1. बेबर के औद्योगिक स्थानीयकरण का सिद्धांत (Weber’s theory of industrial localization)
1. बेबर के औद्योगिक स्थानीयकरण का सिद्धांत
(Weber’s theory of industrial localization)
बेबर के औद्योगिक स्थानीयकरण का सिद्धांत⇒
प्रश्न प्रारूप
1. औद्योगिक स्थानीयकरण सिद्धांत की चर्चा करें।
2. बेबर के औद्योगिक स्थानीयकरण का सिद्धत की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करें तथा वर्तमान समय में इसकी उपयोगिता की चर्चा करें।
औद्योगिक अवस्थिति का सिद्धांत
उद्योगों के स्थानीयकरण पर कई कारकों का प्रभाव पड़ता है। इनमें कच्चा माल, बाजार, परिवहन, श्रमिक, तकनीकी उपलब्धता, ऊर्जा और अन्य संरचनात्मक सुविधाएँ प्रमुख हैं। सभी उद्योगों पर इन सभी कारकों का एक समान प्रभाव नहीं पड़ता है। इसी असमानता को देखते हुए कई भूगोलवेताओं एवं अर्थशास्त्रियों ने उद्योगों के स्थानीयकरण की प्रवृति को सैद्धांतिक रूप देने का प्रयास किया है। इनमें से बेबर, हुबर, लॉश, फेटर, हौर्टलीन तथा स्मिथ का सिद्धांत प्रमुख हैं। इनमें से बेबर का सिद्धांत सबसे पुराना है। इस सिद्धांत को बेबर ने 1909 में दक्षिणी जर्मनी के औद्योगिक क्षेत्रों का अध्ययन कर प्रस्तुत किया। इनका सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:-
मान्यताएँ :-
बेबर ने बताया कि मेरा सिद्धांत वहीं पर लागू होगा जहाँ-
(1) एकाकी प्रदेश होगा तथा वह संपूर्ण प्रदेश एक ही प्रशासन के अन्तर्गत होगा।
(2) सम्पूर्ण प्रदेश में एक ही जलवायु, एक ही संस्कृति और एक समान जनसंख्या उपलब्ध हो या सम्पूर्ण प्रदेश में भौगोलिक समरूपता एक समान हो।
(3) एक समय में एक ही उद्योग की स्थानीयकरण का विश्लेषण किया जाता हो।
(4) कच्ची सामाग्री के स्रोत और इसकी भौगोलिक अवस्थिति का पूर्ण ज्ञान हो।
(5) बाजार की अवस्थिति का पूर्ण ज्ञान हो।
(6) श्रम उपलब्धता निश्चित हो तथा उसकी पूरी जानकारी हो।
(7) परिवहन लागत भार और दूरी के सापेक्ष में वास्तविक वृद्धि हो।
सिद्धांत / परिकल्पना
बेबर के अनुसार औद्योगिक स्थानीकरण सिद्धांत को न्यूतम परिवहन लागत का सिद्धांत कहते है। बेबर के अनुसार “न्यूनतम परिवहन लागत वाला स्थान ही न्यूनतम उत्पादन लागत वाला स्थान होता है और न्यूनतम लागत वला स्थान ही उद्योगों की स्थापना के लिए उपयुक्त स्थान होता है।”
बेबर ने दूसरा परिकल्पना भी प्रस्तुत किया है। जैसे- “सस्ता श्रम और संरचनात्मक सुविधाएं इत्यादि उद्योगों के स्थानीयकरण को न्यूनतम परिवहन लागत वाला स्थान से विचलित करता है।” अर्थात न्यूनतम श्रम लागत और संरचनात्मक सुविधाएं उद्योगों को अपनी ओर आकर्षित करती है।
ऊपर वर्णित मान्यताओं और परिकल्पनाओं के संदर्भ में बेबर ने प्रयोगों के स्थानीयकरण की दो परिस्थितियाँ बतायी है-
(1) प्रथम स्थिति में एक ही कच्चे माल पर उद्योग आधारित होता है।
(2) दूसरी परिस्थिति में एक से अधिक कच्चे माल पर उद्योग आधारित होते हैं।
I. पहली दश एक बाजार और एक कच्चा माल (R1)
एक कच्चे माल पर आधारित उद्योगों का स्थानीयकरण की तीन प्रवृति होती हैं-
(1) वैसा उद्योग जिसका कच्चा माल सर्वत्र उपलब्ध है। ऐसी स्थिति है। उद्योगों की स्थापना बजार के केन्द्र में होती है, क्योंकि वहाँ पर परिवहन लागत नगण्य होता है। जैसे- जूता मरम्मत उद्योग, छाता मरम्मत उद्योग। (2) दूसरी परिस्थिति के अनुसार कच्चा माल अशुद्ध हो तथा स्थानीय हो तो वैसी स्थिति में उद्योगों की स्थापना माल के केन्द्र में होती है क्योंकि परिष्कृत समान की दुलाई कच्चे माल की दुलाई के तुलना में परिवहन लागत कम होता है। जैसे:- चीनी उद्योग।
नोट:- यहाँ अशुद्ध का तात्पर्य वजन ह्रास वाले उद्योग से है।
(3) तीसरी परिस्थिति के अनुसार वैसे उद्योग आते हैं जिनका कच्चा माल शुद्ध हो और स्थानीय तौर पर उपलब्ध हो। ऐसी उद्योगों की स्थापना बाजार क्षेत्र या कच्चे माल के क्षेत्र में किया जा सकता है। जैसे- वस्त्र उद्योग, रेडिमेट गार्मेन्ट उद्योग।
II. दूसरी दशा:- एक बाजार तथा दो से अधिक कच्चा माल (R2)
एक से अधिक कच्चे माल पर आधारित उद्योग के लिए बेबर ने त्रिभुजाकार मॉडल प्रस्तुत किया है। वेबर ने कहा है कि कई ऐसे उद्योग हैं जिसमें एक से अधिक कच्चे माल का प्रयोग होता है। जैसे लौह-इस्पाल उद्योग में लौह अयस्क, चूना पत्थर, कोयला, मैंगनीज, क्रोमियम जैसे खनिजों का प्रयोग होता है।
बेबर के अनुसार ऐसे उद्योगों का स्थानीयकरण सभी कच्चे माल से प्रभावित नहीं होता बल्कि कुछ कच्चे माल उद्योगों के स्थानीयकरण को प्रभावित करते हैं। जैसे- लौह-इस्पात उद्योग को लौह अयस्क एवं कोयला, सीमेन्ट उद्योग को चूना पत्थर एवं कोयला, एल्युमिनियम उद्योग को बॉक्साइट एवं विद्युत इत्यादि।
एक से अधिक कच्चे माल पर आधारित उद्योगों की स्थानीयकरण की व्याख्या करने हेतु दो परिस्थिति की चर्चा किया है।-
(1) वजन ह्रास उद्योग के संदर्भ में
(2) वजन वृद्धि उद्योग के संदर्भ में
(1) वजन ह्रास उद्योग के संदर्भ में
लौह-इस्पात उद्योग, सीमेन्ट उद्योग इत्यादि इसके अच्छे उदा० है। वजन द्वास उद्योग के अन्तर्गत सर्वाधिक अनुकूल स्थान दो कच्चे माल के बीच त्रिभुज के अन्तर्गत होता है। इसे नीचे के मॉडल से समझा जा सकता है-
उपरोक्त त्रिभुजाकार मॉडल सही अर्थों में लौह इस्पात उद्योग के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व अधिकांश लौह इस्पात उद्योग का विकास इसी अवधारणा के अनुसार हुआ है। जमशेदपुर का कौह इस्पात केन्द्र इस मॉडल का एक अच्छा उदा० है।
वेबर ने अपने त्रिभुजाकार मॉडल में बताया कि अगर उद्योग वजन ह्रास वाला है तो उसका स्थानीयकरण कच्चे माल के क्षेत्र से नजदीक होता है। जैसे-
(2) वजन वृद्धि उद्योग के संदर्भ में
बेबर ने वजन वृद्धि वाले उद्योग के स्थानीयकरण का व्याख्या करते हुए बताया कि ऐसे उद्योगों का स्थानीयकारण भी त्रिभुजाकार मॉडल के अनुरूप ही होगा लेकिन ऐसे उद्योग नगर से नजदीक होते हैं। जैसे- बेकरी उद्योग, सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग, वस्त्र उद्योग।
बेबर ने स्वयं यह बताया है कि ऊपर वर्णित उद्योगों के स्थानीयकरण में दो कारणों से विचलन हो सकता-
(1) यदि किसी स्थान पर श्रमिक अत्यधिक सस्ते हो तो उस स्थिति में उद्योग न्यूनतम परिवहन लागत वाला स्थान पर स्थापित न होकर न्यूनतम मजदूरी लागत वाला स्थान पर स्थापित होता है। न्यूनतम श्रमिक लागत वाला स्थान के निर्धारण हेतु उन्होंने Isodapane Line खींचा है। यह एक ऐसी काल्पनिक रेखा है जो उन सभी बिन्दुओं को मिलाती है जहाँ न्यूनतम परिवहन लागत केन्द्र से परिवहन लागत में समान वृद्धि होती है। जैसे-
वह आइसोडापेन रेखा जिसपर न्यूनतम श्रम लागत आता है उसी स्थान पर उद्योगों की स्थापना की जाती है। न्यूनतम श्रमिक लागत वाला आइसोडापेन लाइन को Critical Isodapane Lime कहते हैं।
नोट: फुटलुज उद्योग – वैसा उद्योग जिसकी स्थापना कहीं भी की जा सकती है जहाँ संरचनात्मक सुविधाएँ उपलब्ध हो।
बेबर के द्वारा प्रस्तुत न्यूनतम परिवहन लागत सिद्धांत के आलोचकों में हुबर, हॉटलीन फेटर, और स्मिथ अग्रणी है।
1. हुबर न्यूनतम परिवहन लागत वाला स्थान न्यूनतम उत्पादन लागत का स्थान नहीं हो सकता क्योंकि उद्योगों के स्थानीयकरण को न केवल परिवहन प्रभावित करता है बल्कि तकनीकी लागत, श्रमिक लागत, ऊर्जा लागत इत्यादि का भी प्रभाव पड़ता है।
हूबर – दो से अधिक कच्चे माल का प्रयोग करने वाले उद्योगों का स्थानीयकरण त्रिभुज के अन्दर हो यह कोई जरूरी नहीं है। आज विश्व में अधिकांश इस्पात उद्योगों का विकास समुद्र के तटवर्ती क्षेत्र में हो रहा है न कि बेबर के त्रिभुजाकार मॉडल के अनुसार।
फेटर, हाटलीन और स्मिथ जैसे आचारपरक भूगोलवेताओं ने कहा है कि उद्योगों का स्थानीयकरण उपभोक्ताओं की इच्छा और क्रय क्षमता पर निर्भर करता है। हॉटलीन एवं फेटर ने मियामी बिच (USA) के पास विकसित आइसक्रीम उद्योगो का हवाला देते हुए यह बताया है कि यहाँ पर आइसक्रीम उद्योग विश्व का सर्वाधिक लागत वाला उद्योग है। फिर भी पर्यटकों के व्यवहार (मांग) के कारण इस उद्योग का यहाँ विकास हुआ है।
अनेक आलोचकों ने बेबर के मान्यता को ध्यान में रखकर आलोचना किया है। जैसे- वर्तमान समय में कोई प्रदेश एकाकी प्रदेश नहीं हो सकता है और न ही उसमें भौगोलिक समरूपता पायी जा सकती है। इसी तरह बढ़ते दूरी एवं भार के अनुसार परिवहन मूल्य (भाड़ा) में सापेक्षिक वृद्धि भी नहीं हो सकती है।
आलोचनात्मक मूल्यांकन
इन आलोचनाओं के बावजूद बेबर के सिद्धांत का अपना महत्व है क्योंकि आज भी यह सिद्धांत चीनी उद्योग, वस्त्र उद्योग, खाद्य सामाग्री उद्योग के स्थानीयकरण की सटीक व्याख्या करता है। कुछ भूगोलवेताओं का यह भी कहना है कि समुद्री तट के किनारे विकसित होने वाले इस्पात उद्योग वर्तमान समय में बेबर के सिद्धांत के अनुरूप ही हो रहा है। जैसे- भारत का विशाखापतनम, जापान कोबे, USA का बाल्कि मोर इसके अच्छे उदाहरण हैं। भारत का विशाखापतनम कारखाना, बेलाडीला और डॉलीराजहरा से लौह-अयस्क प्राप्त करता है। और कोयला का आयात न्यूनतम परिवहन लागत के कारण विदेशों से ही किया जाता है। इस तरह विशाखापतनम न्यूनतम परिवहन लागत इस्पात का प्रमुख केन्द्र बना है।
निष्कर्ष :
अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि कुछ खामियों के बावजूद बेबर का न्यूनतम परिवहन लागत सिद्धांत चिरसंवतकालीन सिद्धांत है। यह सिद्धांत सुती वस्त्र उद्योग, चीनी उद्योगो, लौह- इस्पात उद्योगों के स्थानीयकरण की सटीक व्याख्या करने में सक्षम है।