5. भारत की भूगर्भिक संरचना का इतिहास
5. भारत की भूगर्भिक संरचना का इतिहास
भारत की भूगर्भिक संरचना का इतिहास
भूवैज्ञानिक संरचना का तात्पर्य चट्टानों के भूगर्भिक इतिहास से है। भूगर्भिक इतिहास के अंतर्गत समय के संदर्भ में चट्टानों के विकास तथा आन्तरिक एवं बाह्य भौगोलिक कारकों के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। किसी भी भौगोलिक भूखण्ड के इतिहास का अध्ययन चट्टानों के आधार पर किया जाता है। जेम्स हटन ने यहाँ तक कहा था कि ”चट्टान पृथ्वी के इतिहास के पन्ने हैं।”
भूवैज्ञानिकों ने अलग-2 विधियों का उपयोग कर भूगर्भिक संरचना का अध्ययन करने का प्रयास किया है। भारत के संदर्भ में सर्वप्रथम टी०एच० हॉलैण्ड महोदय ने अध्ययन करने का प्रयास किया। इन्होंने भारतीय भूगर्भिक चट्टानों का अध्ययन कर “इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इण्डिया” (1904) नामक पुस्तक में प्रकाशित किया। इन्होंने भारतीय चट्टानों को निम्नलिखित चार भागों में वर्गीकृत किया:-
(1) पुराण समूह की चट्टान- पठारी क्षेत्र (जीवाश्म नहीं)।
(2) द्रविड़ समूह की चट्टान- पठारी क्षेत्र (परन्तु परतदार/रूपांतरित)।
(3) आर्यन समूह की चट्टान- हिमालय, उत्तर भारत के मैदान ।
(4) नवीन समूह की चट्टान- डेल्टाई, तराई, नदी के किनारे।
पुराण समूह की चट्टान में वैसे चट्टानों को रखा जिसमें किसी भी प्रकार का जीवाश्म नहीं मिलता है। इस प्रकार का चट्टान भारत के पठारी क्षेत्रों में मिलते हैं। प्रो. कृष्णन महोदय ने इस प्रकार के चट्टानों को “आर्कियन समूह की चट्टान” से संबोधित किया है। टी० एच० हलैण्ड ने द्रविड़ समूह की चट्टान में वैसे चट्टान को रखा है जो पठारीय भारत में ही मिलते हैं लेकिन वे परतदार प्रकार के हैं। ये चट्टानें परतदार होने के बावजूद इस पर बाह्य एवं आन्तरिक कारकों का इतना जबदस्त प्रभाव पड़ा है कि यह पूर्णतः रूपान्तरित हो चुके हैं।
टी० एच० हालैण्ड ने आर्यन समूह के चट्टानों में हिमालय पर्वतीय क्षेत्र एवं उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र में मिलने वाले चट्टानों को शामिल किया है। जबकि नवीन समूह की चट्टानों में डेल्टाई, तटीय और नदियों के किनारों पर मिलने वाले चट्टानों को शामिल किया है।
आलोचना
टी० एच० हॉलैण्ड के द्वारा प्रस्तुत भूगर्भिक संरचना के वर्गीकरण से कई आधारों पर आलोचना की जाती है। जैसे-
(1) इनके वर्गीकरण में कोई निश्चित समय सीमा का निर्धारण नहीं किया गया है।
(2) कुछ विद्वानों ने नामाकरण पर ही आपति उठायी है क्योंकि उनके वर्गीकरण से औपनिवेशिक शासन की गन्ध आती है।
(3) टी० एच० हॉलैण्ड ने कहा है कि हमारा वर्गीकरण कार्बन डेटिंग पर आधारित है लेकिन वैज्ञानिक पद्धति से यह साबित हो चुकी है कि कार्बन डेटिंग के द्वारा मात्र 5700+ 50 वर्ष तक के ही चट्टानों का उम्र ज्ञात किया जा सकता है। लेकिन भारत में इससे भी पुराने चट्टानों का प्रमाण मिलता है।
उपरोक्त आलोचनाओं के परिपेक्ष्य में भारतीय एवं यूरोपीय भूगर्भशास्त्रियों ने इस बात पर बल दिया है कि भारतीय चट्टानों के संरचनात्मक अध्ययन अन्तरर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित किये गये पैमान के आधार पर किया जाना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उसी पैमाना को स्वीकार किया गया है जो यूरोपीय वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित किया गया है। इस पैमाने के अनुसार भूगर्भिक काल को चार महाकल्प (Era) में बाँटा गया है। पुन: महाकल्प को काल/कल्प (Period) और काल को युग (Epoch) में बाँटा गया है।
अन्तर्राष्ट्रीय पैमाना के अनुसार चारो महाकल्प इस प्रकार है:-
(1) आर्कियोजोइक
(2) पैलियोजोइक
(3) मीसोजोइक
(4) केनोजोइक
आर्कियोजोइक को पूर्व प्राथमिक काल में, पैलियोजोइक को प्राथमिक काल में, मीसोजोइक को द्वितीयक काल में रखा गया है। लेकिन केनोजोइक को तृतीयक एवं चतुर्थक काल में बाँटा गया है। कुछ भूगर्भशास्त्री चतुर्थक काल नियोजोइक महाकल्प के रूप में स्वीकार करते हैं।
प्रत्येक महाकल्प में विकसित भारतीय चट्टानों की संरचनात्मक विशेषता इस प्रकार से है-
(1) आर्कियोजोइक
इसे पूर्व प्राथमिक काल में रखा गया है। इस काल को पुन: दो कल्प में बाँटा गया है-
(I) आर्कियन कल्प और
(II) प्री-कैम्बियन कल्प
(I) आर्कियन कल्प को अजैविक कल्प भी कहा जाता है। इसमें पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर 2500 मिलियन वर्ष पूर्व तक के निर्मित चट्टानों को शामिल किया जाता है। ये वे चट्टानें हैं जो भारतीय उपमहाद्वीय के आधारशीला का निर्माण करते हैं। इसे “पैंजिया परिवार का चट्टान” भी कहा जाता है।
यह वह चट्टान है जो कभी भी समुद्र के नीचे नहीं गया है। लम्बी अवधि तक स्थलखण्ड के रूप में रहने के कारण मे चट्टानें अपरदित एवं विलुपित हो चुकी है। भारत में यह चट्टान धरातल पर कहीं दिखाई नहीं देता है बल्कि इसी चट्टान के ऊपर अन्य चट्टानों के विकास हुआ है।
(II) प्री-कैम्बियन कल्प
प्री-कैम्बियन कल्प की चट्टानों की आयु 2500 मिलियन वर्ष पूर्व से 60 मिलियन वर्ष पूर्व निर्धारित की गई है। इस कल्प को पुनः दो भाग में बाँटते है।
(A) अजैविक क्रम की चट्टानें-धारवाड़ चट्टान
(B) जैविक क्रम की चट्टानें- कुप्पा, विन्ध्य
अजैविक क्रम की चट्टानों में वैसे चट्टानों को शामिल करते हैं जो जीवाश्म रहित है। इसे भारत का सबसे प्राचीनतम परतदार चट्टान मानते हैं। इसे ‘धारवाड़ चट्टान’ के नाम से भी जानते हैं। इस प्रकार के चट्टान 2500 मिलियन वर्ष पूर्व से 1500 मिलियन वर्ष पूर्व के बीच बना है। यह धात्विक खनिजों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। इसमें लोहा, मैंगनीज, यूरेनियम, सोना, जैसे, धात्विक खनिज मिलते हैं। इस प्रकार की चट्टानें कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, झारखण्ड एवं उड़ीसा के सीमावर्ती क्षेत्रों में पायी जाती है।
जबलपुर से नागपुर के बीच में स्थित सॉसर श्रेणी की चट्टान, गुजरात के चम्पानेर श्रेणी के चट्टान और हिमालय पर्वत के गर्भ में मिलने वाले कुमायूँ & लद्दाख श्रेणी की चट्टान इसी काम के माने जाते हैं।
जैविक प्री-कैम्ब्रियन चट्टानों को पुन: दो भागों में बाँटा जाता है-
(i) कुडप्पा समूह चट्टान और
(1) विन्ध्यन समूह की चट्टान।
कुडप्पा समूह की चट्टान का निर्माण 1500-1000 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ है। जबकि विन्ध्ययन समूह की चट्टान का निर्माण 1000 मिलियन वर्ष पूर्व से 600 मिलियन वर्ष पूर्व। ये दोनों समूह की चट्टानें चूना पत्थर चट्टान के लिए प्रसिद्ध है। इस प्रकार के चट्टानों से सूक्ष्म एक कोशीय प्राणियों के जीवाश्म के प्रमाण मिलता है। पुन: विन्ध्यन प्रकार के चट्टानों के क्षेत्र में ज्वालामुखी क्रिया के कारण चट्टानों में रूपान्तरण देखा जा सकता है। कहीं-2 पर वलन (मोड़) का भी प्रमाण मिलता है।
ज्वालामुखी क्रिया और वलन क्रिया के कारण ही विन्ध्यन समूह के चट्टानों से नीलम, पन्ना, हीरा, टोपाज जैसे- रंगीन पत्थर मिलते हैं। कुडप्पा समूह की चट्टान भारत के पूर्वी घाट के समान्तर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आध्र प्रदेश और तमिलनाडु में मिलते है। भारत में कुडप्पा समूह की चट्टानों में पापाघानी श्रेणी की चट्टान, चेयार श्रेणी की चट्टान, कृष्णा घाटी श्रेणी की चट्टान और नल्लामलई श्रेणी के चट्टानों को शामिल करते हैं। जबकि विन्ध्यन समूह के चट्टानों का विकास विन्ध्याचल पर्वत के अनुरूप हुआ है। इसका विस्तार प० M.P. से बिहार के रोहतास जिला तक हुआ है।
(2) पैलियोजोइक
पैलियोजोइक का काल 600 मिलियन वर्ष पूर्व से 225 मिलियन वर्ष पूर्व माना जाता है। इसे प्राथमिक काल के अन्तर्गत रखा गया है। इसे पुन: छ: कल्प में बाँटते हैं। जैसे :-
(i) कैम्ब्रियन
(ii) आर्डोविसियन
(iii) सिल्यूरियन
(iv) डिवोनियन
(v) कार्बोनीफेरस
(vi) पर्मियन।
कैम्ब्रियन कल्प की चट्टानें भारत में नहीं पायी जाती हैं। इसका प्रमुख कारण अपरदन माने जाते हैं। पुन: पाकिस्तान के सॉल्ट रॉक पर्वत कैम्ब्रियन कल्प का ही माना जाता है। पुन: आर्डोविसियन, सिल्यूरियन और डिवोनियन कल्प की चट्टानें भी प्रायद्वीपीय भारत तथा मैदानी भारत में नहीं पाये जाते हैं। लेकिन भूगर्भशास्त्रियों का मानना है कि उपरोक्त तीनों कल्प की चट्टानें हिमालय के गर्भ में मिल सकते हैं।
कार्बोनीफेरस कल्प की चट्टानें भारत में कई क्षेत्रों में मिलते हैं। जैसे- दामोदर, सोन, वर्द्धा, महानदी और गोदावरी नदी घाटी में मिलने वाले कोयला इसके सर्वोत्तम उदा० है।
वस्तुतः कार्बोनीफेरस कल्प तक विश्व के सभी महाद्वीप आपस में जुड़े हुए थे जिसे पैन्जिया कहा जाता था। पैन्जिया का अधिकांश भाग ग्लोपोप्टेरिस नामक वनस्पति से ढका हुआ था। लेकिन इस कल्प में हुए भूसंचलन क्रिया के कारण कई क्षेत्रों में वलन एवं भ्रंशन की घटना हुई। इसी क्रम में प्राकृतिक वनस्पतियाँ धरातल के अन्दर दब गये। उस पर अत्याधिक दबाव एवं ताप के कारण ये रूपान्तरित होकर कोयला में तब्दील हो गये। जिन क्षेत्रों में चुना पत्थर युक्त चट्टान और वनस्पति एक साथ दब गए उन क्षेत्रों में खनिज तेल का निर्माण हुआ है।
परमियन कल्प की संरचना भी कोयले के लिए प्रसिद्ध है। इसका प्रमाण उड़ीसा के तालचेर क्षेत्र से मिलता है। इस कल्प में हिमयुग का भी आगमन हुआ था। इस हिमयुग का प्रभाव महानदी और दामोदर नदी घाटी तक देखा जा सकता है क्योंकि हिमानी के अपरदन से निर्मित बोल्डर का प्रमाण इन क्षेत्रों में उपलब्ध है।
(3) मीसोजोइक
मीसोजोइक की आयु 225 मिलियन वर्ष पूर्व से 70 मिलियन वर्ष पूर्व के बीच निर्धारित किया गया है। इसे द्वितीयक काल के अंतर्गत रखा गया है। इसे पुन: तीन कल्प में बाँटते हैं:-
(i) ट्रायसिक
(ii) जुरासिक
(iii) क्रिटेशियस
ट्रायसिक कल्प में भी चुना पत्थर चट्टानों का विकास हुआ है। इसका प्रमाण मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र के सीमा पर स्थित महादेव की पहाड़ी और पंचेत की पहाड़ी में मिलता है।
जुरासिक कल्प में भारत में कई संरचनाओं का विकास हुआ है। जैसे- बिहार और झारखण्ड की सीमा पर स्थित राजमहल की पहाड़ी, मध्य प्रदेश में जबलपुर के पास संगमरमर चट्टान राजस्थान के मकराना क्षेत्र की संगमरमर की चट्टान जुरासिक कल्प में विकसित हुए हैं।
किटेशियस कल्प की चट्टान भारत के लिए काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी कल्प में हुए दरारी ज्वालामुखी क्रिया के कारण होने वाले लावा उद्गार से दक्कन के पठार का निर्माण हुआ है। लावा के ऋतुक्षरण से ही भारत में काली मिट्टी का विकास हुआ है। महाराष्ट्र का पठार, विदर्भ का पठार, तेलंगाना का पठार, गिर की पहाड़ी, कर्नाटक का पठार तथा बंगलोर का पठार क्रिस्टेशियस कल्प में ही बना है। क्रिटेशियस कल्प में नर्मदा और ताप्ती की भ्रंश घाटी और ब्रह्मपुत्र रैम्प घाटी का निर्माण हुआ है।
(4) केनोजोइक
केनोजोइक की आयु 70 मिलियन वर्ष पूर्व से अब तक निर्धारित किया गया है। इसे दो काल में वर्गीकृत करते हैं:-
(क) तृतीयक काल (Tertiary Period)
(ख) चतुर्थक काल (Quartanary Period)
तृतीयक काल को पुन: पाँच कल्प में वर्गीकृत करते हैं। जैसे-
(i) पैलियोसीन
(ii) इयोसीन,
(iii) ओलीगोसीन
(iv) मायोसीन और
(V) प्लायोसीन
जबकि चतुर्थक काल को पुन: दो कल्प में बाँटते है:-
(i) प्लीस्टोसीन और
(ii) होलोसीन
तृतीयक काल का समय 70 मिलियन वर्ष पूर्व से 2.5 मिलियन वर्ष पूर्व निर्धारित किया गया है। इसे हिमालय निर्माण का काल भी कहा जाता है। इस काल में गोंडवाना भूमि के उत्तर की ओर खिसकने के कारण टेथिस सागर के मलवा के उत्थान से हिमालय पर्वत की उत्पत्ति हुई है। हिमालय की तीन प्रमुख श्रेणियाँ है:-
(i) महान हिमालय- जिसका निर्माण ओलिगोसीन से मायोसीन कल्प के बीच हुआ है।
(ii) मध्य हिमालय- इसका निर्माण मायोसीन और प्लायोसीन कल्प के बीच हुआ।
(iii) शिवालिक पर्वत- इसका निर्माण प्लायोसीन के अंतिम काल और प्लीस्टोसीन कल्प के बीच हुआ है।
तृतीयक काल की चट्टानें गुजरात के रण और कच्छ में, असम के बैरल की पहाड़ी में मिलते हैं। ये मूलत: पैलियोसीन कल्प के चट्टानें हैं।
स्फीति, लाहुली, नारीक्रम, गजक्रम की चट्टानें ओलिगोसीन कल्प की मानी जाती है। असम के सूरमा घाटी और उत्तराखण्ड के कसौली घाटी की चट्टानों मायोसीन कल्प के मिलते हैं। जबकि दिहांग नदी घाटी (A.P.) तमिलनाडु में रामेश्वरम के पास पाण्डिचेरी, केरल के कोबलम जिला, आन्ध्र प्रदेश के नेल्लूर और गोदावरी में प्लायोसीन कल्प की चट्टानें पायी जाती हैं।
चतुर्थक काल की आयु 2.5 मिलियन वर्ष पूर्व से अब तक निर्धारित किया गया है। प्लीस्टोसीन कल्प की आयु 2.5 मिलियन से 10 हजार वर्ष के पूर्व के बीच निर्धारित की गई है। होलोसीन की शुरुआत 10 हजार वर्ष पहले हुआ था और वर्तमान समय में चल रहा है।
प्लीस्टोसीन कल्प में शिवालिक पर्वत का निर्माण कार्य पूरा हुआ तथा मेघालय का पठार, राजमहल की पहाड़ी से टूटकर उ०-पूर्व की ओर चला गया। जिससे राजमहल गैप का निर्माण हुआ। प्लीस्टोसीन कल्प में चार बार (गुंज, मिंडल, रिस और वुर्म) हिमयुग का आगमन हुआ। इस कल्प में अरब सागर के उत्तरी भाग के उत्थान से थार मरुस्थल का निर्माण हुआ तथा उड़ीसा का चिल्का झील बना।
होलोसीन कल्प की चट्टानों के निर्माण कार्य आज भी चल रहा है। उत्तर-भारत के मैदानी क्षेत्रों में खादर मिट्टी का निर्माण, नदियों के मुहानों पर डेल्टा का निर्माण और तटीय क्षेत्रों में पुलिन का निर्माण आज भी जारी है।
निष्कर्ष
इस तरह ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत में लगभग सभी कल्प की चट्टानें पायी जाती है, जिसका प्रमाण भारत के अलग-2 क्षेत्रों में मिलती है। इस भूगर्भिक काल का प्रभाव भारत के संरचना, उच्चावच इत्यादि पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। भूगर्भिक चट्टानों के वितरण को नीचे के मानचित्र में देखा जा सकता है।