8. अवस्थिति विश्लेषण या स्थानीयकरण विश्लेषण (Locational Analysis)
8. अवस्थिति विश्लेषण या स्थानीयकरण विश्लेषण
(Locational Analysis)
अवस्थिति विश्लेषण (Locational Analysis)⇒
मानव भूगोल में अवस्थिति विश्लेषण एक महत्वपूर्ण संकल्पना है जो इस तथ्य का विश्लेषण करता है कि आर्थिक कार्यों का सकेन्द्रण किस स्थान पर किया जाना चाहिए। अवस्थिति विश्लेषण में यह कहा गया है कि सामाजिक आर्थिक कार्यों का संकेन्द्रण उसी स्थान पर होता रहा है जहाँ पर भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूलित होती है। सामाजिक आर्थिक कार्यों के संकेन्द्रण पर भौगोलिक कारकों के अलावे मानवीय कारकों का भी प्रभाव पड़ता है। अगर मानवीय कारकों के आधार पर किसी स्थान पर कृत्रिम रूप से सामाजिक-आर्थिक कार्यो का सकेन्द्रण किया जाता है तो वे दीर्घकालिक नहीं हो पाते हैं। ऐसे में इन कार्यों के स्थानीकरण हेतु कई भूगोलताओं ने सैद्धांतिकरण करने का प्रयास किया है। इन्हीं सम्पूर्ण गतिविधियों को स्थानीयकरण विश्लेषण कहते हैं।
इस प्रकार अवस्थिति विश्लेषण की अवधारणा का विकास और अनुप्रयोग भूगोल विषय में 1950 के दशक के बाद आयी मात्रात्मक क्रान्ति और स्थानिक विश्लेषण के विकास के दौरान हुआ था और इसी काल में “अवस्थिति” और “स्थान” में अंतर स्पष्ट करने पर बल काफी दिया गया था। इस अवधारणा के विकास में यी फू तुआन और पीटर हैगेट इत्यादि भूगोलवेताओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा है।
भूगोल में अब तक जितने भी स्थानीयकरण के संबंध में विचार प्रस्तुत किए गए हैं। उन्हें दो भागों में बाँट सकते
(1) द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व का विश्लेषण
(2) द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का विश्लेषण
(1) भूगोल में द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व स्थानीयकारण के संबंध में जो विचार प्रकट किये गये वे अनुभावाश्रित विधि पर आधारित थे। जैसे वॉन थ्यूनेन महोदय के कृषि अवस्थिति का सिद्धांत अपने अनुभव के आधार पर प्रस्तुत किया था। उन्होंने दक्षिण जर्मनी में किये गये अध्ययन के दौरान पाया कि नगरों का प्रभाव ग्रामीण जीवन पर पड़ता है और ग्रामीण लोग नगरों में माँग के अनुरूप ही कृषि स्थानीयकरण का कार्य करते हैं।
इसी तरह बेबर एवं हुबर महोदय ने भी औद्योगिक स्थानीयकरण का सिद्धांत अपने अनुभव के आधार पर प्रस्तुत किया। बेबर महोस्य ने अपने औद्योगिक स्थानीयकरण के सिद्धांत में परिवहन लागत को ध्यान में रखते हुए यह विचार प्रकट किया कि न्यूनतम परिवहन लागत वाला स्थान ही अधिकतम लाभ देने वाला स्थान होता है। इसलिए न्यूनतम परिवहन लागत वाला स्थान पर ही उद्योगों की स्थापना की जानी चाहिए। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर बताया कि वजन ह्रास वाले उद्योग (चीनी उद्योग, कागज उद्योग) की स्थापना कच्चे माल के क्षेत्र में, वृद्धि वाले उद्योग ( बेकरी उद्योग, विस्कुट, पॉव रोटी, फ्रूट ब्रेड) की स्थापना बाजार क्षेत्र में और समभार उद्योग (वस्त्र उद्योग) की स्थापना कहीं भी की जा सकती है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व भी मात्रात्मक क्रान्ति के आधार पर ग्रामीण-नगरीप बस्ती के वितरण या अवस्थिति विश्लेषण किया है। इसमें उन्होंने बताया हैं कि जिन स्थानों पर द्वितीयक एवं तृतीयक कार्यों का संकेन्द्रण अधिक का होता है। उस स्थान को केन्द्रीय स्थल कहा है। इसी केन्द्रीय स्थान के चारों ओर कई पदानुक्रम में षष्टकोणीय मॉडल के आधार पर ग्रामीण बस्तियों का वितरण होता है।
(2) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मात्रात्मक विधि और आचारपरक विधि पर अवस्थिति विश्लेषण बड़े पैमाने पर किया जाने लगा जिनके कारण स्थानीयकारण का विश्लेषण में गत्यात्मक परिवर्तन आया। मात्रात्मक क्रांति के आगमन से भूगोल मे नवीन सिद्धांत एवं मॉडल के निर्माण का युग प्रारंभ हुआ। जैसे- गुरुत्वाकर्षण मॉडल के आधार पर ग्रामीण-नगरीय उपांत क्षेत्र, नगर प्रभाव क्षेत्र तथा नगर के अन्तर्गत विकसित होने वाले केन्द्रीय बाजार जिला का सीमांकन किया गया।
जॉन बुश महोदय ने दूरी ह्रास मॉडल से यह बताया कि नगर केन्द्र में ज्यादा-से-ज्यादा लोग निवास करना चाहते हैं और ज्यों-2 नगर के केन्द्र से दूरी में वृद्धि होती है त्यो-2 जनसंख्या में कमी आते जाती है।
निकटतम पड़ोसी विश्लेषण विधि के द्वारा भी बस्ती भूगोल में कई संकल्पनाएँ विकसित किए गए। सांख्यिकी विधि उपयोग कर विकसित किये गये विचारों को तीन भागों में बाँटते है जिसे (i) गुच्छेदार (ii) यत्र तंत्र और (iii) सामान्य वितरण में वर्गीकृत करते हैं।
मात्रात्मक क्रांति के आगमन से अवस्थिति विश्लेषण में वैज्ञानिकता का आगमन तो हुआ लेकिन विश्लेषण में दृढ़ता का भी विकास हुआ। अत: इसके विरोध में आचारपरक विधितंत्र का विकास हुआ। आचारपरक विधितंत्र के आधार पर हेगर स्ट्रेन ने नव-उत्पाद विसरण का सिद्धांत, हॉटलीन, फेटर इत्यादि ने औद्योगिक स्थानीयकरण का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस तरह भूगोल में स्थानीयकरण के विश्लेषण हेतु कई तरह के विचार प्रस्तुत किये गए।
निष्कर्ष
उपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि वर्तमान समय में सामाजिक-आर्थिक कार्यों के अवस्थिति विश्लेषण मूल रूप से मात्रात्मक एवं आचारपरक विधितंत्र पर किया जा रहा है। मात्रात्मक विधितंत्र विश्लेषण से स्थानीयकरण में सैद्धांतिकरण का विकास होता है वहीं आचारपरक क्रांति उसे व्यवहारिकता प्रदान करती है।