7. परिस्थितियां परिवर्तनशील
7. परिस्थितियां परिवर्तनशील
परिस्थितियां परिवर्तनशील ⇒
याद रखें, परिस्थितियां परिवर्तनशील हैं। भगवान राम को देखें, जब उन्हें वनवास मिला तो संपूर्ण अयोध्यावासी रो उठे। सीता और लक्ष्मण के साथ राम वन की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, यह सुनकर संपूर्ण अयोध्या में हाहाकार मच गया। सब-के-सब उनके रथ के पीछे रोते-कलपते चलने लगे। शोकविह्वल प्यारे प्रजावासियों को जब राम ने काफी समझाया बुझाया, तब कहीं सब वापस लौटे।
परिस्थितियां बदलीं। राम जानकी जी को रावण से छुड़ाकर लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौट आए हैं। कल जिस अयोध्यावासियों के लिए भगवान राम, सीता और लक्ष्मण प्राण थे-आज निंदनीय हैं। एक धोबी मां जानकी पर आक्षेप लगा रहा है, यह सुनकर मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने गुप्तचरों को ज्ञात करने भेजा, ‘इस संबंध में अन्य प्रजाजनों की क्या प्रतिक्रिया है?’ गुप्तचरों ने सूचना दी- ‘बहुसंख्यक जनता धोबी की बातों से सहमत है।’
देखिए, वह मान जो वन जाते समय था, आज नहीं है। पुनः दृश्य बदला। मां जानकी धर्म और सत्य के प्रताप से भूगर्भ में समा गईं। अयोध्यावासी पश्चात्ताप और ग्लानि से भर उठे। अंततः उन्होंने सीताजी को देवी समझ अपने हृदयासीन किया। जो अपमान था, वह भी गुजर गया।
दुःख लेने जावै नहीं, आवा आचाबूच।
सुख का पहरा होयगा, दुःख करेगा कूच।। (कबीर साखी दर्पण, भाग-२)
अर्थात् ‘दुख लेने कोई जाता नहीं। वह अचानक ही आता है, किंतु वह स्थायी नहीं है। जब सुख का पहरा आएगा, तब दुख स्वतः चला जाएगा।’
महाभारत के शांति पर्व १७४/१९ में भी कहा गया है-
सुखस्यानन्तरं दुख दुखस्यानन्तरं सुखम्।
सुखदुखं मनुष्याणां चक्रवत् परिवर्तते ।।
अर्थात् ‘सुख के पश्चात् दुख और दुख के पश्चात् सुख होता है। यह शाश्वत नियम है। मनुष्यों के सुख-दुख पहिये की भांति घूमते रहते हैं।
इस रहस्य को जानकर अहंकार और तनाव दोनों से ऊपर उठकर शांत और आनंदमग्न जीवन जीने की कला सीख लें। याद रखें, समस्या का समाधन चिंता नहीं है। जिंदगी के किसी मोड़ पर यदि आप किसी समस्या से घिर गए हों, विकट परिस्थितियां सामने खड़ी हो, अपमान, गरीबी, दुख, रोग, कष्ट से आप परेशान हों, फिर भी न घबराएं। पुनः याद रखें, ‘यह भी गुजर जाएगा।’
व्यावहारिक दृष्टि से भी सोचें तो किसी समस्या का समाधान चिंता नहीं है। चिंता से समस्याएं बढ़ती हैं, घटती नहीं। यदि आप चिंताग्रस्त रहते हों तो न आप सही तरीके से कुछ सोच सकते हैं, न अच्छी योजना बना सकते हैं, न ही अपनी कार्यशक्ति को समस्याओं से उबरने के मार्ग में सही ढंग से नियोजित कर सकते हैं । इतनी हानि उठाने के बाद भी तो समस्याएं ज्यों-की -त्यों बनी रहती है।
जैसे मान लिया किसी प्रतिकूल व्यक्ति, वस्तु परिस्थिति से आपको सामना करना पड़ रहा हो और आप काफी परेशान हों, चिंतित हों, व्यथित हों, उद्विग्न हों, रोते-रोते आंखें सूजा ली हों, रात की नींद उड़ा ली हों, भोजन न रुचता हो, किसी काम में मन न लगता हो, मन-मस्तिष्क चिड़चिड़ा सा हो गया हो, थकावट और सुस्ती ने आ घेरा हो तो आप ही बताइए इससे फायदा क्या हुआ?
क्या परिस्थितियां बदल गई? ऋण चुक गया? समस्याएं मिट गई? कुछ भी तो नहीं हुआ। यदि ऐसा हो तो खूब चिंतित होइए, खूब परेशान होइए, रात-रात भर जागिए, खाना-पीना छोड़ दीजिए, खूब रोइए, सिर पटक-पटक कर फोड़ डालिए, दो-चार टांके भी लगेगें तो क्या हर्ज है शायद परिस्थितियां बदल जाएं, समस्याएं टल जाएं।
सोचिए, सिर फोड़ लेने से, रोने से, चिंतित होने से न तो परिस्थितियां बदलती हैं और न ही समस्यों का समाधान ही होता है तो फिर चिंता क्यों? तनाव क्यों, परेशानी क्यों? लाभ क्या? कुछ भी नहीं बस हानि-ही-हानि । एक तो बाहर चिंता का कारण ज्यों-का-त्यों बना रहा और दूसरा अंदर से अशांत, विक्षिप्त, दुखी हुआ गया सो अलग।
ठीक ही कहा गया है- ‘मनुष्य के जीवन में अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियां आती रहती हैं। इसके लिए शोक या चिंता करना उचित नहीं, क्योंकि परिस्थितियों को अनुकूल करने की शक्ति न शोक में है न चिंता में है, यह युक्तियुक्त उद्योग से ही अनुकूल होती है।’-शातातप
वणिकों से शिक्षा लें। एक चीज में घाटा होने पर वे सभी चीजों को घाटा में नहीं बेच देते। मान लिया जाय, किसी दुकानदार को गेहूँ में घाटा लग रहा है तो वह दाल, मसाला, चावल, चीनी इत्यादि को शौक से घाटा में नहीं बेच देता। उसी तरह अगर बाहर प्रतिकूल परिस्थितियों से सामना करना पड़ रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं कि अंदर की शांति को भी खोकर दुगुनी क्षति उठाने की मूर्खता की जाय। आप कम-से-कम अंदर की क्षति को तो रोकने में पूर्ण समर्थ हैं।
बाहर के सुख-दुख, लाभ-हानि, अनुकूलता-प्रतिकूलता भले ही भाग्य के खेल हों, परंतु अंदर की अशांति, चिंता-तनाव आदि आपकी नासमझी है। आप इससे उबरकर हर परिस्थिति में शांत और प्रसन्न रहकर मुस्करा सकते हैं।
जो व्यक्ति समस्याओं के सामने आने पर भी मुस्कराता रहता है और अपना साहस नहीं छोड़ता, उसे छोड़कर समस्याएं भाग खड़ी होती हैं। इसके विपरीत जो समस्याओं के समक्ष हिम्मत हार बैठता है और अपनी सूरत रोनी-सी बना लेता है, समस्याएं उस पर चारों तरफ से आक्रमण करती रहती है।
किसी ने ठीक ही कहा है, ‘तुम उदास रहते हो तो दुख तुम्हें चारो तरफ से घेर कर तुम पर टूट पड़ता है। तुम मुस्करा देते हो तो दुख तुम्हें छोड़कर कमरे से बाहर दरवाजे के पास ठिठक कर खड़ा हो जाता है। अगर तुम खिलखिला कर हंस पड़ते हो तो दुख तुम्हें छोड़कर दूर भाग जाता है। अतः दुखमुक्त होना चाहो तो प्रसन्न रहने की कला सीखो।
स्रोत: चिंता क्यों