5. जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना (Tidal Hypothesis of James Jeans)
5. जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना
(Tidal Hypothesis of James Jeans)
जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना
सौर्य-मण्डल की उत्पत्ति से सम्बन्धित ”ज्वारीय परिकल्पना” का प्रतिपादन अंग्रेज विद्वान सर जेम्स जीन्स (Sir James Jeans) ने सन् 1919 में किया तथा जेफरीज (Jeffreys) नामक विद्वान ने उक्त परिकल्पना में सन् 1929 में कुछ संशोधन प्रस्तुत किया जिससे इस परिकल्पना का महत्व और अधिक बढ़ गया।
यह ज्वारीय परिकल्पना आधुनिक परिक्लपनाओं तथा सिद्धान्तों में से एक है, जिसे अन्य की अपेक्षा अधिक समर्थन प्राप्त है। अपनी संकल्पना की पुष्टि के लिए जीन्स कुछ तथ्यों को स्वयं मानकर चले हैं।
इस प्रकार ‘ज्वारीय परिकल्पना’ प्रतिपादक द्वारा कुछ निम्नलिखित कल्पित तथ्यों पर आधारित है।
1. सौर्य-मण्डल का निर्माण सूर्य तथा एक अन्य तारे के संयोग से हुआ।
2. प्रारम्भ में सूर्य गैस का एक बहुत बड़ा गोला था।
3. सूर्य के साथ ही साथ ब्रह्माण्ड में एक दूसरा विशालकाय तारा था।
4. सूर्य अपनी जगह पर स्थिर था तथा अपनी जगह पर ही घूम रहा था।
5. साथी तारा एक पथ के सहारे इस तरह घूम रहा था कि वह सूर्य के निकट आ रहा था।
6. साथी तारा आकार तथा आयतन में सूर्य से बहुत अधिक विशाल था।
7. पास आते हुए तारे द्वारा ज्वारीय शक्ति का प्रभाव सूर्य के वाह्य भाग पर पड़ा था।
इस प्रकार उपर्युक्त स्वयं-कल्पित तथ्यों के आधार पर जीन्स ने बताया है कि साथी तारा निरन्तर एक पथ के सहारे सूर्य की ओर अग्रसर हो रहा था, जिस कारण साथी तारे की आकर्षण शक्ति द्वारा वायव्य ज्वार का प्रभाव सूर्य के वाह्य भाग पर पड़ने लगा। फलस्वरूप सूर्य में ज्वार उत्पन्न होने लगा। यह ज्वारीय क्रिया सूर्य में उसी प्रकार सम्भव हो सकी, जिस प्रकार वर्तमान समय में पृथ्वी के निकट चन्द्रमा के आ जाने से पृथ्वी के महासागरों में ज्वार उत्पन्न हो जाता है। ज्यों-ज्यों विशालकाय तारा सूर्य के पास आता गया, त्यों-त्यों उसकी आकर्षण शक्ति बढ़ती गयी तथा ज्वार की तीव्रता बढ़ती गयी।
जब तारा सूर्य से निकटतम दूरी पर आया तो उसकी आकर्षण शक्ति सूर्य से अधिक हो गयी, जिस कारण हजारों किलोमीटर लम्बा सिगार के आकार का ज्वार सूर्य के वाह्य भाग में उठा। सिगार के आकार वाले इस भाग को फिलामेन्ट (Filament) कहा गया है। सूर्य के निकटतम दूरी पर पहुँचने के कारण तारे की अधिकतम आकर्षण शक्ति के प्रभाव से एक विशाल फिलामेन्ट सूर्य से हटकर तारे की तरफ अग्रसर हुआ। जीन्स के अनुसार पास आने वाला तारा सूर्य के मार्ग पर नहीं था, अत: यह सूर्य से आगे बढ़ने लगा।
इस प्रकार तारे के दूर निकल जाने के कारण फिलामेन्ट तारे के साथ न जा सका, वरन् वह सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करने लगा। यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि इस स्थिति में जब कि तारा अधिक दूर चला गया तो फिलामेन्ट सूर्य के पास पुन: वापस क्यों नहीं आ गया?
व्याख्या सरल है। जब फिलामेन्ट टूटकर तारे की तरफ अग्रसर हुआ, उस परिस्थिति में यह सूर्य की आकर्षण शक्ति के क्षेत्र से बाहर (Neutral point) हो गया था, अत: वह सूर्य का ही चक्कर लगाने लगा, वापस नहीं आ सका।
कुछ समय पश्चात् तारा सूर्य से इतना दूर चला गया कि पुन: कोई वायव्य भाग (फिलामेण्ट) सूर्य से अलग नहीं हो सका। आगे चलकर सूर्य से निकला हुआ ज्वारीय पदार्थ सिगार के आकार में अधिक लम्बा हो गया, जिसका मध्य भाग अधिक मोटा या चौड़ा तथा दोनों किनारे वाले भाग अत्यधिक पतले थे। किनारों के पतला होने का मुख्य कारण तारे तथा सूर्य की आकर्षण शक्ति का प्रभाव ही बताया जाता है। फिलामेंट में गति या परिभ्रमण का आविर्भाव दूर होते हुये (Receding) तारे की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के खिंचाव (Gravitational pull) के कारण हुआ था।
फिलामेन्ट से ग्रहों की उत्पत्ति:-
सूर्य से अलगाव के बाद फिलामेन्ट शीतल होने लगा, जिस कारण उसके आकार में संकुचन प्रारम्भ हो गया। इस संकुचन के कारण फिलामेन्ट कई टुकड़ों में टूट गया तथा प्रत्येक भाग घनीभूत होकर ग्रह (Planet) के रूप में बदल गया। इसी क्रिया से फिलामेन्ट से नौ ग्रहों की रचना सम्भव हुई। इसी प्रक्रिया के अनुसार सूर्य की आकर्षण शक्ति के प्रभाव से ग्रहों पर ज्वार उत्पन्न होने से उनके कुछ पदार्थ अलग हो गये, जो घनीभूत होकर उपग्रह बने।
अब यह प्रश्न उठता है कि ग्रह से उपग्रह बनने का क्रम कब तक चलता रहा? जब तक ग्रहों से निकले हुये ज्वारीय पदार्थ बड़े आकार वाले थे तथा उनकी केन्द्रीय आकर्षण शक्ति अधिक थी, तब तक उपग्रह बनते रहे। परन्तु जब उनका आकार इतना छोटा होने लगा कि उनकी केन्द्रीय आकर्षण-शक्ति उन्हें संगठित रखने में असमर्थ हो गयी, उपग्रहों की रचना समाप्त हो गयी। इस प्रकार ग्रहों के उपग्रहों की संख्या ग्रहों के आकार के अनुसार निश्चित हुई।
इस परिकल्पना द्वारा पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही साथ सौर्य-मंडल की अनेक समस्याएँ भी सुलझी-सी प्रतीत होती हैं-
(1) ग्रहों का क्रम तथा आकार-
सूर्य से निस्सृत ज्वारीय फिलामेन्ट बीच में चौड़ा तथा किनारों की तरफ पतला था। इस प्रकार जब फिलामेन्ट के टूटने से ग्रहों का निर्माण हुआ तो बड़े ग्रह बीच में तथा छोटे ग्रह किनारे की ओर बने। ग्रहों का यह क्रम वर्तमान सौर्य मंडल के ग्रहों से पूर्णतया सामंजस्य रखता है।
सूर्य की ओर से प्रारम्भ करने पर बुध ग्रह सबसे पहले है। यह अधिक छोटा है। इसके बाद शुक्र, पृथ्वी, मंगल (यह पृथ्वी से छोटा है) आदि एक-दूसरे से बड़े होते जाते हैं तथा बीच में बृहस्पति सबसे बड़ा ग्रह है । इसके बाद पुनः ग्रहों का आकार घटता जाता है तथा अन्त में कुबेर अत्यन्त छोटा ग्रह है। यह तथ्य निम्न तालिका से पूरी तरह प्रमाणित हो जाता है।
जीन्स ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन कुबेर ग्रह( Pluto) की खोज के पहले किया था। बाद में अत्यन्त लघु ग्रह कुबेर की खोज ने इस परिकल्पना का महत्व और अधिक बढ़ा दिया क्योंकि यह परिकल्पना सौर्य-मंडल के सदस्यों के क्रम को पूर्णतया सिद्ध करती है। केवल मंगल की स्थिति इसके अनुसार ठीक नहीं बैठती है।
(2) उपग्रहों का क्रम-
इस परिकल्पना के अनुसार ग्रहों के उपग्रहों का निर्माण ग्रहों से निकले हुए ज्वारीय पदार्थ से उसी प्रकार हुआ, जिस प्रकार सूर्य से निकले ज्वारीय पदार्थ से ग्रहों की रचना हुई। इस प्रकार ग्रहों के उपग्रहों का भी वही क्रम है जो कि ग्रहों का। अर्थात् एक ग्रह के यदि कई उपग्रह हैं तो सबसे बड़ा उपग्रह बीच में तथा छोटा उपग्रह किनारे की ओर पाया जाता है। यह तथ्य भी वर्तमान उपग्रहों की स्थिति तथा क्रम से पूर्णतया मेल खाता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि ग्रहों तथा उपग्रहों की रचना एक ही प्रणाली द्वारा हुई होगी।
(3) उपग्रहों की संरचना तथा आकार-
इस ‘ज्वारीय परिकल्पना’ के अनुसार बड़े ग्रह ब्रह्माण्ड में अधिक समय तक गैस के रूप में रहे, क्योंकि आकार की विशालता के कारण उसके शीतल होने में अधिक समय लगा होगा। इस कारण बड़े ग्रहों के उपग्रह अधिक संख्या में बने, परन्तु अपेक्षाकृत ये छोटे आकार वाले थे। मध्यम आकार वाले (बड़े ग्रहों के समीपवर्ती ग्रह) ग्रहों से कम संख्या में उपग्रह (Satellites) बने, परन्तु इनका आकार बड़ा रहा। किनारे वाले ग्रह आकार में छोटे होने के कारण शीघ्र शीतल हो गये होंगे। परिणामस्वरूप उनसे उपग्रहों की रचना नहीं हो पायी होगी।
यह तथ्य वर्तमान सौर्य-मंडल के उपग्रहों के क्रम से पूर्णतया मेल खाता है। शनि तथा बृहस्पति जैसे सबसे बड़े ग्रहों के छोटे आकार वाले अनेक उपग्रह हैं, जबकि बुध तथा शुक्र के पास एक भी उपग्रह नहीं है।
(4) ग्रहों का परिभ्रमण कक्ष-
इस परिकल्पना के अनुसार ग्रहों के परिभ्रमण कक्ष (Orbit) अथवा ग्रह पथ को सूर्य के कक्ष (orbit) से मेल नहीं खाना चाहिये, बल्कि ग्रह-कक्ष को सूर्य कक्ष से एक निश्चित कोण पर झुका होना चाहिये, क्योंकि सूर्य की आकर्षण शक्ति से ग्रह झुक जाता है। यह तथ्य भी वर्तमान ग्रहों के कक्ष से पूर्णतया मेल खाता है, क्योंकि प्रत्येक ग्रह-कक्ष झुका हुआ है।
प्रत्येक ग्रह का कोणीय झुकाव
ग्रह | झुकाव |
बुध | 7° |
शुक्र | 3.5° |
पृथ्वी | 23.5° |
मंगल | 2° |
बृहस्पति | 1° |
शनि | 2.5° |
अरुण | 0° |
वरुण | 2° |
कुबेर | 17° |
(5) निस्सृत वायव्य पदार्थ का आकार-
पास आते हुये तारे की ज्वारीय शक्ति से सूर्य से जो फिलामेन्ट निकला वह सिगार के आकार का क्यों हो गया? इसका मुख्य कारण पास आते हुये तारे की आकर्षण शक्ति में विभिन्नता का होना ही बताया जाता है। अर्थात् तारा दूर था तो कम आकर्षण के कारण कम पदार्थ बाहर निकला तथा तारा ज्यों-ज्यों पास आता गया, बढ़ती आकर्षण शक्ति से पदार्थ की मात्रा बढ़ती गयी तथा तारे के सूर्य से निकटतम दूरी पर आने पर निस्सृत पदार्थ सबसे अधिक था।
पुन: तारे के दूर जाने से आकर्षण शक्ति में कमी के कारण निस्सृत पदार्थ की मात्रा घटती गयी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि निस्सृत पदार्थ (Ejected matter) तारे की आकर्षण शक्ति के अनुपात में थे।
परिकल्पना में संशोधन
सन् 1929 ई. में हेरोल्ड जेफरीज महोदय ने इस परिकल्पना को संशोधित करते हुए बताया कि ग्रहों की उत्पत्ति फिलामेंट बनने से नहीं हुई है, वरन् साथी तारा और सूर्य के आपस में टकराने से हुई है। साथी तारा और सूर्य के बीच जब टक्कर होती है तो कुछ पदार्थ सूर्य से बाहर निकल आते हैं और बाद में संगठित एवं शीतल होकर 9 ग्रहों का निर्माण करते हैं।
जेफरीज के इस संशोधन के मानने पर ग्रहों के परिभ्रमण (Rotation) सम्बन्धी अनेक कठिनाईयां सुलझ जाती हैं।
मूल्यांकन
जीन्स द्वारा प्रतिपादित तथा जेफरीज द्वारा संशोधित एवं परिवर्द्धित ‘ज्वारीय परिकल्पना’ को बहुत समय तक समर्थन प्राप्त होता रहा तथा लोगों में इसके प्रति अधिक विश्वास हो गया था क्योंकि जीन्स को यह विश्वास था कि ब्रह्माण्ड की ग्रह-प्रणाली का निर्माण एक अनुपम विधान है।
परन्तु पिछले कुछ वर्षों में इस विचारधारा की कटु आलोचनाएँ की गयी हैं तथा वर्तमान वैज्ञानिकों को जीन्स की यह परिकल्पना मान्य नहीं है। यदि कुछ आधुनिक वैज्ञानिकों के इस परिकल्पना में संशोधन मान लिये जाय तो सचमुच यह परिकल्पना बड़ी हद तक पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में सही ज्ञान दे सकती है।
आलोचनाएँ
इस परिकल्पना के निम्नलिखित आलोचनाएँ बतायी जा सकती हैं:-
⇒ एक तारे से दूसरे तारे इतना दूर है कि वो एक-दूसरे के समीप आ ही नहीं सकता।
⇒ रसेल का कहना है कि इस सिद्धांत के आधार पर इतना विशालकाय सौरमण्डल का निर्माण नहीं हो सकता।
⇒ सूर्य का आंतरिक भाग अत्यधिक गर्म है इसके कारण सूर्य के आंतरिक भाग से पदार्थ स्वंय ही निकलने की स्थिति में होती है। विशालकाय तारा सूर्य के पास से होकर गुजरा होगा तो तापमान में वृद्धि हुई होगी, ऐसी स्थिति में सूर्य से अलग हुए पदार्थ अंतरिक्ष में बिखर जाने की प्रवृति रखेंगें न कि ठंडा होकर ग्रह का निर्माण करेंगें।
⇒ यह सिद्धांत ग्रहों के कोणीय वेग की व्याख्या नहीं करता।