदान, बंगाल की खाड़ी व हिमालय के ऊपर होता है। इसी चक्रवात को नार्वेस्टर या कालबैशाखी कहते है। इसकी प्रमुख विशेषता है पहले शुष्क तेज वायु चलती है फिर वर्षा होती है।
लेकिन मई के उतरार्द्ध में परिस्थितियाँ बदलने लगती है। सम्पूर्ण महाद्वीप क्षेत्र एक गर्म वायु राशि क्षेत्र में बदल जाता है जबकि बंगाल की खाड़ी दूसरी गर्म महासागरीय वायु राशि का निर्माण करती है।
तापीय प्रभाव के अनिश्चितता के कारण तटवर्ती क्षेत्र में और मुख्यत: दो वायु राशि के बीच मध्य तटवर्ती क्षेत्र में निम्न भार केंद्र का विकास होता है और दो वायु राशियाँ इसी केंद्र के चारों तरफ घुमने लगती है। बंगाल की खाड़ी की वायुराशि बाधा रहित होती है अत: तेजी से महाद्वीपीय क्षेत्र के ऊपर प्रहार करती जो भारी वर्षा और विनाश को जन्म देता है। यह सही अर्थों में प्राकृतिक विपदा के समान होता है।
अरब सागर में उत्पन्न होने वाले चक्रवात
अरब सागर भी एक गर्म महासागरीय उष्ण वायु राशि का निर्माण करते है लेकिन यहाँ चक्रवातीय परिस्थितियाँ नहीं बनती है क्योंकि चक्रवातीय परिस्थिति के लिए दो अलग-अलग विशेषताओं की वायु राशि का निर्माण होना आवश्यक है। भारत का पश्चिमी तट अत्यंत ही संकरा एवं रेखीय है जो स्थलीय और समुद्री समीर के लिए तो अनुकूल है लेकिन समान विशेषता की वायु राशि के निर्माण के लिए अनुकूल नहीं है।
इस संकरे प्रदेश पर पर्वतीय और महासागरीय वायु की विशेषताओं का प्रभाव पड़ जाता है और वे वायु राशि के रूप में काम नहीं कर पाते है। यही कारण है कि भारत के पश्चिमी तट पर चक्रवात की उत्पत्ति नहीं होती है लेकिन गुजरात के काठियावाड़ का प्रायद्वीप एक अपवाद है जहाँ चक्रवातीय प्रभाव पड़ते है लेकिन चक्रवातीय बारंबारता कम होती है।
गुजरात का क्षेत्र लगभग मैदानी या सपाट है। अत: यह महाद्वीपीय उष्ण गर्म वायु राशि बनाते है। जब भी ये दो गर्म वायु राशियाँ एक-दूसरे के ऊपर दबाव उत्पन्न करती है तो चक्रवात का आगमन होता है लेकिन चक्रवात की कम दबाव बारम्बारता का मूल कारण इस प्रदेश में चलने वाली सन्मार्गी वायु है। सन्मार्ग्री वायु दोनों वायु की दिशा एक तरफ कर देती है। विश्व के सभी उष्ण मरुस्थल सन्मार्ग्री वायु के स्रोत होते है।
राजस्थान मरुस्थल से चलने वाली वायु का प्रभाव गुजरात प्रदेश पर भी पड़ता है। यही कारण है कि चक्रवातीय प्रवाह तब तक उत्पन्न नहीं होते जब तक कि गुजरात के तटवर्ती क्षेत्र में तापीय प्रभाव अत्यधिक गहन नहीं हो जाता है।
अधिक तापीय प्रभाव से जब संवहनीक क्रिया होती है तो गुजरात प्रदेश की वायु गर्म होकर विषुवतीय निम्न भार की तरफ न जाकर लम्बवत रूप से ऊपर उठ जाती है। इससे सन्मार्ग्री वायु का प्रवाह बाधित होता है। इसके बाद प्रवाह के मध्य निम्न भार केंद्र उभर जाते है और वायु अपनी दिशा बदल लेती है और चक्रवात को जन्म देती है।
मानसून के समय भी उष्ण चक्रवात उत्पन्न होती है जिसके कारण चक्रवातीय वर्षा होती है। प्रारंभ में यह अवधारणा थी कि मानसूनी वर्षा पर्वतीय वर्षा है लेकिन 1977 के MONEX Expedition के समय से ही यह निश्चित हो चूका है कि भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र में मानसूनी वर्षा चक्रवातीय होती है।
पर्वतीय वर्षा का क्षेत्र पूर्वोत्तर भारत, हिमालय और उत्तर का मैदानी क्षेत्र है लेकिन उड़ीसा, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा महाराष्ट्र के आंतरिक भागों में अधिकत्तर वर्षा चक्रवातीय होती है।
सामान्यत: यह देखा जाता है कि उड़ीसा के तटीय क्षेत्र से लेकर शिमला तक तथा उड़ीसा के तटीय क्षेत्र से प० राजस्थान तक ऐसे अक्ष का निर्माण होता है, जिसके अनुरूप निम्न वायुदाब का क्षेत्र स्थानान्तरित होता है और इसी स्थानांतरण के साथ गर्म वायु उठ कर संतृप्त होती है और इन प्रदेशों में वर्षा लाती है।
मानसून के बाद चक्रवात का आगमन मुख्यत: गोदावरी नदी के द० में देखने को मिलती है। ये चक्रवात 15 अक्टूबर से दिसम्बर के प्रथम सप्ताह के बीच आते है। इसका प्रभाव मुख्यतः दक्षिण आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडू में देखने को मिलता है। इसकी उत्पत्ति का मूल कारण दो गर्म वायु का एक-दूसरे के विपरीत दिशा में अपवाहित होना है। इनसे गर्म वायु राशियों का निर्माण द०-प० मानसूनी वायु तथा उ०-पू० मानसूनी वायु द्वारा होता है।
प्रायद्वीपीय भारत के द०-पू० तट पर जब ये दो वायु राशि मिलते है तो चक्रवातीय परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है लेकिन नवम्बर के अंत आते-आते द०-प० मानसून वायु पूर्णत: पीछे हट जाती है और ऐसी स्थिति में उ०-पू० मानसूनी वायु ही सम्पूर्ण महाद्वीपीय क्षेत्र पर अपवाहित होने लगते है। इससे तमिलनाडु में पर्वतीय वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। यही कारण है कि दिसंबर में चक्रवात नहीं आते है।