25. सूर्यातप (Insolation)
25. सूर्यातप (Insolation)
सूर्यातप
वायुमण्डल तथा पृथ्वी की ऊष्मा (Heat) का प्रधान स्रोत (सूर्य) है। सौर्यिक ऊर्जा को ही ‘सूर्यातप’ कहते हैं।
दूसरे शब्दों में “लघु तरंगों के रूप में संचालित लगभग 3 लाख किमी० प्रति सेकेण्ड की गति से भ्रमण करती हुई प्राप्त सौर्यिक ऊर्जा को ‘सौर्य विकिरण’ या ‘सूर्यातप’ कहते हैं”। सूर्य धधकता हुआ गैस का वृहद् गोला है, जिसकी व्यास पृथ्वी से 100 गुना तथा उसके आयतन से 100,000 गुना अधिक है। सूर्य के धरातल जिसे फोटोस्फेयर कहते है, का तापक्रम 6000 डिग्री सेल्सियस तथा केन्द्रीय भाग का 1.5 करोड़ डिग्री सेल्सियस बताया जाता है। पृथ्वी के वायुमण्डल का औसत तापक्रम 15.2°C होता है।
सूर्य की ऊर्जा का प्रधान स्रोत उसका आन्तरिक भाग जहाँ पर अत्यधिक दबाव तथा उच्च तापमान के कारण नाभिकीय संलयन के कारण हाइड्रोजन का हीलियम में रूपान्तर होने से ऊष्मा का उत्सर्जन होता है। यह ऊष्मा परिचालन तथा संवहन द्वारा सूर्य की बाहरी सतह तक पहुँचती है। सूर्य की वाह्य सतह से निकलने वाली ऊर्जा को फोटान कहते हैं। इसी तरह सूर्य की वाह्य सतह को फोटोस्फीयर कहते हैं। इस सतह से ऊर्जा का विद्युत् चुम्बकीय तरंग द्वारा विकिरण होता है।
सूर्य के धरातल के प्रत्येक वर्ग इंच से विकीर्ण ऊर्जा 100,000 अश्व शक्ति के बराबर होती है, सूर्य की वह्य सतह (फोटोस्फीयर) से निकलने वाली ऊर्जा प्रायः स्थिर रहती है। इस तरह पृथ्वी की सतह के प्रति इकाई क्षेत्र पर सूर्य से प्राप्त ऊर्जा प्राय: स्थिर रहती है। इसे सौर्यिक स्थिरांक (Solar constant) कहते हैं।
इस तरह सौर्यिक स्थिरांक सूर्य के विकिरण की दर को प्रदर्शित करता है जो प्रति वर्ग सेण्टीमीटर प्रति मिनट 2 ग्राम कैलरी है। सूर्य से लगभग 15 करोड़ किमी० दूर स्थित पृथ्वी सौर्यिक ऊर्जा का केवल 1/2×109 भाग ही प्राप्त कर पाती है। परन्तु यह स्वल्प मात्रा भी 23×1012 अश्व शक्ति के बराबर हो जाती है। सूर्य से प्राप्त इस न्यून ऊर्जा के कारण ही भूतल पर सभी प्रकार के जीवों का अस्तित्व सम्भव हो सका है। इसी कारण धरातल पर पवन संचार, सागरीय धाराओं का प्रवाह तथा मौसम एवं जलवायु का आविर्भाव होता है।
प्रत्येक वस्तु, जिसमें ऊष्मा होती है, विकिरण करती है। नियमानुसार जो वस्तु जितनी अधिक गर्म होती है, उसकी तरंगें उतनी ही छोटी होती हैं। इसी कारण से सूर्य विकिरण द्वारा निकली ऊष्मा लघु तरंगों के रूप में होती है तथा प्रति सेकेण्ड 300000 किमी० की गति से भ्रमण करती है। इसके विपरीत अपेक्षाकृत कम तापक्रम वाली वस्तु से विकिरण तो कम होता है, परन्तु दीर्घ तरंग के रूप में होता है। उदाहरण के लिए पृथ्वी से विकीर्ण ऊर्जा दीर्घ तरंगों के रूप में होती है।
धरातल पर सूर्यातप का वितरण
सूर्यातप की सर्वाधिक मात्रा विषुवत रेखा के पास होती है क्योंकि यहाँ पर दिन-रात की लम्बाई बराबर होती है तथा सूर्य की किरणें लगभग लम्बवत् होती हैं। परन्तु सूर्य के दक्षिणायन तथा उत्तरायण की स्थितियों के कारण अत्यधिक सूर्यताप मण्डल विषुवत रेखा के दोनों ओर सरकता रहता है। विषुवत रेखा से सूर्यातप ध्रुवों की ओर कम होता जाता है। ध्रुवों पर यह ताप इतना कम हो जाता है कि विषुवत रेखा का केवल 40 प्रतिशत ही प्राप्त हो पाता है।
इस तरह ध्रुवीय क्षेत्र न्यूनतम सूर्यातप प्राप्त करते हैं। ‘इक्वीनाक्स (Equinox-विषुव) के समय दोनों गोलाद्धों में सूर्यातप का वितरण प्राय: समान रहता है। इसके विपरीत कर्क तथा मकर संक्रांति (Solstices) के समय दोनों गोलार्द्ध में ध्रुवों के बीच सूर्यातप के वितरण में पर्याप्त असमानता होती है।
यहाँ पर यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि सूर्यातप के वितरण पर वायुमण्डल के परावर्तन, शोषण तथा प्रकीर्णन आदि प्रभावों का पर्याप्त असर होता है। इसी कारण से कर्क संक्रान्ति के समय सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क रेखा पर लम्बवत् होता है, ध्रुवों पर दिन की अवधि सर्वाधिक लम्बी होने पर भी सूर्यातप सर्वाधिक नहीं हो पाता है, अपितु अधिकतम सूर्यातप 40° अक्षांश के आस-पास ही प्राप्त होता है। धरातलीय तापक्रम निम्न मध्य अक्षांश वाले भागों में सर्वाधिक होता है, न कि भूमध्य रेखा के पास।
सूर्यातप के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक
सूर्यातप के उपर्युक्त वितरण से स्पष्ट हो गया है कि भूतल के विभिन्न भागों पर सूर्यातप की मात्रा समान नहीं हुआ करती है, सूर्य की किरणों को वायुमण्डल की एक मोटी परत से होकर गुजरना पड़ता है, अत: वायुमण्डल का प्रभाव सूर्यातप की मात्रा पर पड़ना स्वाभाविक ही है। इसके अलावा सूर्य की किरणों का सापेक्ष्य तिरछापन, दिन की अवधि, पृथ्वी से सूर्य की दूरी, सौर कलंक इत्यादि कारक किसी भी स्थान पर (वायुमण्डल की अनुपस्थिति में) सूर्यातप की मात्रा को प्रभावित करते हैं।
(i) सूर्य की किरणों का सापेक्ष्य तिरछापन:-
पृथ्वी के गोलाकार रूप के कारण सूर्य की किरणें सर्वत्र समान कोण पर नहीं पड़ती हैं। भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें लम्बवत् होती हैं क्योंकि सूर्य सर्वाधिक ऊँचाई पर होता है, परन्तु ध्रुवों की ओर किरणों का कोण कम होता जाता है अर्थात् वे तिरछी होती जाती हैं। यद्यपि किरणों के सापेक्ष्य तिरछापन में कुछ परिवर्तन होता रहता है, उदाहरण के लिए 21 जून को सूर्य कर्क रेखा पर तथा 22 दिसम्बर को मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है, जिस कारण पहली स्थिति में दक्षिणी गोलार्द्ध में किरणें अधिक तिरछी होती हैं, तथापि साधारण रूप में भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर किरणों का तिरछापन बढ़ता जाता है।
(ii) दिन की अवधि
यदि अन्य दशाएं समान हों तो दिन की अवधि जितनी अधिक होगी, सूर्यातप की मात्रा उतनी ही अधिक होगी। पृथ्वी अपनी कक्षा पर 66.5° का कोण बनाती हुई लगभग 24 घण्टे में अपनी धुरी पर एक परिक्रमा पूरा करती है तथा साथ ही सूर्य के चारों तरफ भी वर्ष में एक बार चक्कर लगाती है।
यदि पृथ्वी भी अपनी जगह पर स्थिर होती तो वर्तमान स्थिति के विपरीत दशा होती, परन्तु पृथ्वी की दैनिक तथा वार्षिक गति के कारण भूमध्य रेखा को छोड़कर शेष भागों पर दिन की अवधि में अन्तर आता रहता है। भूमध्य रेखा पर दिन सदैव 12 घण्टे का इसलिए होता है कि प्रकाश वृत्त भूमध्य रेखा को दो बराबर भागों में काटता है।
सूर्य की उत्तरायण स्थिति के समय (जब सूर्य कर्क रेखा पर होता है) भूमध्य-रेखा से उत्तर की ओर दिन की अवधि बढ़ती जाती है तथा उत्तरी ध्रुव पर 6 मास का दिन होता है। इसके विपरीत भूमध्य रेखा से दक्षिण जाने पर दिन की अवधि कम हो जाती है, जबकि द० ध्रुव पर केवल रात (6 मास) ही होती है।
सूर्य की दक्षिणायन स्थिति में (जबकि सूर्य मकर रेखा पर होता है) भूमध्य रेखा से दक्षिण की ओर दिन की अवधि बढ़ती जाती है और उत्तर की ओर घटती जाती है। केवल 21 मार्च तथा 23 सितम्बर को, जबकि सूर्य की स्थिति भूमध्य रेखा पर होती है, सर्वत्र दिन-रात बराबर होते हैं। स्मरणीय है कि किरणों के तिरछेपन तथा दिन की अवधि के प्रभाव सापेक्ष्य हुआ करते हैं। उच्च अक्षांशों में (21 जून, उत्तरी गोलार्द्ध) दिन की अवधि 6 मास होने पर भी सूर्यातप न्यूनतम इसलिए होता है कि सूर्य की किरणें सर्वाधिक तिरछी होती हैं। जहाँ पर दिन की अवधि अधिक होती है तथा साथ ही साथ किरणें सीधी पड़ती हैं वहाँ पर निश्चित रूप से ताप अधिक प्राप्त होता है।
(iii) पृथ्वी से सूर्य की दूरी
पृथ्वी अण्डाकार कक्ष के सहारे सूर्य की परिक्रमा करती है, जिस कारण उसकी सूर्य से दूरी में परिवर्तन होता रहता है। औसत रूप में पृथ्वी सूर्य से लगभग 15 करोड़ किमी० दूर है, परन्तु निकटतम दूरी 14.70 करोड़ किमी० है। इस स्थिति को उपसौर (Perihelion) कहते हैं। यह स्थिति 3 जनवरी को होती है। इसके विपरीत 4 जुलाई को अपसौर (Aphelion) की स्थिति होती है, जबकि पृथ्वी सूर्य से 15.20 करोड़ किमी० दूर होती है। साधारण नियम के अनुसार जब पृथ्वी सूर्य से निकटतम दूरी पर होती है, उस समय अधिकतम ताप तथा अधिकतम दूरी पर होने पर न्यूनतम ताप मिलना चाहिए। परन्तु वास्तविकता ठीक उसके विपरीत होती है।
जनवरी के महीने में जबकि पृथ्वी सूर्य से निकटतम दूरी पर होती है, उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म काल होने के बजाय शीत काल होता है। इसी तरह 4 जुलाई के समय शीत काल के बजाय ग्रीष्मकाल होता है। वास्तव में दिन की अवधि तथा सूर्य की किरणों के तिरछेपन के प्रभाव के आगे यह कारक नगण्य हो जाता है। हाँ, इतना अवश्य होता है कि जनवरी में उ० गोलार्द्ध में जितनी सर्दी होनी चाहिए, उसकी अपेक्षा 7 प्रतिशत कम होती है तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में गर्मियां 7 प्रतिशत अधिक तीव्र होती हैं। अपसौर की स्थिति में उत्तरी गोलार्द्ध में (4 जुलाई) गर्मियां 7 प्रतिशत कम तीव्र तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में शीतकाल 7 प्रतिशत अधिक तीव्र हो जाता है।
(iv) सौर कलंक
चन्द्रमा के समान सूर्य-तल पर कलंक या धब्बे मिलते हैं। इनका कोई स्थायी रूप नहीं होता है, वरन् ये बनते-बिगड़ते रहते हैं तथा इनकी संख्या घटती-बढ़ती रहती है। यह अन्तर चक्रीय रूप में सम्पन्न होता है। औसत रूप में एक चक्र ग्यारह वर्ष में पूरा होता है।
जब सौर कलंकों की संख्या अधिक हो जाती है तो सूर्यातप की मात्रा भी अधिक हो जाती है, परन्तु इनकी मात्रा में कमी हो जाने के कारण प्राप्त होने वाला सूर्यातप कम हो जाता है। इस कारण की सत्यता अभी तक संदिग्ध है। सौर कलंकों के कारण सूर्य विकिरण में अन्तर आता रहता है। विश्व स्तर पर मौसम तथा जलवायु में कभी-कभी विश्वव्यापी अनियमितता होती रहती है। सौर कलंकों के कारण होने वाला अनियमित सूर्यातप इस विश्वव्यापी मौसम सम्बन्धी अनियमितता का कारण हो सकता है, परन्तु इसे निश्चितता के साथ स्वीकार नहीं किया जा सका है।
(v) वायुमण्डल का प्रभाव
सूर्यातप वितरण को प्रभावित करने वाले उपर्युक्त कारकों की विवेचना के समय वायुमण्डल के प्रभाव को ध्यान में नहीं रखा गया था, वास्तव में (सूर्य की) प्रकाश किरणों को वायुमण्डल की पारदर्शक मोटी परत से होकर गुजरना पड़ता है, जिस कारण उसका प्रकीर्णन (Scattering), परावर्तन (Reflection) तथा अवशोषण (Absorption) होता रहता है। प्रकीर्णन के अन्तर्गत सौर्यिक शक्ति का कुछ भाग पारदर्शक वायुमण्डल में स्थित अदृश्य कणों तथा अणुओं के कारण बिखर कर फैल जाता है।
प्रकीर्णन मुख्य रूप से वरणात्मक (Selective) होता है, अर्थात् यह उस समय होता है जबकि अदृश्य कणों (धूलकण आदि) की व्यास विकिरण तरंग से छोटी होती है। इस तरह लघु तरंगों का प्रकीर्णन सर्वाधिक होता है, जिस कारण विभिन्न प्रकार के रंगों का आविर्भाव होता है। उदाहरण के लिए आकाश का नीला रंग, सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य की लालिमा आदि प्रकीर्णन के कारण ही सम्भव हो पाती है।
जब वायुमण्डल में अदृश्य कणों की व्यास विकिरण तरंग से बड़ी होती है तो विसरित परावर्तन (diffuse reflection) की क्रिया होती है। इस क्रिया के कारण सौर्यिक शक्ति का कुछ भाग परावर्तित होकर वापस लौट जाता है, जबकि कुछ भाग वायुमण्डल में चारों तरफ छिटक जाता है। पृथ्वी की सतह से भी कुछ ताप शक्ति का परावर्तन आकाश में हो जाता है। पृथ्वी के इस परावर्तन के कारण ही चन्द्रमा का अंधेरा भाग भी आसानी से दृष्टिगत हो जाता है।
प्रकीर्णन तथा परावर्तन के कारण वायुमण्डल से कुछ सौर्यिक ऊर्जा पृथ्वी की सतह पर पहुँच जाती है। इसे आकाश का विसरित नीला प्रकाश (diffuse blue light of sky) कहते हैं अथवा विसरित दिवा प्रकाश (diffuse day light) की संज्ञा प्रदान की जाती है। इसी प्रकाश के कारण पूर्ण बदली के दिन अथवा किसी भी स्थान के वे भाग जहाँ पर सूर्य की किरणें नहीं पहुँच पाती हैं, आसानी से देखें जा सकते हैं।
अवशोषण की क्रिया मुख्य रूप में जलवाष्प तथा गौण रूप में आक्सीजन एवं ओजोन गैसों द्वारा सम्पादित होती है। अवशोषण भी वरणात्मक होता है अर्थात् सभी विकिरण तरंगों का अवशोषण न होकर केवल दीर्घ तरंगों का ही हो पाता है। प्रकीर्णन, परावर्तन तथा अवशोषण द्वारा सूर्यातप की नष्ट होने वाली मात्रा मुख्य मुख्य रूप से सूर्य की किरणों के कोण तथा वायुमण्डल के पारदर्शक तत्व पर आधारित होती है।
सूर्य से विकीर्ण समस्त सूर्यातप का लगभग 35 प्रतिशत भाग परावर्तन तथा प्रकीर्णन द्वारा आकाश में वापस लौट जाता है तथा इसका उपयोग न ही वायुमण्डल को गर्म करने में हो पाता है और न ही पृथ्वी को सूर्यातप के 14 प्रतिशत भाग का वायुमण्डल द्वारा अवशोषण हो जाता है।
इस तरह सूर्यातप का केवल 51 प्रतिशत भाग पृथ्वी को प्राप्त हो पाता है, जिससे वायुमण्डल का निचला भाग गर्म होता है। किसी भी सतह से विकिरण ऊर्जा के परावर्तित भाग को अलबिडो (Albedo) कहा जाता है। पृथ्वी की सतह का औसत अलबिडो 24 से 34 प्रतिशत के बीच बताया जाता है।
- 1. थार्नथ्वेट का जलवायु वर्गीकरण / Climatic Classification Of Thornthwaite
- 2. कोपेन का जलवायु वर्गीकरण /Koppens’ Climatic Classification
- 3. कोपेन और थार्न्थवेट के जलवायु वर्गीकरण का तुलनात्मक अध्ययन
- 4. हवाएँ /Winds
- 5. जलचक्र / HYDROLOGIC CYCLE
- 6. वर्षण / Precipitation
- 7. बादल / Clouds
- 8. भूमंडलीय उष्मण के कारण एवं परिणाम /Cause and Effect of Global Warming
- 9. वायुराशि / AIRMASS
- 10. चक्रवात और उष्णकटिबंधीय चक्रवात /CYCLONE AND TROPICAL CYCLONE
- 11. शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात / TEMPERATE CYCLONE
- 12. उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का तुलनात्मक अध्ययन
- 13. वायुमंडलीय तापमान / ENVIRONMENTAL TEMPERATURE
- 14. ऊष्मा बजट/ HEAT BUDGET
- 15. तापीय विलोमता / THERMAL INVERSION
- 16. वायुमंडल का संघठन/ COMPOSITION OF THE ATMOSPHERE
- 17. वायुमंडल की संरचना / Structure of The Atmosphere
- 18. जेट स्ट्रीम / JET STREAM
- 19. आर्द्रता / HUMIDITY
- 20. विश्व की प्रमुख वायुदाब पेटियाँ / MAJOR PRESSURE BELTS OF THE WORLD
- 21. जलवायु परिवर्तन के विभिन्न प्रमाण
- 22. वाताग्र किसे कहते है? / वाताग्रों का वर्गीकरण
- 23. एलनिनो (El Nino) एवं ला निना (La Nina) क्या है?
- 24. वायुमण्डलीय सामान्य संचार प्रणाली के एक-कोशिकीय एवं त्रि-कोशिकीय मॉडल
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