Unique Geography Notes हिंदी में

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GEOMORPHOLOGY (भू-आकृति विज्ञान)

31. अपक्षय एवं अपरदन (Weathering and Erosion)

31. अपक्षय एवं अपरदन (Weathering and Erosion)



अपक्षय एवं अपरदन

       अपक्षय के अन्तर्गत चट्टानों के अपने स्थान पर टूटने-फूटने की क्रिया तथा उससे उस चट्टान विशेष या स्थान विशेष के अनावरण की क्रिया को सम्मिलित किया जाता है। इसमें चट्टान-चूर्ण के परिवहन को सम्मिलित नहीं किया जाता है

        अपरदन की क्रिया में टूटे हुए चट्टानों के टुकड़ों के परिवहन (नदी, हिमानी, वायु, भूमिगत जल तथा सागरीय लहर द्वारा) तथा टुकड़ों द्वारा आपस में रगड़ एवं उनके द्वारा कटाव की क्रिया को सम्मिलित किया जाता है।

        अनाच्छादन (Denudation) में अपक्षय तथा अपरदन दोनों क्रियाओ का समावेश किया जाता है। इस प्रकार अपक्षय में केवल स्थैतिक क्रिया तथा अपरदन में गतिशील क्रिया होती है अनाच्छादन स्थैतिक तथा गतिशील दोनों क्रियाओं का योग है।           

         पृथ्वी का भूपटल दृढ़ भूखण्डों से निर्मित है जिसे प्लेट कहते है। पृथ्वी के भूपटल पर आंतरिक एवं बाह्य दो प्रकार की शक्तियाँ सतत कार्यरत रहती है। आंतरिक शक्तियों में ज्वालामुखी, भूकम्प एवं भूपटल को विरूपित करने वाले अन्य शक्ति (जैसे- संवहन तरंग) को शामिल करते है। जबकि बाह्य शक्तियों में जलवायु, बहता हुआ जल, भूमिगत जल, हिमानी, शुष्क वायु, समुद्री तरंग, इत्यादि को शामिल करते है। 
         आंतरिक शक्तियाँ भूपटल में विषमता (उत्थान, धंसान, वलन) उत्पन्न करती है। जबकि बाह्य शक्तियां भूपटल में उतपन्न विषमता को समाप्त कर समतल मैदान के रूप में बदलने का प्रयास करती है अर्थात बाह्य शक्तियां  प्राकृतिक कैंची के समान है जो अपरदन के माध्यम से धरातल को अपरदित कर समतल करते रहती है

                समतल स्थापन का कार्य दो रूपों में होता है:

(i) बाह्य शक्तियां उच्च भागों को काट-छांटकर कर समतल बनाने का कार्य करती है, जिसे निम्नीकरण (Degradation) की क्रिया कहा जाता है।

(ii) जब बाह्य शक्तियां कटे छंटे पदार्थों का निक्षेपण निम्न भागों में करती हैं एवं इस प्रकार समतल स्थापन का कार्य करती हैं, तो यह क्रिया अधिवृद्धिकरण (Aggradation) कहलाती है। बाह्य शक्तियों द्वारा धरातल की ऊंचाई एवं गहराई समाप्त कर समतल स्थापन की प्रक्रिया को अनावृतीकरण कहा जाता है। अनावृत्तीकरण के अंतर्गत तीन क्रियाएं सम्मिलित हैं:

1. अपक्षयण (Weathering):

    भौतिक अथवा रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा चट्टानों का अपने ही स्थान पर टूटना-फूटना या सड़ना गलना अपक्षयण कहलाता है।

2. शिलाखंडों का सरकना (Mass Wasting):

      यह वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत गुरुत्व के सीधे प्रभाव से टूटी हुई चट्टानें नीचे की ओर सरकती हैं या गिर पड़ती हैं, जैसे- भू-स्खलन।

3. अपरदन (Erosion):

         अपरदन वह क्रिया है जिसमें गतिशील अभिकरणों (Mobile Agencies) द्वारा शिलाखंडों का स्थानांतरण होता है। अपरदन के अंतर्गत तीन क्रियाएं सन्निहित हैं।

(क) परिवहन या अपनयन (Transportation):-

        इसमें ऋतुक्षरित चट्टानें कमजोर होकर अपरदन के दूतों के द्वारा बहाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है और निम्न भागों में निक्षेपण का कार्य किया जाता है स्रोत क्षेत्र से चट्टानों को उठाकर दूसरे स्थान पर पहुंचा देने वाले कारकों को अपरदन का दूत (बहता हुआ जल, भूमिगत जल, हिमानी, शुष्क वायु, समुद्री तरंग) कहा जाता है।    

(ख) अपघर्षण (Corrasion):-

     जब चट्टानों के टुकड़े अपरदन की शक्तियों (बहता जल, हिमानी, पवन आदि) द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाये जाते हैं तो वे धरातल की सतह को घिसते एवं काटते रहते हैं, इसे ही अपघर्षण कहा जाता है।

(ग) निक्षेपण (Deposition):-

        अपरदन के विभिन्न कारक परिवहन कार्य करने के बाद अपने साथ लाये गये मलबे को अपनी वाहन शक्ति के अनुसार जगह-जगह छोड़ते जाते हैं, जिसे निक्षेपण कहते हैं। निक्षेपण क्रिया से धरातल ऊंचा-नीचा हो जाता है। इस कार्य को बहता हुआ नदी, भूमिगत जल, हिमानी, वायु तथा सागरीय लहरें सम्पन्न करती हैं। निक्षेपण की इस अवस्था में धरातल पर विभिन्न भू-आकृतियों का जन्म एवं विकास होता है। 

        इस प्रकार जहां अपक्षयण में स्थैतिक (Static) क्रिया होती है, वहीं अपरदन में गतिशील (Dynamic) क्रिया होती है। हालांकि अपक्षयण में विखंडित चट्टानों का परिवहन नहीं होता है, परंतु गुरुत्व द्वारा विखंडित चट्टानों का सामूहिक रूप से नीचे की ओर सरकना (Mass Wasting) इसमें सम्मिलित किया जा सकता है। इस प्रकार भू-स्खलन को अपक्षयण के अंतर्गत रखा जा सकता है।

       अपक्षयण की क्रिया पर जलवायु के तत्वों (धूप, तापमान, वर्षा आदि) के अलावा चट्टानों की विशेषता (गठन, संरचना आदि) का भी प्रभाव पड़ता है।

अपरदन के प्रकार

    अपरदन के विभिन्न रूप अपरदन की भिन्न-भिन्न क्रियाओं में सम्पन्न होते हैं, जिसका विवरण निम्नलिखित है:-

(i) सन्नीघर्षण (Attrition):-

        एक ही प्रकार के चट्टानों का आपस में टकराना और टूटना सन्नीघर्षण कहलाता है।

(ii) अपघर्षण (Abrasion or corrasion):-

       जब दो विभिन्न प्रकार के चट्टान आपस में टकराकर टूटते हैं तो अपघर्षण कहलाता है।

(iii) उत्पाटन (Plucking):-

      अपरदन के दूतों के द्वारा चट्टानों को उखाड़ कर फेंकना उत्पाटन कहलाता है।

(iv) अपवाहन (Deflation):-

         वायु के द्वारा चट्टानों का उड़ा कर ले जाना अपवाहन कहलाता है।   यह क्रिया शुष्क मरुस्थलीय भागों में अधिक होती है। 

(v) स्थानांतरण या भूस्खलन (Landslide):-

          गुरुत्वाकर्षण बल के कारण चट्टानों का ऊपर से नीचे गिरना या खिसकना स्थानांतरण कहलाता है। 

(vi) अपक्षालन (Leaching):-

        अपरदन के दूतों के द्वारा छोटे एवं महीन चट्टानी कणों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाना अपक्षालन कहलाता है।

(vii) संक्षारण (corrosion):-

       रासायनिक प्रतिक्रिया के द्वारा चट्टानों का टूटना और दूसरे स्थान पर जमा करना संक्षारण कहलाता है। इस प्रकार संक्षारण रासायनिक क्षरण की एक प्रक्रिया है।

(viii) जलगति क्रिया (Hydraulic Action):-

            यह एक यान्त्रिक क्रिया है। इसमें बहता हुआ जल अपने वेग तथा दबाव के कारण मार्ग में स्थित चट्टानी कणों को अपने साथ बहाकर ले जाता है।      

अपक्षयण के प्रकार (Types of Weathering)

1. भौतिक अपक्षयण (Physical or Mechanical Weathering):-

     बिना किसी रासायनिक परिवर्तन के चट्टानों के टूट-फूट कर टुकड़े-टुकड़े होने की प्रक्रिया को भौतिक या यांत्रिक ऋतुक्षरण कहा जाता है।

⇒ भौतिक ऋतुक्षरण, मरुस्थलों में अधिक दैनिक तापांतर के कारण एवं ठंडी जलवायु वाले क्षेत्रों में पाले (Frost) के कारण होता है।

⇒ गर्म मरुस्थलों में स्वच्छ आकाश एवं वायु की शुष्कता के कारण दिन एवं रात के तापमान में काफी अंतर पाया जाता है। दिन के समय तेज धूप के कारण चट्टानों का ऊपरी आवरण तप्त होकर फैल जाता है। किन्तु रात के समय प्रायः तापमान गिरकर हिमांक (Freezing Point) तक पहुंच जाता है एवं चट्टानें सिकुड़ जाती हैं। इन क्रियाओं की पुनरावृति के कारण चट्टानों में दरार पड़ने लगता है एवं चट्टानें बड़े बड़े खंडों में टूट जाती हैं। इस प्रक्रिया को खंड विच्छेदन (Block Disintegration) कहा जाता है।

⇒ उष्ण मरुस्थलीय, अर्द्ध मरुस्थलीय एवं मानसूनी जलवायु प्रदेशों में अधिक तापांतर के कारण कभी-कभी चट्टानों की ऊपरी सतह गर्म होकर अन्दर की अपेक्षाकृत ठंडी सतह से अलग हो जाती है एवं ऊपर का भाग प्याज के छिलके की तरह अलग हो जाता है। इसे अपदलन, अपशल्कन या अपपत्रण (Exfoliation) कहा जाता है। यह क्रिया मुख्यतः ग्रेनाइट जैसी रवेदार चट्टानों में होती है।

⇒ चट्टानें विभिन्न खनिजों का समुच्चय होती हैं एवं विभिन्न खनिजों के फैलाव एवं सिकुड़ने की दर अलग-अलग होती हैं। इसके कारण चट्टानों के विभिन्न खनिज कण टूट-टूटकर अनेक खनिज कणों में विभाजित हो जाते हैं। चट्टानों का इस प्रकार खनिज कणों में टूटना कणिकामय विखंडन (Granular Disintegration) कहलाता है। खंड विखंडन एवं कणिकामय विखंडन के कारण ही गर्म मरुस्थलों में विस्तृत क्षेत्रों में बालू पाये जाते हैं।

⇒ शीत कटिबंधीय क्षेत्रों एवं उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में चट्टानों की छिद्रों एवं दरारों में जल के जमने एवं पिघलने की क्रिया क्रमिक रूप से होती है। इससे चट्टानें कमजोर हो जाती हैं एवं बड़े-बड़े खंडों में टूटने लगती हैं अर्थात् खंड-विखंडन (Block Disintegration) होने लगता है। यह क्रिया तुषार क्रिया (Frost Action) कहलाती है।

          खड़ी पहाड़ी ढालों पर इस प्रकार का विघटन अधिक देखने को मिलता है। विघटित चट्टानें गुरुत्व बल के कारण नीचे की ओर सरककर जमा होने लगती हैं। ये विखंडित चट्टानें खुरदरी एवं नुकीली होती हैं। इस प्रकार के कोणीय चट्टानी खंडों (Angular Rock Fragments) के ढेर को भग्नाश्म राशि (Scree) अथवा टैलस (Talus) कहा जाता है। इस प्रकार स्क्री या टैलस का निर्माण मुख्यतः तुषार क्रिया एवं गुरुत्वाकर्षण का परिणाम है।

2. रासायनिक अपक्षयण (Chemical weathering):-

    जब रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा चट्टानों का विखंडन (Disintegration) होता है तो उसे रासायनिक अपक्षयण कहा जाता है। जब विभिन्न कारणों से चट्टानों के अवयवों में रासायनिक परिवर्तन होता है तो उनका बंधन ढीला हो जाता है तो रासायनिक अपक्षयण की क्रिया होती है।

       तापमान एवं आर्द्रता अधिक रहने पर रासायनिक अपक्षयण की क्रिया तीव्र गति से होती है। यही कारण है कि विश्व के उष्ण एवं आर्द्र प्रदेशों में यह क्रिया अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। शुष्क अवस्था में ऑक्सीजन एवं कार्बन डाईऑक्साइड का चट्टानों पर कोई रासायनिक प्रभाव नहीं पड़ता है, परंतु नमी की उपस्थिति में ये सक्रिय रासायनिक कारक (Active chemical Agent) बन जाते हैं।

(i) विलयन (Solution):-

      चट्टानों में उपस्थित विभिन्न खनिजों के जल में घुलने की क्रिया को विलयन कहा जाता है। उदाहरण के लिए सेंधा नमक (Rock Salt) एवं जिप्सम वर्षा के जल में आसानी से घुल जाते हैं।

(ii) ऑक्सीकरण (Oxidation):-

     ऑक्सीकरण की क्रिया विशेष रूप से लौह युक्त चट्टानों पर होती है। आर्द्रता बढ़ने पर लौह खनिज ऑक्सीजन से मिलकर ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसके कारण चट्टान अथवा खनिज कमजोर हो जाते हैं एवं उनका विखंडन होने लगता है। वर्षा ऋतु में लोहे में जंग लगना ऑक्सीकरण का ही परिणाम है।

(iii) जलयोजन (Hydration):-

     जलयोजन की प्रक्रिया में चट्टानों में उपस्थित खनिज जल को सोख लेता है। इसके कारण उनमें रासायनिक परिवर्तन होने लगता है एवं नये खनिजों का निर्माण होता है। इन नये खनिजों में जल का कुछ अंश रह जाता है। ये नये खनिज पुराने खनिजों की अपेक्षा मुलायम होते हैं। उदाहरण के लिए जलयोजन के फलस्वरूप ग्रेनाइट चट्टानों का फेल्डस्पार खनिज कायोलिन (Kaolin) मिट्टी में परिवर्तित हो जाता है।

(iv) कार्बोनेटीकरण (Carbonation):-

     जल एवं कार्बन डाई ऑक्साइड मिलकर हल्का कार्बोनिक अम्ल बनाते हैं। इस अम्ल का प्रभाव विशेष रूप से उन चट्टानों पर पड़ता है, जिनमें कैल्सियम, मैग्नेशियम, सोडियम, पोटेशियम एवं लोहे जैसे तत्त्व पाये जाते हैं। ये तत्त्व कार्बोनिक अम्ल में घुल जाते हैं, फलस्वरूप इन खनिजों से निर्मित चट्टानें कमजोर हो जाती हैं एवं उनका विखंडन होने लगता है।

        बलुआ पत्थरों (Sand Stone) में सामान्यतः कैल्सियम कार्बोनेट (Lime) ही संयोजक पदार्थ (Cementing Material) का कार्य करता है, जो कार्बोनिक अम्ल में शीघ्रता से घुल जाता है, फलस्वरूप बलुआ पत्थर का विखंडन होने लगता है।

⇒ कभी-कभी जलयोजन के कारण चट्टानों की ऊपरी सतह फूलकर निचली सतह से अलग हो जाती है। इसे गोलाभ अपक्षय (Spheroidal Weathering) कहा जाता है। इस प्रकार रासायनिक अपक्षयण की यह क्रिया अपदलन से काफी मिलती-जुलती है।

अपक्षयण पर जलवायु का प्रभाव

⇒ उष्ण एवं शुष्क जलवायु क्षेत्रों (जैसे- गर्म मरुस्थलों में) दैनिक तापांतर अधिक मिलने के कारण भौतिक अपक्षय महत्त्वपूर्ण होता है।

⇒ उष्ण एवं आर्द्र जलवायु क्षेत्र (जैसे- विषुवतीय क्षेत्र) एवं चूना पत्थर वाले क्षेत्र में रासायनिक अपक्षय महत्त्वपूर्ण होता है।

⇒ शीत एवं शीतोष्ण जलवायु क्षेत्रों में भौतिक अपक्षय अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

⇒ ध्रुवीय क्षेत्रों में स्थायी हिमाच्छादन के कारण अपक्षयण की क्रिया नहीं होती है।

⇒ मानसूनी जलवायु वाले क्षेत्रों (जैसे भारत) में रासायनिक एवं भौतिक दोनों ही प्रकार का अपक्षयण पाया जाता है।

नोट: अपक्षयण एवं अपदन दो अलग-अलग क्रियाएं हैं। बिना अपक्षयण के भी अपरदन हो सकता है। अपक्षयण के पश्चात् अपरदन हो ही, यह आवश्यक नहीं है। अपरदन की प्रक्रिया में अपक्षयण सहायक होता है, परंतु यह अपरदन का अंग नहीं है।



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I ‘Dr. Amar Kumar’ am working as an Assistant Professor in The Department Of Geography in PPU, Patna (Bihar) India. I want to help the students and study lovers across the world who face difficulties to gather the information and knowledge about Geography. I think my latest UNIQUE GEOGRAPHY NOTES are more useful for them and I publish all types of notes regularly.

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