22. भूदृश्य संरचना, प्रक्रिया और अवस्था का फलन है। का व्याख्या करें।
“भूदृश्य संरचना, प्रक्रिया और अवस्था का फलन है।” का व्याख्या करें।
“भूदृश्य संरचना, प्रक्रिया और अवस्था का फलन है।”
अमेरिकी भूगोलवेता डेविस ने 1889 ई० में “अपरदन चक्र का सिद्धांत” प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने भूदृश्य को संरचना, प्रक्रिया और अवस्था का फलन या परिणाम बताया।
उपरोक्त कथन में प्रयुक्त भूदृश्य का तात्पर्य ऐसे भौगोलिक प्रदेश से है जिसमें विभिन्न प्रकार के स्थलाकृतियों का समूह पाया जाता है। विभिन्न प्रकार के स्थलाकृतियों की समूह आपस में मिलकर विशिष्ट भूदृश्य का निर्माण करते हैं। जैसे- गंगा का मैदान एक विशिष्ट भूदृश्य है। जिसमें गोखुर झील, प्राकृतिक बाँध, नदी विसर्प, बाढ़ का मैदान, टाल, चौर, जल्ला जैसे स्थलाकृति मिलते है।
इस कथन में उन्होंने बताया है कि भूदृश्य पर संरचना, प्रक्रम और अवस्था का प्रभाव पड़ता है। इन प्रभावों को नीचे के शीर्षकों में देखा जा सकता है:-
(1) भूदृश्य के विकास में संरचना का प्रभाव:-
डेविस ने बताया कि संरचना का तात्पर्य किसी भी भौगोलिक क्षेत्र के भूगर्भिक काल, भूगर्भिक विकास, भूगर्भिक ढाल, चट्टानों की व्यवस्था और चट्टानों की कठोरता से है।
डेविस ने यह भी बताया कि कहीं भी अपरदन चक्र की शुरुआत भूगर्भिक उत्थान के बाद ही होता है। इससे अपने-आप स्पष्ट होता है कि भूदृश्य के विकास के लिए भूगर्भिक विकास आवश्यक है। पेंक महोदय ने बताया था कि उत्थान के साथ-2 अपरदन की क्रिया चलती है जिसके कारण अनेक स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
भूदृश्य के विकास पर भूगर्भिक आयु या चट्टानों की आयु का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे- अधिक आयु के कारण चट्टानें मृत हो जाती हैं जिनका अपरदन आसानी से संभव है। दूसरी ओर कम उम्र की चट्टानें, सुदृढ़ और संगठित रहती है। फलत: उनका अपरदन तेजी से संभव नहीं हो पाता है। जैसे- भारत का अरावली पर्वत धारवाड़ युग का बना हुआ है। जबकि दक्कन का पठार क्रिटेशियस युग का बना हुआ है। अधिक समय बीत जाने के कारण अरावली अवशिष्ट पर्वत में बदल चुका है। जबकि दक्कन के पठार पर अभी भी कठोर चट्टानें भूगर्भ में पाये जाते हैं।
भूदृश्य के विकास पर भूगर्भिक ढाल का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे- तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों के नदियों में I-आकार की घाटी, गॉर्ज, दर्रा, उच्छलिका (क्षिप्रिका), जलप्रपात इत्यादि का निर्माण होता है। जबकि मंद ढाल वाले क्षेत्रों में नदी दोआब, बाढ़ का मैदान, प्राकृतिक बाँध, विसर्प, डेल्टा इत्यादि का निर्माण होता है।
भूदृश्य के विकास पर चट्टानों की व्यवस्था का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे-मरुस्थलीय क्षेत्रों में अगर कठोर एवं मुलायम चट्टानें वैकल्पिक एवं लम्बवत रूप से अवस्थित हो तो यारदांग और क्षैतिज स्थित हो तो ज्यूगेन नामक स्थलाकृति का निर्माण करते हैं।
भूदृश्य के व्यवस्था पर चट्टानों की कठोरता का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे- चुना प्रधान वाले क्षेत्रों में चट्टानें जल में घुलनशील होती है। जिसके कारण घोल रन्ध्र, विलयन रन्ध्र, युवाला, पोल्जे, पोनोर स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इसी तरह जिन क्षेत्रों में बलुआ पत्थर, ग्रेनाइट, बैसाल्ट जैसे कठोर चट्टानें मिलती है, वहाँ पर अपरदन का कार्य नगण्य होता है। फलत: सपाट या उबड़-खाबड़ भूदृश्य का विकास होता है।
इस तरह स्पष्ट है कि भूदृश्य के निर्माण पर संरचना का जबड़दस्त प्रभाव पड़ता है।
(2) भूदृश्य पर प्रक्रम का प्रभाव:-
डेविस महोदय ने बताया कि प्रक्रम का तात्पर्य स्थलाकृति निर्माण करने वाले कारकों से है। डेविस ने कहा कि स्थलाकृतिक के निर्माण में अपरदन के पाँचों दूत जैसे बहता हुआ जल, हिमानी, शुष्क वायु, समुद्री तरंग और भूमिगत जल का प्रमुख योगदान है। लेकिन पेंक के अनुसार स्थलाकृति निर्माण में बाह्य कारकों के साथ-2 आन्तरिक कारकों का योगदान होता है। जैसे- आन्तरिक भूसंचलन के कारण धरातल में विषमताएँ उत्पन्न होती हैं। जैसे- उत्थान की क्रिया से विषम ढाल का निर्माण होता है। और बाह्य क्रिया (पाँचों अपरदन के दूत) सक्रिय होकर नई-2 स्थलाकृतियों का निर्माण करते हैं। स्पष्ट है कि प्रक्रम के तहत आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के क्रियाओं को शामिल करते हैं। बाह्य कारक के द्वारा अपरदन एवं निक्षेपण दोनों कार्य सम्पन्न किये जाते हैं। किसी भी अपरदन दूत की अपरदनात्मक क्षमता मौजूद धूणकण, जल की मात्रा, गति, ढाल की तीव्रता इत्यादि पर निर्भर करती है।
डेविस ने बताया कि आन्तरिक भूसंचलन के कारण पहले उत्थान होता है उसके बाद अपरदन की क्रिया आरंभ होती है। जबकि पेंक ने कहा कि उत्थान एवं अपरदन की क्रिया साथ-साथ चलती है। अपरदन के पाँचों दूत निम्नलिखित स्थलाकृतियों को जन्म देते हैं-
अपरदन के दूत | प्रभावित क्षेत्र | अपरदनात्मक स्थलाकृति | निक्षेपात्मक स्थलाकृति |
(i) बहता हुआ जल | आर्द्र प्रदेश | I एवं V आकार की घाटी, जलप्रपात, गॉर्ज, कैनियन, क्षिप्रिका, मोनाडनॉक, समप्राय मैदान | डेल्टा, प्राकृतिक बांध, बाढ़ का मैदान |
(ii) शुष्क जलवायु | मरुस्थलीय प्रदेश | गारा, यारदांग, ज्यूगेन | लोएस, बालुका स्तूप |
(iii) हिमानी | पर्वतीय चोटी एवं ढाल, ध्रुवीय प्रदेश | U-आकार की घाटी, लटकती घाटी, सर्क, रॉक बेसिन | ड्रमलिन, एस्कर, टील मैदान |
(iv) समुद्री तरंग | तटीय प्रदेश | समुद्री क्लिफ, समुद्री मेहराव | स्पीट, टोम्बोलो |
(v) भूमिगत जल | कार्स्ट प्रदेश | घोलरंध्र, युवाला, पोल्जे, डोलाइन | स्टैलेक्टाइट, स्टैलेग्माइट, कन्दरा स्तम्भ |
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भूदृश्य के निर्माण में प्रक्रम का भी प्रभाव पड़ता है।
(3) भूदृश्य के निर्माण में अवस्था का प्रभाव:-
यहाँ पर अवस्था का तात्पर्य समय से है। डेविस के अनुसार अपरदन चक्र के दौरान स्थलाकृतियों का विकास तीन अवस्था में होता है- (i) युवावस्था, (ii) प्रौढ़ावस्या और (iii) वृद्धावस्था।
सामान्य रूप से युवावस्था में अपरदन, प्रौढ़ावस्था में अपरदन एवं विक्षेपण और वृद्धावस्था में केवल निक्षेपण का कार्य होता है। डेविस के अनुसार इन अवस्थाओं की सीमा निर्धारित नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह चट्टानों की आयु, धरातल के ढाल एवं ऊँचाई, अपरदन के दूतों की क्षमता इत्यादि पर निर्भर करती है। अतः अवस्था की पहचान समय के आधार पर नहीं बल्कि स्थलाकृति के आधार पर किया जाता है। जैसे-
अवस्था | विशेषता एवं स्थलाकृति |
(i) युवावस्था |
I-आकार की घाटी, बंद V-आकार की घाटी, गॉर्ज, कैनियन, क्षिप्रिका, जलप्रपात, सरिता अपहरण, बेमेल विसर्प (Misfit or Unfit Meander), जल विभाजक चौड़ा, तलीय अपरदन अधिक, उच्चावच अधिकतम। |
(ii) प्रौढ़ावस्था |
गोखुर झील, विसर्प, क्षैतिज अपरदन, अपरदन एवं निक्षेपण का कार्य साथ-2। |
(iii) वृद्धावस्था | मोनाडनॉक, समप्राय मैदान, खुली V-आकार की घाटी, उच्चावच न्यूनतम, जलविभाजक सबसे कम, केवल निक्षेपण का कार्य। |
निष्कर्ष
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भूदृश्य के विकास पर अवस्था का भी प्रभाव पड़ता है। डेविस महोदय ने उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ठीक ही कहा था कि “भूदृश्य संरचना, प्रक्रम और अवस्था का फलन होता है।”
नोट:
चौर- नदी का पुराना मार्ग,
जल्ला- जहाँ सालोभर पानी रहता है।
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- 22.“भूदृश्य संरचना, प्रक्रिया और अवस्था का फलन है।” का व्याख्या करें।
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